Book Title: Parvatithi Kshay Vruddhi Prashnottar Vichar tatha Muhpatti Bandhan Nibandh
Author(s): Hemchandrasuri Acharya
Publisher: Chinubhai Trikamlal Saraf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/001774/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपागच्छ संविग्न शाखाग्रणी रैवताचलादितीर्थोद्धारक सुविहित आचार्य श्री विजयनीति हर्ष सूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः सूत्र अने ग्रंथना पुरावा सहित पर्वतिथि क्षयवृद्धि प्रश्नोत्तर विचार मुहपत्ति बंधन निबंध y पू. आचार्य श्री विजयमहेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज द्रव्य सहायक मारवाड तखतगढ़ निवासी शेठ देवीचन्दजी पन्नाजी ओसवाल प्रकाशक: शेठ चीनुभाई त्रिकमलाल शराफ ढालनीपोळ - अहमदाबाद वीर संवत-१४८८ इ.स.१९६२ विक्रम संवत २०१८ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M तपागच्छ संविग्न शाखाप्रणी रैवताचलादितीर्थोद्धारक. सुविहित आचार्य श्री विजयनीति हर्ष सूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः मूत्र अने ग्रंथना पुरावा सहित पर्वतिथि क्षयवृद्धि प्रश्नोत्तर विचार तथा मुहपत्ति बंधन निबंध : लेखक : पू. आचार्य श्री विजयमहेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज : द्रव्य सहायक : मारवाड तखतगढ निवासी शेठ देवीचन्दजी पन्नाजी ओसवाल : प्रकाशक : शेठ चीनुभाई त्रिकमलाल शराफ ढालनीपोळ - अहमदाबाद. वीर संवत-२४८८ विक्रम संवत २०१८ इ. स. १९६२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000Detonk शा. देवीचन्दजी पन्नालालजी तखतगढवाला SAGARGEOGRCEOGORGEOGRICROGESTEDGEDEREDGDIRENDERGRIDGE Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तखतगढ निवासी श्रीमान् शेठश्री पन्नालालजी धीराजीन टुंक जीवन-चरित्र जोधपुर स्टेटमां आवेलु तखतगढ शहेर घणा समयथी जैनोनी जाहाजलाली माटे प्रसिद्ध छे. आ शहेरमां ओसवाल ज्ञातिय अने जैनधर्म प्रत्ये पूर्ण श्रद्धालु शेठ धोराजीने पतिपरायण इंदुमती नामे भद्रक परिणामी धर्मपत्नी हता. तेमनी कुखे शेठ धीराजीने अचलाजी, पन्नालालजी, ओकचंदजो भने केसरिमलजी नामे चार सुपुत्रो थया. ए चार भाईओभां अजोड संप हतो, ते साथे भाग्यनो सितारो खोलतां लक्ष्मीदेवीनी प्रसन्नता थई.लक्ष्नीनी वृद्धि थवा साथे शेठ पन्नालालजी स्था तथा तेमना भाई ओन चित पुण्यकार्य तरफ दोरायु. का छे के अधः क्षिपन्ति कृपणा, वित्तं तत्र थियासवः । सन्तश्च गुरु चैत्यादौ, तदुच्चैः फल कांक्षिणः ॥ अर्थ:-"कंजुस पुरुषो जाणे नीचे-नीचे गतिमां जवानी इच्छावाला होय तेम धनने नीचे-भूमिमां दाटे छे, अने सत्पुरुषो तो उंचा फळनी उंची गतिनी इच्छावाला होवाथी गुरुमहाराज तथा चैत्यदेरासर विगेरे पुण्यकार्यमा धनने वापरे छे." ___ पूर्व जन्मना पुण्यर्योदयथी लक्ष्मी मले छे, परन्तु ए मळेली लक्ष्मीने सत्कार्यमा उपयोग करको ए भावि सद्गतिनी निशानी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे. तखतगढमां अग्रणी गणाता आ कुटुम्बना शेठ पनालालजी तथा तेमना त्रणे भाईओए पोताने मळेली लक्ष्मीनो सद्व्ययः कों, अनेक धार्मिक कार्यों करवा उपरांत सवाथी दोढ लाखना मोटा खरचे तखतगढमां आलेशान देरासर वन्धाव्यु. देरासरजीर्नु खात मुहूर्त संवत् १९७३ ना महा सुद-१३ ना रोज कयु हतुं. संवत् १९८०ना वैशाख सुदी-११ना रोज प्रतिष्ठान शुभ मुहूर्त आव्यु. आ महान प्रसंगे आसरे वीसथी पच्चीस हजार मनुष्यो एकठा थया हता. अठ्ठाइ महोत्सव, वरघोडा तथा साधर्मिक वात्सल्य विगेरे सारी रीते थया हता. संवत १९८०ना वैसाख सुद-१२ना रोज चार शुभ योगो मळतां पंन्यासजी श्री कल्याण विजयजी महाराज त्था मुनिराज श्री सौभाग्य विजयजी महाराजना हस्ते शुभ मुहूर्ते घणाज ठाठमाठथी प्रतिष्टा थई हती. प्रतिष्टाना शुभ प्रसंगे शेठ पन्नालालजी तथा तेमना बन्दुओए उल्लासपूर्वक आसरे त्रीस हजार रुपियानो सद्व्यय को हतो. तेमणे देरासरजीमा भावपूर्वक मूलनायक श्री. रुषभदेव भगवान अने बन्ने बाजुए श्री पार्श्वनाथ स्वामी त्था श्री शांतिनाथ प्रभुना भव्य प्रतिमाजी पधराव्या. मुख्य देरासरजीनी बन्ने बाजुए करावेली बे देरीओमां बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथ स्वामी तथा वर्तमान शासनपति श्री महावीर स्वामीनी मनोहर प्रतिमाजीनी प्रतिष्टा करावी. देरासरजीना कंपाउन्डमां एक भागमां घटादार सुन्दर रायण वृक्ष नीचे श्री दादाजीनी पादुका स्थापन करावी, जेन. दर्शन करतां खरेखर तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय उपरनी नीलुडी रायण अने तेनी नीचे बीराजती श्री दादाजीनी पादुकान Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ स्मरण थाय छे. देरासरजीमां पत्थरनी उत्तम कोरणीमां श्री सिद्धचक्रजी त्था श्रीपाल महाराज अने मयणासुन्दरीनो पट्ट एवो आबेहूब कराव्यो, के जेने देखतां अपूर्व आहलाद थाय अने उच्च भावना प्रगटे. वही गुरुभक्ति निमित्ते एक देरी करावीने तेमां मुनि महाराज श्री केशरविजयजी महाराजनी मूर्ति पधारावी. शेठ पन्नालालजीनो जन्म विक्रम संवत १९३१ मां थयो हतो. तखतगढमां साधु-साध्वी त्था जैन भाइओने उतरवा माटे त्था सामयिक प्रतिक्रणणादि धार्मिक क्रिया माटे जोइए तेवी सगवडवालो उपाश्रय के धर्मशाळा नहोती, तेथी ए सगवड दूर करवा माटे उदार दिलना शेठ पन्नालालजीए सारी धर्मशाळा मोटा खर्चे करावी आपी, जेनो लाभ अत्यारे साधुसाध्वी त्था जैन भाईओ लई रह्या छे. तेमणे सिद्धाचलजीनो बार गाउनो संघ काढ्यो हतो, जेमां सेकडो यात्रालुओए लाभ लीधो हतो. शेठ पन्नालालजी दर वरसे कोईने कोई तीर्थनी यात्रा करता. साधर्मिक वात्सल्य, साधु-साध्वीनी सेवाभक्ति, त्था साधर्मिक भाईओने सहाय करवी, परमात्मानी पूजा करवी, विगेरे शाशन हितनां त्या आत्म कल्याणनां सत्कार्यो ए एमनो मुख्य व्यवसाय हतो. शेठ पन्नालालजीनां धर्मपत्नी काई मगनीनी कुखे देवीचन्दजी नामना एक पुत्र भने सकुबेन एक पुत्री थया. सकुबेन घणाज धर्मिष्ट छे, तेओ हालमां विधवा धयेल छे. शेठ पन्नालालजीना धर्मपत्नी बाई मगनी सं. १९८६ ना भादवा सुदि बीजना रोज स्वर्गवासी थया, अने शेठ पन्नालालजी सं. २००२ ना महा वदी नोमना रोज स्वर्गवासी थया. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेठ पन्नालालजीना सुपुत्र शेठ देवीचन्दजो पण पोताना पिताजीने पगले चाली लक्ष्मीनो सद्व्यय करी रया छे. तेओ तखतगढना श्री संघमां आगेवान छे. सुगत्र दान, पूजा, सामायिक अने प्रतिक्रमणादि धार्मिक कार्यों निरन्तर करे छे. देवगुरु अने धर्म ए तत्वत्रयी प्रत्ये अविहड श्रद्धालु छे. बेंगलोरमां तेमनी दुकान सुप्रसिद्ध छे, अने बेंगलोरना श्री संघमां पण सारी प्रतिष्टा धरावे छे. शेठ देवीचंदजीने सरदारमल, रुपचन्द, चन्दनमळ, मोहनलाल ए चार सुपुत्रो छे, अने चंशलाल, झवेरचन्द, उत्तमचन्द ए त्रण सरदारमलना पुत्रो छे. बेटा पेला पन्नाजी धीराजी ओसवाल अने जडावबेन नामे पुत्री छे. भाई सरदारमल अने मोहनलाल उगती वयना होवा छतां पोताना वडिलो पेठे धार्मिक संस्कारवाला छे. आपणे आशा राखीए के शेठ देवीचंदजी तथा तेमना चारे सुपुत्रो पोताना वडवा. ओने पगले चालो जैन शाशननी प्रभावना विशेष करे. शेठ श्री देवीचन्दजीए आ वर्तमानकालमा अति उपयोगी 'पुस्तक छपाववामां रुपिया ३२७ नी मदद करी पोतानी ज्ञान भक्ति पदर्शित करी छे. ते बदल तेमने धन्यवाद घटे छे अने -बीजा सद्गृहस्थोने तेमनुं अनुकरण करी मळेली लक्ष्मीनो • सद्व्यय करवा सूचवीए छीए. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अने ग्रन्थना प्रमाणयुक्त पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार प्रश्न १-जैनागममा तिथिनी उत्पत्ति कोनाथी मानेल छे अने तेनु प्रमाण केटलं ? उत्तर-सूर्यप्रज्ञप्ति उपांगसूत्रटीका अने च्योतिषकरंडक पयन्नासूत्रनी अंदर तिथिनी उत्पत्ति चंद्रथी कहेल छ अने तेनुं प्रमाण ५९ घडी अने एक मुहूर्तना ३१ भाग जेटलुं ज उत्कृष्ट तिथिर्नु प्रमाण कहेल छे, तेथी एक तिथि बे सूर्योदयने स्पर्शी शकती नथी एटलेज जैनो तिथिनी वृद्धि मानता नथी. जुओ सूर्यप्रज्ञप्तिटीका, पत्र १४९. अहोरात्रस्य द्वाषष्टिभागमविभक्तस्य ये एकःषष्टिभागास्तावत्प्रमाणाः तिथिरिति, अथाहोरात्रस्त्रिंशन्मुहूर्तपमाणः सुप्रतीतः। तिथिस्तु किं मुहूर्तप्रमाणेति ? उच्यते, परिपूर्णा एकोनत्रिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागाः। अर्थ-एक अहोरात्रिना बासठ भाग करीए, तेमांधी एकसठ भाग जेटली तिथि होय छे अने अहोरात्र तो त्रीश मुहूर्त प्रमाण छे परंतु तिथिन प्रमाण केटलुं १ तिथि- प्रमाण संपूर्ण २९ मुहूर्त अने एक मुहूर्तना बासठीया बत्रीश भाग उपर जाणवा. जुओ ज्यतिषकरंडक सूत्रनो पाठ पत्र ६२. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविवार यावन्मुहूर्तप्रमाणा तिथिस्तावत्पमाणा तां प्रतिपादयन्ति अउणत्तीसं पुण्णा उ मुहुत्ता सोमतो तिही होह ॥ भागा य उ बत्तासंबावकिरण छेएणं गाथा१०५।। टीका-सोमतः चन्द्रमस उपजायते तिथिः, सा च तत उपजायमाना एकोनत्रिंश परिपूर्ण मुहूर्ता एकस्य च मुहर्तस्य द्वापष्टिकृतेन छेदेन प्रविनतम्ब सत्का द्वात्रिंशत् भागाः तथाहि-अहोरात्रस्य द्वापष्टिाकतस्य सत्का ये एकषष्टिभागास्तावत्प्रमाणा तिथि युक्तम् ॥ भार्थ-चंद्रनी गतिथी तिथि उत्पन्न थाय छे. ते उत्पन्न थती तिथि संपूर्ण २९ मुहूर्त अने एक मुहूर्तना बासठीय बत्रीश भाग जेटलीज होय छे, एटलुंज सूत्रमा तिथिर्नु प्रमाण कहेलं छे तेथी तिथिनी वृद्धि थई शके नहि. प्रश्न २-लौकिक वेदांग ज्योतिषमा तिथि- प्रमाण केटलुं ? उत्तर--- वेदांग ज्योतिषमां तिथिर्नु माप चंद्रनी गति उपर आधार नाखतुं होवाथी कोइक वार चोपन घडीन अने कोई वार छसठ घडीनु होय छे, तेथी ते तिथि बे सूर्योदय ने स्पर्शी शके छे तेथी लौकिक पंचांगमां तिथिनी वृद्धि आवे छे. प्रश्न ३-जैन सिद्धान्त प्रमाणे तिथिनो क्षय आवे छे ? उत्तर- सूर्यप्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरंडक सूत्रानुसार तिथिर्नु Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार प्रमाण अहोरात्र करतां थोडं होवाथी बे महिने एक तिथिनो क्षय आवे छे. जुओ सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र टीका, पत्र २१७. यत एकैकस्मित् दिवसे एकैको द्वाषष्टिभागोऽमरावस्य सम्बन्धी प्राप्यते ततो द्वाषष्टया दिवसैरेकोऽवम(क्षय) रात्री भवति, किमुक्तं भवति ?-दिवसे दिवसे अवमरात्रसत्केकद्वापष्टिभागद्धया द्वाष्टितमो भागः सञ्जायमानो द्वापष्टितमदिवसे मूलत एव त्रिषष्टितमा तिथिः प्रवर्ततेइति एवं च सति य एकपष्टितमोऽहोरात्रस्तस्मिन्नेकषष्टितमा द्वापटितमा च तिथिनिधनापगतेति द्वापष्टितमा तिथिलोंके पतितेति व्यवहियते ॥ भावार्थ--एकैक दिवसे एक एक बासठमो भाग क्षय रात्रिसंबंधी प्राप्त थाय छे, तेथी बासठ दिवसे एक क्षयरात्रि थाय छे. कहेवानी मतलब ए छे के-दिवसे दिवसे क्षयरात्रि संबंधी एक एक बासठीया भागनी वृद्धिवडे बासठमो भाग उत्पन्न थता बासठमा दिवसे मूळथी ज त्रेसठमी तिथि प्रवर्ते छे, ए प्रमाणे छते एकसठमो जे दिवस तेमा एकसठमी अने बासठमी तिथिओ पूरी थाय तेथी बासठमी तिथि लोकमां भय पामेली कहेवाय छे. यतः उक्तं तत्रैव पत्रे एक्कंमि अहोरत्तं दोवि तिही जत्थ निहणमेज्जासु सोत्थ तिही परिहायइ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - कह्युं छे के- एक ज पूरी थाय तो ते बीजी तिथि क्षय पर्वतिथिक्षय वृद्धिप्रश्नोत्तर विचार दिवसमां बन्ने तिथिओ पामे छे. प्रश्न ४ - जैन सिद्धान्तानुसार ज्योतिषना गणित प्रमाणे पर्वतिथिनो पण क्षय आवे छे अने लौकिक पंचांगमां तो पर्वतिथिनी क्षय - वृद्धि बन्ने आवे छे ते मनाय के नहि ? उत्तर - जैन सिद्धान्त प्रमाणे पर्वतिथिनो पण क्षय आवे छे अने लौकिक पंचांगमां तो क्षयवृद्धि बन्ने आवे छे, परंतु भगवतीसूत्रमां अष्टमी, चतुर्दशी, अमावास्या अने पूर्णिमाने प्रधान पर्वतिथिओ कहेली छे. जुओ भगवती सूत्रनो पाठ, श, २, उ. ५. पत्र १३४. बहूहिं सीलव्वय गुण वेरमणपच्चक्खाणपोस होववासेहिं, चाउदसमुद्दिपुण्णमासिणीसु पडिपुन्नं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणे, टीका- 'वहूहिं ' इत्यादि शीलवतानि - अणुव्रतानि गुणा - गुणत्रतानि विरमणानि - औचित्येन रागादि निवृत्तयः प्रत्याख्यानानि पौरुष्यादी नि पौषधं - पर्व दिनानुष्ठानं तत्रोपवासः - अवस्थानं पौषधोपवासः, पौषधं च यदा यथाविधं च ते कुर्वन्तो विहरन्ति तद्दर्शयन्नाह - 'चाउद्दसे' त्यादि इहोद्दिष्टा - अमावस्या 'पडिपुन्नं पोसह 'ति आहारादिभेदात् चतुर्विधमपि सर्वतः ॥ भावार्थ - तुंगिया नगरीने विषे ऋद्धिमान् घणा श्रावको वसे छे. तेओ अणुव्रत, गुणव्रत, उचिततावडे Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार रागादिकनो त्याग. पौरुषी आदि पच्चखाण अने पर्वना दिवसे करवा योग्य अनुष्ठानवडे अष्टमी, चतुर्दशी अमावास्या अने पूर्णिमाना दिवसे सर्वथी आहार-शीर सत्कार-ब्रह्मचर्य -अव्यापाररुप चारे प्रकारना पौषधनुं सम्यक् प्रकारे पालन करतां विचरे छे.' आ चारित्रतिथिओ कहेवाय छे. उपरोक्त तिथिओना दिवसे श्रावकोने पौषधव्रत करवानुं कर्तुं छे, अने साधुओ तो चारित्रवंत छे तेथी तप करवान का छे. ए तिथिओना दिवसे तप न करे तो व्यवहारभाष्यमां प्रायश्चित कहेलं छे. जुओ व्यवहारभाष्य टीकानो पाठ अष्टम्यां पाक्षिके चतुर्थ न करोति तदामासलघु (पुरिम) मासगुरु (एकाशनक) चातुर्मासके सांवत्सरिके षष्ठ अष्टमं न करोति तदा चातुर्मासलघु (आचाम्लं) चातुर्मास गुरु (उपवास) प्रायश्चित्तं ॥ . अर्थ- आठम अने चौदशे उपवास न करे तो पुरिमुख अने एकासणानुं प्रायश्चित्त आवे अने चउमासी तथा संवच्छरीनो छ? अठ्ठम न करे तो चार लघुमास अने चार गुरुमासद् प्राययश्चित्त आवे. तपागच्छनी बृहत्समाचारीमा पर्वतिथिनी क्षय के वृद्धि मानवानो स्पष्ट निषेध करेल छे. जुओ ते पाठ अट्ठमी चाउद्दसी उद्दिट्ठा पुण्णिमाइसु ॥ पबतिहिसु खयबुडि न हवइ इइ वयणा उ ॥ १॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्ने तर विचार अर्थ-आठम, चौदश, अमावास्या अने पूर्णिमा आ पर्वतिथिओने विष क्षय के वृद्धि थाय नहि. पर्वतिथिनो क्षय आवे तो पूर्वनी अपर्वतिथिनो क्षय करवो. जुओ ते पाठ जइ पव्वतिदिखओ तह कायव्यो पुवतिहिए । एवमागमवयणं कहियं तेन्टुकनाहि ॥१॥ बीया पंचमी अट्ठमी एकारसी चाउद्दसी य ॥ तासं खओ पुव्वतिहिओ अमावसाए वि तेरस ॥२॥ अर्थ- जो पंचांगमा पर्वतिथिनो क्षय होय तो तेना पूर्वनी अपर्वतिथिनो क्षय करवो एम त्रैलोक्यनाथ कथित आगम वचन छे. बीज, पांचम, आठम, चौदश ए तिथिओनो क्षय होय तो तेना पूर्वनी तिथिनो क्षय थाय अने अमावास्यानो क्षय होय तो तेरसनो क्षय करवो. बीजं वाचकवर्य उमारवाति महाराजनो प्रघोष क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा पण क्षय वृद्धि मानवानो निषेध करे छे, उपरोक्त पाठो उपरथी एम सिद्ध थाय छे के-पर्वतिथिनी क्षय के वृद्धि मानी शकाय नहि. प्रश्न ५-लौकिक पंचांगमां पर्व के पर्वानन्तर पर्व (चौदश पछी अमावास्या के पूर्णिमा आवे ते ) तिथिनी क्षय के घृद्धि आवे तो कई तिथिने पर्वतिथि कहेवी अने मानवी ? उत्तर-श्राद्धविधिग्रंथमां पर्व कृत्यना अधिकारमा आचार्यश्री रत्नशेखरसूरीश्वरजी महाराज वाचकवर्य Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार उमास्वाति महाराजना प्रघोषनो पाठ झये पूर्वा तिथि: कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा आपीने जणावे छे के-लौकिक पंचांगमा पर्वतिथिनो क्षय आवे तो तेनी पूर्वतिथिमां क्षय पामेल पर्वतिथि स्थापीने तेनी आराधना करवी. जेमके पंचांगमां अष्टमीनो आय आवे तो औंदायिक सातमे आठम स्थापीने अष्टमीनी आराधना करवी अर्थात् सातमनो क्षय करो ते आराध्य तिथिने आठम कहेवी अने मानवी. पंचांगमा पर्वतिथिनी वृद्धि आवे तो उत्तरा एटले बीजी तिथिने पर्वतिथि कहेवी अने आराधवी, जुओ कल्पसूत्र समाचारी टीकानो पाठ.. यथा चतुर्दशीटद्धौ प्रथमा चतुर्दशीमवगणय्य द्वितीयायां चतुर्दश्यां पाक्षिककृत्यं क्रियते ॥ कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, पत्रांक २०६. अर्थ-पंचांगमा बे चतुर्दशी आवे तो पहेली चौदशनी अवगणना करीनेज बीजी चतुर्दशीए पाक्षिक कृत्य कराय छे. आ पाठमा टीकाकारे प्रथम चतुर्दशीने माटे अवगणय्य संबन्धकभूतकृदंत मूकेल छे ते खास अर्थसूचक छे. 'अवगणय्य' शब्दनो अर्थ शब्दकोषमा 'अपमान-अवज्ञा-तिरस्कार-पराभव' अर्थ करेल छे एटले प्रथम चतुर्दशीने चौदश न कहेवी, पण अपर्वतिथि तरीके बीजी तेरस कहेवी अने मानवी एम अर्थापत्तिन्यायथी सिद्ध थाय छे. जो टीप्पणानी पहेली चोदशने लोकोत्तर दृष्टिए चौदश कहेवाती होय तो टीकाकार महाराजा उपाध्याय श्री विनयविजयजी गणिवर्य प्रथम चतुर्दशीने माटे परित्यज्य के Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तर विचार त्यक्त्वा शब्द छोडीने अवगणय्य शब्द न वापरत. ए प्रमाणे बीजी पर्वतिथिओनी वृद्धिने माटे पण समजवु. आ उपरथी एम सिद्ध थाय छे के-भीतीया जैन पंचागोमां आठमना क्षये सातमनो क्षय अने चौदशनी वृद्धिए बे तेरस लखवामां आवे छे ते सूत्र अने परंपरासिद्ध छे एम समजवू प्रश्न ६-श्राविधि ग्रंथमां आपेल वाचक उमास्वाति महाराजना प्रघोषना बन्ने चरण शुं तेमना रचेल छे ? उत्तर-आ प्रघोषमां कार्यापद बे वार आवे छे तेथी प्रघोषना बने चरणने एक ज कर्ताना मानीए तो पुनरूति दोष आवे छे. उमास्वाति महाराजे तत्तार्थ सूत्रनी रचना करी छे तेमां कोई सूत्रनी अंदर पुनरुक्ति दोष देखातो नथी अने आवा सामान्य बे चरणमा पुनरुक्ति दोष मूके ए वात असंभावित लागे छे, तेथी अमारूं एम मान, छे के-क्षये पूर्वा तिथिः कार्या आ प्रथम चरण तो उमास्वाति महाराजर्नु ज रचेल छे; बीजा चरणने भाटे संशय छे ते चरण सैद्धान्तिक टिप्पणना अभावे पालथी लौकिक पंचांगमा आवती वृद्धि तिथिनी व्यवस्था माटे पूर्वाचार्य रचेल लागे छे. आ प्रघोष पूर्वपरंपराथी आवेल होईने पूर्वाचार्योए मानेल छे अने अमे पण मानीए छीए. . प्रश्न ७-सैद्धान्तिक टिप्पणनो अभाव कयारथी थएल मानो हो ? Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व तिथिक्षय वृद्धिप्रश्नोत्तर उत्तर - उमास्वाति महाराजना समयम तो जैन टिप्पण होवु ज जोईए, केमके तेओ पूर्वधर हता, तेमने माटे प्रथान्तरमा वाचकाः पूर्वविदः विशेषण आपल छे तेमना शिष्य श्यामाचार्य महाराजे प्रज्ञापनासूत्रनी रचना करेल छे अने दश पूर्वधरनुं रचेल होय तेज सूत्ररुपे मनाय छे, तो दश पूर्वधरना समयमा सैद्धान्तिक टिप्पण न होय ए वात मानी शकाय एवी नथी. १४मी सदीमां थएल जिनप्रभसूरिजीना पहेलाथी ज सैद्धान्तिक टिप्पणनो अभाव थयो होय एम अमरु मानतुं छे. प्रश्न ८ - लौकिक पंचांगमां चतुर्दशी पर्वानन्तर अमावास्या के पूर्णिमानो क्षय आवे तो ते पर्वनी आराधना केवी रीते करवी ? पूर्णिमा के अमावास्याना क्षयमां तेरशनो क्षय उत्तर - लौकिक पंचांगमां अमावास्या के पूर्णिमाना पर्वतिथिनो क्षय आवे तो क्षये पूर्वा तिथिः कार्या ए प्रघोषने अनुखारे पंचांगनी त्रयोदशीए लोकोत्तर औदयिक चतुर्दशी स्थापने पाक्षिक कृत्य करवुं अने लौकिक चतुर्दशीप क्षय पामेल अमावास्या के पूर्णिमाने स्थापीने ते पर्वनी आराधना करवी. हीरप्रश्न ग्रंथ पण उपरोक्त कथननुं समर्थन करे छे. जुओ हीरप्रश्न पत्रांक ३२ पंचमी तिथिखुटिता भवति तदा तत्तपः कस्यां तिथौ क्रियते, पूर्णिमायां च त्रुटितायां कुत्र इति प्रश्न अत्रोत्तरं Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार पंचमी तिथिस्त्रुटिता भवति तदा तत्तपः पूर्वस्यां तिथौ क्रियते पूर्णिमायां च त्रुटितायां त्रयोदशीचतुर्दश्योः क्रियते, त्रयोदश्यां विस्मृतौ तु प्रतिपद्यपीति ॥ अर्थ-ज्यारे पंचमीनो क्षय होय त्यारे ते पंचमी तिथिनो तप लौकिक पंचांगनी कई तिथिए अने पूर्णिमानो क्षय होय त्यारे ते तप कई तिथिए करवो ? एनो उत्तर आपे छे-टिप्पणमां पंचमीनो क्षय होय त्यारे ते पंचमीनो तप पहैलानी तिथि चोथना दिवसे करवो, अने पूर्णिमानो तप तेरस चौदशे करवो, अहिं खास आचार्य श्रीए सप्तमी विभतिर्नु द्विवचन वापर्यु छे ए अर्थ सूचक छे, एटले टिप्पणानी त्रयोदशीए औदयिक चतुर्दशी स्थापीने पाक्षिक कृत्य करवू अने चतुर्दशीए पूर्णिमा स्थापीने ते तपनी आराधना करवी एथी पूर्णिमाना क्षयमां बे तिथि फेरववान सूचवे छे एटले पंचांगनी पूर्णिमा अने अमावास्याना क्षयमां तेरशनो क्ष्य करवो ए प्रमाणे तेरशे करवान भूली गया होय तो पडवानो दिवसे पण पूणिमानो तप करवो. आ — अपि' शब्दनो अर्थ छे. जेम पांचमना आये ते तप चोथे करी शकाय छे, केमके चोथ अपर्वतिथि छे परन्तु पूर्णिमाना क्षये ते तप चौदशे करी, शकातो नथी, केमके भगवतीसूत्रमा चौदश अने पूर्णिमाने प्रधान पर्वतिथि मानेल तेथी ए बन्ने पर्वनी आराधना जुदी ज करवी जोइए, भयमां भेगी थई शके नहि. जो पूर्णिमाना क्षये ते तप तेरश के प्रतिपदाए ज करवानो होय Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार वो उत्तरमा आचार्यश्रीने एटलुं ज कहेवानी जरुर हती केपूर्णिमानो क्षय होय तो ते तप तेरशे करवो भने तेरशे भूली गया होय तो एकमना दिवसे पण करयो, परंतु त्रयोदशीचतुर्दश्योः एम सप्तमी विभक्तिनुं द्विवचन वापरवानी जरुर नहोती, छतां द्विवचन मकयु छे ए खास अर्थसूचक छे, पूर्णिमानी आराधना चतुर्दशीनी पछी ज होय पण पहेलो होई शके नहि, तेथी ज तेरशनो क्षय करवो पडे छे ए हीरप्रश्नना पाटनो फलितार्थ छे. प्रश्न ९-लौकिक पंचांगमा अमावाश्या के पूर्णिमानी धृद्धि होय त्यारे ते पर्वानन्तर पर्वतिथिनी आराधना केवी रीते करवी ? पूर्णिमा के अमावास्यानी वृद्धिए तेरशनी वृद्धि. उत्तर-लौकिक पंचांगमा अमावास्या के पूर्णिमानी वृद्धि आवे त्यारे परंपरारुढ उमास्वाति महाराजना वृद्धौ कार्या तथोत्तरा' आ प्रघोषने अनुसार बीजी पूर्णिमा आराधवा माटे अने सान्तर दोष टाळवा माटे परंपरा आगमने अनुसार अमावास्या के पूर्णिमानी वृद्धिए अपर्वरुप तेरशनी वृद्धि करवामां आवे छे. शंका पूर्णिमानी वृद्धिए तेप्शनी वृद्धि करवाथी पाक्षिक कृत्य पंचांगनी प्रथम पूर्णिमाए करवु पडे अने तेम करवाथी औदयिक चतुर्दशीनो नियम रहेतो थी तेथी श्राद्धविधिकारे आपेल गाथाने अनुसारे आज्ञाभंगनो दोष लागे तेनु केम? mational Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धि प्रश्नोत्तर विचार समाधान-आराधनामां औदायिक तिथि लेवी तेमां कोई पण जातनो मतभेद नथी. श्राद्धविधिमां का छे के."प्रातःप्रत्याख्यानवेलायां या तिथि: स्यात् सा प्रमाणा" प्रत्याख्यानना आरंभ वखतथी एटले सूर्योदयथी तिथिनी -शरुआत जणावे छे. पर्वतिथिनो आरंभ जेम सूर्योदयथी थाय तेम ते तिथिनी समाप्ति पण बीजा सूर्योदयथी अन्य तिथिनी शरुआत थाय त्यारे ज थाय एटले श्राद्धविधिमां प्रतिपादित सूर्योदयनो उत्सर्ग मार्ग ते तिथिमा लागु पडे छे के जे तिथिनी अन्य सूर्योदय वखते समाप्ति होय, परंतु पर्व के पर्वानन्तर तिथिनी पंचांगमा क्षय के वृद्धि होय त्यारे सूर्यो दयनो उत्सर्ग मार्ग अपवादनो विषय बने छ. होरप्रश्नमां पूर्णिमानी वृद्धिए बीजी औदायिक तिथि लेवानुं कह्यु छे ते लौकिक उदयवाळी छे, पण लोकोत्तर उदयवाळी नथी तो पण आराधनानी अपेक्षाए लोकोत्तर उदयवाळी मानीने तेनी आराधना करीए छीए. चतुर्दशी अने पूर्णिमा ए बन्ने प्रधान पर्वतिथि छे तेथी तेनी आराधना अनन्तर ज थाय पण -सान्तर थई शके नहि. ते माटे जुओ सेनप्रश्न अने आचारमय समाचारीनो पाठ पत्र ३. ___ चतुष्पा कृतसम्पूर्णचतुर्विधपौषधः पूर्वोक्तानुष्ठानपरो मासचतुष्टयं यावत् पौषधप्रतिमां करोति द्वितीयोपवासशक्त्य भावे तु आचाम्लं निर्विकृतिकं वा करोति ॥ अर्थ-अष्टमी, चतुर्दशी, अमावास्या, पूर्णिमारुप चारपर्व ए चतुष्प-मां चारे प्रकारनो संपूर्ण पौषध Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार करनार छतो पहेली त्रण प्रतिमावहननी क्रियामां तत्पर एवो श्रावक चार महिना सुघी पौषध प्रतिमा करे, पाक्षिकनो उपवास कर्या पछी बीजे दिवसे अमावास्या के पूर्णिमाए उपवास करवानी शक्ति न होय तो आयंबिल के नीवी करे. बीजो पाठ, सेनप्रश्न, पत्रांक १०५प्रतिमाधरश्रावकः श्राविका वा चतुर्थी प्रतिमात आरभ्य चतुष्पर्वी पौषधं करोति तदा पाक्षिकपूर्णिमा षष्ठकरणाभावे पाक्षिकपौषधं विधायोपवासं करोति पूर्णिमायां चैकाशनं कृत्वा पौषधं करोति तत्शुध्यति न वा इति प्रश्नोत्रोत्तर प्रतिमाधरः श्रावकः श्राविका वा चतुर्थीप्रतिमात आरभ्य चतुष्पी पौषधं करोति तदा मुख्यवृत्या पाक्षिकपूर्णिमयोश्चतुर्विधाहारषष्ठ एव कृतो युज्यते, कदाचिच्च यदि सर्वथा शक्तिनं भवति तदा पूर्णिमायां आचाम्लं निर्विकृतिकं वा क्रियते एवंविधाक्षराणि समाचारीग्रन्थे सन्ति परमेकाशनं शास्त्र दृष्टं नास्तीति ॥ अर्थ-प्रतिमाधारी श्रावक के श्राविका चोथी प्रतिमाथी चारपर्वी पौषध करे तो परखी अने पूर्णिमानो छटु न थइ शके तो पख्खीनो पौषष करीने उपवास करे अने पूर्णिमाना दिवसे एकासणु करीने पौषध करे तो शुद्ध थाय के केम? उत्तर-प्रतिमाधारी श्रावक के श्राविका चोथी प्रतिमाथी चार पना पौषध करे तो मुख्यवृत्तिए पख्खी अने पूर्णिमानो घउविहार छ? ज करवो जोइए. जो कदि सर्वथा शक्ति न Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार होय तो पख्खीना उपवास उपर पूर्णिमा ( के अमावास्या ) ए आयंबिल अथवा नीवी करे एवा अक्षर समाचारी ग्रंथमा छे, पण एकासणु करवान शास्त्रमा दीठु नथी. अर्थ साथे उपर आपेल समाचारीग्रंथनो पाठ अने सेन प्रश्नना पाठ उपरथी एम सिद्ध थाय छे के-चतुर्दशी अने अमावास्या. के पूर्णिमानी आराधना चतुर्दशीनी अनम्तर ज थवी जोइए. ज्योतिषना नियम मुजब चतुर्दशी पछी अनंतर अमावास्य के पूर्णिमानी आराधनानुं अनन्तरपणु सिद्ध थाय छे. आचार्य श्री विजयसेनसूरीश्वरजी महाराज चतुर्दशी अने पूर्णिमानी आराधनानु अनंतरपणु कायम राखवा माटे प्रश्नना उत्तरमा समाचारी ग्रंथनो पाठ आपीने छ? तप करवानी शक्तिना अभावे पाक्षिकनो उपवास करी पौषध करवानु जणावे छे. ए बन्ने पर्वनी अनन्तर आराधना माटे शक्तिना अभावे शास्त्रकारोए तपनो फेरफार कर्यो, पण आराधनाना दिवसनो फेरफार कर्यों नथी ए खास ध्यानमा राखवा जेवु छे वेथी समाचारीना पाठने अनुसारे लौकिक पंचांगमां बे अमावास्या के बे पूर्णिमा आवे त्यारे चतुर्दशी अने अमावास्या के पूर्णिमानी अनंतर आराधना कायम राखवा माटे पूर्वाचार्योए पंचांगनी औद. यिक चतुर्दशीने बीजी तेरशरुप गणी पंचांगनी प्रथम पूर्णिमाना दिवसे लोकोत्तर औदयिक चतुर्दशी स्थापीने पाक्षिक Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तर विचार कृत्य करवानु अने तेना बीजे दिवसे अमावास्या के पूर्णिमानी आराधना करवान जणावे छे तेथी ज अमावास्या के पूर्णिमानी वृद्धिए बे तेरश करवामां आवे छे जो अमावास्या के पूर्णिमानी वृद्धिमां पंचांगनी औदयिक चतुर्दशीए पाक्षिकनी आराधना करीए अने बोजी अमा. वास्या के पूर्णिमाए ते अमावास्या के पूर्णिमा पर्वतिथिनो आराधना करवामां आवे तो चतुर्दशी अने अमावास्या के पूर्णिमा प्रधानपर्वतिथिनी आराधनानुं अनंतरपणु रहेतुं नको. पर्वतिधिनी वृद्धि मानवाची उत्सूत्रपणानो दोष तेमज बे पर्व कहीने एक पर्वनी आराधना करवाथी यथावादीपणु पण रहेतुं नथी; एटला माटेज अमावास्या के पूर्णिमानी वृद्धिमां पंचांगनी औदयिक चतुर्दशीने बीजी तेरशरुप गणी प्रथम अमावास्या के पूर्णिमाना दिवसे लोकोत्तर औयिक चतुर्दशी स्थापीने पाक्षिक कृत्य करवामां आवे छे. आराधना प्र० १०-पर्वतिथिनो क्षय माननार पर्वतिथिनी करे के अपर्वनी उ०-पर्वतिथिनो क्षय माननार आराधना नियमा अपर्वनोज करे छे, पण पर्वनी नहि, शास्त्रमा आराधना पर्वनी कहेल छे अपर्वनी नहीं जैनतरो पण आराधनामां पर्वतिथिनी क्षय के वृद्धि मानता नथी गोकल आठमको क्षय होय तो सातमना दिवसे गोकलआठम मानशे नोमना दिवसे नहीं. उमास्वातिनो प्रोष पण पर्वतिथिनी क्षय के Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षय वृद्धिप्रश्नोत्तरविचार वृद्धि मानवानो निषेध करे छे. जो आराधनामां क्षय के वृद्धि मानवानी होय तो प्रघोषनी जरुर ज रहेती नथी. क्षय होय त्यारे आराधना न करे अने घृद्धि होय त्यारे बे दिवस आराधे, क्षय मानीने आराधना करवी ए तो पोतानी माता ने वंध्या कहेवा जे छे. प्रश्न ११ - सांवत्सरिक पर्वनी आराधना कयारे करवी ? उत्तर-कल्पसूत्रनी समाचारीमा स्पष्ट क युं छे केतेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विइक्कंते वासावासं पज्जोसवेइ तहाणं अम्हे वि वासाणं सवीसइराए मासे विइकंते वासावास पज्जोसवेमो, अंतरावियसे कप्पइ, नो से कप्पइ तं रयणि उवाइणा वित्तए । ___अर्थ-ते काले ते समये वर्षा ऋतुनो एक मास ने वीस रात्रि व्यतीत थये छते श्रमण भगवान् महावीर प्रभुए वर्षावास कों एटले सांवत्सरिक पर्व क, तेथी अमे पण वर्षाऋतुनो एक मास ने वीश रात्रि विती गये छते वर्षावास करीए छीए, अने कारण होय तो ते पहेलो प.. वर्षावास एटले पर्युषणा पर्व थइ शके छे पण ते पंचमीनी रात्रिनु अतिक्रमण करवं कल्पे नहीं. प्रथम सद्धान्तिक टिप्पण हतु त्यारे श्रावण वद १ थी भादरवा सुद पंचमीए पचाश दिवस पूरा थता हता हाल सैद्धान्तिक टिप्पण विच्छेद गयु छे अने लौकिक पंचांगमां Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार अवारनवार तिथिनी क्षय के वृद्धि आव्या करे छे तेथी आपणे कालिकसूरिजीनी परंपराथी भादरवा सुदि ४ ना दिवसे ४९ दिवस थया होय तो पण पचाश दिवस पूरा थयेला मानीने ते दिवसे सांवत्सारिक पर्व करीए छीए. . प्र० १२ लौकिक पंचांगमां भादरवा सुदी पंचमीनो क्षय होय तो सांवत्सरिक पर्वनी आराधना क्यारे करवी. उ०-लौकिक पंचांगमां भाद्रपद शुक्ल पंचमीनो क्षय होय तो तपागच्छनी सामाचारी प्रमाणे चोथनो क्षय करवो जोइए पण लोगविरुद्धचाओ ए वाक्यने ध्यानमां राखीने त्रीज चोथ भेगा गणीने संवत्सरीनी आराधना करवी. शंका-कालिकसूरिथी . भाद्रपदशुक्ल चोथ वार्षिक पर्व गणाय छे तो तेनो क्षय केम थाय ? समाधान-तिथि बे प्रकारे होय छे एक कालतिथी अने बीजी कार्यतिथि, जे तिथि त्रणे कालमां नियत होय ते काल तिथि कहेवाय छे अने जे तिथि तीर्थं करोना जन्मदीक्षा केवलज्ञान के निर्वाणने आश्रिने प्रर्वतेल होय ते कार्य तिथि कहेवाय छे, बीज-पांचम-आठम विगेरे बार पर्व तिथिओ काल तिथिओ कहेवाय छे अने आ तिथिओ पंदर कमभूमिमां नियत छे तेथी गीतार्थ आचार्यो बार पर्वतिथिनी क्षय के वृद्धिमां तेना पूर्वनी अपर्व तिथिनी क्षय के वृद्धि करे छे, पण कल्याणक के बीजा पर्वाना क्षयमां तेनी पूर्वनी तिथिनो क्षय मानता नथी. संवत्सरिनी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तर विचार चोथ ए कालिकसूरिथो कार्यतिथि गणाय छे केमके ते दिवसे पवमीचें कार्य कयुं छे पण कालतिथि कहेवाय नहि, निशीथचूर्णिनी रचना कालिकसूरिथी १०० वर्ष बाद महत्तर जिनदासगणिए करेल छे तेमा स्पष्ट रीते भादरवा सुदी ४ ने अपच तरीके संबोधेल छे तेथी तेनो क्षय थई शके अने निशीथचूर्णिमां पण चोथने कारणीया एवं विशेषण आपेल छे. शंका-केटलाको एम कहे छे के औदायिक चोथ मुकोने तेनी पूर्वनी तिथिमां संवत्सरीपर्वनी आराधना केम यार ? समाधान-शास्त्रानुसार सांवत्सरिक पर्वनी तिथि तो भादरवा सुद पांचम छे चोथ तो कारणिक छे, “अंतरावि कप्पई " कल्पसूत्रना नवमा व्याख्याननी समाचरीना उपरना पाठने अनुसारे संवत्सरि फरे त्यारे उदयतिथिनो नियम रहेतोज नथी फक्त कालिकसूरिमहाराजे पांचमथी एक दिवस पहेला सांवत्सरिक पर्वनी आराधना करी, ए रीते करीए तोज कालिकसूरिमहाराजनी आचरणा प्रमाणे सांवत्सरिक पर्वनी आराधना करी गणाय जेओ पांचमना क्षय के वृद्धिमां औदयिकतिथिने पकडीने संवत्सरिनी आराधना करे छे. तेओना मते सूत्र आज्ञा अने कालिकसूरिनी परंपरानो स्पष्ट भंग थाय छे. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार प्रश्न-१३ चंडाशु चंडु पंचांगमां भादरवा सुदि पांचम बे होय तो सांवत्सरिक पर्व कई तिथिए करवू ? उत्तर-राजशेखरसूरीश्वरजी महाराजे - वि. सं. १४०५मां चतुर्विशति प्रबंध रचेलो छे, तेमां शालिवाहन राजाना प्रबंधमा स्पष्ट जणाव्यु छ के कालिकाचार्यपाश्वे पर्युषणामेकेनाहा अग् िआनायतत् स सातवाहनस्ततोऽन्यः ॥ चतुर्विशतिप्रबंध पत्र ७०. अर्थ-शालिवाहन राजाए कालिकाचार्यनी पासे एक दिवस पहेला पर्युषण पर्व अणाव्यु एटले कराब्यु. आ पाठ उपरथी पंचमीथी एक दिवस पहेला पर्युषण पर्व करवान सिद्ध थाय छ, पंचमीनी वृद्धिमा जो पंचांगनी औदायिक चोथना दिवसे सांवत्सरिक पर्व करवामां आवे तो विना कारणे आराध्य पंचमीथी बे दिवस पहेला संबच्छरी पर्व थाय. तेम करवाथी सूत्राज्ञा अने कालिकसूरिनी परंपरानो स्पष्ट भंग थाय छ, प्रश्न १४-श्राद्धविधिकारना कथन प्रमाणे सूर्योदय वखते जे तिथि होय तेज प्रमाणभूत गणाय, तो पछी पर्वतिथिना क्षयमां औदायिक तिथि केवी रीते लेवी ? उत्तर-पंचांगमा पर्वतिथिनो क्षय होय पण आराधनामां पर्वतिथिनो क्षय मनातो नथी तेमज श्राद्धविधिमां अनौदयिक तिथि मानवानो पण निषेध करेल छे. जुओ श्राद्धविधि, पत्रांक १५२ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व तिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार उदयंमि जा तिही सा पमाणमिअरइ कीरमाणीए ॥ आणाभंगणवत्थामिच्छत्तविराहणं पावे ॥ १ ॥ पाराशर - स्मृत्यादावपि आदित्योदय वेलायां, या स्तोकापि तिथिर्भवेत् सा संपूर्णेति मन्तव्या प्रभूता नोदयं विना ॥ १ ॥ २० अर्थ - सूर्योदय वखते जे तिथि होय तेज प्रमाण करवी जोईए. उदय विनानी बोजी तिथि प्रमाण करे तो आज्ञाभंग, अनवस्था मिध्यात्व अने विराधनानुं पाप लागे. आ कारणथीज पूर्वाचार्यो उमास्वाति महाराजना प्रघोषने अनुसारे क्षय पामेल पर्वतिथिने पूर्वनी तिथिमां औदयिक पर्वतिथि स्थापीने आराधना करे छे तेथी आज्ञा भंग के मिध्यात्वनो दोष लागतो नथी एटला माटेज पर्वतिथिना क्षये अपर्वतिथिनो क्षय मनाय छे तेमज पूर्णिमानी वृद्धिमा चौदशपुनमनी जोडे आराधना माटे पंचांगनी प्रथम पूर्णिमाए औदयिक चतुर्दशी स्थापीने तेरशनी वृद्धि मानवामां आवे छे. करवा क्षय माननार आराधना प्रश्न १५ – पर्वतिथिनो पर्वनी करे के अपर्वनी ? उत्तर - नवा पंथवाळा पोताना पंचांगमां पर्वतिथिना क्षये अपर्व अने पर्व बन्ने तिथि नाथे लखे छे अने ते प्रमाणे माने छे. श्राद्धाविधिमां कह्युं छे के चाउम्मासि वरिसे परिवअपंचमीसुनायव्वा || ताओ तिहिओ जासि, उदेइ सुरो न अण्णाओ || १ || पूआ पच्च Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयद्धिप्रश्नोत्तरविचार खाणं पडिक्कमणं तहय निअमगहणं च ॥ जीए उदेइ मूरो, तीइ तिहीए उ कायव्वं ॥२॥ अर्थ-चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, पाक्षिक पंचमी, अष्टमीने माटे ते तिथिओ लेवी के जेमां सूर्य उदय पामे; बीजी अनौदयिक तिथिओ न लेवी. जे तिथिमा सूर्य उदय पामे ते लिथिने विषे पूजा, पच्चकखाण, प्रतिक्रमण अने नियम ग्रहण करवा. आ उपरथी एम सिद्ध थाय छे के पर्वतिथिनी आराधनामां अनौदयिक तिथि लेवाती नथी तेथी नवा पंथवाळा पर्वतिथिनो क्षय मानीने अपर्वतिथिनीज आराधना करे छे. पर्वतिथिनो क्षय कायम राखीने ते पर्वनी आराधना करवी. आ मान्यता वेदिक धर्मवालानी छे जैनोनी नथी. - प्रश्न १६-पूर्णिमाना क्षये चौदश-पूनम भेगी मान नारा पाक्षिक प्रतिक्रमण क्यारे करे ? - उत्तर-नवा पंथवाळा पूर्णिमाना क्षये चौदश-पुनम भेगी माने छे तेथी पाक्षिक प्रतिक्रमण तेमणे सवार ज करवु जोईए केमके टिप्पणामां चौदशनो भाग सबारमा ज होय छे. बपोरना तो पूर्णिमा शरु थई जाय छ, तेथी सांजना पाक्षिक प्रतिक्रमण थई शके नहि केमके पाक्षिक प्रतिक्रमण चौदशर्नु छे; पूनमर्नु नथी छतां सांजना करे तो ते पाक्षिय प्रतिक्रमण पूनमर्नु ज कहेवाय पण बौदशर्नु नहि, तेमनी आ मान्यता पण शास्त्रविरुद्ध छे. प्रश्न १७-नवापंथवाळा सैद्धान्तिक टिप्पणना अभावे Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार लौकिक पंचांग प्रमाणे पर्वतिथिनी वृद्धि माने छे ते सत्य छे ? उत्तर-लौकिक पंचांग प्रमाणे पर्वतिथिनी वृद्धि मानवाथी आगमनी साथे स्पष्ट विरोध आवे छे. सूर्यप्रज्ञप्ति, चंद्रप्रज्ञप्ति अने ज्योतिषकरंडक सूचना पाठ प्रमाणे तिथिनीज वृद्धि थती नथी तो पछी पर्वतिथिनी वृद्धि केम मनाय ? वळी सत्य तो वे ज कहेवाय केजे जिनेश्वरे कां होय. जुओ भगवतीसूत्रनो पाठ. पत्रांक ५४, श. १, उ. ३ ___ से नूर्ण भंते ! तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं । हंता गौतम ! तमेव सच्चं णीसंकंज जिणेहिं पवेदितं ॥ अर्थ-जिनेश्वरे जे कां छे तेज सत्य अने निःशंक छे ? हा, हे गौतम! जिनेश्वरे जे प्ररुप्युं छे तेज सत्य अने निःशंक छे. अभयदेवसूरि महाराज भगवतीसूत्रनी टीकामां पण एमज कहे छ के-जेमनो मत आगमा नुसारी होय तेज सत्य मानवु; बीजानी उपेक्षा करवी एटले छोडी देवू. जुओ टीकानो पाठ यदेव मतमागमानुपाति तदेव सत्यमिति मन्तव्यमितरत्पुनरुपेक्षणीयम् ॥ भ. सू. श. १, उ. ३, पत्रांक ६२ टीका. आ उपरथी पर्वतिथिनी लौकिक पंचांग प्रमाणे वृद्धि मानवी ते असत्य छे. प्रश्न १८–तिथिचर्चाना सामान्य विषयने विद्वान् साधुओ आटलं मोटुं रुप केम आपे छे ? Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार __ उत्तर-आ चर्चा पर्वतिथिना क्षय वृद्धि विषयक छे. पर्वतिथिनी साची आराधना आत्मकल्याणनो अनुपम मार्ग होवाथी विद्वान् साधुओने ते महत्वनो विषय लागे छे. ते माटे जुओ श्रा विधिमां आपेल आगमनो पाठ, पत्रांक १५३___ भयवं बीअपमुहासु पंचसु तिहीसु विहिअं धम्माणुट्ठाणं किं फलं होइ ? प्रश्न. उत्तर-गोयमा! बहुफलं होइ । जम्हा एआसु तिहीसु पाएणं जीवो परभवाउअं समज्जिणइ, तम्हा तको विहाणाइ धम्माणुठाणं कायव्वं, जम्हा सुहाउअंसमञ्जिणइत्ति।" आयुषि बध्धे तु दृढधर्माराधनेऽपि बद्धायुनं टलति ॥ अथ-हे भगवान् ! बीज प्रमुख पांच तिथिने विषे करेल धर्मानुष्ठाननु शु फल थाय ? उत्तर-हे गौतम ! घणु फल थाय, कारण के आ तिथिओने विषे प्रायः घणु करीने जीव परभवन आयुष्य बांधे छे, तेथी तपोविघानादि धर्मानुष्टान अवश्य कर जेथी शुभ आयुष्य. बंधाय. अशुभ आयुष्य बंधाया पछी मजबूत रोते धर्मनी आराधना करे तो पण बांधेल आयुष्य त्रुटतुं नथी. उपर आपेल भगवतीसूत्रना पाठ उपरथी वांचकवर्गने समजाशे के पर्वतिथिनी चर्चा केटलो महत्वनो विषय छे. - प्रश्न १९-जेने माटे आगममां विधि के प्रतिषेध न होय अने जे परंपरा कई सदीओथी चालती होय ते परंपराने गीतार्थों पोतानी मतिकल्पनाथी दूषित करे ? Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तर विचार उत्तर-जे परंपरा कई सदीओथी चालती होय अने नेने माटे आगममां विधि के निषेध न जणातो होय तेवी परंपराने पण गीताथ, पोतानी मतिकल्पनाथी दूषित ठरावीने तोडे नहि. तेने माटे जुओ श्री शान्तिसूरीश्वरजीकृत धर्मरत्न प्रकरणनो पाठ, पत्रांक २६४. ___जं च न सुत्त विहियं न य पडिसिद्धं जणमि चिररूढं।। समइ विगप्पियदोसा, तं पि न दूसंति गोयत्था ।। ९९ ।। टोका-इह च शब्दः पुनरर्थ इति यत् पुनरर्थजातमनुष्ठानं वा नैव मूत्र-सिद्धान्ते विहितं करणीयत्वेनोक्तं चैत्यवंदनावश्यकादिवत् न च प्रतिषिधं प्राणातिपातादिवत्, अथ च जने-लोके चिररूढमज्ञातादिभावं स्वमतिविकल्पितदोषातस्वाभिप्रायसंकल्पितषणात् तदपि, आस्तामागमोक्तं न दुषयन्ति-न युक्तं एतदिति परस्य नोपदिशन्ति संसारद्धिभीरवो गीतार्था-विदितागमतत्त्वाः, यतस्ते एवं श्रीभगवत्युक्तं पर्यालोचयन्ति-तथाहि-"जेणं मदुया! अलुवा हेउवा पसिणं वा वागरणं वा अन्नायं वा अदिळं वा अस्सुयं वा अपरिम्नायं वा, बहुजणमज्झे आघवेइ पन्नवेइ परुवेइ दंसेइ निदंसेइ उपदंसेइ, से गं अरहंताणं, आसायणाए वइ, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स आसायणाए वट्टइ, केवलीणं आसायगाए वइ केवलीपन्नत्तस्स धम्मस्स आसायणाए वहइ ॥ भगवती श० १८, उ० ५, सूत्र ६३५ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार अर्थ-जे बाबत के अनुष्ठान सिद्धान्तमां विहित एटले चैत्यवंदन अने आवश्यक विगेरेनी माफक कर्तव्य रुपे पण नहि कहेल होय, अने प्राणातिपातोदिकनी माफक प्रतिषेघेल पण नहि होय; ते साथे वळी जे लोकमां चिररुढ होय, एटले ते कयारथी शरु थई तेनी खबर पडती न होय, तेने पण संसारवृद्धिभीरु गीतार्थों दूषित करता नथी एटले के ‘आ परंपरा के प्रवृत्ति अयुक्त छे' एम. बीजाने उपदेश करता नथी, जे माटे तेओ श्री भगवती सूत्रमा कहेली नीचेनी वातने विचारे छे. हकीकत आ प्रमाणे छे-हे मंदुक ! जे माणस अजाण्या, अणदीठा, अणसांभल्या अने अणपरख्या अर्थ, हेतु, प्रश्न के उत्तर भरसभामां कहे, जणावे, प्ररुपे, बतावे, साबित करे के रजू करे ते माणस अर्हत् भगवानोनी तथा केवळीओनी आशातना करे छ, अने तेमना धर्मनी पण आशातना करे छे, अने तेमना चित्तमां आ वात पण स्फुरे छे के संविगा गीयतमा विहिरसिया पूचनरिणो आसि ॥ तददूसियमायरिय-अणइसई को निवारेइ ॥ १०॥ अर्थ-संविग्न एटले जल्दी मोक्ष इच्छनारा अने अतिशय गीतार्थ केमके तेमना वखते बहु आगमो हता, तथा संविघ्न होवाथीज विधिरसिक एटले विधिमां जेमने रस पडतो हतो एवा अर्थात् विधि बहुमानी पूर्वसूरियो एटले चिरंतन आचार्यों हता, तेमणे अणदूषेलुं एटले Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तर विचार २६ नहि निषेधेलु आचरित एटले बधा धार्मिक लोकमां चालतो व्यवहार, तेने अनतिशयी एटले विशिष्टश्रुत के अवधि बगेरे अतिशय रहित कयों माणस पूर्व पूर्वतर उत्तम आचार्यांनी आशातनाथी डरनारो होई निवारी शके ? कोई ज नहि. वळी गीतार्थो तो आ पण विचरे छे के अइसाहसमेय जं उत्सुत्तपरूवणा कडुविवागा । जाणतेहिं वि दिज्जर निंदेसो सुत्तबज्झत्थे ॥ १०१ ॥ अर्थ -- उत्सूत्रप्ररूपणा कडवां फल आपनारी छे, एवं जाणता छतां पण जेओ सूत्रबाह्य अर्थमां निश्चय आपी दे छे, ते अति साहस छे, एटले शुं कहुं ते कहे छे दुभासिएण इक्केण मरीई दुक्खसागरं पत्तो || भमिओ कोडा कोडि - सागर सिरिनामधिज्जाणं ॥ १ ॥ उस्सुत्तमाचरंतो'धइ कम्मं सुचिक्कणं जीवो । संसारं च पवड्ढइ मायामांसं च कुव्वइ य ॥ २ ॥ अर्थ - मरीचि एक दुर्भाषित वचनथी दुःखना दरि यामां पडी कोडोकोड सागरोपम भम्यो ॥ १ ॥ उत्सूत्र mardi जीव चीकणां कर्म बांधे छे अने मायामृषावाद सेवे छे. ॥ २ ॥ आ उपर आपेल धर्मरत्न प्रकरणना पाठथी वांचको समजी शकया हशे के जे बाबत सूत्रमां विहित न होय तेम निषेध पण करेल न होय अने धार्मिक लोकमां लांबा वखतथी चालतो व्यवहार होय तेने Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोसरविचार पण गीतार्थों 'आ अयुक्त छे' एम कहे नहि तो पछी सूत्र, ग्रंथ अने पूर्वाचार्योनी परंपरासिद्ध तेमज कई सदीओथी चाली आवती पर्वतिथिनी क्षय के वृद्धिमा कराती अपर्वतिथिनी क्षय वृद्धिनी आचरणाने केम तोडी शकाय ? जे भवभीरु गीतार्थों होय ते तो आनुं खंडन करेज नहि. प्रश्न २०-कोई माणस आखं सूत्र माने पण ते सूत्रना एक पद के अक्षरने न माने तो तेने सम्यगदृष्टि कहेवो के मिथ्यादृष्टि ? उत्तर-कोई आ सूत्र माने पण ते सूत्रना एक पद के अक्षरने न माने तो ते जमालिनी माफक मिथ्या दृष्टि कहेवाय. ते माटे जुओ विशेषावश्यक भाष्यनो पाठ पयमक्खरंपि इक्कं च जो न रोएइ सुत्तनिद्दिढें ॥ सेसं रोअंतो वि हु मिच्छदिट्ठी जमालिव्व ॥१॥ अर्थ-जे माणसने सूत्रमा कहेल एक पद के अक्षर न रुचे अने बाकीन आखु सूत्र रुचे एटले माने तो पण जमालिनी माफक तेने मिथ्यादृष्टि जाणवो, सम्यक्त्व होय नहि प्रश्न--२१ नवा पंथवाळा पोताना पंचांगोमां पर्वतिथिना क्षयमां उदय न मळे तो समाप्ति जरुर लेवानुं लखे छे ते योग्य छे ? Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार ___उत्तर-आराधनामां उदय न मळे तो समाप्ति लेवी आ अन्य गच्छनो मत छे. श्राद्धविधिकार तो आराधनामां औदयिक तिथि ज मानवान कहे छे; पण समाप्तिनी निर्देश करता नयी उदयंमि जा तिही सा पमाणं पत्यादि एटला माटे ज पर्वतिथिना क्षये तेना पूर्वनी तिथिमां आराध्य औदयिक तिथि स्थापीने अपर्वतिथिनो क्षय मानवामां आवे छे. प्रश्न २२--नवा पंथवाळा पर्वतिथिनी वृद्धि कहे छे छे ते शु उत्सूत्र छ ? उत्तर--जैनागम प्रमाणे तिथिनी वृद्धि ज थती नथी एम नवा पंथवाळा जाणे छे, छतां पर्वतिथिनी वृद्धि थाय एम कहे तो ते चोकखी उत्सूत्रप्ररुपणाज छे. प्रश्न २३-- उत्सूत्र प्ररुपणा करनारना दर्शनथी सम्यगू दृष्टि जीवने लाभ के हानि ? __उत्तर--उत्सूत्रप्ररुपणा करनारनुं दर्शन पण संसारवर्धक कह्यु छे, ते माटे जुओ कल्पभाष्यनो पाठ-- ___ उस्सुत्तभासगा जे ते दुक्करकारगा वि सच्छंदा ॥ ताण न दसणं पि हु कप्पइ कप्पे जओ मणियं ॥१॥ जे जिणवयणुतिण्णणं वयणं भासंति अहव मन्नंति ॥ सम्मदिट्ठीणं तइंसण पि संसारखुढिकरं ॥२॥ अर्थ-जे उत्सूत्र बोले छ ते दुष्कर क्रिया करता होय तो पण तेमने सूत्रकार स्वच्छंदी कहे छे. तेमनुं दर्शन कर, Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तर विचार पण कल्पे नहि जे कारणथी कल्पभाष्यमां कधुं छे, (१) जेओ जिनेश्वरना वचनथी विरुद्ध वचन बोले छे अथवा ते प्रमाणे माने छे तेमनुं दर्शन पण सम्यग्दृष्टि जीवने संसारवर्धक छे. आ उपरथी वाचको समजी शकशे के उत्सूत्रप्ररूपणा करनार पोते संसारसमुद्रमां डूबे छे अने आश्रितोने पण डूबाडे छे, प्रश्न २४ – एक जीव ज्ञान अने क्रियामां शिथिल छे. परंतु प्ररूपणा शुद्ध करे छे अने बीजो ज्ञान अने क्रियामां अप्रमत्त छे, त्यागी छे पण जाणीजोईने उत्सूत्रप्ररूपणा करे छे तो आ बेमां श्रेष्ट कोण गणाय ? उत्तर - हितोपदेशमाला ग्रंथना अभिप्राय प्रभाणे तो शुद्ध प्ररुपक ज श्रेष्ट गणाथ, केमके शिथिलाचारथी पोते डूबे छे पण बीजाने डूबाडतो नथी त्यारे त्यागी उत्सूत्र प्ररुपक तो स्वपरने डूबाडे छे. वे माटे जुओ पूर्वाचार्यप्रणीत हितोपदेशमालानो पाठ नाणा किरियासु सिटिला अप्पाणं चिय भवंमि पाडंति ।। विता परूवणा पुण अणतसत्ते भमाडंति || ४७४ ॥ अर्थ - ज्ञान अने क्रियामां शिथिल एवो पोताना आत्माने ज संसारसमुद्रमां संसारसमुद्रमां पाडे छे, परंतु बीजाओने डूबाडतो नथी त्यारे उत्सूत्रपरुपणा करनारा त्यागीओ तो पोते भवसमुद्रमां परिभ्रमण करे छे अने उपदेशथी बीजा अनंत जीवोने भवभ्रमण करावे छे. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार प्रश्न २५-लौकिक पंचांगमां बे पूर्णिमा होय त्यारे चतुर्दशीए ज पाक्षिक प्रतिक्रमण करवू, आ मान्यता खरतरगच्छनी छे के तपागच्छनी ? उत्तर-~लौकिक टिप्पणमां बे पूर्णिमा होय त्यारे चतुर्दशीए ज पाक्षिक प्रतिक्रमण करवं, आ मान्यता खरतर गच्छनी छे; तपागच्छनी नथी. खरतरगच्छ्वाळा टिप्पणामां पर्वतिथिनी वृद्धि होय त्यारे पहेली तिथि ग्रहण करे छे, बीजी तिथि मानता नथी चतुर्दशीएज पाक्षिक प्रतिक्रमण करे छे एटले तेमनी चतुर्दशी अने पूर्णिमानी अनंतर आराधना कायम रहे छे. तपागच्छवाळा श्री उमास्वातिना प्रघोषानुसार वृद्धिमां बीजी तिथि ग्रहण करे छे तेथी चतुर्दशी अने पूर्णिमानी अनंतर आराधना कायम राखवा माटेज पंचांगनी प्रथम पूर्णिमाए औदयिक चतुर्दशी स्थापीने पाक्षिक कृत्य करे छे तपागच्छनी आ मान्यतानु उपाध्याय श्री धर्मसागरजीए पोताना उत्सूत्रो. घट्टन कुलकमां सारी रीते समर्थन कर्यु छे. खरतरगच्छीय आचार्यश्री जिनचंद्रसूरिजीना प्रशिष्य वाचनाचार्यश्री गुणविनयगणिए पण वि. सं. १६६५मां बनावेल उत्सूत्रखंडन ग्रंथमां पण आ बाबतनो निर्देश कर्यो छे, जुओ ते पाठ-अन्यच्च वृद्धौ (पूर्वतिथौ) पाक्षिकं क्रियते इदं किं? आगळ च्छो लीटोमां तेओश्री स्पष्ट लखे छे के Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तर विचार चतुर्दश्यां पौषधोपवासादिधर्मकृत्यादि पाक्षिकप्रतिक्रमणं च निषेध्य प्रथमअमावस्यां प्रथमपूर्णिमायां च पाक्षिकप्रतिक्रमणादिकरणं. उत्सूत्र खंडनग्रंथ पार्नु २० मुं. प्रश्न २६--लौकिक टिप्पणामां अमावास्या के पूर्णि. मानो क्षय होय तो पाक्षिक प्रतिक्रमण चतुर्दशीएज करवु, आ मान्यता कया गच्छनी छे ? उत्तर-लौकिक टिप्पणामां अमावास्या के पूर्णिमानो भय होय तो चतुर्दशीएज पाक्षिक कृत्य करवू आ मान्यता खरतरगच्छनी छे; तपागच्छनी नथी. तपागच्छवाळा तो पोतानी समाचारी मुजब अमावास्था के पूर्णिमानो क्षय होय तो टिप्पणानी तेरशे औदयिक चतुर्दशीनी स्थापना कीने पाक्षिक कृत्य करे छे. आ बाबत उपाध्याय श्री धर्मसागरजीए उत्सूत्रोद्घाट नकुलकमां स्पष्ट शब्दोमां लखी छे । परम अवधूत योगिराजश्री आनंदघनजी महाराज पण श्री अनंतनाथस्वामीना स्तवनमां उत्सूत्रप्ररुपणानी भयंकरता समजावतां कहे छे के• पाप नहीं कोई उत्सूत्र भाषण जिस्रो, धर्म नहीं कोई जगसूत्र सरिखो; सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करे, तेहy शुद्ध चारित्र परिखो. धार तलवारनी स्रोहली दोहली.... Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तर विचार अर्थात् के जैन सिद्धांतो जैनागमोथी विरुद्ध कथन करवा जेवू एक पण महापाप नथी; कारण के सरोवरमां फेंकेला कंकरथी जेम जळना कुंडाळा वधतां समस्त सरोवरमां प्रसार पामी जाय छे तेम एक मात्र उत्सूत्र-वचन ते विस्तार पामतां समस्त शासनने छिन्न भिन्न करी मूके छे. शरुआतमां तो निर्जन अरण्यमां एक मात्र पगदंडी ज (केडी) पडे छे, परंतु तेना पर विशेष अवरजवर थतां ते एक महामार्गनु स्वरुप धारण करे छे तेवीज रीते उत्सूत्र-प्ररुपणार्नु समजी लेवु. तेथीज शास्त्रकारोए उत्सूत्र-प्ररुपणाने तोले आवे तेवु. एक पण पाप गणाव्यं नथी. बीजा पापा तो अन्य धर्मकरणी के तीर्थयात्रादि करता विनाश पामे परंतु उत्सूत्र-प्ररुपणा तो अनंत भवभ्रमण वधारे छे. जुओ चरम जिनपति श्री महावीरस्वामीना पूर्वभवन मरिचीन दृष्टांत. उत्सूत्र-प्ररुपणाथी भोळा प्राणीओ भोळवाई जाय छे. अने धर्मने बदले अधर्मर्नु आचरण करी बेसे छे, माटे ज श्री आनंदघनजी महाराज फरमावे छे के-आ विश्वमा सूत्रोमां फरमाव्या प्रमाणे उपदेश करवा सिवाय बीजो कोई उत्तम धर्म नथी. सूत्र ए दीवादांडी सदृश छे. जेम दीवा दांडी समुद्रमां अटवायेला जहाजने किनारा पर लाववामां सहायक बने छे तेवी रीते आगमशास्त्रो जीवन नौकाने भवसमुद्रमांथी तीरे खेंची लाववा समर्थ बने छे; एटले के जे भव्य प्राणीओ तीर्थकर भगवंतोए उपदेशेल अने गणधर Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार महाराजोए गूंथेला सूत्रो प्रमाणे क्रिया करे छे अने खरेखर चारित्र पाळे छे तेओज खरेखरा संयमवंत छे-तेनेज मोक्षमार्गना साचा पथिक जाणवा. नागपुरी तपागच्छीय श्री रत्नशेखर सूरिजी 'संबोधसत्तरी' नी पांत्रीशमी गाथामां जणावे छे के आगमं आयरंतेणं, अत्तणो हियकंखिणो । तित्थनाहो गुरु धम्मो, सव्वे ते बहुमन्निया ॥ __ आत्म-कल्याणार्थी पुरुषे आगमना रहस्यनु आचरण करवापूर्वक तीर्थकर श्री अरिहंत भगवंत, सद्गुरु अने केवली-भाषित धर्म ए सर्वर्नु अत्यंत आदरपूर्वक बहुमान करवं, तेने अंगीकार करवो. अत्यंत विषम एवा आ दूषमकाळमां-कलिकाळमां श्री जिनागमोज परमालंबनभूत छे. जिनागमो न होत तो अनाथ एवां आपणी शी दशो थात ? माटे परम पुण्योदये प्राप्त थयेल पंचांगीने मान्य राखी शास्त्रविहित आचरण करवं एज भवभीरु प्राणी माटे उचित छे. प्र० २७-नवा पंथवाला कहे छे के बीज पांचम आदि बार पर्व तिथिनी क्षयके वृद्धिमा पूर्वनी अपर्व तिथिनी क्षयके वृद्धि करो छो तो पछी कल्याकनी तिथिओ पण पर्व तिथि कहेवाय छे तो ते तिथिओनी क्षयके वृद्धिमा पूर्वनी तिथिओनी क्षयके वृद्धि केम मानता नथी ? _____30-बीज पांचम आठम आदि बार पर्व तिथिओ क्षेत्रने आश्रिने पंदर कर्म भूमिमां अने कालने आश्रिने भूतभविष्य अने वर्तमान त्रणे कालमां नियत एटले एक सरखी Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार छे, त्यारे कल्याणक तिथिो अनियत छे एटले एक सरखी होती नथी, बीजु कारण ए के अष्टमी चतुर्दशीना दिवसे साधु तप न करे, सर्व चैत्योने तथा अन्य स्थानमा रहेला साधुओने वंदना न करे तो प्रायश्चित्त आवे एम नव्य यति जीतकल्पमा लख्यु छे पण कल्याणकनी तिथिए तप न करे तो प्रायश्चित्त आवे एवं लख्यु नथी जुओ नव्य यति जीतकल्पनो पाटचउ छह मऽकरणे अट्ठमि पक्ख चाउमास वरिसेसु । लहु गुरु लहुगा गरुगा अवंदणे चेइ साहुणं ॥२३१॥ ___व्याख्या-यथासंख्यं पदयोजना साचैवम् अष्टम्यां चतुर्थस्याकरणे मासलघु (पुरिमुई) चतुर्दश्यां (पाक्षिके प्र.) चतुर्थस्याकरणे मासगुरु (एकाशनक) चतुर्मासिके षष्ठस्याकरणे चत्वारो लघुमासाः (आचाम्ल) सांवत्सरिके अष्टमस्याकरणे चत्वारो गुरुमासाः (उपवासं) तथा एतेषु एष्टम्यादिषु दिवसेषु चैत्यानां जिनबिंबानां अन्यवसतिगत सुसाधूनां चावंदने प्रत्येक लघुमासः (पुरिमुई) ॥२३॥ .. अर्थ-आठमना दिवसे उपवास न करे तो पुरिमडनु प्रायश्चित्त आवे चतुर्दशीना दिवसे उपवास न करे तो एकाशनानो प्रायश्चित्त आवे चउमासीनो छठू न करे तो आंबीलनो प्राय. श्चित्त अने संवच्छरीनो अटुंम न करे तो उपवासन प्रायश्चित्त आवे तथा अष्टमी चतुर्दशी आदि पर्व तिथिओना दिवसे सर्व जिन बिंबोने तथा अन्य स्थानमा रहेला बीजासु साधु भोने वंदना न करे तो दरेकमां पुरिमडनो प्रायश्चित्त आवे एम सोम प्रभसूरि उद्धृत यति जीतकल्पमां का छे तेथी पूर्वाचार्यों बार Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार पर्व तिथिनी क्षय के वृद्धिमा पूर्वनी अपर्व तिथिनी क्षय के वृद्धि करे छे पण कल्याणकनी तिथिओमां पूर्वनी तिथिओंनी क्षयके घृद्धि करता नथी कारणके कल्याकनी तिथिओ अनियत छे अने एर्नु तप न करे तो प्रायश्चित्त पण लख्यु नथी आज हकीक्त कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य स्वरचित श्री वीतराग स्तोत्रना ओगणीशमा प्रकाशमां स्पष्टरुपे जणावी छे. आ हकीक्त परथी आ वस्तुनी गहनता अने महत्ता समजाशे. तेओश्री कहे छे केवीतराग ! सपर्यायास्तवाज्ञापालन वरम् । आज्ञाऽऽराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च ॥ अर्थात्-हे वीतराग ! आपनी सेवा करवा करतां आज्ञानुं पालन करवं ते भावस्तवरुप होवाथी उत्कृष्ट फळ आपनार छे; केमके आज्ञानुं आराधन माक्षने माटे थाय छे अने आपनी आज्ञानी विराधना संसार-भ्रमणने माटे थाय छे. अंतमा पू. उपाध्यायश्री यशोविजयजी महाराजुना टंकशाळी वचन उद्धरीने विरमोश कलहकारी कदाग्रहभर्या, थापतां आपणा बोल रे; . जिनवचन अन्यथा दाखवे, आज तो वाजते ढोल रे. स्वामी सीमंधरा बिनति उपसंहार आ पर्वतिथिप्रश्नोत्तरविचारनी लघु पुस्तिकामां आपेल सूत्र अने ग्रंथना प्रमाणोथी वांचको समजी शक्या हशे के आराध्य तिथिओनी क्षय के वृद्धि मनाती नथी तेथी जन्मभूमि पंचांगमा पर्वतिथिनी क्षय के वृद्धि होय त्यारे अपर्वतिथिनी Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तर विचार क्षय के वृद्धि कराय छे अने अमावास्या के पूर्णिमानी क्षय के वृद्धि होय त्यारे तेना बदले तेरशनी क्षय वृद्धि थाय छे, तेमज टिप्पणामां भादरवा सुद पंचमा बे होय त्यारे कालिक सूरीश्वरजी महाराजनी आचरणा मुजब आराध्य पंचमीथी एक दिवस पहेला एटले बीजी चोथे अने भादरवा सुद पंचमीनो क्षय होय त्यारे त्रीज-चोथ भेगा गणीने पंचमीथी एक दिवस पहेला सांवत्सरिक पर्व थाय छे. इत्यलं विस्तरेण ।। नवा पंथनी मान्यता दर्शनमोहनीय कर्मना उदयथी नवा पंथवाळाने सूत्र अने परंपरानी वात रुचती नथी, तेथी तेओ कहे छ के- आपणा जैन पंचांगो घणी सदीथी विच्छेद गया छे माटे लौकिक पंचांग प्रमाणेज मानQ तेथी तेओ पर्वतिथिनी क्षय-वृद्धि करे छे अने पुनमनो क्षय होय तो चौदश-पुनम भेगी माने छ अने पूर्णिमानी वृद्धिमा सान्तर चौदश-पुनम माने छे. शासनपक्षनी मान्यता __शासनपक्ष जैन पंचांगना अभावे सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र, चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र, ज्योतिषकरंडक सूत्र अने पूर्वाचार्योनी परंपराने अनुसारे लौकिक जन्मभूमि पंचांगमा पर्वतिथिनी क्षय के वृद्धि आवे तो तेना बदले अपर्वतिथिनी क्षय के वृद्धि करे छे. पुनम अने अमावास्यानी क्षय के वृद्धिए तेरसनी क्षय वृद्धि करे छे, पण पर्वतिथिनी क्षय के वृद्धि मानता नथी. विक्रम संवत १९९२ना भादरवा वदि अमावास्या सुधी तो नवा पंथवाळा पण आ प्रमाणे ज मानता हता, पण पछीथी जुदा पडया. विचित्रा कर्मणां गतिः । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगंबरो विषे जाणवाजोग सूत्रो सदंतर विच्छेद गयानी दिगंबरोनी मान्यता साची नथी. दिगंबरो अंग सूत्रोने वीर संबत ६८३ सुधीमां एटले के विक्रमनी बीजी शताब्दिनी शरुआतमां ज तद्दन विच्छेद गया एम माने छे तेथी तेओ श्वेतांबरोमान्य सूत्रोनो स्वीकार करता नथी. त्यारे कषाय पाहुड श्री गुणधराचार्ये विक्रमनी बीजी शताब्दिमां रच्यु हतुं तेनुं विवेचन करतां लखे छे के 'वीर संवत ६८३ बाद अंगो अने पूर्वोतुं एक देश (एटले अधुरु ) ज्ञानज पर पराथी श्री गुणधराचार्यने प्राप्त थयु अने ते भट्टारक गुणधराचार्ये जे ज्ञानप्रवाद नामनां पावमा पूर्वनी दशमी वस्तुनी अंतर्गत त्रौंजा कषाय पाहुड अधिकारनां पारंगत हता. तेमणे प्रव वन वात्सल्यथी वशीभूत थईने ग्रंथ विच्छेद थवाना भयथी सोळ हजार पद प्रमाणे पेज्जदोस पाहुडानो १८० गाथाओ द्वारा उपसंहार कर्यो.' ( जय धवला पु. १ पार्नु ४१) एटले के वीर संवत ६८३ (विक्रमनी बीजी शताब्दिमां अंगसूत्रो संपूर्ण विच्छेद गया नहोता पण पूर्वी सहित सर्व Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगसूत्रोनुं थोडं ज्ञान विच्छेद गयु हतुं. अने थोडं ज्ञान प्राप्त हतुं. ते कषाय पाहुड उपर आचार्यश्री यतिवृषभे विक्रमनी उट्ठी शताब्दिमां चूर्णी रची अने आचार्य श्री वीरसेन तथा जिनसेने विक्रमनी नवमो शताब्दिमां जय धवला टीका रची. सूत्रो जो विच्छेद गया होय तो तेनुं ज्ञान पण विच्छेद जाय. विच्छेद जवु एटले भूलाई जवं. कारण सूत्रो मोढे हता. अने पछी याद रहेला ज्ञानमां मति विभ्रमथी अयथार्थता आवी गई होय. सूत्रो विच्छेद गया पछी पण सूत्रनुं ज्ञान यथार्थ रहे छे. एम दिगंबरो कहे तो ते हिसाबे श्वेतांबगे पासे रहेला सूत्रोमां पण यथार्थ ज्ञान छ एम तेमणे कबुल करवू जोईए. कारण के नहितर कषाय पाहुडनी टीका अयथार्थ ज्ञानमाथी निष्पन्न थई छे एम मानवू पडे. परन्तु अहिया तो ठेठ विक्रमनी नवमी सदीमा आचार्य श्री वीरसेन तथा जिनसेने मळीने साठ हजार श्लोक प्रमाण जयधवला नामनी मोटी टीका रची छे. अने तेने प्रमाण आगम तरीके मान्य गणवामां आवे छे. आ उपरथी मानवू ज पडशे के पूर्व तथा अंगसूत्रोर्नु एकदेशीय ज्ञान ठेठ विक्रमनी नवमी शताब्दि सुधी प्राप्त हतु. एटले के सूत्रो संपूर्ण विच्छेद नहोता गया पण तेनो केटलोक भाग विच्छेद गयो हतो, अने बाकीनो भाग मोजुद हतो. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगंबरोना एकांत आग्रहनुं परिणाम दिगंबरोए अचेलकपणु-नग्नपणाने एकांत आग्रहथी पकडी राख्युं तेनुं परिणाम ए आव्यु के (१) स्त्री नग्न रही शके नहि तेथी स्त्रीने चारित्र अने मोक्ष होई शके नहि एम दिगंबरोने जाहेर करवू पडयुं. (२) वस्त्र विना पात्रो लई जई शकाय नहि तेथी पात्र राखवानी बंधी करवी पडी. (३) पात्रो विना आहार लवी शकाय नहि अने आहार लाव्या विना तीर्थंकर भगवान आहार करी शके नहि तेथी केवळी भगवानने आहार होय नहि एम जाहेर करवू पडयु. (४) नग्नवादनां कारणे उपर प्रमाणे स्त्रीमुक्ति, केवळी भुक्तिनो निषेध कर्यो. ते उपरांत गृहस्थलिंगमुक्ति, अन्यलिंग मुक्ति विगेरे अनेक बाबतोनो दिगंबरोने निषेध करवो पड्यो छे. आ तेमना निषेधो तेमना ज (दिगंबरोनां) शास्त्र ग्रंथोथी विरुद्ध जाय छे. तेनी केटलीक विगत 'जैन परंपरानो इतिहास' नामना पुस्तकमां पाना ३१९ थी ३२५मां आपी छे. तथा उ. श्री यशोविजयजीना ग्रन्थोमां तथा श्री आत्मारामजीना 'तत्त्वनिर्णयप्रासादं पुस्तकमां आपी छे. ते स्थळ संकोचने लीधे अहिं आपी शकाई नथी, तो जिज्ञासुए त्यांथी जोई लेवी. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० दिगंबरोने एकांत आग्रहथी नुकशान वस्त्रपात्र वगेरे उपधिनो निषेध करी नग्नतानो आग्रह राखवाथी दिगंबरोने घणु नुकशान थयुं छे. तेमांन थोडंक नीचे प्रमाणे छे. (१) नग्नताथी धर्मनी अने संप्रदायनी निन्दा थाय छे अने धर्म प्रचार अटकी जाय छे (२) विहारमा अडचणो उभी थाय छे. (३) बाळको नग्न साधुने जोई डरे छे. (४) सभ्य समाज घृणा करे छे अने पोताना घरमां आववा देता नथी. (५) सरकार नग्नने रस्तामां चालवानी बन्धी करे छे. (६) जिनशासनने अनेक रीते नुकसान पहोंचे छे. फक्त बे चार हाथनां कपडानो पण निषेध करवाथी ए नुकसान उठाव, पडे छे. वस्त्रधारी मुनि बघे जई शके छे. अने आवा नुकसानोथी धर्मने बचावे छे. (७) अजैननां आहार पाणी बंध थई जाय छे. कारण अजैनो नग्न साधुने घरमा आववा देता नथी तेमज आहार पाणी देवामां घृणा करे छे तेथी अजैनने त्यां गोचरीए जई शकातुनथी. (८) एकज घेरथी गोचरी करवी पडे छे तेथी आधाकर्मिक औदेशिक आदि दोष लागे छे. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) गुरुभक्तिने तिलांजली आपवी पडे छे, गुरुने बतावी गुरुनी आज्ञानुसार गुरुदत्त आहार लेवानो लाम गुमावे छे, अने गुरुने बताव्या विना लेनाथी क्वचित् स्वच्छंदताने अवकाश मळे छे. (१०) पात्रता अभावमा बिमार तथा वृद्ध माटे आहार पाणी लाबी शकाता नथी. तेम गृहस्थनां लावेला आहार पाणी पण वापरी शकाता नथी तेथी निराहार रहेवु पडे छे. (११) आवी स्थितिमा बिमार-वृद्ध साधुने आर्तरौद्र ध्यानमां पडी जई आत्मानुं अकल्याण थवानो संभव छे. (१२) करभोजीनां हाथमाथी खोराकनो अंश नीचे पडी जाय छे तेथी जीव विराधना निन्दा थाय छे, (१३) महावीर भगवाने स्थापेठ चतुर्विध संघने दिगंबरोए खंडित करेल छे. कारण के तेओमां साध्वी संघज नथी. स्त्री दिगम्बर रही शके नहि माटे साध्वी थई शके नहि. तेथी दिगम्बरोमां चतुर्विध संघज नथी. दिगंबरोमां जैन सिद्धांत विरुद्धनी केटलीक खोटी मान्यताओ पण प्रार्ने छे, तेना त्रण कारणो छे. . (१) नग्नत्वना ओग्रहने लीधे नग्नत्वनी विरुद्ध जती बाबतोनो अस्वीकार करवा माटे ते ते बावतोथी उलटी प्ररूपणा करवी पडी. (२) श्वेतांबरोथी छूटा पडीने तेमनो अने तेमना साहित्यनो संपर्क खोवाथी मूळ मान्यता भूली जवाथी दिगंबर Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्योए पोतपोतानी कल्पना अनुसार नवी नवी मान्यताओ प्रवर्तावी. (३) ब्राह्मणोनुं समाजमां वर्चस्व थतु जोईने दिगंबरोए ब्राह्मणना घणा आचारविचारोनुं अनुकरण कयु. अने ए खोटी मान्यताओ प्रवर्तावती वखते दिगम्बरो तेमना ज पूर्वाचार्योए बनावेला शास्त्रोमां शी शी प्ररुपणा करी छे. ते जोवान विचारवान ज भूली गया, अटले दिगम्बरोनी घणी खरी मान्यताओ तेमनाज शास्त्रोना विधाननी विरुद्ध जाय छे. दिगम्बरोना जेवी श्वेतांबरो उपर ब्राह्मणोनां आचारविचारनी असर थई नथी कारण के श्वतांबरो मूळ जैन सिद्धांतने चीवटपणे वळगी रह्या हता. दिगम्बरोनी मान्यताओ तेमना ज शास्त्रोनी विरुद्ध छे ते मुनिश्री दर्शनविजयजीओ तेमनां 'श्वेतांबर दिगम्बर' नामना पुस्तकमां दिगम्बर शास्त्रोना अनेक उल्लेखो आपीने बतावी आप्यु छे, जिज्ञासु जैनोए ए पुस्तक जरुर वांची जवु. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मदेशना समये साधु-मुनिराजे ____ मोढे मुहपत्ति बांधवी ए गीतार्थ परंपरागत आचारणा छे. -:0-- आ ढूंका निबंधमां मुख पर मुहपत्ति बांधवी ए केटली प्राचीन अने मूळभून गोतार्थपरंपरा छे तेनु दिग्दर्शन कराव्यु छे एटलं ज नही परन्तु तेने लगता शास्त्रगाठो आपी विषयन सचोटपणु दर्शाव्यु छे. श्री प्रवचन परीक्षामां आवतो मुहपत्तिनो उल्लेख, विधिप्रपामां रजू थयेल उल्लेख, पू. श्रो. आत्मारामजी महाराजनुं कथन आ हकीकतने विशेष पुष्ट करे छे. श्री प्रवचनपरीक्षामां आवतो पाठ साधु-मुनिराजने कान वीधाववा अंगेनो छे ज्यारे श्री उपदेशप्रासादनो पाठ थूकथी उच्छिष्ठ एठी थयेल मुहपत्तिने जुदी राखवा अंगेनो छे. ___ गणधर भगवंतो पण धर्मदेशना समये मुख पर मुह. पत्ति बांधता हता. आ संबंधमां एक ख्याल ए राखवानो छे के-स्थानकवासी संप्रदायना मुनिवर्गनी माफक मुहपत्ति दोराथी बांधीने हमेशने माटे मुख पर रखवानी नथी. धर्म-देशना समयेज प्रवचनमुद्रा के योगमुद्राएज व्याख्यान आपवान होवाथी, संपातिम जीव के वायुकायना जीवोनी हिंसाथी Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] मुहपत्तिपन्धन बचवा तेमज शास्त्र के आगम पर थूक ऊडीने आशातना न थाय ते माटेज मुख पर मुहपत्ति बांधवानुं गोतार्थकथन छे. फक्त आपणामांज आयु कथन छे एटलुंज नहि परन्तु पारसीओ, मुस्लीमो, वैष्णवो पण पवित्र पुस्तक वाचन वखते रुमाल, कपडु के लाकडांनी पट्टी मुख आगळ राखे छे, जे आपणी गीतार्थ परंपरागत हकीकतनुज विशेष समर्थन करे छे. आगममायरंतेगं अत्तगो हियकंखिणो । तित्यनाहो गुरुधम्मो सने ते बहमनिया ॥ __ आत्महितनी इच्छावाळाए आगमनो आदर करता तीर्थकर भगवान् . गुरु अने धर्म ए बधानो आदर कों गणाय. -संबोधसप्ततिका . धर्मशास्त्र वांबतो वखते मोढा उपर मुहपत्ति अथवा कपडु बांधवानी प्रथा जैन तथा जैनेतर धर्ममा घणा काळथी प्रचलित छे. मुसलमानो कुरान वांचती वखते मोढा पर रुमाल बांधे छे. पारसीओमां मंत्रोच्चार करती वखते मोढा पर कपडु बांधवानो रिवाज छ, सांख्यमतवाळा जीवदया निमित्त मोढा आगळ लाकडानी मुहपत्ति बांधे छे. वैष्णवो भागवत वांचती वखते मोढा पर कपडु बांधे छे, आ तो जैनेतर दशननी वात थई, परन्तु जैनदर्शनमा तो धर्मदेशना Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतार्थपरम्परा भापति वखते मोढा पर मुहपत्ति बांधवानो रिवाज गणधर महाराजना समयथी चाल्यो आवे छे ते माटे वादिवेताल श्री शान्तिसूरि महाराज श्री चैत्यवंदन महाभाष्यमां "देशना" ना अधिकारमा स्पष्ट रीते कहे छे केसिंहासणे निसन्नो, पाए ठविऊण पायपीढमि । करधरियजोगमुद्दो, जिणनाहो देसणं कुणइ ॥८४|| तेणं चिय सूरिवरा. कुणंति वक्खाणमेयमुद्दाए । जं ते जिणपडिरूवा, धरंति सुहपोत्तियं नवरं ॥८५॥ ___ अर्थ :-पादपीठ उपर पग स्थापन करी, सिंहासन उपर बेसी, हाथमां योगमुद्रा धारण करीने जिनेश्वरदेव धर्मदेशना आपे छे, तेथी जिनेश्वरभगवंतना प्रतिनिधिरुप एटले जिनेश्वरना सरखा गणधर महाराज पण योगमुद्राएज धर्मदेशना आपे छे, विशेषमां एटलुं के तेओ मोढा पर मुहपत्ति धारण करे छे, एटले कानना छिद्रमां भरावे छे. पण स्थानकवासीनी माफक दोराथी बांधता नथी. गणधर महाराज पण . यथावसरे मोढे मुहपत्ति बांधता हता, ए वातनो स्पष्ट खुलासो “ प्रश्नोत्तरसार्धशतक " मां पण मली आवे छे. जुओ ते पाठ ननु आधुनिकाः केचिल्लिङ्गिनो निवाः सर्वदा दवरकेण मुखवत्रिकां मुखे बवैव रक्षन्ति, त्तजिनाज्ञानुसारि उत तद्विरुद्धं ? उच्यते-जिनाज्ञाविरुद्धमेवेदमिति ज्ञायते, क्वापि सूत्रे इद्दग्विधेनुक्तत्वात् , विश्व शा षु यत्र Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [] मुहपत्तिबन्धन यत्र मुखवखिकाधिकारोऽस्ति तत्र तत्र क्वापि दवरकस्य नामापि नास्ति, तथा श्रीसुधर्मास्वामिन आरभ्याऽविच्छिनद्धपरंपर्याऽपि क्वापि धर्मगच्छे दवरकेण मुखवत्रिकाबन्धनं न दृश्यते, इति जिनागमविहिताऽऽचरणाभ्यां विरुद्धमेव तावत् दवरकबन्धनम् । अन्यच्च गगधरादिभिरपि यथावसरे मुखे मुखवस्त्रिका बद्धासीत् न सर्वदा, यदि सर्वदा बद्धा भवेत् , तर्हि विपाकमूत्रपाठाऽसंगतिः स्यात् । ___ अर्थः-वर्तमान काले केटलाक लिंगी निह्नवो हमेशा दोरावडे मुहपत्ति मोढे बांधी राखे छे, ते जिनाज्ञानुसारी छे के विरुद्ध ? उत्तरः-आ वात जिनाज्ञाविरुद्ध जणाय छे, कोईपण सूत्रमा आवी विधि कहेल नथी. वळी शास्त्रमा ज्या ज्यां मुहपत्तिनो अधिकार छे, त्यां त्यां कोईपण ठेकाणे दोरानु नाम पण नथी. तेमज पूज्यश्री सुधर्मास्वामीथी आरंभीने अविच्छिन्न वृद्ध परंपराए कोईपण धर्मगच्छमां दोराथी मुहपत्ति बांधवानु विधान पण देखातुं नथी, माटे दोराथी मुहपत्ति बांधवी आ वात जिनागम अने आचरणाथी विरुद्धज छे. बीजं गणधर महाराजे पण यथाअवसरे मोढे मुहपत्ति बांधी हती, पण हमेशाने माटे तेओ मुख पर मुहपत्ति बांधता नहि. जो हमेशा बांधी राखता होय तो विपाकसूत्रनो पाठ असंगत थई जात. मोढे मुहपत्ति बांधवाने माटे परम्पराथी आवेल विधि प्रमाणे साधुए बन्ने कान विधाववा जोईए. ते माटे Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतार्थपरम्परा उपाध्याय श्री धर्मसागरजीए पोतानी रचेल प्रवचन परीक्षामां विधान करेल छे. ते पाठ नीचे प्रमाणे छे साधुवेष-कटिदवरकनिबद्धपरिहितचोलपट्टको रजोहरणमुखवत्रिकासमन्वितः पातकल्पकस्कन्धोपरि कृतौर्णिको गृहीतवामकरदण्डकः परम्पराऽऽयातविधिविद्धोभयकर्णकश्च पुरुषः साधुवेषधारी भण्यते, तस्य यो वेषः सः संपूर्णों वेषो भवति ॥ अर्थ :-जे पुरुष कम्मरमां दोरी बांधवापूर्वक चोल. पट्टो पहेरे होय. रजोहरण एटले ओघो अने मुखवत्रिका युक्त होय, कपडा पहेरी डाबा खभा उपर कामल नाखी, डाबा हाथमा दंड धारण करेल, परम्पराथी आवेल विधि: पूर्वक बन्ने कान विंधावेल होय, आवो पुरुष साधुवेषधारी कहेवाय छे. ते पुरुषनो जे वेष ते संपूर्ण साधुवेष कहेवाय छे. आ उपरथी समजवान के मोढे मुहपत्ति बाँधवा माटे साधुने कान विधाववा पडे छे, कान विधायेला न होय तो संपूर्ण साधुवेष गणाय नहि, प्रवचनपरिक्षा बीजो भाग. ८ विश्राम, पत्र २५ मां जणाव्युं छे साधुने मुहपत्ति बे प्रकारनी होय छे. चउरंगुल विहत्थी एयं मुहणंतगस्स उ पमाणं । बीओ विअ आएसो मुहप्पमागेण निष्फन्नं ॥१॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहपत्तिबन्धन संपाइमरयरेणु पमज्जणहा वयंति मुहपोति । नासं मुहं च बन्धइ, तीए वसहिं पमज्जंतो ॥२॥ ___ भावार्थ :-हाथमा राखबानी मुहपत्तिनुं प्रमाण अक वेंत अने चार अंगुलनुं छे, मोढे बांधवानी बीजी मुहपत्तिनुं प्रमाण मुख प्रमाणे होय छे. संपातिम एटले उडता जीवो अने रज मुखमां न पडे ते माटे वसतिर्नु प्रमार्जन करतां माधु मोढे मुहपत्ति बांधे छे. उपदेशप्रासाद स्थंभमां श्री विजयलक्ष्मीसूरि महाराज मोढानां यूं कथी उच्छिष्ट थयेल मुहपत्तिने पुस्तक के स्थापनागुरूथी जुदी राखबार्नु जणावे छे. ते पाठ नीचे प्रमाणे छे मुखनिष्ठ्युतादिभिरूच्छिष्टा वत्रिका पुस्तकैः सह स्थापनागुरूणा च साकं न रक्षणीया, किन्तु भिन्नैव धार्या ॥ धर्मदेशना समये मोढे मुहपत्ति बांधवाना मुख्य बे कारणो छे. पहेलं कारण ए छे के-ऊडता त्रसजीवो अने वायुकायर्नु रक्षण करवाने अने बीजु कारण पुस्तक उपर थूक लागवाथी श्रुतज्ञाननी आशातना थाय ते दूर करवाने छे. व्याख्यान वखते मुहपत्ति हाथमा राखवाथी हाथ मुख आगळ स्थिर रहेतो नथी. ऊँचोनीचो थई जाय तेथी वायुकायनी विराधना थाय अने थूक लागवाथी श्रुतज्ञाननी आशातना थाय, मुहपत्तिनो उपयोग गमे तेटलो राखवामां आवे तो पण बोलती वखते थूक लाग्या वगर रहेतु नथी, तेथी पूर्वाचार्यों गणधर महाराजनी परंपराने अनुसारे व्याख्यान समये मुहपत्ति बांधतां हतां. आ प्रथा सर्व गच्छमां हती. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौतार्थपरम्परा शिथिलाचारी यतिवर्गे पण आ प्रथानो त्याग कर्यों न हतो. विक्रम संवत १९१२ सुधी आ प्रवृत्ति अविच्छिन्नपणे चालती हती. पछी पू. श्रीबुटेरायजी महाराज स्थानकवासी संप्रदायमाथी संवेगी मार्ग मां आव्या त्यारे तेमणे आ ! वृत्तिमां भेद कों, एटले हाथमां मुहपत्ति राखीने व्याख्यान वांचतां थया. पू० श्री आत्मारामजी महाराज संवेगी मागमां आव्या त्यारे मुहपत्ति सम्बन्धी पू. पं. रत्नविजयजी गणि साथे चर्चा थतां तेमणे का हतु के-परंपराथी व्याख्यान समये मुहपत्ति बांधवी जोईए, ए वात सत्य छ, परन्तु स्थानकवासी पणामा में आने खंडन कयु छ देथी हुँ अहिं बांधु अने त्यां न बांधु तो माझं अप्रमाणिकपणु ठरे, तेथी हुं बांधी शकतो नथी. आ उपरथी समजवान के व्याख्यानसमये मुहपत्ति बांधवानी प्रवृत्ति परंम्परासिद्ध छे. परपराना लक्षण माटे जुओ चैत्यवंदन महाभाष्यनो पाठ अनायमूला हिंसारहिया सुझाणजणणि य । सूरिपरंपरपत्ता सुतव्व पमाणमायरणा ॥ २५ ॥ शान्ति. चै. म. भा. अर्थ-जे प्रवृत्तिनु' मूल अज्ञात होय एटले आ प्रवृत्ति कोणे चालु करी ए खबर न होय, वळी हिंसा रहित होय, शुभध्यानने उत्पन्न करनारी अने आचार्योनी परंपराथी आवेल होय ते आचरणा एटले प्रवृत्ति सूत्रसमान गणाय. साधुओ व्याख्यानसमये मुहपति बांधे छे भने भणती वखते केम बांधता नथी ? एना खुलासामा अणाववान Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहपत्तिबन्धन के व्याख्यान योगमुद्रा अथवा प्रवचनमुद्राए आपवानु छे. वळी अर्थनी देशना आपनार आचार्य तीर्थकर तुल्य गणाय छे. ते माटे व्यवहारभाष्यनो नीचेनो पाठ साक्षीरुप छे. कहंतो गोयमो अत्थं मोत्तु तीत्थगरं सयं । नवि उट्टई अन्नस्स तग्गयं चेव गम्मति ॥ गाथा-२०२, व्यव० ६ उद्देखो. टीका-न खलु भगवान् गौतमो अर्थ कथयन् स्वकमात्मीयं तीर्थकरं मुक्त्वा अन्यस्य कस्यापि उत्तिष्ठति, अभ्युत्थानं कृतवान, तद्गतं चेदानीं सर्वैरपि गम्यते । तदनुष्ठितं सर्वमिदानीमनुष्ठीयते । ततोऽर्थ कथयन् न कस्याप्युत्तिष्ठति ॥ ... अर्थः-अर्थन व्याख्यान करनार भगवान श्री गौतमस्वामी पोताना तीर्थकरने मूकीने बीजा कोई वडील आवे तो उठता नथी, तेम आसनवडे सत्कार पण करता नथी, तेमनुं अनुकरण करीने वर्तमानकाळे अर्थन व्याख्यान करता कोई ऊभा थता नथी, फक्त पोताना गुरु आवे तो जरुर ऊभा थर्बु जोईए. आ उपरथी समजवान के-व्याख्यान आपनार मुनि तीर्थंकर स्थानीय छे. वळी व्याख्यान योगमुद्रा अथवा प्रवचनमुद्राए आपवानुं छे. योगमुद्वा एटले छे बे कोणी पेट उपर राखीने बे हाथ जोडवा ते योगमुद्रा कहेवाय. अने आचारदिनकरमां प्रवचनमुद्राए धर्मदेशना आपवानुं कयुं छे. प्रवचनमुद्रा एटले के जमणा हाथना अंगूठानी साथे तर्जनी आंगळी जोडीने बाकीनी आंगलीओ विस्तारवी ते प्रवचनमुद्रा कहेवाय. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतार्थपरम्परा योगमुद्रामां मुखथी हाथ छेटे ज रहे छे अने प्रवचनमुद्रामां तो एक हाथमां पानां अने बीजा हाथमा प्रवचनमुद्रा ज होय छे. एटले मुहपत्तिनो उपयोग रही शकतोज नथी, तेथी व्याख्यान समये मोढे मुहपत्ति बांधवांनी जरुर रहे छे. न बांधे तो संपातिम जीवो तथा वायुकायनी विराधना थाय, श्रोताओ उपर थूक उडे तेमज श्रुतज्ञाननी आशातना थाय छ तेथी पूर्वाचार्यनी परंपराने अनुसारे व्याख्यान समये मोढे मुहपत्ति बांधवामां आवे छे. व्याख्यान सिवाय बीजा समये योगमुद्राए के प्रवचनमुद्राए शास्त्र वांचवान नथी. तेथी मुहपत्ति हाथमा राखीने वांचवामां आवे छे अने व्याख्यान सिवायना वखतमा भणतां के वांचतां साधुने शास्त्रकारे तीर्थकर स्थानीय कहेला नथी, तेथी ते वखते मुहपत्ति बांधवान कई प्रयोजन नथी, एटले ते समये मुहपत्ति हाथमां रखाय छे. श्री शीलांकाचार्यकृत "विधिप्रपा" ग्रन्थमा देशनाधिकारमा मोढे मुहपत्ति बांधवानो स्पष्ट उल्लेख मळे छे. आ रह्यो ते पाठ. इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं धम्मोवएस दिएह, तओ गुरु आसणोवविठ्ठो मुहपावरणधरो दाहिणपासठियरयहरणो पउमासणपलहट्ठियासणिओ वा भयवं कण्णमूलकयनासग्गनिवेसियहत्थग्गो जोगमुद्दाए पुलइयनयणो सुमहुरसरेण सव्वजाणवयबोहगामिणीए भयवत्तीए देसणं कुणइ । भावार्थ :- हे भगवन् ! ईच्छापूर्वक आप अमने धर्मोपदेश आपो. त्यारपछी गुरु शुभ वस्त्र धारण करी, आसन उपर बेसी, रजोहरण जमणे पडखे राखी, पद्मासन वाली, कानना Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] मुहपत्तिवन्धन मूलथी नासिकाना अग्रभाग उपर मुहपत्ति राखी, हाथमा योगमुद्रा धारण करी, विकसित नेत्रे, मधुर स्वरे, सर्व लोकने वोध करवा माटे धर्मदेशना आपे. आ पाठम! ग्रंथकारे धर्मदेशना आपवानी विधिन विधान स्पष्ट रीते दर्शावेल छे, एमां अंशमात्र संशय करवानी जरुर नथी. विचाररत्नाकरना एक श्लोकमां पण मुहपतिबंधननो स्पष्ट उल्लेख छे. कण्ठे सारसरस्वती हृदि कृपानीतिक्षमाशुद्धयो, वक्त्राब्जे मुखवखिका सुभगता काये करे पुस्तिका। भूपालप्रगतिः पदे दिशि दिशि श्लाघाऽभितः संपदा, इत्थं भूरिवधूतोऽपि विदितो यो ब्रह्मचारीश्वरः॥१॥ अर्थः-जेनां कण्ठमां सरस्वती छे, हृदयमां दया, नीति, क्षमा अने शुद्धि छे, शरीरमां सुभगता छे, मुख उपर मुखवत्रिका धारण करी छे, हाथमां पुस्तक छे, पगमां राजओ पणति-नमस्कार करे छ, दिशे दिशामा प्रसंशा फेलायेली छे, चारे बाजु संपदा फरी वळो छे-एवी रीते घणी स्त्रीओथी परिवरेल उतां जे ब्रह्मचारी तरीके प्रसिद्ध छे. आ श्लोकमां कविए आचार्यनी व्याख्यान विषयिक स्थिति वर्णन आप्यु छे. हरिबलमच्छिना रासमां पण धर्मदेशना समये मोढे मुहपत्ति बांधवानी वात आवे छे. बीजे दिने रवि उगियो, प्रगटयो राग विभास । ककुभाए बाह पसारीया, कैरव कीध प्रकाश ॥१॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतार्थपरम्परा [11] देउल सघले वाजीया, झालरना रणकार । तास शब्द सुणतां थका, रजनी नाठी तिवार ॥२॥ सुलभबोधी जीवडा, मांडे निज खटकर्म । साधुजन मुख मुहपत्ति, बांधी कहे जिनधर्म ॥३॥ जगद्गुरु श्री हीरसूरि महाराज पण व्याख्यानमां मुहपत्ति बांधता हता. आ वात कवि ऋषभदासकृत ' हीरसूरिरास 'मां स्पष्ट छे. efoot एक प्रश्न पूछतो, 'कपडा' क्युं बंधेई ? थूक किताब उपर जई लागे, तेणे बांध्या है एही ॥ २१ ॥ sarat फीर एम पूछतो, थुंक पाक नापाक ? हीर कहे मुखमा तव पाको, नीकले ताम नापाकी ॥ २२ ॥ श्री होरसूरि महाराज खंभातमां हता त्यारे खंभातनो सूबो हबिचलो व्याख्यानमां गयेलो. तेणे पूछयुं. के-तमे मोढा उपर कपडु केम बांध्युं छे ? आचार्य महाराजे जणाव्यं केबोलतां थूक पुस्तक उपर न लागे तेथी कपडु बांध्युं छे. इले फरी पूछ के थूक पाक के नापाक ? त्यारे हीरसूरि महाराज कहे छे के थूक मोढामां होय त्यां सुधी पाक - पवित्र छे. बहार निकल्या पछी नापाक - अपवित्र गणाय अहिं बिबलाना प्रश्नना जवाबमां पुस्तक उपर थूक न लागे ए सिवाय मुहपत्ति बांधवानुं बीजुं कोई कारण जणाव्यं नथी. पुस्तक उपर थूक लागवाथो श्रुतज्ञाननी आशातना थाय छे. $ श्रुतज्ञान' ए ज्ञाननो भेद छे अने ज्ञान ए मोक्षनु अंग छे, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहपत्तिवन्धन एनी आशातना तरफ उपेक्षा सेववामां आवे तो मोक्षमार्गर्नु आराधकपणुं रहेतुं नथी, तेथी श्रुतज्ञाननी आशातनानु फळ दर्शावतां शास्त्रकार कहे छे केतित्थयरं-पवयण-सुयं-आयरियं-गणहरं-महडढियं । आसायंतो बहुसो, अणंतसंसारिओ होइ ॥२१॥ कुर्वनाशातनामर्हद्वाचां, सत्यसुधामुचाम् । प्राप्नुयादधिकं पापमाचार्या देवधादपि ।।२२।। महामोहतमोऽन्धानां, भ्रमतां भववर्त्मनि । श्रीजिनागमदीपोऽयं, प्रकाशं कुरुतेऽङ्गिनाम् ॥२३॥ अन्धयारे दुरुत्तारे, घोरे संसारसागरे । एसो चेव महादीवो, लोयालोयविलोयणी ॥१॥ एसो नाहो आणाहाणं, सबभूआणं भावओ। भावबन्धू इमो चेव, सव्वसुक्खाण कारणम् ।।२।। अर्थ :-तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुतज्ञान, आचार्य, गणधर, महर्द्धिक देव ओओनी घणी वार आशातना करनार जीव अनंतसंसारी थाय छे, महामोहरुप अंधकारथी अन्ध बनेला अने संसारमार्गने विषे परिभ्रमण करतां एवा जीवोने जिनेश्वर देवना आगम दीपकनी माफक प्रकाश आपे छे. जेने माटे कह्यु छ के-दुरुत्तार, भयानक अने अंधकारमय संसारसमुद्रने विषे लोक अने अळोकना भाव जणावनार आ जिनागमज महादीपक छे, जिनागम अनाथोनो नाथ छे, सर्व प्राणीओनो भावबन्धु छे अने सर्वसुखनु कारण छे. आ पंचम कालमां nal Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतार्थपरम्परा [१३ जिनागम अने जिनप्रतिमाज संसार समुद्र तरवाना साधन छे. ए बेमां जिनागम चडीयातुं छे. जिनवाणीनु महत्त्व समजावतां शास्त्रकार कहे छे के संप्रत्यस्ति न केवली कलियुगे त्रैलोक्यरक्षामणिः । तद्वाचः परमाश्चरन्ति भरतक्षेत्रे जगयोतिका ॥ सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवराः तासां समालम्बनम् । तत्पूज्या जिनवाक्यपूजनतया सामाज्जिनः पूजितः॥१॥ अर्थः-वर्तमानकाले कलियुगमांत्रण लोकनी रक्षा करवामां समर्थ एवा केवलिभगवान तो नथी, पण जगतमा प्रकाश करनारी तेमनी वाणी भरतक्षेत्रमा विस्तरे छे. अने-ज्ञानदर्शन-चारित्ररुपी रत्नत्रयीने धारण करनारा उत्तम मुनिओने पण केवली भगवाननी वाणीनुंज आलंबन छे, माटे मुनिओने पूज्य एवी जिनवाणीनो आदरसत्कार करवाथी साक्षात् जिने. श्वरदेवनी पूजानो लाभ मळे छे. आ उपरथी समजाय छे के जिनप्रतिमा करतां जिनेश्वरदेवना मुखमांथी निकळेल वाणी वधु चढियाती छे. हवे विचारवानुं ए रहे छे के-जिनप्रतिमानी पूजा करती वखते मुखनुं थूक के श्वास जिनप्रतिमाने न लागे अटला माटे श्रावकने अष्टपडो मुखकोश बांधवानुं शास्त्रकार कहे छे. पूजा तो मौनपणे पण थई शके छतां मुखकोश बांधवो पडे छे. वळी गुरुनी सेवा करती वखते पण श्रावकने 'आचारोपदेश'मां वस्त्रथी मुख ढांकवानुं कर्तुं छे:वस्त्रातमुखो मौनी हरन् सर्वाङ्गजं श्रमम् ॥ गुरुं संवाहयेतना-त्पादस्पर्श त्यजन् निनम् ॥१०॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] मुहपत्तिपन्धन अर्थः-श्रावक, गुरुना शरीरने पोताना मुखर्नु थूकके श्वास न लागे ते माटे वस्त्रथी मुख ढांकी, मौन राखी, शरीरना थाकने हरतो अने यत्नथी पोताना पगना स्पर्शने तजतो गुरुनी सेवा करे. साधुने पण वसतीनुं प्रमार्जन करती वखते शास्त्रकारे मुहमति बांधवानुं कर्तुं छे, तो पछी धर्मदेशना मोढे मुहपति बांध्या विना केम अपाय ? श्रुतज्ञाननी आशातना दूर करवाने अने जीवदयाने माटेज पूर्वाचार्यों धर्मदेशना समये मोढे मुहमति बांधता हता अने बांधवी जोई. धर्मशास्त्र वाचती वखते मोढे मुहपति के कपडु बांधवानो रिवाज जैन अने जैनेतर धर्ममा हतो अम पंडित श्री सुखलालजी पण पोतानी सन्मतितर्कनी गुजराती प्रस्तावनामा लखे छे जैन साधुओमां केटलाकनो अवो रिवाज छे के मात्र सभामा व्याख्यान करती वखते मोढे मुहपति बांधवी. मंत्रोच्चार करती वखते पारसी अध्वर्युमां मोढे कपड़े बांधवानी प्रथान, सांख्य परीवाजकोमा मोढा आगळ लाकडानी पट्टी रास्त्रवानी प्रथा, अने स्वामिनारायण संप्रदायनी शरुआतमां वांचती वखते मुखवस्त्र राखवानी प्रथाचें मूळ एकज लागे छे के विद्यार्थी के श्रोता उपर व्याख्याता के वक्ता, थूक न पडे. तेषां च महाभारते-बीटेतिख्याता दारवी मुखवत्रिका मुखनिश्वास निरोधिका भूतानां दया निमित्तं भवति यदाहुस्ते-घ्राणादितोऽनुयातेन श्वासेनैकेन जन्तवः ॥ हन्यते शतशो ब्रह्मन्नणुमात्राक्षरवादिनाम् ॥१॥ भावार्थ-वेओना महाभारतने विषे बीटा ए नामथी Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतार्थपरम्परा [१५] प्रसिद्ध लाकडानी मुख वस्त्रिका कहेलो छे, जे मुखना श्वासनो रोष करनारी जीवोनी दया निमिते होय छे, जेने माटे तेओ कहें छे के, हे ब्रह्मन् अणु मात्र एटलो अक्षर बोलनारना नाकमांथी नीकळेल एक श्वासवडे सेकडो जीवो हणाय छे, एटले जीवदया निमिते तेओ मुहपत्ति राखे छे, आ वात षड्दर्शन समुच्चयमा गुणरत्नसूरिए लखेल छे षड्दर्शन टीका पत्र ३८ ॥ इ. स. पूर्व चोथा सैकामा भारत पर चडी आवेल बादशाह सिकंदरनो सेनापति निआस पोताना युद्धवृत्तान्तमा लखे छे के 'भारतवासी लोको रुने कूटी कूटीने कागळ बनावतां.' आ उपरथी आपणे त्यां कागळ बनाववानो प्रयोग पण घणो प्राचीन जणाय छे. प्राचीन भंडारोमा चोथा अने पांचमां सैकानी लखेली प्रतो मळी शके छे एटले साधुओने ताडपत्रनी प्रतो लईने व्याख्यान वांव पडतुं हतुं अने तेने लीधे मुहपत्ति बांधता हता-आ वात तो पाया वगरनी लागे छे; कारण के आपणा देशमां कागळ बनाववानो उद्योग तो इस्वीसन पहेलाथी चालु छे एटले व्याख्यानने लायक कागळ उपर लखेली प्रतो नहोती अने ताडपत्रनी प्रतो बे हाथे पकडीने व्याख्यान वाचवू पडतुं हतु एटलेज मुहपत्ति बांधवानु प्रयोजन हतुं ए कथन निराधार ठरे छे. व्याख्यान योगमुद्रा के प्रवचनमुद्रार आपवानु छे तेथी बे हाथे पाना पकडीने व्याख्यान वांचवानी वात रहेतीज नथी. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहपत्तिबन्धन मुहपत्ति चर्चाने परिणामे परम्पराथी व्याख्यान समये मोढे मुहपत्ति बांधवानी वात सिद्ध थई त्यारे पू. श्री बुटेरायजी महाराज श्रीना शिष्य पू श्री नीतिविजयजो महाराजे का के-आपश्री स्थानकवासी संप्रदायमांथी आव्या छो वेथी आप मुहपत्ति न बांधो, परन्तु हुं तो स्थानकवासी संप्रदायमांथी आवेल नथी तो आपश्री जो आज्ञा आपो तो हुँ मुहपत्ति बांधुं. पडी पू. श्री बुटेरायजी महाराजश्रीनी आज्ञाथी पूज्य महाराजश्री नीतिविजयजी महाराज व्याख्यानसमये मोढे मुहपत्ति बांधता हता. तेमना शिष्य पू. श्री सिद्धिविजयजो म. पू. श्री हरखविजयजी म० अने मुनिराजश्री दीपविजयजी म. पण मुहपत्ति बांधता हता एम संभळाय छे. एटले गुरुए न बांधी तेथी शिष्यो पण न बांधे तेवो कोई नियम नथी. आ ढूंका निबन्धनो सारांश ए छे के-साधु-मुनिराजे व्याख्यान वांचती वखते मुहपत्ति मुख पर बांधीने कानना छिद्रमां भराववी ए गोतार्थ परम्परागत आचरणा ज छे. व्याख्यानमां मोढे मुहपत्ति बांधवा विष आचार्यश्री विजयानंदमूरि-आत्मरामजी महाराज तरफथी सुरत मुनिश्री आलमचंदजी महाराज उपर लखाएल पत्रनी अक्षरशः नकल नीचे आपवामां आवे छे. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मु. सुरत बंदर. मुनिश्री आलमचन्दजी योग्य लि. आचार्य महाराज श्री श्री श्री १००८ श्रीमद् विजयानंदसूरीश्वरजी (आत्मारामजी) महाराजजी आदि साधुमंडल ठाने ७ के तर्फसे वंदणानुवंदणा १००८ बार वांचनी. चिट्ठी तुमारी आइ समंचार सर्व जाणे है यहां सर्व साधु सुखसातामें हैं तुमारी सुखसाताका समंचार लिखना. मुहपत्ति विशे हमारा कहना इतना हि है कि मुहपत्ति बन्धनी अच्छी है और घणे दिनोंसे परंपरा चली आइ है इनको लोपना यह अच्छा नहीं हैं, हम बंधनी अच्छी जाणते है परन्तु हम ढुंढी) लोकमेंसे मुहपत्ति तोडके नीकले है इस वास्ते हम बंध नहीं सकते है और जो कदी बंधनी इच्छो तो वहाँ बडी निन्दा होती है और सत्य धर्ममें आये हुआ लोकों के मनमें हीलचली हो जावे इस वास्ते नहीं बंध सक्ते है सो जाणना अपरंच हमारी सलाह मानते हो तो तुमको मुहपत्ति बंधने में कुच्छ भी हानी नहीं हैं क्योंकि तुमारे गुरु बंधते है और तुम नहीं बंधो यह अच्छी बात नहीं है. आगे जैसी तुमारी मरजी. हमने तो हमारी अभिप्राय लिख दीया है सो जाणना और हमको तो तुम बांधो तो भी वैसा हो और नहीं बांधो तो भी वैसे ही है। परन्तु तुमारे हितके वास्ते लिखा है, आगे जैसी तुमारी मरजी. १९४७ कत्तक वदि ०)) वार बुध दसखत वल्लभविजय' की वंदना वांचनी. दीवाली के रोज दश बजे चिट्ठी लिखी है. १ नोट-खर्गस्थ-आचार्यश्री विजयवल्लभसूरि महाराज । 卐 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तारूं तुं संभाळ कार्य च किं ते पर दोषदृष्टया कार्य च किं ते परचिन्तया च वृथा कथं खिसि बालबुद्धे कुरु स्वकार्य त्यजसर्वमन्यत् हे चेतन ! पारका दोषो जोवानुं तारे शुं प्रयोजन छे? तेम पारकी चिन्ता करवानुं पण तारे शुं काम छे ? हे मंदबुद्धि ? नाहकमां शा माटे दुःखी थाय छे ? सर्व छोडी तुं तारूं संभाळ. मुद्रक : मणिलाल छगनलाल शाह नवप्रभात प्रिन्टिग प्रेस, घीकाटा रोड, अहमदाबाद. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96.61 गुरुस्तुति शीलादिगुणयुग् जितेन्द्रियवरो रागादि - दोषान्तकृत् / पीयूषामभिसगिरा भुवि सदा सद्धर्म-सद्देशकः / / शास्त्रेष्वक्षतधीगणी गुरुसमः संविग्न-शाखाग्रणीः / पन्यास-प्रवरोऽत्र भावविजयो जीयात् तपागच्छराट् // 1 // अज्ञानानि घनान्धकार-पटलं ज्ञानांशुभिर्निर्दमन् / पापात्मावलि सक सत्कुमुदिनी संकोचमापादयन् / / तेज:-पुंजसितोकृत शितितलो यः सर्वदा द्योतते / वन्देऽहं तमहस्तरं बुधनतं श्री नीतिसूरीश्वरम् // 2 // बाल्ये येन कलाऽरिषटक विजये आसाद्य दीक्षां गुरोः / पाचे सुरिविभूषणस्य वसता शास्त्राधिरुत्कंपितः / नीतेः पविभूषकोज्ज्वलकर-मुरीशः चूडामणिः / सोऽयं ज्ञानतपो निधि विजयतां श्रीहर्ष सूरीश्वरः // 3 // Jain Education international For Private & Personal use only .