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पर्वतिथिक्षयवृद्धिप्रश्नोत्तरविचार
अर्थ-जे बाबत के अनुष्ठान सिद्धान्तमां विहित एटले चैत्यवंदन अने आवश्यक विगेरेनी माफक कर्तव्य रुपे पण नहि कहेल होय, अने प्राणातिपातोदिकनी माफक प्रतिषेघेल पण नहि होय; ते साथे वळी जे लोकमां चिररुढ होय, एटले ते कयारथी शरु थई तेनी खबर पडती न होय, तेने पण संसारवृद्धिभीरु गीतार्थों दूषित करता नथी एटले के ‘आ परंपरा के प्रवृत्ति अयुक्त छे' एम. बीजाने उपदेश करता नथी, जे माटे तेओ श्री भगवती सूत्रमा कहेली नीचेनी वातने विचारे छे. हकीकत आ प्रमाणे छे-हे मंदुक ! जे माणस अजाण्या, अणदीठा, अणसांभल्या अने अणपरख्या अर्थ, हेतु, प्रश्न के उत्तर भरसभामां कहे, जणावे, प्ररुपे, बतावे, साबित करे के रजू करे ते माणस अर्हत् भगवानोनी तथा केवळीओनी आशातना करे छ, अने तेमना धर्मनी पण आशातना करे छे, अने तेमना चित्तमां आ वात पण स्फुरे छे के
संविगा गीयतमा विहिरसिया पूचनरिणो आसि ॥ तददूसियमायरिय-अणइसई को निवारेइ ॥ १०॥
अर्थ-संविग्न एटले जल्दी मोक्ष इच्छनारा अने अतिशय गीतार्थ केमके तेमना वखते बहु आगमो हता, तथा संविघ्न होवाथीज विधिरसिक एटले विधिमां जेमने रस पडतो हतो एवा अर्थात् विधि बहुमानी पूर्वसूरियो एटले चिरंतन आचार्यों हता, तेमणे अणदूषेलुं एटले
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