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गीतार्थपरम्परा
[१३ जिनागम अने जिनप्रतिमाज संसार समुद्र तरवाना साधन छे. ए बेमां जिनागम चडीयातुं छे. जिनवाणीनु महत्त्व समजावतां शास्त्रकार कहे छे के
संप्रत्यस्ति न केवली कलियुगे त्रैलोक्यरक्षामणिः । तद्वाचः परमाश्चरन्ति भरतक्षेत्रे जगयोतिका ॥ सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवराः तासां समालम्बनम् । तत्पूज्या जिनवाक्यपूजनतया सामाज्जिनः पूजितः॥१॥
अर्थः-वर्तमानकाले कलियुगमांत्रण लोकनी रक्षा करवामां समर्थ एवा केवलिभगवान तो नथी, पण जगतमा प्रकाश करनारी तेमनी वाणी भरतक्षेत्रमा विस्तरे छे. अने-ज्ञानदर्शन-चारित्ररुपी रत्नत्रयीने धारण करनारा उत्तम मुनिओने पण केवली भगवाननी वाणीनुंज आलंबन छे, माटे मुनिओने पूज्य एवी जिनवाणीनो आदरसत्कार करवाथी साक्षात् जिने. श्वरदेवनी पूजानो लाभ मळे छे. आ उपरथी समजाय छे के जिनप्रतिमा करतां जिनेश्वरदेवना मुखमांथी निकळेल वाणी वधु चढियाती छे. हवे विचारवानुं ए रहे छे के-जिनप्रतिमानी पूजा करती वखते मुखनुं थूक के श्वास जिनप्रतिमाने न लागे अटला माटे श्रावकने अष्टपडो मुखकोश बांधवानुं शास्त्रकार कहे छे. पूजा तो मौनपणे पण थई शके छतां मुखकोश बांधवो पडे छे. वळी गुरुनी सेवा करती वखते पण श्रावकने 'आचारोपदेश'मां वस्त्रथी मुख ढांकवानुं कर्तुं छे:वस्त्रातमुखो मौनी हरन् सर्वाङ्गजं श्रमम् ॥ गुरुं संवाहयेतना-त्पादस्पर्श त्यजन् निनम् ॥१०॥
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