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गीतार्थपरम्परा उपाध्याय श्री धर्मसागरजीए पोतानी रचेल प्रवचन परीक्षामां विधान करेल छे. ते पाठ नीचे प्रमाणे छे
साधुवेष-कटिदवरकनिबद्धपरिहितचोलपट्टको रजोहरणमुखवत्रिकासमन्वितः पातकल्पकस्कन्धोपरि कृतौर्णिको गृहीतवामकरदण्डकः परम्पराऽऽयातविधिविद्धोभयकर्णकश्च पुरुषः साधुवेषधारी भण्यते, तस्य यो वेषः सः संपूर्णों वेषो भवति ॥
अर्थ :-जे पुरुष कम्मरमां दोरी बांधवापूर्वक चोल. पट्टो पहेरे होय. रजोहरण एटले ओघो अने मुखवत्रिका युक्त होय, कपडा पहेरी डाबा खभा उपर कामल नाखी, डाबा हाथमा दंड धारण करेल, परम्पराथी आवेल विधि: पूर्वक बन्ने कान विंधावेल होय, आवो पुरुष साधुवेषधारी कहेवाय छे. ते पुरुषनो जे वेष ते संपूर्ण साधुवेष कहेवाय छे.
आ उपरथी समजवान के मोढे मुहपत्ति बाँधवा माटे साधुने कान विधाववा पडे छे, कान विधायेला न होय तो संपूर्ण साधुवेष गणाय नहि, प्रवचनपरिक्षा बीजो भाग. ८ विश्राम, पत्र २५ मां जणाव्युं छे साधुने मुहपत्ति बे प्रकारनी होय छे.
चउरंगुल विहत्थी एयं मुहणंतगस्स उ पमाणं । बीओ विअ आएसो मुहप्पमागेण निष्फन्नं ॥१॥
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