Book Title: Jinabhashita 2003 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2529 भगवान आदिनाथ चाँदरखेड़ी चैत्र, वि.स. 2060 अप्रैल 2003 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP / HIN/29933/24/1/2001-TC सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल- 462016 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर. के. मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर द्रव्य औदार्य श्री गणेश कुमार राणा जयपुर प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-351428, 352278 सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000रु. 51,000रु. 5,000रु. 500 रु. 100 रु. एक प्रति 10 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। परम संरक्षक संरक्षक आजीवन वार्षिक जिनभाषित मासिक • लेख आपके पत्र धन्यवाद सम्पादकीय : यह कैसा धर्म संरक्षण ? प्रवचन: विनयावनति कार्यकारण-व्यवस्था जिनदीक्षा का पात्र कौन ? • अज्ञाननिवृत्ति डाक पंजीयन क्र. - म.प्र. / भोपाल / 588/2003 अप्रैल 2003 अन्तस्तत्त्व सम्यक्चारित्र की उपादेयता सम्यक्त्वमणिः रानी रेवती चाँदखेड़ी के अतिशय क्षेत्र से... संयुक्त परिवार का अर्थशास्त्र जिज्ञासा समाधान ● आ. श्री विद्यासागर जी की पूजा कविताएँ : • ● भक्ति जिनने जोड़ ली है मेरी कविताएँ दया की पुकार मेरी कविताएँ चावल के पाँच दाने भगवान महावीर का गर्भावतरण बोध कथाएँ समाचार वर्ष 2. : आचार्य श्री विद्यासागर जी : डॉ. श्रेयांस कुमार जैन : डॉ. नीलम जैन : सतीश जैन इंजीनियर : श्री प्रमोद शर्मा (सी.ए.) : पं. रतनलाल बैनाड़ा : राजेन्द्र रमण : योगेन्द्र दिवाकर : डॉ. सुरेन्द्र जैन भारती देवेन्द्रकुमार जैन 10 अङ्क 3 : मुनि श्री निर्णयसागर जी मुनि श्री विशुद्धसागर जी 12 : पं. माणिकचन्द जैन न्यायाचार्य 15 16 18 20 23 पृष्ठ : डॉ. कस्तूरचन्द्र : डॉ. सुरेन्द्र जैन भारती : डॉ. जगदीशचन्द्र जैन जैन 'सुमन' 1 3 8 10 24 26 32 25 25 आवरण पृष्ठ 4 27 11 आवरण पृष्ठ 3 28-32 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य मैं" जिनभाषित " पत्रिका का प्रारम्भ काल से ही नियमित पाठक रहा हूँ। यह पत्रिका समाज को दिशा देने के साथ-साथ युवा वर्ग को भी अपने धर्म व गुरुओं की जानकारी उपलब्ध कराकर उन्हें जिन धर्म को जानने समझने की जानकारी उपलब्ध करा रही है। "जिनभाषित " पत्रिका जनवरी २००३ का अंक देखनेपढ़ने-समझने में आया। पाठकों के पत्रों में पं. सुनील जी शास्त्री, आगरा का पत्र एवं आपका सम्पादकीय निश्चय ही सोचनेविचारने पर मजबूर कर देता है। सम्पादकीय के पैराग्राफ नं. ८११ तथा १२ पर जहाँ आपने बीमारी की ओर दृष्टि की है वहीं आपने इसका कारण क्या है, इस पर भी जोर दिया है। वास्तव में आर्यिकाएँ आदि मुनिसंघों के साथ रहनी ही नहीं चाहिये। १०८ मुनिश्री निर्णयसागर जी ने "प्रतिमा विज्ञान और उसके लाभ " में जो समाधान दिये हैं वे समाधान कारक हुए हैं । अन्य लेख भी पठनीय हैं अच्छी पत्रिका के लिये धन्यवाद । पं. तेजकुमार गंगवाल १०/२, रामगंज (जिन्सी) इन्दौर- ४५२००२ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के श्रीमुख से कहे प्रेरक वचनों यथा "बार्डर पर आर्डर की प्रतीक्षा करने वाले जवान भी धर्मज्ञानी हैं, उन्हें भी देशरक्षार्थ धर्म लाभ मिलता है, ऐसे वीर सपूतों का बलिदान राष्ट्र, प्रदेश तथा समाज को याद रखना चाहिए एवं उनके प्रति सद्भावना एवं कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए।" ऐसे अमृतवचन सुनकर हमारे मित्र श्री वीरेन्द्र गाँधी जिनके वीरपुत्र केप्टिन श्रेयांस गाँधी जो अल्प आयु २६ वर्ष में ही देशरक्षा करते हुए रंजीतपुरा सेक्टर बीकानेर राजस्थान सीमापर विगत ०७ जनरवरी को बारूदी सुरंग हटाते हुए शहीद हुए हैं, उनके परिजन एवं मित्र आचार्यश्री के स्नेहाशीष से धन्य हुए हैं। भारतीय सेना में प्रथम सबक के रूप में पढ़ाया जाता है कि " If we Don't come Back, tell them, for their better Tomarrow we gave our today. देश पर मर मिटनेवाले सपूतों की याद में किसी शायर ने कहा है फरवरी २००३ के अंक में परमपूज्य मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज का लेख 'धर्म-जीवन की धुरी' वास्तव में धर्म की आत्मा से स्वयं की आत्मा को अंगीकार करने वाला लेख है । मेरी दृष्टि बचपन से एक स्वच्छ आलोचक की रही हैं। इस कारण मुझे कमियाँ स्वतः ही नजर आ जाती हैं। मैं आपकी पत्रिका में कमियाँ न देखते हुये एक सुझाव जरूर देना चाहूँगा। मैंने जिनभाषित के प्रत्येक अंक में आवरण सज्जा सर्वोत्तम देखी है आवरण पृष्ठ के चित्र को देखकर उसके बारे में जानने की इच्छा स्वतः ही हो जाती है। इस दृष्टि से आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप कृपया अपने जिनभाषित के आगामी अंक में उक्त कमी को दूर करने का प्रयास करेंगे एवं मेरे सुझाव को पत्रिका में स्थान देंगे। जिनेन्द्र घुवारा घुवारा सदन, टीकमगढ़ (म.प्र.) आपके कुशल संपादन से सज्जित पत्रिका जिनभाषित का प्रत्येक अंक पठनीय / मननीय एवं संग्रहणीय है । आपके द्वारा लिखा संपादकीय एवं श्री जुगलकिशोर मुख्तार के लेख चेतना को हिला कर झकझोर देते हैं और सोचने को मजबूर कर देते हैं। कृपया इस तरह के लेख निर्भीकता से छापा करें । क्योंकि यह सत्य है कि १० सच्चे मुनीश्वर जितनी प्रभावना करते हैं, एक विकृत भाववाला मुनि उतनी अप्रभावना कर देता है । आजकल एस.टी.डी. फोन के कारण किसी के मरण होने पर रिश्तेदारों के इंतजार में अधिक समय तक मृत शरीर को रखने की परंपरा बढ़ती जा रही है। कृपया इस पर भी पत्रिका के माध्यम से अपनी सलाह देवें कि ऐसा करना ठीक नहीं है और मरण होने पर कितने समय पश्चात् सूक्ष्म जीव उत्पन्न होने लगते हैं इस पर भी पत्रिका में जानकारी मिलनी चाहिए। जिस भी तीर्थ क्षेत्र की फोटो मुख पृष्ठ पर प्रकाशित की जावे, उसके बारे में विवरण अवश्य ही उसी अंक में दिया जावे। यदि आप धार्मिक वर्ग पहेली को पत्रिका में स्थान देना चाहते हों, तो कृपया सूचित करें, हम निःशुल्क वर्ग पहेली बनाकर भेजने के लिए तैयार हैं। उपेन्द्र नायक, रानीपुरा (झाँसी) शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले । वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशाँ होगा ।। आचार्यश्री के अमृत वचनों से, आत्मीयता एवं शीतलता से हम सभी परिजन / मित्रजन अभिभूत हैं। हम प्रार्थना करते हैं कि दिवंगत आत्मा को शान्ति प्राप्त हो। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के चरणों में वारंवार वंदना । एस. एन. जैन, पारिवारिक मित्र, अपेक्स बैंक, भोपाल "जिनभाषित " फरवरी ०३ अंक प्राप्त हुआ। पत्रिका अपने प्रगति पथ पर निर्बाध गति से बढ़ती हुई लोकप्रियता के चरम का स्पर्श कर रही है। इसमें प्रकाशित समस्त लेख अपने आप में चिन्तनीय, अनुकरणीय एवं समसामयिक होते हैं 1 'जिनभाषित' का प्रत्येक अंक हर समय प्रासांगिक रहने अप्रैल 2003 जिनभाषित 1 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर सवप्रथम वाले लेखों का पिटारा है, जो संग्रहणीय होता है। यह ऐसी पत्रिका । आवश्यक समझकर दे रहा हूँ। है, जिसमें अभी तक किसी प्रकार का दूषण नहीं आ पाया है। यह सर्वप्रथम डॉ. श्री देवेन्द्र कुमार जी शास्त्री के शब्दों का संपादक के कौशल का परिणाम है। इसमें पक्षपात का कीड़ा नहीं | उल्लेख करता हूँलगा है, जिससे इसका प्रगति पथ निर्दोष, सहज, सरल एवं "जयजयकार के साथ शत सहस्त्र इन्द्र, माहेन्द्र तथा व्यवस्थित है। लौकान्तिक देव, प्रभु का अभिषेक करते हैं।' (जन्माभिषेक के 'जिनभाषित' जिनेन्द्र की दिव्यध्वनि भव्य जीवों तक | प्रसंग में, प्राकृत विद्या, जनवरी-जून २००२, पृष्ठ ६८) पहुँचाने का कार्य चिरकाल तक करती रहे, ऐसी भावना है। प्रस्तुत कथन पर मेरी समीक्षा का वाक्य निम्न हैपं. सनत कुमार, विनोद कुमार जैन "यह कथन आगमविरोधी है। लौकान्तिक देव केवल रजवाँस, सागर (म.प्र.) | दीक्षाकल्याणक में ही भगवान् के वैराग्य की प्रशंसा करने आते 'जिनभाषित' फरवरी २००३ का अंक मेरी दृष्टि के सामने | हैं। यह प्रसिद्ध विषय है।" है। पाठकों के पत्रों, समीक्षा तथा प्रतिवाद आदि को निष्पक्ष भाव । मैं समझता हूँ कि भाई बंसल जी ने श्री कटारिया जी के से समुचित स्थान दिये जाने की विशेषता से संपादक जी का उदार आशय को न समझ कर लौकान्तिक देवों द्वारा भी भगवान् के दृष्टिकोण परिलक्षित हो रहा है। अभिषेक की पुष्टि की है। उनके सामान्य कथन में वे लौकान्तिक पृष्ठ सं. ४ पर डॉ. श्री राजेन्द्र कुमार जी बंसल अमलाई देवों को भी सम्मिलित कर रहे हैं। यह उचित नहीं है। उन्हें स्वयं वालों के पत्र को पढ़ा। इसमें इन्होंने मेरे लेख की चर्चा करते हुये | आगम के अवर्णवाद का भय होना चाहिये। निम्न प्रकार समीक्षा की है लौकान्तिक देवों द्वारा भी अभिषेक करने की आगम विरोधी “श्री पं. शिवचरन लाल जैन ने 'जिनभाषित' अक्टूबर सिद्धि के निरसन रूप मेरे कथन को अवर्णवादी एवं दुर्भावनापूर्ण २००२ पृष्ठ २४ पर यह कथन अवर्णवादी लिखा था, जिसमें डॉ. कहना स्वयं बंसल जी की सद्भावना का परिचायक नहीं हो देवेन्द्र कुमार जी शास्त्री ने जन्माभिषेक प्रकरण में लौकान्तिक सकता। वे बौद्धिक कार्यों के अभ्यासी हैं। उनसे मेरा आग्रह है कि देवों द्वारा भी अभिषेक करने का उल्लेख किया था। श्री कटारिया अपनी भावना को निर्मल बनाते हुए शास्त्रों का पुन: अवलोकन जी के मत के अनुसार लौकान्तिक आदि सभी देव कल्याणकों के करें और लौकान्तिक देवों द्वारा जन्माभिषेक करने के कतिपय सभी समारोहों में जाते हैं। सम्माननीय श्री पं. शिवचरन लाल जी प्रमाण मुझे एवं समाज को प्रस्तुत करें, ताकि जिसकी भी हो, का आरोप स्वत: मिथ्या सिद्ध हो जाता है। दुर्भावनापूर्ण कथन दुर्भावना एवं अवर्णवादी प्रवृत्ति दूर हो सके। मैं एतदर्थ आभारी इष्ट नहीं है।" रहूँगा। 'जिनभाषित' पत्रिका एवं उसके संपादक की मैं मुक्त प्रस्तुत समीक्षा स्वस्थ एवं आगमानुकूल नहीं है। इन्होंने कण्ठ से प्रशंसा करता हूँ। भ्रमों के निवारण हेतु इसका प्रयत्न मेरे कथन को अवर्णवादी एवं दुर्भावनापूर्ण उल्लिखित किया है। सराहनीय है। यद्यपि मैं प्रतिवाद करने का अभ्यासी नहीं हूँ, तथापि आगम की शिवचरन लाल जैन गरिमा का अवमूल्यन करना इष्ट नहीं है। इस दृष्टि से स्पष्टीकरण | सीताराम मार्केट, मैनपुरी (उ.प्र.) कर्मणां विनियोगेन वियोगः सह बन्धुना। प्राप्ते तत्रापरं दुःखं शोको यच्छति सन्ततम्॥ अर्थ- कर्मों के अनुसार इष्टजनों के साथ वियोग का अवसर आने पर यदि शोक होता है, तो वह आगे और भी दु:ख देता है। प्रत्यागमः कृते शोके प्रेतस्य आदि जायते। ततोऽन्यानपि सङ्गह्य विदधीत जनः शुचम्॥ अर्थ- यदि शोक करने से मृतक व्यक्ति वापस लौट आता हो, तो दूसरे लोगों को भी इकट्ठाकर शोक करना चाहिए। पद्मपुराण 2 अप्रैल 2003 जिनभाषित - Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय यह कैसा धर्म संरक्षण ? अखिल भारतवर्षीय दि. जैन महासभा भारत के दिगम्बर जैन समाज की सर्वाधिक प्राचीन प्रतिनिधि संस्था है। दिगम्बर जैन समाज में पूजापद्धति के आधार पर बीस पंथ, तेरा पंथ दो प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित थीं, किंतु महासभा के संस्थापकों ने दोनों पक्षों को सभा में प्रतिनिधित्व दिया और पक्षपातरहित नीति अपनाई। महासभा के संस्थापक अध्यक्ष एवं आगे भी अनेक अध्यक्ष एवं पदाधिकारी तेरापंथ विचाराधारा के श्रद्वालु रहे, किंतु उन्होंने महासभा के मंच से उक्तपंथ भेद का विवाद उत्पन्न नहीं होने दिया और पंथ पक्षपात से उपर रहते हुए दिगम्बर जैन समाज की एकता और संगठन एवं दिगम्बर जैन धर्म की प्रभावना को महासभा का उद्देश्य बनाया। उन्होंने पूजापद्धतियों के विभेद के कारण समाज में कटुता उत्पन्न नहीं होने दी। इसी प्रकार बीसपंथ विचारधारावाले सज्जन भी महासभा के अध्यक्ष रहे, किंतु उन्होंने भी महासभा की संगठनमूलक नीति का कभी उल्लघंन नहीं किया। लम्बे समय तक दोनों विचारधारा के लोगों ने महासभा को अपना समझा और महासभा के झंडे के नीचे मिलकर समाजहित एवं धर्मप्रभावना के कार्यक्रमों में उत्साहपूर्वक भाग लिया। किंतु अत्यधिक खेद के साथ लिखना पड़ता है कि गत कुछ वर्षों से महासभा के योग्य अध्यक्ष एवं अन्य पदाधिकारियों द्वारा महासभा की स्थापित रीति-नीति उपेक्षित हो रही है। उन्होंने दिगम्बर जैन धर्म की प्रभावना के महान् व्यापक और उदार उद्देश्यों के लिए स्थापित महासभा को मानों अपनी निजी संस्था बना लिया है और वे महासभा के मंच एवं उसके मुखपत्र का उपयोग अपनी एकपक्षीय विचारधारा के प्रचार एवं पोषण में करने लगे हैं। परिणामस्वरूप समाज को बाँटे जाने के साथ-साथ अब तो हमारे आराध्य देवशास्त्रगुरु को भी बाँटा जा रहा है। महासभा की साधारण सभा और कार्यकारिणी समिति के मंच से समाज में फूट डालने वाले आगमविरुद्ध प्रस्ताव पारित किए जा रहे हैं। अखिल समाज की प्रतिनिधि संस्था के द्वारा अपनी व्यक्तिगत एकपक्षीय विचारधारा का पोषण दुर्भाग्यपूर्ण है। महासभा के साथ एक पवित्र पद " धर्म संरक्षिणी" जुड़ा हुआ है, जो महासभा के पदाधिकारियों के कंधों पर एक महान् नैतिक उत्तरदायित्व डालता है। उन्हें इस बात की सावधानी रखना आवश्यक है कि कहीं उनके किसी कार्य से " धर्मसंरक्षण" के स्थान पर धर्म की हानि और महासभा के स्थापित उद्देश्यों का उल्लघंन तो नहीं हो रहा है। दिगम्बर जैन धर्म के मूल सिद्धांत वीतरागता, अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत हैं, जिनके आधार हमारे सच्चे देव, गुरु और शास्त्र हैं। हमारे देव वीतरागी हैं, गुरु वीतरागी, अहिंसक और अपरिग्रही हैं तथा हमारे शास्त्र अनेकात्मक रूप से उक्त सिद्धांतों के प्ररूपक हैं। जब और जहाँ उक्त सिद्धांत बाधित होते हैं, तब और वहाँ धर्म संरक्षण कैसे संभव हो सकता है ? महासभा के केन्द्र में स्थित इसके वर्तमान सुयोग्य अध्यक्ष निःसन्देह सामाजिक संगठन एवं धर्मसंरक्षण के लिए चिंतित तो हैं और इसके लिए उनके द्वारा समर्पित रूप से किया जा रहा अथक श्रम निश्चय ही अत्यंत प्रशंसनीय है, किंतु समर्पित भावना होते हुए भी कदाचित् पक्षव्यामोह के कारण एवं अफवाहों और शंकाओं के आधार पर बनाई गई धारणाओं के कारण वे महासभा के व्यापक उद्देश्यों से भटक जाते हैं और लिए गए निर्णयों के दूरगामी विपरीत परिणाम देखने में आते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आधार पर कोई भी व्यक्ति किसी आम्नाय या पद्धतिविशेष के समर्थन-विरोध में वीतराग चर्चा के रूप में स्वयं के व्यक्तिगत विचार तो व्यक्तिगत रूप से प्रकट कर सकता है, किन्तु अखिल भारतीय दिगम्बर जैन समाज की प्रतिनिधि संस्था के मंच से किसी एक आम्नाय की किसी मान्यता के समर्थन/विरोध का प्रस्ताव यदि पारित किया जाता है तो यह निश्चय ही अत्यंत आपत्तिजनक है और संस्था की निष्पक्ष एवं संगठनपरक नीति को नष्ट करनेवाला होते हुए समाज को विघटन की ओर ले जानेवाला है। अभी हम केवल महासभा द्वारा पारित दो प्रस्तावों की चर्चा करना चाहेंगे। पहला उदयपुर में हुए महासभा के साधारण अधिवेशन में पारित प्रस्ताव सं. 2 है जो जैन गजट के अंक 106/40 पृष्ठ 5 पर प्रकाशित हुआ है। साधारण सभा में प्रस्ताव पारित करने क पूर्व घटना की पूरी जानकारी प्राप्त करने की जिम्मेदारी कार्यकारिणी समिति की होती है, किंतु सखेद लिखना पड़ता है कि बिना घटना अप्रैल 2003 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की वास्तविक जानकारी प्राप्त किए केवल अफवाहों के आधार पर द्वेषबुद्धि से बिजोलिया क्षेत्र की कमेटी के विरुद्ध ऐसा प्रस्ताव लाया गया है। जब बिजौलिया क्षेत्र की सम्पूर्ण कमेटी द्वारा सर्वसम्मति से उक्त प्रस्ताव में वर्णित असत्य का खंडन हो जाने पर किसी प्रकार की शंका शेष नहीं रहने पर भी पुन: दुर्भावना और दुराग्रह से ग्रसित महासभा ने लखनउ में हुई कार्यकारिणी की बैठक में बिजौलिया कमेटी के प्रस्ताव को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है, जो समाचार विस्तार से जैन गजट के अंक 107/10 के पृष्ठ 5 पर प्रकाशित है। इस प्रस्ताव में सर्वाधिक खेदजनक बात तो यह है कि इसमें आचार्य वर्द्धमान सागर जी के सान्निध्य में स्थापित मूर्तियों को हटाने की असत्य बात को दो बार जोर देकर लिखकर दो साधुओं और उनके श्रद्धालुओं की भावनाओं को भड़काने का अवांछित प्रयास किया गया है। यदि कदाचित् यह घटना सत्य भी होती, तो भी महासभा के पदाधिकारियों का यह कर्तव्य था कि साधारण सभा में ऐसा विघटनकारी प्रस्ताव पारित करने के पहले बिजौलिया कमेटी से मिलकर घटना की पूरी जानकारी प्राप्त करते और समाधन का मार्ग खोजते। इस प्रस्ताव का दुष्परिणाम तुरंत देखने में आ रहा है कि प्रस्ताव के संबंध में जिनभाषित' में अक्टूबर-नवम्बर के अंक में संपादकीय लेख प्रकाशित हुआ। उसके विरोध में जैन गजट 107/5 पृष्ठ 2 पर दो भड़काउ पत्र प्रकाशित हुए और उसके खंडन में मदनगंज-किशनगढ़ की समाज द्वारा पारित प्रस्ताव प्रकाशित हुआ। मन में यदि सद्भावना हो तो सत्य से समाधान प्राप्त हो जाता है, किंतु यह सत्य है कि सत्य भी दुर्भावना का समाधन करने में अशक्त रहता है। सब कुछ देखकर ऐसा लगता है कि बिजौलिया क्षेत्र कमेटी को, जो वस्तुत: क्षेत्र के निर्माण व परिवर्तन-परिवर्द्धन के लिए सक्षम व उत्तरदायी है, एक किनारे रखकर दो साधुओं का आधार लेकर समाज की भावनाओं को भड़काने का अवांछनीय कृत्य किया जा रहा है, जिसका प्रारम्भ महासभा ने अपने मंच से किया है। एक अन्य प्रस्ताव महासभा की लखनउ में हुई प्रबंधकारिणी समिति की बैठक में पारित प्रस्ताव सं. 2 है जो जैन गजट के अंक 107/10 पृष्ठ 6 पर प्रकाशित है। प्रस्ताव के प्रारंभ में भट्टाकर-परंपरा की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि जैनधर्म के संरक्षण संवर्द्धन, जैन वाड्मय के संरक्षण, प्रणयन में इस परंपरा का योगदान अभिवंदनीय है। यदि हम भट्टाकर परंपरा के इतिहास का निष्पक्ष सर्वेक्षण करें, तो हम पायेंगे कि वास्तविकता उक्त कथन से सर्वथा विपरीत है। यद्यपि भट्टारक शब्द पूर्व में जैनधर्म के प्रभावक आचार्यो के लिए प्रयुक्त होता था, जिन्होंने अनेक ग्रंथ लिखकर दिगम्बर जैन धर्म की प्रभावना की, तथापि भट्टारक शब्द कालांतर में शिथिलाचारी दिगम्बर मुनियों के लिये प्रयुक्त होते-होते, वस्त्रधनादिपरिग्रह सहित मठाधीश सुविधाभोगी किंतु पीछी धारी एक विशेष वर्ग के लिए रूढ़ हो गया। यहाँ उन्हीं भट्टारकों एवं उन्हीं की परंपरा की चर्चा किया जाना प्रसंग प्राप्त है। समय बीतने के साथ ही भट्टारक वर्ग चारित्र में अधिकाधिक शिथिल होता गया और श्रावकों से बलात् भेंट वसूल कर अपना परिग्रह बढाने लगा। चौदहवीं शताब्दी में दिल्ली की गद्दी से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में भट्टारकों की गादियाँ स्थापित हो गईं। इन भट्टारकों ने अपने अस्तित्व के लिए श्रावकों को शास्त्राध्ययन से वंचित रखा और अपनी मंत्र-तंत्रादि शक्ति से प्रभावित रखा। वे भट्टारक स्वयं भी प्रायः आगमज्ञान से शून्य रहते हुए मंत्रतंत्रादि की आराधना में लीन रहने लगे और श्रावकों को आंतकित कर उनसे धन-वसूली करने लगे और श्रावकों के अज्ञान और असंगठन का लाभ उठाते हुए मठाधीश बनकर विलासी जीवन जीने लगे। उत्तर भारत में कतिपय स्थानों पर शास्त्रस्वाध्याय का प्रचलन रहा और कुछ जैन आगम के ज्ञाता विद्वान हुए। उनके प्रभाव से एवं श्रावकों में जाग्रत चेतना के कारण वहाँ तो भट्टारकों की परंपरा समाप्त प्राय हो गई। तथापि दक्षिण भारत में यह परंपरा अभी भी जीवित है। इनमें से एक श्रवण बेलगोल मठ के वर्तमान भट्टारक चारुकीर्ति जी विद्वान हैं और इस परंपरा में आई शिथिलताओं से उपर उठकर संयमित जीवन जीने के लिए प्रयत्नशील है। भट्टारक परंपरा के इतिहास के अध्ययन से हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि भट्टारक भ्रष्ट मुनियों की अवस्था है। जो दिगम्बर मुनि अपनी चर्या को दोषयुक्त बनाकर धीरे-धीरे वस्त्रादि परिग्रहधारी होकर मठाधीश एवं विलासी बन गए वे भट्टारक कहलाने लगे। वे दिगम्बर भेष छोड़कर वस्त्र पहिनने लगे, किंतु पीछी हाथ में रखते हुए अपना दिगम्बर मुनि के समान पूजा-सम्मान कराते रहे। उन्होंने अपने अस्तित्व के लिए दिगम्बर जैन धर्म के अंतरंग भावपक्ष को गौणकर अप्रैल 2003 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकों को मंत्रतंत्रादि अन्य बाह्य क्रियाकाडों में उलझाए रखा। तब यह कैसे कहा जा सकता है कि श्रमण संस्कृति एवं जैन धर्म के संरक्षण सवंर्द्धन में भट्टारक परंपरा का अभूतपूर्व योगदान रहा? दिगम्बर मुनि की अवस्था में रहने वाले भट्टारकों ने तो अवश्य जैन साहित्य सृजन में योगदान दिया, किंतु वस्त्रादि-परिग्रहधारी भट्टारकों के द्वारा जिनवाणी का लेखन नहीं हुआ। यदि भट्टारकों ने जैन शास्त्रों का संरक्षण भी किया तो ज्ञानप्रसार की दृष्टि से नहीं बल्कि उनके दर्शनों के बदले धन वसूली के उद्देश्य से किया तथा इन ग्रंथों को तालों में बंद रखकर उन्होंने ज्ञान प्रसार को अवरुद्ध ही किया। षट्खंडागम की भूमिका में मख्य संपादक डॉ. हीरालाल जी जैन की निम्न पंक्तियाँ पढ़कर किस जिनवाणी-भक्त की आँखों में आँसू नहीं आयेंगे? "हमें जो अनुभव मिला है उसे हमारा हृदय भीतर ही भीतर खेद और विषाद के आवेग से रो रहा है। इन सिद्धांतग्रंथों की एक मात्र प्रति किस प्रकार तालों में बंद रही और अध्ययन की वस्तु न रहकर पूजा की वस्तु बन गई। यदि ये ग्रंथ साहित्य क्षेत्र में प्रस्तुत रहते, तो उनके आधार से अब तक न जाने कितना किस कोटि का साहित्य निर्माण हो गया होता। ऐसी विशाल सम्पत्ति पाकर भी हम दरिद्री ही बने रहे। ... हमें उस मनुष्य के जीवन जैसा अनुभव हुआ, जिसके पिता की अपार कमाई पर कोई ताला लगाकर बैठ जाय और वह स्वयं एक-एक टुकड़े के लिए दर-दर भीख माँगता फिरे और इससे जो हानि हुई वह किसकी?" मूडबिद्री के भट्टारक जी ने प्रारंभ में तो मूल सिद्धांत ग्रंथों की प्रतिलिपि को भी बाहर ले जाने की आज्ञा नहीं दी। लिपिकार किसी प्रकार एक प्रति गुप्त रूप से बाहर ले आये, जिसकी और प्रतिलिपियाँ की गई और उन्हीं के आधार पर हिंदी टीका एवं संपादन कार्य संभव हो सका। महासभा के प्रस्ताव में भट्टाकर परंपरा द्वारा जैन वाड्मय के संरक्षण एवं प्रणयन की प्रशंसा की है, यह निराधार है। वास्तव में तो वर्तमान भट्टाकर संस्था ने, न तो जैन वाङ्मय के तत्त्वदर्शन का प्रसार किया है और न जैन वाड्मय का प्रणयन ही किया है। प्रस्ताव में आगे कहा गया है कि वर्तमान दिगम्बर जैन समाज के स्वरूप की रक्षा करने में अपने संतुलित अनुशासन के द्वारा महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। वास्तविकता तो यह है कि भट्टारक संस्था ने दिगम्बर समाज को तत्त्वज्ञान एवं संयम से वंचित रखने का ही प्रयास किया है और समाज को धर्मक्षेत्र में पंगु बनाकर रखा है। इन्होंने धन वसूलने के लिए समाज को जिस प्रकार आतंकित किया है, उसी को महासभा ने संभवत: संतुलित अनुशासन का नाम दिया है। यह आश्चर्य-मिश्रित खेद का विषय है कि प्रस्ताव में आगे भट्टारक-परंपरा को स्वस्थ परंपरा घोषित किया है। जिस प्रकार भट्टारक निर्दोष दिगम्बर मुनिभेष को विकृत कर वस्त्रादि परिग्रह धारणकर मठाधीश होकर विलासी जीवन जीने लगे, उससे तो यही कहा जा सकता है कि जैन धर्म में भट्टारक परंपरा से अधिक अस्वस्थ परंपरा और कोई नहीं है। दिगम्बर जैन धर्म के महान् प्रभावक आचार्य कुंदकुंद ने दर्शनपाहुड में दिगम्बर परंपरा में तीन ही लिंगों की व्यवस्था दी है। एगं जिणस्स रूवं विदियं उक्किट्ठ सावयाणं तु। अवरट्ठियाण तइयं चउत्थं पुण लिंग दंसणं णस्थि॥ 18॥ पहला जिनलिंग अर्थात् दिगम्बर मुनि लिंग, दूसरा उत्कृष्ट श्रावक का लिंग अर्थात् क्षुल्लक-ऐलक का लिंग और तीसरा आर्यिका-लिंग। गाथा के अंत में आचार्य देव ने यह घोषित किया है कि जैनदर्शन में उक्त तीन लिंगों के अतिरिक्त और किसी चौथे लिंग की व्यवस्था नहीं है। महासभा निश्चित करे कि जैन दर्शन की आचार्य कुंदकुंद द्वारा स्थापित व्यवस्था में वर्तमान भट्टारकों का कौन सा लिंग है? निस्सन्देहरूप से भट्टारक मुनि नहीं हैं और न वे उत्कृष्ट श्रावक हैं, यद्यपि भट्टारक अपने आपका मुनि के समान सम्मान कराना चाहते हैं। पीछी कमंडल भी रखते हैं, किंतु न वे स्वयं और न महासभा ही उनका मुनि होना स्वीकार करती है। दूसरा विकल्प उत्कृष्ट श्रावक होने का है, सो परिग्रहधारी एवं मठाधीश होने के कारण तथा गृहविरत उद्दिष्टत्यागी नहीं होने के कारण उनको उत्कृष्ट श्रावक भी नहीं माना जा सकता । इस प्रकार भट्टारकों के स्थापित तीन लिंगों में से कोई लिंग सिद्ध नहीं होता और चौथा लिंग जैनदर्शन में होता नहीं, अत: भट्टारकों का जैन दर्शन की परंपरा में कोई स्थान नहीं है। जैन आचार शास्त्रों में भट्टारक लिंग की कहीं कोई - अप्रैल 2003 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवस्था नहीं है। अत: जब तक भट्टारक दिगम्बर मुनि के भेष में रहे, तब तक तो स्वस्थ परंपरा रही, परंतु जब से भ्रष्ट मुनि भट्टारक कहे जाने लगे तब से भट्टारक परपंरा अत्यंत अस्वस्थ परंपरा हो गई। इस प्रकार जैन आचार शास्त्र के विरुद्ध चर्यावाले भट्टारकों की इस पूर्णत: अस्वस्थ परंपरा को स्वस्थ परंपरा घोषित कर महासभा कैसा धर्म संरक्षण कर रही है? प्रस्ताव में आगे उल्लेख है "इस स्वस्थ परंपरा के विषय में कुछ माह पूर्व किसी व्यक्ति ने, जिसमें लेखक का नाम व प्रकाशक का नाम नहीं है, हिंदी और कन्नड़ में "भट्टारक" पुस्तक के माध्यम से अपवाद का जो प्रयत्न किया है, श्री भारतवर्षीय दि. जैन (धर्म संरक्षिणी) महासभा उसे अविवेकपूर्ण मानती है तथा संस्था का दृढ़ विश्वास है कि इससे जैनधर्म का अवर्णवाद होगा। उनके प्रयत्नों से आर्ष परंपरा की पोषक समाज की भावनाओं को जबर्दस्त आघात पहुँचा है। यह पुस्तक "जिनभाषित'' पत्रिका के साथ वितरित की गई है जो चिंता की बात है। " महासभा के प्रस्ताव के उपुक्त अंश अत्यंत अविचारित, दुर्भाग्यपूर्ण एवं आश्चर्यकारी हैं। उपर्युक्त सभी बिंदुओं पर नीचे विचार किया जा रहा है। ऐसा लगता है कि महासभा के पदाधिकारियों एवं प्रस्ताव के प्रस्तावक समर्थकों ने न पुस्तक को देखा है और न पढ़ा है। बिना देखे-पढ़े ही केवल पक्षापात एवं दुर्भावना के कारण विरोध के लिए विरोध में प्रस्ताव पारित किया गया है। पुस्तक पर मोटे अक्षरों में लेखक का नाम लिखा है “नाथूराम प्रेमी" जो उन्होंने सन् 1912 ई. अर्थात् 91 वर्ष पूर्व लिखी थी। श्री नाथूराम प्रेमी जैन इतिहास के प्रामाणिक लेखक और जैन साहित्य के उन्नायक विद्वान थे। वस्तुत: वे विद्वानों एवं लेखकों को जैसे हो वैसे सहायता कर लेखन कार्य के लिए प्रोत्साहित करते थे। उनको जैन विद्वानों का निर्माण करनेवाला विद्वान कहा जा सकता है। ऐसे निर्विवाद प्रामाणिक एवं धर्म प्रभावक विद्वान की प्राचीन पुस्तक की मिथ्या आलोचना कर महासभा ने अत्यंत अशोभनीय कार्य किया है। मेरे विचार में श्री नाथूराम प्रेमी की प्रामाणिकता एवं उनकी धर्म प्रभावना की तीव्र भावना की सम्पूर्ण जैन समाज ने सदैव भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पहली बार ऐसे ऐतिहासिक प्रामाणिक धार्मिक विद्वान् की पुस्तक की निराधार आलोचना कर महासभा ने कैसा धर्म संरक्षण किया है? 'जिनभाषित' पत्रिका ने देश के सर्वमान्य निष्पक्ष मूर्धन्य विद्वान् की प्राचीन ऐतिहासिक पुस्तक का जो अनुपलब्ध थी. पुन:प्रकाशन कर, वितरण कर जैन इतिहास से जैन समाज को परिचित कराने का पुण्य कार्य किया है। यद्यपि 'जिनभापित' ने पुस्तक एवं उसकी विषयवस्तु के संबंध में अपने कोई विचार प्रकट नहीं किये थे. तथापि पत्रिका को भी इसके लिए महासभा का कोप भाजन होना पड़ा है। पुस्तक को बिना पढ़े ही प्रस्ताव में "भट्टारक" पुस्तक को भट्टारकों के अपवाद व धर्म के अवर्णवाद की दोषी घोषित किया गया है। वास्तविकता यह है कि भट्टारक पुस्तक में वर्तमान भट्टारकों के हो रहे अपवाद को दूर करने का उपाय बताया गया है। पुस्तक के पृष्ठ 30 पर “अब भट्टारकों की जरूरत है या नही" शीर्षक में निम्न पंक्तियाँ देखें- . 'अब इस बात का विचार करना चाहिए कि वर्तमान समय में भट्टारकों की जरूरत है या नहीं? मेरी समझ में जिस तरह राष्ट्रशकट को सुखपूर्वक चलाने के लिए राजकार्य धुरधर संचालकों को हमेशा जरूरत रहती है उसी प्रकार धर्मरथ को सुव्यवस्थित पद्धति से चलाने के लिए धर्मोपदेशकों की व धर्मज्ञों की आवश्यकता रहती है।' पुनः पृष्ठ 33 पर "स्वरूप परिवर्तन" शीर्षक की निम्न पंक्तियाँ पठनीय हैं - "यह तो निश्चय हो गया कि जैन समाज के लिए भट्टारकों को अथवा उनके समान एक वर्ग की आवश्यकता है।''... "हमारी समझ में यह बात संभव नहीं जान पड़ती कि भट्टारकों को लोग उनके वर्तमान स्वरूप में धर्मगुरु स्वीकार कर लेंगे। क्योंकि दिगम्बर सम्प्रदाय में जिन ग्रंथों की मान्यता है, उनके अनुसार जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है. भट्टारक पद न तो गृहस्थों की श्रेणी में आ सकता है और न मुनियों की। यद्यपि बीस पंथ के अनुयायी जिनकी संख्या लाखों की है, अब भी इन्हें अपना धर्मगुरु मानते हैं, परंतु यह नहीं समझना चाहिए कि वे इनके चरित्रों से संतुष्ट हैं। वे यह जरूर चाहते है कि इनके स्वरूप में परिवर्तन हो जावे। इसके सिवाय बीसपंथियों में जो समझदार हैं, धर्म के जानकार हैं, भोले भक्त नहीं है. व भट्टारकों को मुनि समझ कर अपना गुरु नहीं मानते है अर्थात् वे गुरु के स्वरूप को अन्यथा कल्पित नहीं करते हैं, किंतु धर्म के एक संचालक, प्रचारक या उपदेशक समझकर उनका सत्कार करते हैं। इससे यदि भट्टारकों के स्वरूप में उचित परिवर्तन किया जाय और शांतता से उसका अभिप्राय सर्व साधारण पर प्रकट कर दिया जाय, तो हमारी समझ में उसे तेरहपंथी जो कि उन्हें भषी व कलिंगा समझते हैं और बीसपंथी जो इन्हें शास्त्रोक्त नहीं, किंतु काम चलाउ गुरु समझते हैं, दोनों ही स्वीकार करेंगे।"... "स्वरूप परिवर्तन के लिए हमें एक यह युक्ति सूझ पड़ती है कि ये लोग अपने को मुनि नहीं, किन्तु सातवीं-आठवीं प्रतिमाधारी गृहस्थ ही स्वीकार करें और सब लोग उन्हें यही समझकर आदर सत्कार 6 अप्रैल 2003 जिनभाषित - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करें।"... "इस परिवर्तन का हमको विश्वास है कि कट्टर तेहरपंथी और भोले बीसपंथी दोनों ही अनुमोदन करेंगे। बल्कि यह मार्ग चल गया तो बीसपंथ-तेरहपंथ में जो वैमनस्य बढ़ गया है, वह कम होने लगेगा और धीरे-धीरे दोनों एक हो जायेंगे।" महासभा आचार्य शांतिसागर जी महाराज को अपना आदर्श मानती है और उनके विचारों को पूर्णतः मान्य करती है। आध्यात्मिक ज्योति के लेखक पं. सुमेरचन्द्र जी दिवाकर ने पुस्तक के पृष्ठ 269 पर आचार्य महाराज के साथ रहे मुनि श्री वर्द्धमान सागरजी से आचार्य महाराज के संबंध में हुई वार्ता प्रकाशित की है, जिसको भट्टारक पुस्तक में भी उद्धृत किया है । "वे (आचार्य महाराज) श्रवण बेलगोला में 15 दिन ठहरे थे। वहाँ के मठ के स्वामी भट्टारक जी के यहाँ आहार की विधि लगती थी, किंतु आचार्य महाराज वहाँ आहार नहीं लेते थे। महाराज कहते थे "मठ का अन्न ठीक नहीं है। वहाँ का धन प्रायश्चित, दण्ड आदि द्वारा प्राप्त होता है। निर्माल्य का धन नहीं लेना चाहिए" उपाध्याय के यहाँ भी महाराज आहार को नहीं जाते थे।" इस प्रकार आचार्य माहराज भट्टारकों को सद्गृहस्थ भी नहीं मानते थे और उनके यहाँ आहार ग्रहण करना भी उपयुक्त नहीं समझते थे। महासभा का दुर्भावानापूर्ण पक्षव्यामोह इस सीमा तक पहुँच गया है कि उसने आचार्य शांतिसागर महाराज के भी विचारों के विरोध में यह प्रस्ताव पारित किया है। पुस्तक के उपर्युक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि पुस्तक में सद्भावना पूर्वक भट्टारक सम्प्रदाय में आए दोषों को दूर कर उसके स्वरूप परिवर्तन के द्वारा उसको सर्वमान्य और सर्वोपयोगी प्रभावक संस्था बनाने का मार्ग सुझाया गया है। इसको अपवाद कहना एवं धर्म का अवर्णवाद कहना निराधार एवं आपत्तिजनक है। निर्दोष व्यक्ति पर मिथ्या दोषारोपण करना अपवाद कहलाता । दोषों को बताकर दोष दूर करने की एवं पुन: सन्मार्ग में स्थित होने की प्रेरणा तो स्थितीकरण कहलाती है जो सम्यग्दर्शन का अंग है। अतः भट्टारक पुस्तक के लेखक व वितरकों पर भट्टारक संस्था के अपवाद का दोष नहीं लगाया जा सकता, बल्कि उन्हें तो स्थितीकरण का श्रेय जाता है। दूसरी और भट्टारकों के विद्यमान दोषों एवं चारित्रिक विकृतियों का समर्थन करने एवं स्थितीकरण के लिए स्वरूप-परिवर्तन के सुझाव का विरोध करने के कारण महासभा धर्म के अवर्णवाद तथा अपवाद का दोष अनायास अपने उपर आमंत्रित कर रही है। महासभा के महारथीगण कृपया विचार करें कि इस प्रस्ताव द्वारा भट्टारक संस्था में आई असाधारण विकृतियों का समर्थन कर एवं सुधार के सुझावों का विरोध कर वे कैसा धर्म संरक्षण कर रहे हैं? दुर्भाग्यवश दिगम्बर जैनधर्म इस समय दो ओर से हो रहे आंतरिक आक्रमणों के कारण सिसक रहा है। एक ओर यह कहा जा रहा है कि पूजा, दान, व्रत, संयम आदि धर्म नहीं है और दिगम्बर मुनि महाराजों के स्थान पर अव्रती गृहस्थों को गुरु माना जाने लगा है। उनकी धारणा है कि इस युग में सच्चा दिगम्बर साधु कोई भी नहीं है। दूसरी ओर प्रत्येक नग्नवेषधारी साधु को सच्चा साधु मानते हुए शिथिलाचारी साधुओं को भी महिमामंडित करते हुए उनको अपने शिथिलाचार में प्रोत्साहित किया जाता है। कुछ साधु श्रावकों को धर्म तत्त्व से वंचित रखते हुए मंत्र-तंत्र अनुष्ठान पूजादि के द्वारा उनमें लौकिक सिद्धियों का लोभ उत्पन्न कर अपने अनुयायियों का समृह बना बैठे हैं। बहुसंख्यक भट्टारक भी इसी प्रकार अपने अस्तित्व के लिए श्रावकों को धर्म की वैज्ञानिकता से अपरिचित रखते हुए मंत्र-तंत्रादि क्रियाकांडों में उलझाए रखते हैं। ऐसे संकट के समय दिगम्बर जैनों की प्राचीनतम प्रतिनिधि संस्था महासभा का यह नैतिक दायित्व है कि वह समाज को संगठित कर योजनावद्ध तरीके से इस आध्यात्मिक, वैज्ञानिक, वीतराग दिगम्बर जैन तत्त्वज्ञान का प्रचार प्रसार करे। मेरी विनम्र प्रार्थना है कि इस प्रकार महासभा के मंच से ऐसे विघटनकारी प्रस्ताव पारित करने में आप शक्ति व्यय नहीं करें और सृजनात्मक सकारात्मक सोच के आधार पर समाज को संगठित कर समीचीन धर्म का संरक्षण करें। मुझे महासभा के यशस्वी अध्यक्ष एवं महामंत्री की पवित्र भावना और क्षमता पर गहरा विश्वास है । यह केवल पक्षव्यामोह ही है जो उन्हें भटका देता है। उन्होंने मुझे दो तीन बार समान विचारवाले धर्म श्रद्धालुओं को एकत्र कर विवादों से उपर उठकर संगठन को दृढ़ करने की अपनी पावन भावना बताई। अभी तक एक स्थान पर बैठकर विचार विमर्श का अवसर नहीं मिला। किंतु यदि हम ऐसा कर सके तो निश्चय ही महासभा को व्यापक उदार और विशाल बनाकर इसके साथ लगे "धर्म संरक्षणी" पद को सार्थक सिद्ध कर पायेंगे। मूलचन्द लुहाड़िया लाली मेरे लाल की, जित देखू तित लाल। लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल। सन्त कबीर - अप्रैल 2003 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयावनति आचार्य श्री विद्यासागर जी विनय जब अंतरंग में प्रादुर्भूत हो जाती है, तो उसकी ज्योति सब ओर प्रकाशित होती है। वह मुख पर प्रकाशित होती है, आँखों में से फूटती है, शब्दों में उद्भुत होती है और व्यवहार में प्रदर्शित होती है। विनय का महत्त्व अनुपम है। यह वह सोपान है, जिस पर | गई और सभा अनुशासन से बाहर हो गई। पर तत्काल ही उन आरूढ़ होकर साधक मुक्ति की मंजिल तक पहुँच सकता है। भारतीय सज्जन ने थोड़ा विचार कर कहना शुरू किया- "क्षमा विनय आत्मा का गुण है और ऋजुता का प्रतीक है। यह विनय | करें, पचास प्रतिशत अमेरिकन मूर्ख नहीं होते।" इन शब्दों को तत्त्व-मंथन से ही उपलब्ध हो सकता है। विनय का अर्थ है सुनकर सभा में फिर शान्ति हो गई और सब लोग यथास्थान बैठ सम्मान, आदर, पूजा आदि। विनय से हम आदर और पूजा तो गये। देखो, अर्थ में कोई अन्तर नहीं था, केवल शब्द विनय द्वारा प्राप्त करते ही हैं, साथ ही सभी विरोधियों पर विजय भी प्राप्त कर | वह भारतीय सबको शान्त करने में सफल हो गया। सकते हैं। क्रोधी, कामी, मायावी, लोभी सभी विनय द्वारा वश में विनय जब अन्तरंग में प्रादुर्भूत हो जाती है तो उसकी किये जा सकते हैं। विनयी दूसरों को भलीभाँति समझ पाता है ज्योति सब ओर प्रकाशित होती है। वह मुख पर प्रकाशित होती है और उसकी चाह यही रहती है कि दूसरा भी अपना विकास करे। आँखों में से फूटती है, शब्दों में उद्भूत होती है और व्यवहार में अविनय में शक्ति का बिखराव है, विनय में शक्ति का केन्द्रीकरण भी प्रदर्शित होती है। विनय गुण समन्वित व्यक्ति की केवल यही है। कोई आलोचना भी करे तो हम उसकी चिन्ता न करें। विनयी भावना होती है कि सभी में यह गुण उद्भूत हो जाय। सभी आदमी वही है, जो गाली देनेवाले के प्रति भी विनय का व्यवहार | विकास की चरम सीमा प्राप्त कर लें। करता है। मुझ से एक सज्जन ने एक दिन प्रश्न किया, "महाराज, एक जंगल में दो पेड़ खड़े हैं- एक बड़ का और दूसरा आप अपने पास आनेवाले व्यक्ति से बैठने को भी नहीं पूछते । बुरा बेंत का। बड़ का पेड़ घमण्ड में चूर है। वह बेंत के पेड़ से कहता | लगता है। आप में इतनी भी विनय नहीं, महाराज।" मैंने उनकी है- "तुम्हारे जीवन से क्या लाभ है? तुम किसी को छाया तक | बात बड़े ध्यान से सुनी और कहा। "भैया, एक साधु की विनय नहीं दे सकते और फल तथा फूल का तो तुम पर नाम ही नहीं। । और आपकी विनय एक सी कैसे हो सकती है? आपको मैं कैसे मुझे देखो, मैं कितनों को छाया देता हूँ। यदि मुझे कोई काट भी ले | कहूँ"आइये बैठिये।" क्या यह स्थान मेरा है? और मान लो कोई तो मेरी लकड़ी से बैठने के लिए सुन्दर आसनों का निर्माण हो | केवल दर्शन मात्र के लिए आया हो तो? इसी तरह मैं किसी से सकता है। तुम्हारी लकड़ी से तो दूसरों को पीटा ही जा सकता जाने की भी कैसे कह सकता हूँ? मैं आने-जाने की अनुमोदना है।" सब कुछ सुनकर भी बेंत का पेड़ मौन रहा। थोड़ी देर में कैसे कर सकता हूँ? कोई मान लो रेल या मोटर से प्रस्थान करना मौसम ऐसा हो जाता है कि तूफान और वर्षा दोनों साथ-साथ चाहता हो, तो मैं उन वाहनों की अनुमोदना कैसे करूँ, जिनका मैं प्रारम्भ हो जाते हैं। कुछ ही क्षणों में बेंत का पेड़ साष्टांग दण्डवत् वर्षों पूर्व त्याग कर चुका हूँ। और मान लो कोई केवल परीक्षा करने लगता है, झुक जाता है। किन्तु बड़ का पेड़ ज्यों का त्यों करना चाहता हो तो, उसकी विजय हो गयी और मैं पराजित हो खड़ा रहा। देखते-देखते ही पाँच मिनट में तूफान ने उसे उखाड़ जाऊँगा। आचार्यों का उपदेश मुनियों के लिए केवल इतना ही है फेंका । बेंत का पेड़ जो झुक गया था, तूफान के निकल जाने पर | कि वे हाथ से कल्याण का संकेत करें और मुख का प्रसाद बिखेर फिर ज्यों का त्यों खड़ा हो गया। विनय की जीत हुई, अविनय | दें। इससे ज्यादा उन्हें कुछ और नहीं करना है। हार गया। जो अकड़ता है, गर्व करता है उसकी दशा बिगड़ती ही “मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाविनयेषु ।" यह सूत्र है। तब मुनि आपके प्रति कैसे हमें शब्दों की विनय भी सीखना चाहिये। शब्दों की अविनय अविनय की भावना रख सकता है। उसे तो कोई गाली भी दे तो से कभी-कभी बड़ी हानि हो जाती है। एक भारतीय सज्जन एक भी वह सबके प्रति मैत्री-भाव ही रखता है। जंगल में दंगल नहीं बार अमेरिका गये। वहाँ उन्हें एक सभा में बोलना था। लोग उन्हें करता, मंगल में अमंगल नहीं करता। वह तो सभी के प्रति मंगलदेखकर हँसने लगे और जब वे बोलने के लिये खड़े हुये तो हँसी भावना से आतप्रोत है। और अधिक बढ़ने लगी। उन भारतीय सज्जन को थोड़ा क्रोध आ सो धर्म मुनिन कर धरिये, तिनकी करतूति उचरिये। गया, मंच पर जाते ही उनका पहला वाक्य था 'पचास प्रतिशत ता। सुनिये भवि प्राणी, अपनी अनुभूति पिछानी।। अमेरिकन मूर्ख होते हैं। अब क्या था। सारी सभा में हलचल मच साधु की मुद्रा तो ऐसी वीतरागतामय होती है, जो दूसरों 8 अप्रैल 2003 जिनभाषित - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को आत्मानुभव का प्रबल साधक बन जाती है। का अभिप्राय है "वर्तमान पर्याय में भावी पयार्य का अभाव"। फिर एक बात और भी है। अगर किसी को बिठाना दूसरों इसका मतलब है कि जो उन्नत है वह गिर भी सकता है और जो को अनुचित मालूम पड़े अथवा स्थान इतना भर जाय कि फिर | पतित है वह उठ भी सकता है। और यही कारण है कि सभी कोई जगह ही अवशेष न रहे, तो ऐसे में मुनि महाराज वहाँ से | आचार्य, महान् तपस्वी भी त्रिकालवर्ती तीर्थंकरों को नमोस्तु प्रस्तुत उठना पसन्द करेंगे अथवा उपसर्ग समझ कर बैठे रहेंगे, तो भी | करते हैं और भविष्यत् काल के तीर्थंकरों को नमोस्तु करने में उनकी मुद्रा ऐसी होगी कि देखनेवाला भी उनकी साधना और | भावी नय की अपेक्षा सामान्य संसारी जीव भी शमिल हो जाते हैं तपस्या को समझ कर शिक्षा ले सके। बिच्छू के पास एक डंक | तब किसी की अविनय का प्रश्न ही नहीं है। आपकी अनंत शक्ति होता है। जो व्यक्ति उसे पकड़ने का प्रयास करता है, वह उसको | को भी सारे तपस्वियों ने पहिचान लिया है, चाहे आप पहिचानें डंक मार ही देता है। एक बार ऐसा हुआ। एक मनुष्य जा रहा था, अथवा नहीं। आप सभी में केवलज्ञान की शक्ति विद्यमान है यह बात उसने देखा कीचड़ में एक बिच्छू फँसा हुआ है। उसने उसे हाथ | भी कुन्दकुन्दादि महान् आचार्यों द्वारा पहचान ली गई है। से जैसे ही बाहर निकालना चाहा, बिच्छू ने डंक मारने रूप प्रसाद अपने विनय गुण का विकास करो। विनय गुण से असाध्य ही दिया, और कई बार उसे निकालने की कोशिश में डंक मारता | कार्य भी सहज साध्य बन जाते हैं। यह विनय गुण ग्राह्य है, रहा, तब लोगों ने उससे कहा- "बावले हो गये हो। ऐसा क्यों उपास्य है, आराध्य है । भगवान् महावीर कहते हैं- "मेरी उपासना किया तुमने?""अरे भाई बिच्छू ने अपना काम किया और मैंने | चाहे न करो, विनय गुण की उपासना जरूर करो। विनय का अर्थ अपना काम किया, इसमें मेरा बावलापन क्या?" उस आदमी ने | यह नहीं है कि आप भगवान् के समक्ष तो विनय करें और पासये उत्तर दिया। इसी प्रकार मुनिराज भी अपना काम करते हैं । वे तो | पड़ोस में अविनय का प्रदर्शन करें। अपने पड़ौसी की भी यथायोग्य मंगल की कामना करते हैं और गाली देनेवाले उन्हें गाली देने का | विनय करो। कोई घर पर आ जाये तो उसका सम्मान करो।" काम करते हैं। तब तुम कैसे कह सकते हो कि साधु किसी के | "मानेन तृप्ति न तु भोजनेन" अर्थात् सम्मान से तृप्ति होती है, प्रति अविनय का भाव रख सकता है? भोजन से नहीं, अत: विनय करना सीखो, विनय गुण आपको शास्त्रों में अभावों की बात आई है। जिसमें प्राग्भाव का | सिद्धत्व प्राप्त करा देगा। तात्पर्य है "पूर्व पर्याय का वर्तमान में अभाव" और प्रध्वंसाभाव । 'ममग्र' (चतुर्थखण्ड) से उद्धृत हार्मोनल दूध पीने से नपुंसकता का खतरा बढ़ा धड़ल्ले से बिक रहे प्रतिबंधित ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन सावधान ! दूधवाला कहीं,आपके जीवन भर की खुशियाँ छीनकर तो नहीं ले जा रहा। यदि आपकी शक्ति क्षीण होती जा रही है तो तय मानिए कि आपको नपुंसकता की बीमारी ने घेर लिया है। दूधवाले पर नजर रखिए और दूषितं दूध पीना बंद कर दें। गौरतलब है कि घर-घर यह बीमारी पहुँचाने का ठेका ले रखा है जिले के मेडीकल स्टोर संचालकों ने। दरअसल इन दिनों अधिकांश मेडीकल स्टोरों पर प्रतिबंधित 'ऑक्सीटियोसिन' इंजेक्शन धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं। जल्दी व अधिक दूध निकालने के प्रलोभन में दुधारू पशुओं को इंजेक्शन लगाये जा रहे हैं। यह इंजेक्शन मात्र 75 पैसे में आसानी से पशु मालिकों को मिल जाता है। शाहगढ़ प्रतिनिधि के अनुसार पुश चिकित्सालय में पदस्थ डॉ. खान ने बताया कि आक्सोटियोसिन हार्मोनल इंजेक्शन है। यह इंजेक्शन दुधारू जानवरों के शरीर पर दुष्प्रभाव डालता है और दूध में मौजूद पौष्टिक तत्त्वों को नष्ट कर देता है। दूषित दृध के जरिए मनुष्य के शरीर में पहुँचने वाले हार्मोनल मनुष्य की कामुक शक्ति क्षीण करते हैं। यह दूषित दूध भविष्य में नपुंसकता की बीमारी का सबब बन सकता है। वहीं बच्चों के स्वास्थ्य पर इसका घातक असर होता है। बच्चों का विकास अवरुद्ध हो जाता है। ज्ञातव्य हो कि न्यायालय के आदेश के बाद इस इंजेक्शन को प्रतिबंधित किए जाने के बाद मेडीकल स्टोर संचालकों को हिदायत दी गई थी कि चिकित्सक द्वारा लिखी पर्ची पर आवश्यकतानुसार इंजेक्शन बेचा जाना चाहिए। परंतु मेडीकल संचालकों की मनमानी पर जिला प्रशासन व औषिधी नियंत्रक के उदासीन रवैये के चलते लगाम नहीं लगा पा रही। वहीं इस इंजेक्शन का उपयोग करने वाले पशुमालिकों का तर्क है कुछ दुधारू जानवरों की आदत होती है कि जब तक उन्हें भरपेट चारा नहीं मिल जाता दूध नहीं देते। और गांव से शहर तक आना और ग्राहकों को समय पर दूध उपलब्ध कराना पड़ता है। इसी मजबूरी के चलते इन इंजेक्शनों का इस्तेमाल करना पड़ता है। वहीं जिन दुधारू पुशओं के बच्चे मर जाते हैं, उन्हें बगैर इंजेक्शन लगाए दुहना मुश्किल होता है। 'दैनिक जागरण' भोपाल २१ फरवरी २००३ -अप्रैल 2003 जिनभाषित १ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्यकारण-व्यवस्था चाहे सांसारिक क्षेत्र हो या पारमार्थिक क्षेत्र, सर्वत्र जो भी कार्य सम्पन्न होते हैं, वहाँ कारणपूर्वक ही कार्य सम्पन्न होते हैं। किसी भी कार्य का जो निश्चित कारण होता है, उस कारण की उपेक्षा करके वह कार्य न कभी सम्पन्न हुआ, न भविष्य में सम्पन्न किया जा सकता है। जैसे किसी भूखे व्यक्ति को अपनी क्षुधाशमन करने के लिये रोटी बनाना है। तब रोटी तो हुई कार्य और आटा हुआ कारण। जब तक आटा नहीं होगा, तब तक रोटी बनाना, रोटी प्राप्त करना संभव ही नहीं है। अतः रोटी बनाने के लिए आटे का सद्भाव नियमतः आवश्यक है। आज तक किसी ने भी आटे के अभाव में अथवा आटे का अभाव करके रोटी नहीं बनाई है, न बनाते हुए किसी अन्य व्यक्ति को देखा होगा। उपर्युक्त उदाहरण से हम समझ सकते हैं कि नियामक कारण का ( साधक कारण का ) अभाव करके कोई भी कार्य सम्पन्न करना संभव नहीं है। शंका- इस प्रकार की कार्य कारण व्यवस्था के नियम में भी कोई कारण है क्या? समाधान- कोई भी कारण नहीं, यह तो है, वस्तु का स्वभाव है। शंका- कार्य किसे कहते हैं? समाधान- जो कर्त्ता के द्वारा किया जाता है, उसे कार्य कहते हैं । शंका- कारण किसे कहते हैं? समाधान- जिसके होने पर कार्य होता है, जिसके नहीं होने पर इष्ट कार्य नहीं होता है, वह कारण कहलाता है। अध्यात्म में कारण दो प्रकार के कहे गये हैं- १. उपादान कारण २. निमित्त कारण । वस्तु व्यवस्था शंका- उपादान कारण किसे कहते हैं? समाधान- जो कारण, कार्य रूप में परिणमित होता है, वह उपादान कारण कहलाता है, जैसे रोटी के लिये आटा । शंका- निमित्त कारण किसे कहते हैं ? समाधान- जो कारण स्वयं कार्य रूप में परिणमित तो नहीं होता है, परंतु कार्य के होने में सहयोगी अवश्य होता है। जैसे रोटी बनाने में चकला, बेलन, तबा आदि । अन्य प्रकार से भी कारण के भेद देखे जाते हैं, जैसे १. साधक कारण २. बाधक कारण । शंका- साधक कारण किसे कहते हैं ? समाधान- जो कारण कार्य रूप में परिणमन करता है अथवा कार्य के सम्पन्न होने में सहयोगी हुआ करता है। जैसे रोटी निर्माण के लिए चकला, बेलन आदि । 10 अप्रैल 2003 जिनभाषित मुनि श्री निर्णयसागर जी शंका- बाधक कारण किसे कहते हैं ? 1 समाधान- जो कारण कार्य रूप परिणमन में किसी प्रकार सहयोगी तो होता नहीं है, परन्तु कार्य का बाधक सिद्ध होता है। बाधक कार्य के सद्भाव में इष्ट कार्य संभव नहीं हो सकता है। जैसे कमल के खिलने में रात्रि, रोटी बनाने के लिये अनाज के टुकड़े अथवा चोकर । शंका- एक कारण से एक ही कार्य सम्पन्न हो सकता है। अथवा अनेक कार्य ? समाधान- न्याय ग्रंथों में कहा है " एककारणेनानेक कार्यसम्भवाद् वह्निवत्" अर्थात् एक कारण से अनेक कार्य संभव हो सकते हैं अग्नि के समान। एक अग्नि कारण से प्रकाश, प्रताप, पाचकत्व कार्य संभव देखे जाते हैं। इसी प्रकार आटे के द्वारा रोटी बनती है, हलुआ भी बनता है, कढी भी बनती है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि साधक कारणों का अभाव करके किसी भी कार्य को सम्पन्न नहीं किया जा सकता है। यही कारण कार्य-व्यवस्था जैनदर्शन में हमेशा रही है, कम से कम स्वाध्याय करनेवाले साधर्मी बंधुओं को अवश्य ही समझ लेना चाहिये। किंतु स्वाध्याय करते हुए भी भटकना नहीं चाहिये। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज स्वाध्याय के प्रसंग में हमेशा कहते हैं दुकान घर की हो सकती है, दुकान में विक्रय होने वाला माल भी घर का हो सकता है, विक्रय करने वाला व्यक्ति घर का हो सकता है, परंतु दुकान में तराजू, बाँट, लीटर, मीटर कभी भी घर के नहीं होने चाहिये। यदि तराजू बाँट लीटर, मीटर घर के बना लिये तो अपराध माना जावेगा । उसे शासन-प्रशासन द्वारा दण्डित किया जावेगा। अतः अच्छा होगा कि सरकारी नियमों की तरह जैन दर्शन के पढ़ने-पढ़ाने वाले जैन दर्शन के नियमों का पालन करें। यही सच्चे श्रावक की पहचान होगी। अन्यथा शास्त्र स्वाध्याय करके कराके भी भटक सकते हैं। सही कार्यकारण-व्यवस्था की जानकारी के बिना शास्त्र स्वाध्याय करना कराना वरदान नहीं अभिशाप होगा। वर्तमान (२००, २५० वर्षों) के कुछ शास्त्र स्वाध्यायकारों ने पूर्व आचार्यों की वाणी को न समझते हुए कार्यकारण व्यवस्था को ही बिगाड़ दिया है। हम ऊपर समझ कर आये हैं कि कारण के सदभाव में कार्य सम्पन्न होता है, न कि कारण के अभाव में । जैसे अग्नि के अभाव में न प्रकाश होगा, न प्रताप होगा। कार्य कारण व्यवस्था को नहीं समझने वाले विद्वान् लोगों का कहना है कि शुभोपयोग का अभाव शुद्धोपयोग का कारण है, और शुद्धोपयोग केवलज्ञान का कारण है। यहाँ एक जगह अभाव को कारण माना Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो दूसरी जगह सद्भाव को कारण माना है। यदि शुभोपयोग के अभाव को ही शुद्धोपयोग का कारण मान लिया जायगा तो दूसरी बाधा यह आवेगी कि शुभोपयोग का अभाव पूर्व में अनादि काल से रहा है अर्थात् अशुभोपयोग रहा है, तब शुद्धोपयोग मान लेना चाहिये। इस प्रकार की व्यवस्था को पूज्य आचार्य महाराज जैन दर्शन का घोटाला संज्ञा देते हैं। शंका- सब जगह सद्भाव को कारण मान लिया जावेगा, तो शुभोपयोग का कारण अशुभोपयोग मान लिया जावेगा, यह कैसे? समाधान- अशुभोपोग को शुभोपयोग का कारण मानने में बाधा ही क्या हो सकती है? यह तो कारण बनता ही है। जब सम्यग्दर्शन प्रकट होता है, वह मिध्यात्वपूर्वक ही होता है। किंतु सम्यग्दर्शन के लिये कारण सामान्य मिथ्यादर्शन नहीं, किंतु सातिशय मिथ्यात्व ही सम्यग्दर्शन के लिये कारण बनता है। और भी मोक्षमार्ग में कार्यकारण व्यवस्था का प्रसंग आता है, वह भी समझने योग्य है । मैं आचार्य श्री की ही भाषा शैली में बतलाना बोधकथा दीवान अमरचंद जयपुर के निवासी थे। एक बार राजा शिकार करने गये। साथ में दीवान जी को ले गये। वन में भटकते-भटकते एक हरिण समूह दिखाई दिया। राजा ने पीछा किया हरिणों का। दीवान को यह अच्छा न लगा। उसने सोचा राजा तो प्राणियों का रक्षक होता है, आज वही इनका भक्षक बन रहा है। निरपराध पशुओं को मारना राजा का अत्याचार है। उसने करुण स्वर में आवाज दी कि हे अनाथ हिरणो! ठहर जाओ। आज जब तुम्हारा रक्षक ही भक्षक बन रहा है, तो तुम कहाँ जाकर प्राण बचा सकोगे? तुम्हारा भागना व्यर्थ है। दीवान की करुण पुकार सुन हिरन खड़े हो गये। राजा आश्चर्य में पड़ गया। तीर कमान चलाना भूलकर दीवान को आश्चर्यभरी दृष्टि से देखना लगा सोचता है इसकी वाणी का यह कैसा चमत्कार है। उसने पूछा-हिरण रुके कैसे? इनके कानों में तुमने कौन सा मंत्र फूँक दिया। बार-बार पूछने पर दीवान ने कहा- राजन् ! इन्हें रोकने में कारण है प्रेम की शक्ति । अहिंसा की शक्ति दया और करुणा की पुकार । दीवान ने कहा- राजन्! अपने पद की ओर ध्यान दें । चाहूँगा । जब कोई भी भद्र मिध्यादृष्टि मिध्यात्व कर्म के मन्द उदय को प्राप्त होता है, तभी सम्यग्दर्शन की भूमिका बनती है। मिथ्यात्व कर्म का मंद उदय सम्यग्दर्शन की पंचलब्धि में से प्रथम लब्धि के लिये कारण हैं, जिसे क्षयोपशम लब्धि कहते हैं। क्षयोपशमलब्धि कारण है विशुद्धिलब्धि का विशुद्धिलब्धि कारण है देशनालब्धि का । देशनालब्धि कारण है प्रायोग्यलब्धि का । प्रायोग्यलब्धि कारण है पंचम करणलब्धि के प्रथम करण अधःकरण का अधःकरण कारण है अपूर्वकरण का। अपूर्वकरण कारण है अनिवृत्तिकरण का। अनिवृत्तिकरण कारण है सम्यग्दर्शन का। सम्यग्दर्शन, शुभोपयोग कारण है शुद्धोपयोग का । शुद्धोपयोग कारण है केवलज्ञान का । केवलज्ञान कारण है मोक्ष का। यही मोक्ष मार्ग का क्रम है, मोक्षमार्ग है। दया की पुकार उपर्युक्त कार्यकारण व्यवस्था गुरु देशना और मेरा चिंतन है । इस प्रसंग में कहीं मेरी कलम फिसल गयी हो तो अवगत कराएँ। किसी को कष्ट हुआ तो मुझे क्षमा करें। बस इतना ही। आपका कर्त्तव्य प्रजा की रक्षा करना है। धनुष-वाण निरपराध पशुओं का वध करने के लिए नहीं, बल्कि उनकी सुरक्षा के लिए होना चाहिये आपने राजगद्दी पर बैठते समय संकल्प किया था अनाथ दीन-हीन प्राणियों की रक्षा करने का। क्या वह संकल्प भूल गये । राजा यह सब चुपचाप सुनता रहा। उसने पुन: पूछा कि तुम्हारी वाणी उन्हें कैसे समझ में आ गयी ? दीवान ने कहा- दया की पुकार, रक्षा की पुकार सभी प्राणी समझते हैं। वह कानों के बिना भी, वाणी के बिना भी मात्र भावों से भी समझ में आ जाती है। राजा दीवान के आगे कुछ न कर सका। उसने हिरणों को नहीं मारा उस दिन । वह लौट पड़ा अपने महल की ओर । दया की पुकार के आगे झुक जाना पड़ा उसे । आशय यह है कि जो काम हजारों वर्ष में नहीं हो सका वह संयत और अहिसंक मन के द्वारा अल्पकाल में भी संभव है मन संयत हो, इसके लिए उसका निर्विकार बनना आवश्यक है। 'तामस' का विलोम शब्द होता है 'समता'। जीवन में समताभाव जागे यही सफलता की कुंजी है। 'विद्या-कथाकुज' अप्रैल 2003 जिनभाषित ।। . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदीक्षा का पात्र कौन? मुनि श्री विशुद्धसागर जी आज प्राणी अपने आपको दु:खित अनुभव कर रहा है, । ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह महाव्रत कहलाते हैं। सुख की खोज में दौड़ रहा है पर खोज वहाँ रहा है जहाँ सुख है वह श्रेष्ठ मुमुक्षु जीव जिसके अंत: करण में वैराग्य के नहीं, जहाँ है वहाँ पर दृष्टि भी नहीं गयी। पर पदार्थों में, इन्द्रिय अंकुर स्फुट हुए हों, आत्महित की भावना से युक्त होकर मंगलोत्तम भोगों में, सुख की खोज करना गाय के सीगों से दुग्ध निकालना | शरणभूत आचार्य परमेष्ठी के चरणों में पहुँच जाता है । वह यह भी है। सत्यसुख ब्रह्मस्वरूप है। इन्द्रियों के तुच्छ सुखाभास को सुख | ध्यान रखता है कि मैं गुरु चरणों में समर्पित हो रहा हूँ। ये चरण स्वीकारना सबसे बड़ी अल्पज्ञता का द्योतक है। इन्द्रियजन्य सुख अब कभी नहीं छूटेंगे। जिसे गुरु बनाया है वह गुरु ही है। जैसे गुरु दुःखरूप है आचार्य भगवन् श्री कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं... शिष्य की परीक्षा करके स्वीकारता है वह योग्य है या नहीं, उसी सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं। प्रकार शिष्यता स्वीकार करने के पूर्व दीक्षार्थी के लिए भी वृद्ध जं इंदियेहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा। जनों से ज्ञान करके ही गुरु स्वीकारना चाहिए। जिसे स्वीकारा है प्रवचनसार १/७५ फिर छोड़ने की आवश्यकता नहीं, इसलिए साधक के लिए सर्वप्रथम अर्थ- जो पांच इन्द्रियों से प्राप्त हुआ सुख है वह सुख योग्य गुरु की खोज करना अनिवार्य है। कैसे आचार्य भगवन्त से दुःख रूप ही है, क्योंकि वह सुख पराधीन है, क्षुधा तृषादिबाधा | दीक्षा धारण करना चाहिए प्रवचनसार जी में कहा हैयुक्त है, असाता के उदय से विनाश होने वाला है, कर्म बन्ध का समणं गणिं गुण8 कुलरूववयोविसिट्ठमिट्ठदरं। कारण है। क्योंकि जहाँ इन्द्रिय सुख होता है वहाँ अवश्य रागादिक प्रवचनसार/३/३ दोषों की सेना होती है। उसी के अनुसार अवश्य कर्म धूलि लगती भावार्थ- जो उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ है उसकी सब है। और वह सुख विषम अर्थात् चंचलपन से हानि वृद्धि रूप है। लोग नि:शंक होते हुए सेवा करते हैं। जो उत्तम कुलोत्पन्न होगा आचार्य उमास्वामी ने इन्द्रिय सुख को दुखरूप ही कहा | उसके कुल की परिपाटी से ही क्रूर भावादिक दोषों का अभाव है- "दु:खमेव वा।" (तत्त्वार्थसूत्र/७/१०) निश्चय से होगा। इसलिए कुल की विशेषता होते हुए ही आचार्य इस प्रकार अंतरंग में वैराग्य भावना से युक्त होकर बाह्य होते हैं, आचार्य के बाहर से रूप की विशेषता ऐसी है कि देखने सुखों को दु:ख रूप जानकर भव्यजीव आत्मसुख की खोज में | से उनमें अंतरंग की शुद्ध अनुभव मुद्रा पायी जाती है, तो भी बाहर निकलता है, तब वह सुख को कैसे प्राप्त होता है? आचार्य कुन्दकुन्द के शुद्ध रूप कर मानों अंतरंग की बतलायी जा रही है। इस कारण महाराज लिखते हैं - रूप की विशेषता कर सहित होते हैं तथा वय (उम्र) करके __पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं। । विशेषता इस तरह है कि बाल, वृद्ध अवस्था में बुद्धि की विकलता (प्रवचनसार/३/१) | से रहित हैं तथा युवावस्था में कामविकार से बुद्धि की विकलता अर्थ- यदि तुम्हारी आत्मा भी दुख से मुक्त होने की होती है, उससे भी रहित हैं। ऐसी अवस्था की विशेषता लिए हुए अभिलाषा करती है, तो यतिधर्म को प्राप्त होओ। आचार्य कहे गये हैं और समस्त सिद्धांतोक्त मुनि की क्रिया के यति धर्म स्वीकार किये बिना किसी का कल्याण न हुआ आचरण करने तथा कराने में जो कभी भी पीछे दोष हुआ हो, है न होगा। जितने आज तक सिद्ध हुए हैं, व होंगे वे सब जिनमुद्रा उसको बतलानेवाले हैं, गुणों का उपदेश करने वाले हैं, इसलिए धारण करके ही । तीर्थंकर भगवान भी क्यों न हों, उन्हें भी दिगम्बरी अत्यंत प्रिय हैं साथ ही परनिंदा, स्वप्रशंसा, लोकेपणा, शिष्येपणा जैनश्वरी दीक्षा धारण करना पड़ती है। कुन्दकुन्द स्वामी सुत्तपाहुड रहित आचार्य भगवन्त होते हैं इत्यादि अनेक गुणों कर शोभायमान में कहते हैं जो आचार्य हैं, उनके पास जाकर भव्यवर मुमुक्षु जीव को नमस्कार ण वि सिज्झइ बत्थधरो, जिणसासणेजह वि होई तित्थयरो। करके प्रार्थना करना चाहिये - "हे प्रभो ! मैं संसार से भयभीत णग्गो हि मोक्खमग्गो, सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥ | हुआ हूँ सो मुझे शुद्धात्म तत्त्व की सिद्धि हेतु दीक्षा प्रदान करें।" अहो ! धन्य हैं वे जीव जिन्होंने अरिहन्त देव के द्वारा | तब आचार्य कहते हैं कि तुझे शुद्धात्मतत्व की सिद्धि स्वीकार किए गए जिन भेष को प्राप्त किया है। महाव्रतों को कराने वाली यह भगवती दीक्षा है, ऐसा कहकर वह मुमुक्षु आचार्य सामान्यजन धारण नहीं कर पाते हैं, महापुरुष धारण करते हैं। से कृपायुक्त किया जाता है। जिन आचार्य भगवन्त ने पूर्व में इसलिए मुनीश्वरों के व्रतों को महाव्रत कहते हैं अथवा यो कहें स्वगुरु से प्रायश्चित्त लिया है तथा अन्य साधुवर्ग को देते हुए देखा जो व्रत व्यक्ति को महान् बना देते हैं। वे अहिंसा, सत्य, अचौर्य, | | है. गुरु परम्परा तथा आर्ष आगम परम्परा के ज्ञाता हैं, कुशल 12 अप्रैल 2003 जिनभाषित - Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशासक, रहस्य ग्रंथों को समाचीन जानकार, साम्य स्वभावी । का अर्थ आगम में, शास्त्रसन्दर्भित भाषा कहा है। वाणी संयम, लोभादि कषायों से परे, नि:संग, नि:स्पृह वृत्ति के धारक आत्महित | जिनमुद्रा स्वीकार करने वाले के लिए अनिवार्य है, यह भेष तीर्थेश वांच्छक, दृढसंकल्पी, विचारशील, कानों के पक्के, निर्भीक, गम्भीर, का है, गणधर भगवन्तों के द्वारा भी स्तुत्य है। कोई सामान्य नट, समताशील, सहनशील, समानता चर्या में रखने वाले ऐसे आचार्य भट का भेष नहीं है। साधु का मौन ही सर्वश्रेष्ठ आभूषण है। यदि के चरणों में ही प्रव्रज्या धारण करना चाहिए, अन्य के यहाँ नहीं। मौन नहीं रख सकते, तो सत्य धर्म, भाषा समिति का पालन साथ ही पूज्य आचार्य भगवन्तों के लिए चाहिए कि भगवान् अवश्य ही होना चाहिए। सज्जनों की परीक्षा वचनों से ही होती है जिनेन्द्रदेव के स्वरूप को प्रदान करने में भावुकता का परिचय न अत: वचन संयम होना आवश्यक है। वचन के उपरांत आगम में दें। कायशुद्धि का वर्णन है। जिनदीक्षा धारण करनेवाले की देहशुद्धि एक पाषाण की प्रतिमा को भगवान् बनाने के लिए कितना | अनिवार्य है। विचार करना पड़ता है! यही अवस्था दीक्षार्थी के विषय में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रवचन सार जी में जिनदीक्षा समझना चाहिए। आचार ग्रन्थों में स्पष्ट दीक्षायोग्य पात्रों का वर्णन | धारण करने वाले पुरुष के शरीर कुल आदि का कथन किया है - है। योग्यता देखकर ही दीक्षा प्रदान करना चाहिए। संख्या बढ़ाने | वे जानते हैं दीक्षा देना उतना श्रेष्ठ नहीं है अपितु जिन आगम की के साथ संयम, एवं आगमज्ञता भी बढ़ाना चाहिए। दीक्षार्थी के | आज्ञा का पालन करते हुए योग्य पात्र को देना महत्वशाली है। अन्दर लोकाचार है या लोकोत्तराचार, आध्यात्मिकता है या | जिसके माध्यम से जिनशासन में किसी भी प्रकार का विकार न भौतिकता, वैराग्य भाव है या भावुकता है, आत्मप्रभावना, धर्म उत्पन्न होने पाए। श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुए व्यक्ति ही जिन दीक्षा के प्रभावना की दृष्टि है या देह प्रभावना की, जिन शासन को कलंकित | पात्र होते हैं। तो नहीं करेगा, इन बातों को ध्यान में रखते हुए यह भी देखे कि दीक्षार्थी के लिए कल्याणांग होना अतिआवश्यक है, यानि गुरु के प्रति श्रद्धा-विश्वास कितना है। १. (प्रथम लक्षण) शिष्य | कि निरोग शरीर होना चाहिए। शरीर में किसी भी प्रकार का रोग की गुरु में भक्ति है २. भव से भयभीत ३. विनयशीलता ४. | हो तो सर्वप्रथम उसका उपचार करा लेना चाहिए, जिससे कि धार्मिकता ५. शांत स्वभाव, नि:स्पृहता, शिष्टाचार-परायणता ये संयम पथ में किसी भी प्रकार का गति-अवरोध न रहे। एक अनिवार्य गुण हैं। ऐसे श्रेष्ठ गुणों से युक्त व्यक्ति को शिष्य बनाना | सामान्य सर्विस में जाने वाले व्यक्ति का शरीरपरीक्षण होता है, तब श्रेष्ठ है, परन्तु गुण हीनों के गुरु बनना श्रेष्ठ नहीं है। यह तो मोक्ष मार्ग की सर्विस है। रोगी व्यक्ति को न दीक्षा लेनी जो दीक्षा के पूर्व ही अपने लोकाचार की भावना प्रकट चाहिए, न दीक्षादायक को देनी चाहिए। हाँ यदि अन्तिम समय कर रहा हो, आगम के विपरीत चर्या की ओर जा रहा हो, पद सल्लेखना की अवस्था हो, भाव निर्मल हो, उस समय दीक्षां अवश्य प्रतिष्ठा की शर्त रख रहा हो, यहाँ तक कि दीक्षा लेने के पूर्व ही ही धारण करनी चाहिए। गुरु-भक्ति-विहीन हो, ऐसा दीक्षार्थी क्या आत्म कल्याण करेगा? | जो अतिबाल, वृद्ध, मानसिक-विकलांग हो, वह जिनदीक्षा क्या धर्मगुरु के यश को वर्धमानता दिला पायेगा? का पात्र नहीं है। जो उम्र तप करने में, उपसर्ग, परिषह सहन करने इस प्रकार के पात्र को दीक्षा के अयोग्य ही समझना में समर्थ हो उसी अवस्था में निर्ग्रन्थ-निष्क्रमणता को प्राप्त करना चाहिए। जिनदीक्षा धारण करने वाले व्यक्ति के मन, वचन, काय चाहिए। साधु अवस्था को प्राप्त करके प्रसन्नचित्त रहना चाहिए, की शुद्धि का होना परम आवश्यक है। त्रयशुद्धि के अभाव में वह | हीन दीन जैसा मुख नहीं करना चाहिए। यदि साधना का आनंद साधक न स्वकल्याण ही कर सकेगा, न परकल्याण। जिन शासन | होगा तो मुख मलीन हो ही नहीं सकता, मुख मलीन है तो वह की प्रभावना बनाये रखने हेतु दीक्षादायकों के लिए दीक्षार्थी की | अंतरंग अशुद्धता का प्रतीक ही समझना चाहिए अत: साधक के त्रयशुद्धि पर दृष्टिपात करना चाहिए। लिए प्रमुदितमन होना चाहिए। मनोवृत्ति निर्मल है तो चारित्र भी निर्मल होगा। चित्त की | कुल, लोक में दुराचार-अपवाद रहित होना चाहिए। यदि शुद्धि ही चारित्र की शुद्धि है। जिसका चित्त अशुद्ध है उसका | अंग में ऐसा कोई विकार हो, जो जिन मुद्रा में बाधक हो तो उसे चारित्र कितना शुद्ध होगा? सर्वज्ञ के ज्ञान का विषय है, फिर भी क्षुल्लक, ऐलक दीक्षा ही धारण करनी चाहिए, मुनि दीक्षा धारण बहिरंग आचरण को देखकर अंतरंग परिणामों का आचार्य परमेष्ठी करने की अनधिकृत चेष्टा न करे। मुनि बनना उतना श्रेष्ठ नहीं, अनुमान लगा लेते हैं। वचन शुद्धि से तात्पर्य दीक्षार्थी की भाषा, जितना कि आगम-आज्ञा-पालन श्रेष्ठ है। भावनाएँ निर्मल रखे, मृदुल, गंभीर, वैराग्यसम्पन्न होना चाहिए। सारगर्भित हो, जो | अपने कर्मों के विपाक का चिन्तवन करे। मेरे अशुभ कर्म का अभद्रों के अंदर भी भद्रता उत्पन्न करा दे। वंचना रहित भाषा उदय है जो कि हमें निर्दोष शरीर की प्राप्ति नहीं हुई, परन्तु खिन्नता साधक पुरुषों की हुआ करती है। साथ ही हास्यमिश्रित, सावद्य, को प्राप्त न हों, ऐसा सम्यक् पुरुषार्थ करे। पुन: निर्दोष देह को प्राप्त कर्कश, मर्मभेदी, ग्रामीण भाषा का प्रयोग नहीं होना चाहिए। कर संयम साधना कर विदेही अवस्था को प्राप्त हो जाये, इस साधक की भाषा अनुवीचि भाषा हुआ करती है। अनुवीचिभाषा | प्रकार चिन्तवन करना चाहिये तथा जिन्होंने निर्दोष अवस्था को अप्रैल 2003 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त किया है उन्हें शीघ्र संयम पथ पर गमन कर देना चाहिए। क्या । चाहिए। मुनि मुद्रा को प्राप्त करके भी यदि किसी ने उसके विपरीत मालूम पुन: यह अवस्था प्राप्त हुई या नहीं। जैनेश्वरी दीक्षा स्वेच्छाचार आचरण किया, तो वह तीव्र कर्मास्रव करके दुर्गति का पात्र होगा, से परे हुआ करती है, यह भेष आत्महितार्थ ही स्वीकार किया वह जिनदर्शन का शत्रु है। कारण यह है कि हीन आचरण को जाता है। परहित हो जाए सहजता में तो कोई निषेध भी नहीं है, देखकर जन समूह की आस्थाएँ शिथिल हो जायेंगी जैन मुनियों के परन्तु सर्वथा परहित में लगे रहना निज हित को छोड़कर, इसे | प्रति । अत: मेरा उन परम पूज्यपाद आचार्य भगवन्तों के चरणों में जिनागम स्वीकार नहीं करेगा, जिनदीक्षा चैतन्य-मालिनी, त्रयभक्तिपूर्वक नमोस्तु निवेदित है कि स्वपर कल्याणी जैन दीक्षा परमानन्दशालिनी, भगवती आत्मा की प्राप्ति हेतु धारण की जाती सुपात्र को ही प्रदान करें, अपात्र को त्रिलोकपूज्य मुद्रा प्रदान न है। जिनभेष प्रचार के लिए नहीं आचार के लिए स्वीकार किया | करें। पुन: उन बड़भागी जीवों की वंदना करता हूँ, जिन्होंने भोगों जाता है, इसे धारण कर इच्छाओं की पूर्ति में नहीं लगाना, अपितु की ज्वाला से बचकर आत्मयोग को धारण किया है, जिनमुद्रा इच्छाओं का निरोध करना है। स्वीकार कर श्रमण संस्कृति की परम्परा को अग्रिम जीवन्त रूप अहो! धन्य हैं वे जीव, जिन्होंने कलिकाल में भी मुनि | प्रदान किया है। ऐसे सम्पूर्ण वीतराग, निर्दोष, संयमाराधक, श्रमण मुद्रा को स्वीकारा है। संसार में इन्द्रियभोगों के लिए अनेक भेष हैं | संतों के चरणों में नमोस्तु तथा पूज्यपाद गुरुदेव के चरणों की परन्तु आत्म सुख के उपभोग का एक मात्र निर्ग्रन्थ भेष है। ऐसी | वंदना करता हूँ, जिनके प्रसाद से यह निर्ग्रन्थ अवस्था मुझे प्राप्त पावन मुद्रा को प्राप्त कर ख्याति, लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा में नहीं लगाना | हुई। रहीम के रत्न जो रहीम उत्तम प्रकृत, का करि सके कुसंग। चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥ जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटाय। ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सों खाय॥ जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय। बारे उजियारो लगै, बढ़े अँधेरो होय॥ जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय। बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अँधेरो होय॥ धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात । जैसे कुल की कुलबधू, चिथड़न माँह समात॥ प्रीतम छबि नैनन बसी, पर छबि कहाँ समाय। भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिर जाय॥ 14 अप्रैल 2003 जिनभाषित - Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञान-निवृत्ति पं. माणिकचन्द जैन, न्यायाचार्य श्रीयुत बाबू नेमीचन्द जी वकील, सहारनपुर ने केवलज्ञान । स्तम्भनशक्ति और बहिरंग वेलंधर देवों के मजबूत नगर व्यवस्थित के फलविषय में एक प्रश्न पूछा है, जिसका उत्तर दूसरे जिज्ञासुओं | हो रहे मानने पड़ते हैं। धर्मद्रव्य कालत्रय में अधर्म नहीं हो सकता के लाभार्थ प्रश्नसहित नीचे दिया जाता है - है। सर्वार्थसिद्धि के देव या लौकान्तिक देव भविष्य में नारकी या प्रश्न - केवलज्ञान का फल अज्ञान की निवृत्ति हो जाना | तिर्यंच पर्यायको नहीं पा सकते हैं। रूप-गुण कालान्तर में रसप्रथम क्षण में तो ठीक ऊँचता है, क्योंकि बारहवें गुणस्थान के अन्त | गुण नहीं हो सकता है। आज महापद्म का जन्म नहीं होता है। इन में अज्ञान है, केवलज्ञान ने उत्पन्न होकर उस अज्ञान की निवृत्ति की, | सब कार्यों के लिये अनेक प्रागभाव, अन्योन्या भाव और अत्यन्ता किन्तु द्वितीयादि क्षणों में केवलज्ञानों का फल अज्ञान-निवृत्ति क्यों भाव की बलवत्तर भीतें खड़ी हुई हैं। बनारसी दलालों के समान ये माना जाय? जबकि वहाँ कोई अज्ञान अवशेष ही नहीं है? सब व्यक्त-अव्यक्त रूप से साथ लगे हुए हैं। अगुरुलघु-गुण भी उत्तर - पाँचों प्रमाणज्ञानों और भले ही तीनों कुज्ञानों को अन्य व्यावृत्तियों के करने में अनुक्षण अड़कर जुटा हुआ है। मिला लिया जाय, आठों ही ज्ञान सदा अज्ञानकी निवृत्ति करते ही ___"सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्याऽपोहव्यतिक्रमे।" रहते हैं, जैसे अग्नि सदा ही निकटवर्ती योग्य शीतका निवारण आप्तमीमांसा करती रहती है, अथवा सूर्य हमेशा तिरछा पचास हजार, ऊपर सौ इत्यादि आचार्य वाक्य भी इसी बात को पुष्ट करते हैं। योजन और नीचे १८०० योजन क्षेत्र के अन्धकार को मेटता रहता छेदोपस्थापना-संयम के मर्मस्पर्शी विद्वान् इस तत्त्व को शीघ्र समझ जावेंगे। यों केवलज्ञान को सर्वदा अज्ञाननिवृत्ति करनी पड़ती है। है। उदयकाल का सूर्य हो या दोपहर का, उसको शक्तिपूर्वक यह श्री माणिक्यनन्दी, विद्यानन्द स्वामी और प्रभाचन्द्र ने अनेक युक्तियों तमोनिवृत्ति करनी ही पड़ेगी। एक सैकिण्ड की भी ढील कर देने से अज्ञाननिवृत्ति को ज्ञान से अभिन्न ही बतलाया है और सिद्ध पर राक्षसोपम अंधकार तत्काल आ धमकेगा। किया है। पहिले क्षण का दीपक और लगातार घन्टों तक जल रही अज्ञान-निवृत्ति करते रहना ज्ञान का प्राण है। इसी से मध्यवर्ती दीपक की लौ भी उस तमोनिवृत्तिको सतत करते ही आचार्य महोदय ने "अज्ञाननिवृत्तिर्हानोपादानोपेक्षाश्च फलम्' रहते हैं। यदि मध्यवर्ती द्वितीयादि क्षणों में तमोनिवृत्ति न हो तो (परीक्षामुख) वही निविड़ तम तम आ धमकेगा। अत: प्रकाशस्वभाव उपेक्षाफलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः। तमोनिवृत्तिकी तरह स्वार्थनिर्णीति-स्वभाव ही अज्ञाननिवृत्ति है। पूर्वावाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे। आप्तमी. महान् नरपुङ्गवों में भी कुकर्म करने की योग्यता है, परन्तु इस प्रकार के वाक्यों द्वारा अज्ञान निवृत्ति को प्रमाण का | अपने स्वभावों के अनुसार महान् पुरुषार्थ करते हुये उन पाप कर्मों साक्षात् फल माना है। से बचे रहते हैं। पुरुषार्थ में ढील हो जाने से माघनन्दी और समकालीन उपज रहे दो पदार्थों में भी कार्यकारण भाव | द्वीपायन मुनि अपने ब्रह्मचर्य और क्षमाभाव से स्खलित हो गये थे। बन जाता है। जैसा कि अमृतचन्द्र सूरि के निम्न वाक्यसे प्रकट है- | श्री अकलंकदेव ने अष्टशती में "यावन्ति पररूपाणि, प्रत्येक कारण-कार्य-विधानं समकालजायमानयोरपि हि। तावन्तस्ततः परावृत्तिलक्षणा: स्वभावभेदाः प्रतिक्षणं प्रत्येतव्याः" दीपप्रकाशयोरिव... (पुरुषार्थसिद्धयुपाय ३४)। इत्यादि प्रमाणों द्वारा वस्तुतत्त्वको पुष्ट किया है। अभावात्मक किसी भी ज्ञानद्वारा तत्क्षण अज्ञान की निवृत्ति अवश्य हो | धर्मों के जौहरों का अन्तः निरीक्षण कीजिये। . जाती है। तभी तो केवलज्ञानी के अज्ञानभाव का होना असंभव है।। तत्त्वों का केवलज्ञान और अज्ञान दोनों परस्पर में व्यवच्छेद योग्यता को टाला नहीं जा सकता। रूप धर्म हैं। दोनों में से किसी एक का विधान कर देने पर शेष का यदि द्रव्यार्थिकनय या निश्चयनय एकेन्द्रियको सिद्ध समान निषेध स्वत: हो जाता है। केवल ज्ञान के स्वीकार के साथ लगे कहते हैं, तो सिद्धों को भी शक्तिरूप से एकेन्द्रिय हो जाने की हाथ ही अज्ञान निवृत्ति न मानने पर "वदतो व्याघात" दोष आता योग्यता कह देने में उनको क्या संकोच हो सकता है? बात यह है है। अत: केवलज्ञान का अज्ञाननिवृत्ति होना शाश्वत अनिवार्य कि जो कार्य नहीं हो रहा है उसको रोकने के लिये दृढ़ बाँध बँध फल है। भावात्मक कारण, कार्यों में भले ही क्षणभेद हो। किन्तु रहे हैं ऐसा मानना ही पड़ेगा। लवणसमुद्र का पानी जो ग्यारह प्रतिबन्धकाभावरूप कारण और प्रागभाव-निवृत्त्यात्मक कार्य इन हजार अथवा सोलह हजार योजन उठा हुआ है, यदि मचल जाय कारण कार्यों में क्षणभेद नहीं है। प्रकरण में ज्ञानावरणक्षय तो जम्बूद्वीप का खोज खो जाय। किन्तु "न भूतो न भावी न वा (केवलज्ञान) और अज्ञाननिवृत्ति में क्षणभेद नहीं है। दोनों का वर्तमानः।" पानी को वहीं डटा हुआ रखने के लिये अंतरंग | समय समय एक है और दोनों एक ही हैं। 'अनेकान्त' वर्ष ६ से साभार अप्रैल 2003 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्चारित्र की उपादेयता मोक्ष के साक्षात् उपायों में चारित्र का सर्वातिशायी महत्त्व है। अभिप्राय के सम्यक् अथवा मिथ्या होने से चारित्र सम्यक् या मिथ्या हो जाता है। सम्यक्चारित्र मुक्तिलाभ कराता है और मिथ्याचारित्र अनन्त संसार का वर्द्धन कराने वाला है। चारित्र में सम्यक्पना सम्यग्दर्शन के द्वारा ही आता है। सम्यक्त्व चारित्ररूपी महल की नींव है। नींव जितनी मजबूत होती है, प्रासाद उतना ही स्थिर होता है, वैसे ही सम्यग्दर्शन जितना सुदृढ़ होगा उतना ही साधक का चारित्र स्थिर होगा । चारित्र एक विराट् वृक्ष है तो सम्यक्त्व उसका मूल है। मूल के अभाव में वृक्ष चिरस्थायी नहीं रह सकता, आँधी और तूफान में वह धराशायी हो जाता है। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के अभाव में चारित्र की निर्मलता नहीं हो सकती है। सम्यग्दर्शन के सुदृढ़ होने पर सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति ही नहीं होती, वरन् विकास भी होता है। सम्यक्चारित्र का अर्थ समझने के पूर्व चारित्र की व्युत्पत्ति आदि को जानना भी आवश्यक है । तत्त्वार्थ की प्रतीति के अनुसार क्रिया करना चरण या चारित्र कहलाता है, अर्थात् मन, वचन, काय से शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना चरण है। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में लिखा है चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम्।' जो आचरण करता है अथवा जिसके द्वारा आचरण किया जाता है अथवा आचरण करना मात्र चारित्र है। भगवती आराधना में कहा है 'चरति याति तेन हितप्राप्तिः अहितनिवारणञ्चेति चारित्रम्' जिससे हित को प्राप्त करते हैं और अहित का निवारण करते हैं उसको चारित्र कहते हैं अथवा 'चर्यते सेव्यते सज्जनैरिति वा चारित्रम् सामायिकादिकम् ' सज्जन जिसका आचरण करते हैं, वह चारित्र है । इस प्रकार शब्द का विशेष अर्थ और महत्त्व जानकर चारित्र की परिभाषा पर विचार करना अपेक्षित है, सो आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी द्वारा प्रतिपादित चारित्र का स्वरूप प्रस्तुत किया जा रहा है हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहाभ्याञ्च । पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४९ हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुनसेवन और परिग्रह इन पाँचों पापों की भावात्मक प्रणालिकाओं क्रोध, मान, माया, लोभ, मोहादि सतत प्रवाहित कुभावों से विरक्त होना चारित्र कहा जाता है, जिसका आचरण सम्यग्ज्ञानी मानव करता है। चारित्र की प्राप्ति ही मानव जीवन की सार्थकता है। चारित्र ही वास्तव में धर्म है, जैसा कि आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है 16 अप्रैल 2003 जिनभाषित प्रवचनसार गाथा ७ चारित्र वास्तव में धर्म है और जो धर्म है, वह साम्य है, ऐसा जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा गया है। साम्य ही यथार्थत: मोह और क्षोभरहित आत्मा का परिणाम हैं। डॉ. श्रेयांस कुमार जैन चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोति णिद्धिट्टो । मोहवोहविहीणो परिणामो अप्पणो ह समो ॥ आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी भी चारित्र की महत्ता बतलाते हुए कहते हैं चारित्रं भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ॥ पुरुषार्थसिद्धयुपाय ३९ कारण यह है कि समस्त पाप युक्त योगों के दूर करने से चारित्र होता है। वह चारित्र समस्त कषायों से रहित होता है, निर्मल होता है। जो राग-द्वेष रहित वीतराग होता है, वह चारित्र आत्मा का परिणाम होता है। यहाँ आत्मा में लीनता का मुख्य हेतु सम्यक्चारित्र को ही बताया गया है । चारित्र के सम्यक्पने में मुख्य भूमिका सम्यग्दर्शन की होती हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती है, जैसा कि जिनशासन की महती प्रभावना करने वाले आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी ने कहा है कहा है जिस प्रकार बीज के बिना वृक्ष की उत्पत्ति नहीं हो सकती, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि नहीं होती है। सम्यग्दर्शन को तो कर्णधार ही स्वीकार किया है, उन्होंने विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः । न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३९ दर्शनज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्ष्यते ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३६ जिस प्रकार किसी भी नाव का जलाशय के उस पार जाना खेवटिया के अधीन होता है, उसी प्रकार संसारी जीव का संसार समुद्र को पार करना सम्यग्दर्शन के अधीन होता है। मोक्षमार्ग में ज्ञान और चारित्र का कम महत्त्व नहीं है, किन्तु इनमें सम्यक् पना सम्यक्त्व से ही आता है, जैसा आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन। | वही अज्ञानी का आचरण अविवेक पूर्वक होने से कर्मबन्ध का तस्मिन्सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रञ्च॥ कारण है। (ज्ञानार्णव २१/७) पुरुषार्थसिद्धयुपाय २१ आचार्य श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने तो मोक्ष के हेतुओं में ज्ञान रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग में सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का अखिल को बहुत अधिक महत्त्व दिया है। वे समयसार की गाथा १५३ की प्रयत्न पूर्वक आश्रय लेना चाहिए क्योंकि सम्यग्दर्शन के होने पर टीका में लिखते हैं- "ज्ञान के अभाव में अज्ञानियों में अन्तरंग ही ज्ञान एवं चारित्र सम्यक् बनते हैं। तीनों के सम्यक् होने पर ही | व्रत, नियम, सदाचरण, तप आदि होते हुए भी मोक्ष नहीं है, मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है। क्योंकि अज्ञान ही बन्ध का हेतु है" इस कथन से स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन के समान सम्यग्ज्ञान का महत्त्व चारित्र पालन दर्शन और चारित्र के समान ही ज्ञान का महत्त्व है। यदि दर्शन और में है, क्योंकि सम्यक्चारित्र में सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता है। चारित्र से शून्य ज्ञान है तो उसका कोई अर्थ नहीं होता, क्योंकि जैसा कि पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा भी है आचरणविहीन अनेक शास्त्रों का मर्मज्ञ विज्ञ भी संसार समुद्र से नहि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते। पार नहीं हो सकता। जैसे एक चक्र से रथ नहीं चल सकता, एक ज्ञानान्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात्॥३८॥ पंख से पक्षी आकाश में उड़ नहीं सकता, वैसे ही अकेले ज्ञान से अर्थात्/अज्ञानपूर्वक चारित्र सम्यक्भाव/समीचीनता को मुक्ति लाभ हो नहीं सकता। ज्ञान के साथ चारित्र होगा तभी मुक्ति निश्चयरूप से प्राप्त नहीं होता है, इसलिए चारित्र का आराधन ज्ञान मिलेगी। वास्तविक ज्ञान आचरण में मूर्त रूप लेता है, जो ज्ञान के पश्चात् करने को कहा गया है। ज्ञानपूर्वक की गई क्रिया ही चारित्र में नहीं बदलता, केवल तत्त्वचर्चा एवं वाद-विवाद या कार्यकारी है। अज्ञानी की क्रियाएँ तो बन्ध की ही कारण हैं। इस उपदेश तक ही सीमित रहता है, वह साध्य की सिद्धि करने वाला विषय में आचार्य शुभचन्द्र ने बहुत अच्छा कहा है-संसार में जिस नहीं होता। ज्ञान के साथ चारित्र का सुमेल ही साधना करानेवाला मार्ग से अज्ञानी संचार करता है, उसी मार्ग से तत्त्वज्ञ भी संचार और मुक्तिरमा का वरण कराने वाला होता है। अत: यह निश्चय से करता है, फिर भी अज्ञानी जीव अपने को कर्म से लिप्त करता है जानना चाहिए कि चारित्र परमसाध्य की सिद्धि के लिए आवश्यक और ज्ञानी अपने को कर्म से मुक्त करता है। हाँ, ज्ञानी और अज्ञानी ही नहीं अपितु अनिवार्य है। के आचरण में समानता के होने पर भी ज्ञानी का वह आचरण उपाचार्य (रीडर) संस्कृत विभाग विवेकपूर्वक होने से संवर और निर्जरा का कारण होता है तथा दिगम्बर जैन कॉलिज, बड़ौत आदर्शकथा न्याय की तुला इंगलैण्ड की बात है । वहाँ उस समय चतुर्थ हैनरी राज्य करता था। पाँचवाँ हैनरी युवराज के पद पर था। एक बार युवराज का नौकर किसी अपराध में पकड़ा गया और युवराज के उसे छुड़ाने का प्रयत्न करने पर भी उसको दण्डित कर दिया। इस पर युवराज क्रुद्ध होकर अदालत गया, लेकिन न्यायाधीश ने कहा, "अगर आप नौकर को छुड़ाना ही चाहते हैं, तो सम्राट् से क्षमा की प्रार्थना कीजिये। मैं इसे नहीं छोड़ सकता।" यह सुनकर युवराज आग-बबूला हो गया और अपराधी को जबरदस्ती छुड़वाने के लिए आगे बढ़ा। उसकी इस हरकत पर न्यायाधीश ने उसे अदालत से बाहर निकल जाने का आदेश दिया। अब तो युवराज आपे से बाहर हो गया। वह न्यायाधीश की कुर्सी की ओर झपटा। लेकिन कुछ कदम बढ़ने पर सहसा रुक गया। न्यायाधीश बड़ी गंभीर और कठोर मुद्रा में उसकी ओर देख रहा था। उसने कहा, "युवराज, मैं न्याय के आसन पर बैठा हूँ। अत: न्याय की मर्यादा की रक्षा करना मेरा धर्म है। आपको भविष्य में जिस प्रजा पर शासन करना है, वह कानून का आदर करे, इसके लिए आपको स्वयं वैसा आचरण करना चाहिए। आपने कानून का उल्लंघन किया है और अदालत की तौहीन की है, इसलिए मैं आपको कैद की सजा देता हूँ।" अब युवराज को होश आया। उसे अपने किये पर पश्चात्ताप हुआ और बिना आपत्ति किये वह जेल चला गया। जब सम्राट को इसका पता चला, तो उसे बड़ा हर्ष हुआ। उसने कहा, "कानून की रक्षा करने वाला ऐसा न्यायाधीश जिस राज्य में है, वह वास्तव में सुखी है और वह राजा भी सुखी है, जिसका पुत्र कानून की अवहेलना करने पर दण्ड भरने के लिए जेल चला जाता है।" यशपाल जैन - अप्रैल 2003 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वमणि रानी रेवती : रानी रेवती धर्मपरायणा ऐसी रमणी प्रमुख है, जो श्राविका होते हुए भी साधुवर्ग में भी अपने विवेक और सद्ज्ञान के कारण प्रशंसित एवं चर्चित रहीं। सम्यग्दर्शन के आठ अंगों की कथाओं में अमूढ़ दृष्टि अंग के विश्लेषण एवं विवेचन की कथा का केंद्र रानी रेवती ही हैं । रानी रेवती की उत्कृष्ट कथा का सारांश इस प्रकार हैएक बार क्षुल्लक चंद्रप्रभ तीर्थाटन की आज्ञा हेतु आचार्य जी से कहते हैं- "गुरुवर मैं यात्रा के लिए जा रहा हूँ, क्या आपको कुछ समाचार तो किसी के लिए नहीं कहना है ?" गुप्ताचार्य बोले- मथुरा में एक सूरत नाम के ज्ञानी और गुणी मुनिराज को नमस्कार और सम्यग्दृष्टिनी धर्मात्मा रेवती के लिए मेरी धर्मवृद्धि कहना । एक आचार्यश्री द्वारा एक श्राविका को धर्मवृद्धि क्षुल्लक जी के मन में रेवती के चरित्र की परीक्षण जिज्ञासा उद्भूत हुई। उन्होंने अपने विद्याबल से ब्रह्मा का रूप बनाया। कमल पर विराजमान ब्रह्मा के दर्शनार्थ सभी गए, लेकिन रानी नहीं गई, पति के बार-बार कहने पर भी रानी रेवती ने राजा से कहा- यह ब्रह्मा कोई धूर्त ही हो सकता है। जिस ब्रह्मा की वन्दना के लिए आप जा रहे हैं, वह ब्रह्मा नहीं हैं। ब्रह्मा इस प्रकार यत्र तत्र नहीं आ जाते। दूसरे दिन क्षुल्लक ने गरुड़ पर बैठे हुए चतुर्बाहु शंख, चक्र, गदा आदि से युक्त और दैत्यों को कंपाने वाले विष्णु भगवान् का रूप धारण कर दक्षिण दिशा में डेरा जमाया। रेवती ने तब भी उसके पास जाने से राजा को रोक दिया। स्वयं भी नहीं गई, क्षुल्लक की यह विधि भी निष्फल रही, चूँकि वह तो रेवती रानी की परीक्षा लेना चाहते थे । रानी के पति वरुण भी मायाजाल से प्रभावित हो गए थे। उन्होने रानी रेवती से कहा-रानी कल ब्रह्मा थे, नहीं गईं, आज तो चलो साक्षात् नारायण आ रहे है। रानी ने दो टूक उत्तर दिया- 'राजन ! यह भी कोई मायावी ही है। इसकी पूजा अज्ञानी और पांखडी ही करेंगे। यह केशव या नारायण नहीं है । हमारे आगम में बताया है कि नव नारायण पहले हुए हैं, वे अब यहाँ कहाँ से आयेंगे ?' रानी की बात सुनकर राजा आश्चर्य में पड़ गया। - क्षुल्लक रानी रेवती को आया हुआ न देखकर फिर निराश हुआ। तीसरे दिन उस बुद्धिमान क्षुल्लक ने बैल पर स्थित पार्वती एवं गणपति युक्त शिव का रूप धारण किया। रानी रेवती ने पुनः आगम प्रमाण देते हुए कहा हे राजन्! आगम में ग्यारह रुद्रों का वर्णन है। वे रुद्र आज से लाखों वर्ष पूर्व हो चुके हैं। इस काल में रुद्र नहीं आ सकते । यह कोई मायाधारी व्यन्तर या विधाधर ही | 18 अप्रैल 2003 जिनभाषित डॉ. नीलम जैन हैं। क्षुल्लक फिर मन मार कर रह गया। अगले दिन उसने अष्टप्रातिहार्यों से युक्त समवशरण बनाया और भगवान् महावीर का रूप धारण किया। भगवान् के आगमन और समवशरण की बात राजा के कानों में भी पड़ी। इस बार फिर राजा ने सहजता से कहा " रानी ! अब तो चलो इष्ट देव वर्द्धमान स्वामी का समवशरण आया है, अतः आप दर्शन हेतु चलें।" रानी ने अब पूर्णतया दृढ़ता से कहा- "राजन! कैवल्य श्री को प्राप्त किए हुए जिनेन्द्र इस काल में कहाँ से आयेंगे ? जो भगवान निर्वाण प्राप्त कर चुके हैं, वे पुनः धरा पर नहीं आ सकते।" आज राजा को रेवती रानी के वचनों ने निरुत्तर कर दिया। वह भी सोचने लगे बात तो ठीक है, वास्तव में २५ वाँ तीर्थंकर कहाँ से आयेगा? राजा फिर ऊहापोह में पड़ जाते हैं। कहते हैं- "सभी लोग मिथ्या दृष्टि हैं । सब तो इन्हें महावीर समझ कर पूजा कर रहे हैं।" "स्वामिन् जैसे सभी पुष्पों में फल नहीं लगते सभी वृक्ष चन्दन नहीं होते, सभी नारियाँ सती नहीं होतीं इसी प्रकार सभी व्यक्ति समयग्दृष्टि नहीं होते। जिसे देव शास्त्र, गुरु का सच्चा श्रद्धान है, वह कभी कपट-जाल में नहीं फँस सकता," रेवती ने विनम्रतापूर्वक कहा। राजा प्रजा सभी इस तीर्थंकर के पास श्रद्धापूर्वक गए लेकिन सम्यक् भाव से भूषित रानी रेवती ने दृढ़ता पूर्वक कह दिया- "तीर्थंकर चौबीस ही हुए हैं, चौबीस ही होंगे और चौबीस ही हैं उनकी संख्या भंग करने वाले पच्चीसवें तीर्थंकर कहाँ से आ सकते हैं? यह कोई मायावी ऐन्द्रजालिक ही हो सकता है।" अब भी रानी को आता हुआ न देख क्षुल्लक रानी की स्थिरप्रज्ञता को समझ गया। अब उसने अपनी माया समेटी और यथावत् क्षुल्लक का रूप धारण किया। रानी ने अब उसके क्षुल्लक रूप को भली भांति निरखा परखा और सही समझकर उसका पड़ गाहन किया तथा चौके में ले गई। क्षुल्लक ने रानी को सम्यदृष्टि समझा तथा अपना वास्तविक रूप प्रकट कर मुनि गुप्ताचार्य का आशीर्वाद कहा। अन्ततः क्षुल्लक ने अनेक प्रकार की व्याधियों से युक्त अत्यन्त मलिन वेश बनाया और रेवती के घर भिक्षा हेतु पहुँचे। आँगन में पहुँचते ही वे मूर्च्छित हो गए। उन्हें देखते ही धर्मवत्सला रेवती बड़ी भक्ति और विनय पूर्वक परिचर्या में लीन हो गई और प्रासुक आहार कराया। क्षुल्लक को अब भी सन्तुष्टि नहीं हुई और उन्होंने वहीं अत्यधिक दुर्गन्ध युक्त वमन कर दिया। क्षुल्लक जी की यह स्थिति देख रेवती द्रवित हो गई। उसने यही पश्चाताप किया कि मेरे द्वारा आहार में असावधानी हो गई है। पश्चाताप के अश्रु बहाती हुई रेवती ने उनका शरीर पौंछा, गरम जल से साफ किया। उनकी Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैय्यावृति की। सांसारिक सुखों की अभिलाषा में वे ढोंग, पाखण्ड, क्रिया काण्ड रेवती रानी की श्रद्धा भक्ति देख क्षुल्लक हर्ष विभोर हो गए | को सहजता से ग्रहण कर लेती हैं। घर-परिवार के अनिष्ट की और अपनी माया समेट कर रोमांचित हो बोले- "देवि ! संसार | आशंका से वे कुमार्गरत हो जाती हैं। दृढ़ता एवं सकंल्प शक्ति श्रेष्ठ मेरे परम गुरु महाराज गुप्ताचार्य की धर्मवृद्धि तेरे मन को | की धनी, प्रकृत्या धीरा वीरा गंभीर रेवती तरला, सुशीला पवित्र करे। तुमने जिस भवसागर-तारक अमूढ दृष्टि अंग को | नारी के रूप में महिला समाज का गौरव हैं, साथ ही ऐसी ग्रहण किया है वह सम्यक्त्व प्रशंसनीय है।" गुणवती रानी रेवती प्रथम महिला भी जिसने अपने जीवनकाल में जिन वचनों में को आशीर्वाद देकर क्षुल्लक विहार कर गए। इसके बाद वरुण | श्रद्धा को अभिव्यक्त किया था, साधु समाज द्वारा समादृत नृपति और रेवती रानी ने काफी समय गृहस्थ जीवन सुख पूर्वक | हुई ऐसी श्राविकारत्न रेवती प्रथम-पांक्तेय अनुपम एवं विशिष्ट व्यतीत किया। एक दिन राजा को किसी कारण वैराग्य हो गया। वे | रमणी-रत्न हैं। अपने शिवकीर्ति पुत्र को राज्य सौंप कर साधु बन गए। आयु के अपने पौरुष से नारी की गौरवान्वित महत्ता को प्रतिष्ठापित अन्त में समाधिमरण कर माहेन्द्र स्वर्ग में जाकर देव हुए। रेवती | करने वाली ये ऐसी जागृत महिला हैं, जिसने श्राविकाओं के रानी ने सुव्रता नामक आर्यिका से दीक्षा ग्रहण की और तपकर | स्वरूप को उज्ज्वल, स्निग्ध, मनोरम तथा पुण्य काया पल्लवित, सन्यास पूर्वक मरण किया। रेवती अखिल जैन नारी समाज की | पुष्पित और पवित्र बनाया। अन्तस् की परीक्षा करने की रेवती गतिदिशा में नव परिवर्तन की सूत्रधारिणी है। इन्होंने नारीत्व गौरव | रानी में अद्भुत क्षमता थी। अपने बल पर जिसकी सुपमा जागृत और धर्म के मौलिक तत्त्वों के आत्मिक समीकरण से एक माडल | हुई, वह रानी रेवती ही है। रेवती रानी का चरित्र उज्ज्वल, शांत, तैयार किया है। सम्यदर्शन के बिना मुक्ति नहीं, उसी सम्यग्दर्शन | सरल. उदात्त, प्रभापूर्ण, जाज्वल्यमान है। यह वह जागृत महिला के आठ अंगों में एक अंग रानी रेवती का पर्याय वन गया है। ऐसी | है जिसने गृहस्थ जीवन में रहते हुए अपने व्यक्तित्व का सौरभ धर्मशीला कर्मवीरा नारी ने काफी गहनता से अपने व्यक्तित्व का | चुतर्दिक फहराया। इनका व्यक्तित्व प्रत्येक रूप में हृदय के तार सुखद निर्माण किया था अत: विजित रही। नारी धर्म, जिन श्रद्धा | को छूता है, छेड़ता है और अपने साथ रमा लेता है। नारीत्व और सेवाव्रत के प्रति दृढ रह कर यह सांध्य तारा की भांति अपनी | साधना का विकास अपने सामर्थ्य से अपने बल बूते पर करने डगर पर एकाकी चलती रही। स्वयं उसने अपने नारीत्व को | वाली सचमुच रेवती नर-पूजिता है। इस अद्भुत नारी ने अपने जागृत रखा, जाज्वल्यमान, दीप्ति पूर्ण, आभा पूर्ण उर्जस्विता बनकर | धर्म, नारीत्व, साधना, ब्रहमचर्य की शक्ति से युगनारी को प्रभावित रानी रेवती जगतपूज्या बनी। किया, चिर अखण्ड, चिरअनन्त, चिर महान, युगविभृति, युग इस प्रकार रानी रेवती ने जगविख्यात दोषारोपण को भी | वाणी को नव स्वर दिया। निर्मूल किया कि महिलाओं में मिथ्यात्वबुद्धि अधिक होती है, | के.एच.-२१६ कविनगर, गाजियाबाद आचार्य श्री विद्यासागर के सुभाषित - ज्ञानरूपी दीपक में संयमरूपी चिमनी आवश्यक है, अन्यथा वह रागद्वेष की हवा से बुझ जायेगा। Hदीपक लेकर चलने पर भी चरण तो अन्धकार में ही चलते हैं। जब चरण भी प्रकाशित होंगे, तब केलवज्ञान प्रकट होगा। * स्वस्थ ज्ञान का नाम ध्यान है और अस्वस्थ ज्ञान का नाम विज्ञान। म ज्ञान स्वयं में सुखद है, किन्तु जब वह मद के रूप में विकृत हो जाता है, तब घातक बन जाता है। म जीवन में ज्ञान का प्रयोजन मात्र क्षयोपशम में वृद्धि नहीं, वरन् विवेक में भी वृद्धि हो। 'सागर बूंद समाय' से उद्धृत - अप्रैल 2003 जिनभापित 19 International Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाँदखेड़ी के अतिशय क्षेत्र से महाअतिशय क्षेत्र बनने तक एक वृत्तान्त सतीश जैन इंजीनियर चांदखेड़ी महाअतिशय क्षेत्र दिगंबर जैन समाज का अति | जिस गुफा में बड़े बाबा विराजमान हैं उसके द्वार इतने प्राचीन एवं प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र है, जो कि राजस्थान प्रांत के झालावाड़ छोटे-छोटे हैं कि लोगों को झुककर एवं जमीन में हाथ टेककर ही जिले में स्थित है। यह क्षेत्र मध्यप्रदेश की सीमा के अधिक करीब | दरवाजों से आना-जाना पड़ता है। मंदिर के प्रथम तल पर बाहुबली है एवं गुना से ... कि.मी. है। अटरू और वारा रेल्वे स्टेशनों से भगवान् मध्य वेदी पर विराजमान हैं एवं अन्य वेदियाँ भी आज़ क्षेत्र की दूरी 40 कि.मी. है। चांदखेड़ी क्षेत्र से जुड़ा हुआ कस्बा | बाजू में हैं। मंदिर की छत पर चार कोनों में बनी चार छतरियाँ खानपुर है। जैन समाज खानपुर में ही निवास करता है। इस क्षेत्र मंदिर की भव्यता एवं सुंदरता को अत्यधिक प्रशस्त करती हैं। पर एक विशाल भव्य एवं मनोहारी मंदिर निर्मित है जिसके गुफा मंदिर की प्राचीनता एवं भव्यता मंदिर की विशिष्ट निर्माण तल में लाल पाषाण के महाअतिशयकारी आदिनाथ भगवान् कला से स्पष्ट झलकती है। सघन नक्काशीदार पाषाण के ऊंचेपद्मासन मुद्रा में विराजमान हैं। आदिनाथ भगवान् ही इस क्षेत्र के ऊंचे खंभे, छ:-सात फुट मोटी दीवारें, चार-चार फीट ऊँचाई के मूलनायक भगवान् हैं। प्रतिमा की ऊँचाई सवा छ: फीट है एवं | दरवाजे, कलाकृति युक्त मेहराब आदि सभी कुछ दर्शनीय एवं प्रशस्ति में संवत् 512 अंकित है। इन्हीं आदिनाथ भगवान् को | प्रशंसनीय है। मंदिर के चारों ओर काफी चौड़ा आंगन है एवं श्रद्धालु चांदखेड़ी के बड़े बाबा के नाम से पुकारते हैं। बड़े बाबा | आंगन से लगकर तीन ओर बड़ी दो मंजिला धर्मशाला का निर्माण की छबि इतनी मनोज्ञ एवं सजीव है कि दर्शनार्थी दर्शन करते ही है। 50 कमरों की एक नवीन धर्मशाला का निर्माण कार्य गतवर्ष भाव-विभोर हो जीवन को धन्य मानने लगते हैं। एक बार भगवान् पूरा हो चुका है जिसमें सभी कमरे बड़े एवं सुविधाजनक हैं। के सम्मुख दर्शन के लिए बैठ जाने के बाद उठने का विकल्प मन | मंदिर के उत्तर में मंदिर परिसर से लगकर बहती हुई रूपली नदी में नहीं आता और प्रतिमा की छबि हृदय में समाती चली जाती है। ऐसी लगती है मानो बड़े बाबा के चरण छूने ही उसने अपना स्थान प्रतिमा को एकटक देखने पर प्रतिमा मुस्कराती एवं साँस लेती हुई चुना हो। उत्तर दिशा में ही एक बड़ा प्रवेश द्वार बना हुआ था, नजर आती है। ऐसा लगने लगता है मानो बड़े बाबा भक्त की जिसे लगभग 250 वर्ष पूर्व सुरक्षा की दृष्टि से बंद कर दिया गया भक्तिपूर्ण भावनाओं को समझ मुस्कराकर आशीष दे रहे हैं। जो था। मंदिर के चारों ओर घने बड़े-बड़े कई फलदार वृक्ष लगे हुए भी साधु या श्रावक प्रथम बार बड़े बाबा के दर्शन करते हैं, सभी हैं जिनसे भी यह क्षेत्र और अधिक शोभा पाता है। मंदिर एवं एक ही बात कहते हैं कि उन्होंने ऐसी बेजोड़ एवं बेहोड़ प्रतिमा | धर्मशाला की छतों पर सुबहशाम कई-कई मयूर प्रतिदिन नृत्य भारत वर्ष में कहीं नहीं देखी, धन्य है वह श्रेष्ठी जिसने ऐसे साक्षात | करते हुए देखे जाते हैं। मुख्य मंदिर के पीछे ही नवीन समोशरण भगवान् बनवाने के भाव किये, निश्चित ही वह कोई भव्य जीव | मंदिर बना हुआ है। इस चांदखेड़ी महाअतिशय क्षेत्र पर जिसका होगा। वह शिल्पी भी धन्य है जिसने अपनी शिल्प साधना से एक | कि कण-कण पूज्य एवं अतिशय युक्त है, साधु संत आते रहते हैं अनुपम एवं अकल्पनीय किंतु सत्य रूप प्रकट कर स्वयं को धन्य | एवं चौमासा कर बड़े बाबा के चरणों में अपनी साधना को बढ़ाते किया। गुफातल में ही अतिप्राचीन भगवान् महावीर की मूलनायक आदिनाथ भगवान् एवं मंदिर के इतिहास के अष्टप्रातिहार्य युक्त लाल पाषाण की मनमोहक प्रतिमा विराजमान बारे में जानकारी मिलती है कि बड़े बाबा की प्रतिमा चांदखेड़ी है। बड़े बाबा के दोनों ओर सफेद पाषाण की कई छोटी-बड़ी क्षेत्र से छह मील दूर शेरगढ़ की बारहपाटी पर्वत माला के एक मूर्तियाँ विराजमान हैं। अनेकों बार बड़े बाबा की प्रतिमा से अविरल हिस्से में जमीन में दबी हुई थी। कोटा स्टेट के तात्कालिक दीवान जल की धारा अचानक फूट पड़ने का अतिशय हजारों लोगों ने सेठ किशनदास जी, जो कि सांगोद के निवासी थे उन्हें एक रात देखा है। और भी कई अतिशय इस क्षेत्र पर लोगों ने साक्षात देखे | बड़े बाबा की प्रतिमा का स्पप्न आया। वे स्वप्न के अनुसार प्रतिमा हैं। हजारों यात्री पूरे भारत से वर्षभर क्षेत्र पर आते हैं एवं बड़े | को बैलगाड़ी पर सांगोद ले जा रहे थे कि रूपली नदी के किनारे बाबा के दर्शन, पूजा, अभिषेक से, सातिशय पुण्य का बंध कर ] एक टेक पर बैलगाड़ी रुक गई एवं बैल पछाड़ खा गये। दूसरे कई अपनी अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति पाते हैं। जोड़ी बैलों के द्वारा गाड़ी को खींचने का प्रयास किया गया, परन्तु सफलता नहीं मिली। अंत में सेठ किशनदास जी ने उसी स्थान पर 20 अप्रैल 2003 जिनभाषित - Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नदी के किनारे बड़े बाबा को विराजमान करवाकर इस चमत्कारी । अतिशय क्षेत्र पर पधारने के लिए कई बार निवेदन किया। भक्तों गुफाओं से युक्त भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर का | के पुण्य का उदय हुआ और मुनिश्री सुधासागर जी महाराज 15 निर्माण कार्य चार वर्ष (संवत् 1742 से 1746) तक चला। सेठ जनवरी सन् 2002 को चाँदखेड़ी अतिशय क्षेत्र पर पधारे। मुनिश्री किशनदास जी ने ही भव्य पंचकल्याणक एवं प्रतिष्ठा महोत्सव का का क्षेत्र पर पदार्पण, चाँदखेड़ी अतिशय क्षेत्र का चाँदखेड़ी आयोजन प्रमुख प्रतिष्ठाचार्य आमेर गद्दी के भट्टारक श्री जगत महाअतिशय क्षेत्र बनने का मंगलाचरण था। मुनिश्री के चाँदखेड़ी कीर्ति के सान्निध्य में उत्साह पूर्वक करावाया जिसका अंतिम | पहुँचने पर खानपुर, अशोक नगर, गुना आदि के जैन समाज, चरण संवत 1746 माघसुदी छठ सोमवार को सानंद सम्पन्न हुआ। | मुंगावली दिव्यघोष मंडल एवं क्षेत्र के सभी पदाधिकारी एवं सदस्यों मंदिर के बाहर दीवार पर सैकड़ों वर्ष से लगे प्रशस्ति पाषाण पर | ने अभूतपूर्व, ऐतिहासिक अगवानी की। मुनिश्री ने बड़े बाबा के लिखा हुआ है कि जनश्रुति के अनुसार मंदिर के नीचे बनी किसी | दर्शन किये, तो वे चमत्कृत हुए बिना न रहे पाये एवं कहने लगे गुफा में रत्नमयी चंद्रप्रभु भगवान् की प्रतिमा है। मंदिर की सारी | कि ऐसे अलौकिक जीवंत भगवान् के दर्शन उन्होंने जीवन में जमीन, संपत्ति आदि भी ब्रिटिश कालीन दस्तावेजों के अनुसार श्री | पहली बार किये हैं। मुनिश्री के मन में विचार आया कि जिस क्षेत्र चंद्रप्रभु दिगम्बर जैन मंदिर के नाम से है। परन्तु वर्तमान में | पर ऐसे अद्वितीय साक्षात् आदिनाथ भगवान् विराजमान हैं, वह चंद्रप्रभु भगवान् की ऐसी कोई भी बड़ी या प्राचीन प्रतिमा मंदिर | क्षेत्र इतना पिछड़ा क्यों है? मुनिश्री ने तुरंत ही क्षेत्र के वास्तु जी में दर्शनार्थ विराजमान नहीं थी, जिसके आधार पर यह निश्चित | स्वरूप पर विचार करना प्रारंभ कर दिया, तदनुसार अनेक दोष किया जा सके कि दस्तावेजों में मंदिर का नाम श्री चंद्रप्रभु दिगम्बर | क्षेत्र के निर्माण कार्यों में पाये। वास्तु दोषों में सबसे पहला एवं जैन मंदिर उसी मूर्ति के आधार पर रखा गया होगा। इससे यह | महत्त्वपूर्ण दोष यह पाया कि क्षेत्र का प्रवेश द्वार दक्षिण दिशा में संकेत मिलता रहा कि निश्चित ही मंदिर में कहीं चंद्रप्रभु भगवान् खुला हुआ है जो कि यम का द्वार कहलाता है। इसी कारण क्षेत्र की कोई विशिष्ट प्रतिमा छिपी हुई होना चाहिए। पूर्व में क्षेत्र पर | यथोचित विकास नहीं कर पा रहा है। मुनिश्री ने क्षेत्र पर पदार्पण आचार्य देशभूषण जी महाराज, आचार्य विमल सागर जी महाराज | के कुछ दिन बाद ही इस दक्षिण मुखी द्वार को बंद कर उत्तर की एवं आचार्य कल्याण सागर जी महाराज आदि कई निमित्तज्ञानी और बने विशाल द्वार, जो कि 250 वर्ष पूर्व बंद कर दिया गया था, साधु पधारे एवं सभी ने यही बताया कि इस मंदिर के भूगर्भ में कई | उसको अविलंब खोजने की बात कमेटी एवं समाज के सम्मुख जिनबिंब हैं। परंतु कोई भी साधु इन जिनबिम्बों को निकाल नहीं रख दी एवं इस कार्य को करने के लिए मात्र एक दिन का समय पाये और न ही साहस कर पाये, पर सभी ने यही कहा कि भविष्य | निर्धारित किया। कुछ लोगों ने बंद दरवाजे में भृत-प्रेत एवं देवी में कोई महान् तपस्वी बालयति साधु इस क्षेत्र पर आयेगा और | देवताओं के होने की बात मुनिश्री से कही एवं कुछ लोगों ने कह। वही इन भूगर्भ में स्थित प्रतिमाओं को निकालकर लायेगा। सारा कि इतने कम समय में यह काम संभव नहीं है। तब मुनिश्री समाज ऐसे किसी परम तपस्वी साधु का इंतजार करने लगा जो | सुधासागर जी, जो कि सदा से ही असंभव कामों को संभव करते उन प्रतिमाओं को दर्शनार्थ निकाल पायेगा। कितनी ही पीढ़िया आये हैं एवं जिनके नाम से ही देवी-देवता कोषों दूर भागते हैं, चंद्रप्रभु भगवान् के दर्शन की मनोकामना लिये संसार से विदा हो उन्होंने समाज एवं कमेटी को आशीर्वाद देकर उत्साह का ऐसा गईं। पर कुछ लोग जिनका पुण्य प्रबल था इंतजार की घड़ियाँ गिन | संचार कर दिया कि एक ही दिन में दक्षिण दिशावाला यम द्वार रहे थे। पूर्णत: बंद कर उत्तर दिशा का द्वार जो कि कुबेर का द्वार कहलाता है, चंद्रप्रभु भगवान् के दर्शनों के पिपासु लोगों को अपनी | खोल दिया गया। कुबेर का द्वार खुलते ही ऐसा लगा मानों धन की मनोकामना साकार होने की एक झलक परम पूज्य मुनिपुंगव श्री | वर्षा करने कुबेर स्वयं अपना खजाना लेकर चाँदखेड़ी में उतर आया सुधासागर जी महाराज की उत्कृष्ट साधना में दिखाई दी। चांदखेड़ी | हो। मुनिश्री ने अपने प्रवचन में कहा कि अब कुबेर का द्वार खुल क्षेत्र कमेटी पृज्य मुनि श्री सुधासागर जी महाराज, जो कि वर्तमान | गया है, अब इस क्षेत्र का विकास आसमान की ऊँचाई को छुयेगा के श्रेष्ठ संतशिरोमणि आचार्य 108 विद्यासागर जी महाराज के | एवं यह क्षेत्र विश्व के नक्शे पर चमकने लगेगा। हजारों की संख्या में परम मेधावी शिष्य हैं, उनके चरणों में पिछले दो तीन वर्षों से | उपस्थित लोगों ने बड़ी उदारता से एक ही दिन में लाखों रुपये का कई-कई बार चांदखेड़ी क्षेत्र पर पधारने का निवेदन कर रही थी। | दान क्षेत्र के विकास के लिए दिया। उत्तरदिशा के द्वार खलने का पूज्य सुधासागर जी महाराज जो कि अपनी कठोर तपस्या, उत्कृष्ट कार्य चाँदखेड़ी के अतिशय क्षेत्र से महाअतिशय क्षेत्र बनने का साधना. प्रभावी एवं ओजस्वी प्रवचनशैली, आगम के गहन ज्ञाता, | प्रथम चरण था। इसके बाद क्षेत्र पर अतिशयों की श्रृंखला शुरु हो सरल स्वभावी, तीर्थजीर्णोद्धारक, वास्तु -विशेषज्ञ, मूर्तिप्रमाण- | गई। पारंगत आदि कई अन्य विशेषताओं के लिए पूरे भारत में जाने | जैसा कि भारत वर्ष का समूचा जैन समाज जानता है कि जाते हैं, गतवर्ष यानि सन् 2001 में कोटा में चातुर्मास कर रहे थे। मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज ने ही सन् 1994 में सांगानेर क्षेत्र कमेटी ने कोटा चातुर्मास के दौरान मुनिश्री से चांदखेड़ी । के संघी जैन मंदिर में भूगर्भ स्थित चैत्यालय को निकाला था. -अप्रैल 2003 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गये तो यक्ष सर्प रूप में महाराज श्री को मिला। इस गुफा में चैत्यालय निकालने का अंतराल कम से कम पांच वर्ष का होना जरूरी है, परन्तु मुनिश्री पांच वर्ष के अंतराल के पूर्व ही गुफा में चले गये थे फिर भी अपनी प्रबल इच्छा शक्ति एवं अपूर्व धर्म साधना से चैत्यालय को गुफा से बाहर श्रद्धालुओं के लिए दर्शनार्थ निकाल कर लाये थे । यह चैत्यालय पहले भी परमपूज्य आचार्य शांति सागर जी महाराज, देशभूषण जी महाराज एवं अन्य दो-तीन मुनि महाराज भूगर्भ से बाहर ला चुके थे। परन्तु 20 जून सन् 1999 में मुनिश्री सुधासागर जी महाराज भूगर्भ के चतुर्थ तल से पहलीबार एक रत्नमयी चतुर्थकालीन अद्वितीय चैत्यालय पूर्ववर्ती चैत्यालय के साथ लेकर आये जिसमें सभी प्रकार के अमूल्य रत्नों के लगभग एक सौ एक जिनबिम्ब थे । लाखों करोड़ों लोगों ने चैत्यालय के दर्शन, अभिषेक से अपना जीवन धन्य किया। इस बार भी वही यक्ष सर्प रूप में महाराज श्री को मिला एवं मुनिश्री के दोनों पैरों के बीच से इस प्रकार निकला मानों मुनि श्री की तपस्या एवं साधना को नमोस्तु कर गया हो। संघी जैन मंदिर में मुनिश्री के पदार्पण के पूर्व सभी मूर्तियों पर धूल चढ़ रही थी, कोई दर्शन करने भी नहीं आता था। मंदिर में मात्र चार पांच सौ रुपये की सिलक थी, पर मुनिश्री ने मंदिर के सारे वास्तु दोषों को दूर करवाया जिससे आज यह मंदिर एक अतिशय क्षेत्र के रूप में सारे भारत में जाना जाने लगा है। कई वर्षों से कई नये निर्माण कार्य चल रहे हैं एवं मंदिर में लाखों रुपये का ध्रुव फंड निर्मित हो गया है। सैकड़ों यात्री रोज ही दर्शन के लिए यहाँ पहुँचते हैं। यह सब मुनिश्री की तपश्चर्या का ही प्रताप है, जो वे यक्षों से भी सामना करने का साहस कर लेते हैं । सांगानेर के पूर्व मुनिश्री सुधासागर जी महाराज जिस क्षेत्र पर पहुँचे, चाहे वह देवगढ़, बजरंगगढ़, सौरोनजी, सिरोंज, नसिया, बैनाड़, भव्योदय (रैवासा), ललितपुर क्षेत्रपाल जी, अशोक नगर, सुदर्शनोदय आवां अजमेर, नारेली आदि कोई भी क्षेत्र हो सभी का जीर्णोद्धार इस तरह कराया है कि सब कुछ कल्पना के परे विषयासक्तचित्तानां गुणः को वा न नश्यति । न वैदुष्यं न मानुष्यं नाभिजात्यं न सत्यवाक् ॥ अर्थ विषयसक्त मनुष्य के प्रायः सभी गुणों का नाश हो जाता है। उसमें न वैदुष्य बचता है, न मनुष्यता, न कुलीनता और न सत्य । 22 अप्रैल 2003 जिनभाषित लगता है। सारे क्षेत्र अपने पुराने वैभव को प्राप्त हुए लगने लगे हैं। मुनिश्री की कल्पना शक्ति, दूरदृष्टि एवं अगाध चिंतन ने सभी तीर्थक्षेत्रों के पुरातत्त्व को बरकरार रखते हुए इतना उन्नत एवं व्यवस्थित करा दिया है कि अब ये क्षेत्र जो जीर्णता की कगार पर थे, अब हजारों साल तक धर्मानुरागियों का जीवन धन्य करते रहेंगे। जिन लोगों ने देवगढ़ अतिशय क्षेत्र के दर्शन जीर्णोद्धार के पहले एवं बाद में किये होंगे वे मुनि श्री सुधासागर जी महाराज का गुणगान करते नहीं थकते एवं मुनिश्री की कृतज्ञता को जीवन भर नहीं भूल सकते मुनिश्री ने कई महीनों तक दिनदिन भर पहाड़ी पर रहकर एक एक मूर्ति को यथोचित स्थान दिया है एवं मंदिरों की जमीन से शिखर तक मरम्मत करवाई है। यह कार्य किसी अन्य साधु के द्वारा करवा पाना कल्पना के बाहर की बात है । - नारेली स्थित नवीन तीर्थ क्षेत्र "ज्ञानोदय" जो कि एक बहु उद्देशीय तीर्थ क्षेत्र के रूप में मुनिश्री सुधासागर जी महाराज के गंभीर, दूरदर्शी, एवं विस्तृत चिंतन का मूर्तरूप है, अजमेर से 8 कि.मी. दूर किशनगढ़ मुख्य हाइवे पर स्थित है। बहुत ऊँचे एवं । लंबे पर्वत पर लाल पत्थर के चौबीस भव्य जिनालय, पर्वत पर ही अष्ट धातु की आदिनाथ, भरत एवं बाहुबली भगवान् की विशाल खड़गासन प्रतिमायें विराजमान एवं बहुत बड़े आकार का सहस्रकूट चैत्यालय, पर्वत के नीचे महावीर भगवान् का अलग एक बहुत बड़ा जिनालय (जिसके निर्माता श्री आर. के. मार्बल्स) हजारों पशुओं की क्षमता वाली गोशाला, औषधालय, स्कूल, बड़ी-बड़ी धर्मशालायें, संत निवास, बड़े-बड़े पार्क एवं घने वृक्षोंवाला यह क्षेत्र पूरे भारत में अपने स्वरूप का एक मात्र तीर्थ है । पर्वत पर बने लाइन से 24 उत्तुंग मंदिरों से क्षेत्र की सुंदरता कई गुनी दिखाई देती है । पर्वत पर जाने के लिए सुविधाजनक सीढ़ियाँ बनी हुई हैं एवं वाहन के द्वारा भी पर्वत पर जाया जा सकता है। क्षेत्र के अपने कई वाहन हैं, जो यात्रियों की सुविधा के लिए उपयोग में लाये जाते हैं। यह क्षेत्र दि. जैन समाज के लिए मुनिश्री की महान देन हैं। कमशः पराराधनजाद् दैन्यात् पैशुन्यात् परिवादतः । पराभवात्किमन्येभ्यो, न विभेति हि कामुकः ॥ अर्थ- कासासक्त मनुष्य दूसरे की खुशामद से उत्पन्न दीनता, चुगली, निन्दा और तिरस्कार से भी नहीं डरता, तब अन्य बातों से डरने की तो बात ही दूर । 'क्षत्रचूडामणि' ... Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयुक्त परिवार का अर्थशास्त्र एवं समाज शास्त्र श्री प्रमोद शर्मा (सी.ए.) देश अनेक भीषण समस्याओं से रूबरू है। शायद बेरोजगारी | घर के बड़े परस्पर एवं समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ उपजी इस प्रजातंत्र के इतिहास में अपने चरम पर है। उद्योग जगत मंदी | अनेकानेक कानून एवं व्यवस्था की समस्याओं को एक सुदृढ़ एवं की मार से कृशकाय हो गया है, चारों ओर भूख, गरीबी, अशिक्षा, | परिपूर्ण न्याय व्यवस्था की तरह चुटकी में सुलझा देते हैं । इस प्रकार जनसंख्या वृद्धि, भ्रष्टाचार एवं कानून-व्यवस्था जैसे विकराल संयुक्त परिवार एक अच्छे विद्यालय, स्वास्थ्य केंद्र, परामर्श केंद्र, दानव मुँह फैलाए खड़े है। सरकारें अपने बोझ और अंतर्निहित न्यायालय, सांस्कृतिक रक्षक, मंदिर एवं मस्जिद जैसी अनेकानेक विरोधाभासों के चलते जनता के सिर पर रखी गठरियाँ हो गई हैं भूमिकाएँ समय-समय पर संपन्न करता है, जहाँ यह सोचना लाजमी एवं जन समस्याओं की वृद्धि एवं उसके फैलाव में समय-समय है कि यदि पश्चिम के विकसित देशों में पसरी पूर्णतया भौतिक पर अपना योगदान देकर अपनी क्रूर उपस्थिति का एहसास कराती उपभोक्तावादी संस्कृति यदि हमारे देश में पूरी तरह आ गई तो हम रहती हैं। यह तथ्य भलीभाँति समझ लेना होगा कि सरकारी | शायद पुन: आदम युग में पहुँच जायेंगे। भारत की इस संस्था एवं कुप्रबंध एवं फिजूखर्ची की कठोर कीमत आखिर नागरिकों को ही | परम्परा पर हम जितना भी गर्व करें, कम होगा। चुकानी होती है। यूरोप के तथाकथित विकसित देशों को सामाजिक सुरक्षा अचरज की बात यह है कि इतनी सारी समस्याओं के बीच | के मद में अपने बजट का एक बहुत बड़ा हिस्सा व्यय करना होता भी हम पूर्ण धैर्य के साथ जीवित हैं, चलताऊ ढंग से प्रसन्न भी हैं। है। यह कुछ देशों में 40 से 45 प्रतिशत तक है । यदि भारत के बजट कुल मिलाकर अपना वक्त ठीक-ठाक कट रहा। विचारणीय | से इतनी बड़ी राशि इस मद में व्यय की जाती, तो हमारी प्राथमिकता विषय यह है कि इतनी असुविधाओं के बाद भी ऐसी कौन-सी | पूर्णतया भिन्न होती और सरकार की लंगोट भी न बँध पाती। एक शक्ति, सामर्थ्य एवं विशेषता हमें ऐसा करने के लिये उत्प्रेरित | औसत भारतीय को गैर जिम्मेदार एवं अकर्मठ कहना एक सफेद करती है। भारतीय समाज में इस सहनशीलता, आशावादिता, | झूठ है और यह प्रचार भारत की छबि को कलंकित करने का भारी सहिष्णुता एवं गतिशीलता की कुंजी हमारी संयुक्त परिवार प्रथा है। | षड्यंत्र है। ऐसा सोचनेवाला कोई भी व्यक्ति भारत के संयुक्त इस प्रणाली ने विदेशी अर्थशास्त्र के विद्वानों द्वारा प्रतिपादित अनेक परिवार के संचालन एवं समस्याओं से रूबरू होने के उपरांत यह नियम झूठे साबित कर दिए हैं। यह प्राचीन संस्था अब भी हमारी बोलकर तो देखे। पिछले दिनों उपजी सामाजिक एवं सांस्कृतिक रक्षा का एक अभेद्य कवच बनी हुई है। यह कल्पना करना भी परिवर्तन की हवा ने देश की संयुक्त परिवार प्रथा को शनैः-शनै: खौफनाक है कि यदि भारत में संयुक्त परिवार प्रथा न होती तो, यह | क्षीण किया है। यह ठीक वैसे ही है, जैसे कि औद्योगिक एवं देश घोर अराजकता की चपेट में होता एवं क्या घटित-दुर्घटित | रासायनिक कचरे ने धरती की अस्मिता अर्थात् उसकी ओजोन परत होता, इसको सोचा भी नहीं जा सकता। को छिद्र-छिद्र किया है। . इस देश के सुचारु संचालन में संयुक्त परिवार प्रथा का औसत भारतीय को जब हम अपने परिवार का संचालन अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण योगदान है, जिसके चलते सरकार सामाजिक | करते हुये देखते हैं, तो अफसोस होता है कि काश यह भावना सत्ता सुरक्षा' जैसे महत्त्वपूर्ण दायित्व से काफी हद तक मुक्त रही है एवं संस्थान में भी उपजी होती और हमारा देश चहुँमुखी प्रगति कर रहा इस मद में व्यय की जाने वाली राशि, जो कि काफी बड़ी होती, | होता। भारत के नागरिकों में राष्ट्रीय चरित्र की कमी है, इस धारणा सरकार को नहीं करनी पड़ती है। वास्तव में आज देश के सम्मुख का प्रत्युत्तर एवं प्रतिवाद भी संयुक्त परिवार प्रथा द्वारा ही मिलता जितनी भी समस्याएँ हैं, उनका सामना, हम केवल इसलिये कर पा हैं। सरकार संयुक्त परिवारों के कारण अनेक दायित्वों से मुक्त रही रहे हैं, कि हम संयुक्त परिवार में रहते हैं। यह संस्था सरकार के है अतएव ऐसी स्थिति में सरकार एवं नीतिनियंताओं से यह अपेक्षा लिये वरदान है एवं बेफिक्री का कारण भी है। कभी कुछ विद्वान रखना वाजिब है कि जन-कल्याण हेतु योजना, कानून एवं नियम आम भारतीय पर गैर-जिम्मेदार होने का आरोप भी लगाते रहते हैं, बनाते समय यथासंभव व्यक्ति आधारित सोच से हटकर भारत की परंतु बड़ा ही सुखद आश्चर्य होता है, जब हम देखते हैं कि किसी जमीनी सच्चाइयों को आधार बनाया जाये एवं परिवारों के सशक्तिकरण संयुक्त परिवार की ओर, जिसमें अमूमन एक या दो सदस्य कामकाजी के ईमानदार प्रयास किये जायें। शासकीय नीतियों की दिशा भी इस होते हैं एवं उनकी आय संपूर्ण परिवार के जीवनयापन का, बिना प्रकार मोड़ना होगी कि इन सबका आधार भारत के परिवारों के किसी भेदभाव के साधन बनती है। परिवार में तीन पीढ़ियाँ समभाव अध्ययन पर आधारित हो। ये कार्य अत्यंत दुष्कर भी नहीं हैं. से उपलब्ध होती हैं एवं आय के सीमित साधनों से बूढ़े माँ-बाप क्योंकि अभी हाल ही में भारत की जनगणना संपन्न हुई है एवं की दवा, इलाज के पैसे, बेरोजगार बच्चों का जेब खर्च, विवाह सरकार के पास समस्त आंकड़े भी मौजूद हैं। पश्चिमी देशों के योग्य कन्या के दहेज का प्रबंध, घर एवं वर की तलाश, यदि स्थिति व्यक्ति-आधारित विकास का अंधानुकरण छोड़कर हमें अपनी और भी विकट हो तो विधवा बहू एवं विपत्तिग्रस्त विवाहित | योजनाएँ हमारी घरेलू परिस्थितियों को दृष्टिगत रखकर बनाना लड़की का भी निर्वहन होता है। भारत में यदि विधि का शासन है । नितांत आवश्यक है। तो उसकी जननी एवं लागू करने वाली शक्ति संयुक्त परिवार ही है।। नवभारत (जबलपुर ) 19 मार्च 2002 से साभार - अप्रैल 2003 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नकर्ता एस. के जैन सिकन्दरा प्रश्न- वर्तमान में कुछ प्रवचनकार क्षेत्रपाल पद्मावती आदि को जिनधर्म का आयतन कहते देखे जा रहे हैं। क्या ये वास्तव में जिनधर्म के आयतन हैं स्पष्ट करें ? जिज्ञासा समाधान समाधान- आयतन स्थान को कहते हैं। जो सद्गुणों का स्थान है वही जिनागम में आयतन नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द ने बोधपाहुड़ गाथा ५, ६, ७ में आयतनों का वर्णन इस प्रकार किया है । गाथा नं. ५ में मन, वचन, काय इन तीनों तथा पंचेन्द्रियों और उनके विषयों को स्वाधीन रखनेवाले मुनियों के रूप को आयतन कहा है। गाथा नं. ६ में क्रोधादिक विकारों में पूर्ण विजय प्राप्त करने वाले पंच महाव्रतों के धारक ऋद्धिधारी मुनियों को आयतन कहा है। तथा गाथा नं. ७ में निर्मल ध्यान से सहित, केवलज्ञान से युक्त गणधर, केवली, सामान्य केवली अथवा तीर्थंकर को सिद्धायतन कहा है। अर्थात् परम वैराग्य से युक्त उपर्युक्त तीन ही जिनधर्म के आयतन हैं। उपरोक्त गाथाओं के भावार्थ में पूज्य आर्यिका सुपार्श्वमतिजी ने इस प्रकार लिखा है कि " आयतन का अर्थ है निवास व धर्मात्मा पुरुषों के आश्रय लेने योग्य स्थान । अर्थात् जिनके आश्रय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रधर्म की वृद्धि हो उनको आयतन कहते हैं । वे धर्मायतन संयमी मुनि व केवली अरिहंत भगवान् ही होते हैं, क्योंकि उनके आश्रय से ही रत्नत्रय की प्राप्ति या वृद्धि होती है । अतः निर्ग्रन्थ लिंगधारी, कषाय- इन्द्रिय-विजेता संयमी एवं केवलज्ञानी को आयतन कहा है। वे आयतन ही वंदना, अर्चना, प्रशंसा करने योग्य हैं, वे ही स्तुत्य, दर्शनीय और वंदनीय हैं। अन्य आरम्भ परिग्रहधारी वंदना स्तुति करने योग्य नहीं हैं।" श्री मूलाचार गाथा १४६ की टीका में आचार्य वसुनंदि सिद्धांत चक्रवर्ती ने इस प्रकार कहा है 24 - "लोक में छह आयतन प्रसिद्ध हैं- सर्वज्ञ देव, सर्वज्ञदेव का मंदिर, ज्ञान, ज्ञान से संयुक्त ज्ञानी, चारित्र, चारित्र से युक्त साधु" । ये छह आयतन माने हैं। द्रव्य संग्रह गाथा ४१ की टीका में ब्रह्मदेव सूरि ने इस प्रकार कहा है- " अब छह अनायतन का कथन करते हैं १. मिथ्यादेव २. मिथ्यादेवों के सेवक ३. मिथ्यातप ४. मिथ्या तपस्वी ५. मिथ्याशास्त्र ६. मिथ्याशास्त्र के धारक पुरुष। इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षण के धारक ये छह अनायतन सराग सम्यग्दृष्टियों को त्याग अप्रैल 2003 जिनभाषित पं. रतनलाल बैनाड़ा 44 करने होते हैं"। इसी टीका में मिध्यादृष्टि देवों का वर्णन करते हुये लिखा है। 'राग तथा द्वेष से युक्त आर्त तथा रौद्र परिणामों के धारक क्षेत्रपाल, चंडिका आदि मिध्यादृष्टि देवों को .. उपर्युक्त सभी प्रमाणों के अनुसार क्षेत्रपाल, पद्मावती को धर्म का आयतन किसी भी दृष्टि से कहना उचित नहीं है। यदि इनको जिनधर्मी भी माना जाये, तो ये केवल साधर्मीवत् जयजिनेन्द्र कहकर सम्मान करने तक पात्रतावाले हैं, इससे अधिक नहीं। जिनको अपना सम्यक्त्व निर्मल रखना हो या सम्यक्त्वप्राप्ति के इच्छुक हों उनको चाहिये कि वे रत्नकरण्डक श्रावकाचार श्लोक नं. २३ की टीका में पं. सदासुखदास जी द्वारा लिखित " क्षेत्रपाल पूजन के सम्बन्ध में विचार अवश्य पढ़ें। पंडित सदासुखदास जी के ये विचार एक बार नहीं बल्कि बार-बार पढ़ने के योग्य हैं। अतः सभी दृष्टियों से क्षेत्रपाल पदमावती को धर्म का आयतन कदापि नहीं कहा जा सकता। प्रश्न- णमोकार मंत्र तो आचार्य पुष्पदन्त महाराज द्वारा निबद्ध है परन्तु "एसो पंच णमोयारी" आदि गाथा के रचयिता कौन से आचार्य हैं ? समाधान- " एसो पंच णमोयारो" यह गाथा प्रतिक्रमणपाठ में भी आती है। प्रतिक्रमण पाठ के रचयिता पूज्य आचार्य गौतम गणधर कहे जाते हैं । इस आधार से तो इस गाथा के रचियता पूज्य गौतम गणधर ही हैं। इससे मिलती हुई एक गाथा मूलाचार में गाथा ५१४ इस प्रकार उपलब्ध होती है एसो पंच णमोयारी सव्वपावपणासणो । मंगले य सव्वे, पढमं हवदि मंगलं ॥ यह गाथा 'उक्तं च' लिखकर नहीं कही गयी है अतः इसके रचयिता आचार्य वट्टकेर हैं। प्रश्न- काल द्रव्य के उपकार में परिणाम तथा क्रिया में क्या अंतर है समझाइये ? समाधान तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में अध्याय ५ सूत्र २२ की टीका के पैरा ५६९ में इस प्रकार कहा गया है-एक धर्म की निवृत्ति करके दूसरे धर्म के पैदा करने रूप परिस्पंद से रहित द्रव्य की जो पर्याय है उसे परिणाम कहते हैं जैसे जीव के क्रोधादि, पुद्गल के वर्णादि। इसी प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य में परिणाम होता है, जो अगुरुलघु गुणों की वृद्धि और हानि से होता है। क्रिया का वर्णन करते हुये लिखा है कि 1 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य में जो परिस्पंदरूप परिणमन होता है उसे क्रिया कहते हैं।। विमान को इन्द्र के निवास के कारण इन्द्रक विमान नहीं कहा प्रायोगिक और वैनसिक के भेद से वह दो प्रकार की है। उनमें | जाता। केवल मध्य का विमान होने के कारण इसको इन्द्रक विमान गाड़ी आदि की प्रायोगिक है और मेघादिक की वैससिकी। कहते हैं। सौधर्म इन्द्र के निवास के बारे में श्री तिलोयपण्णत्ति सारांश यह है कि जीव में जो क्रोध आदि परिणाम होते हैं अधिकार ८ गाथा ३४१ में इस प्रकार कहा हैअथवा औपशमिक आदि भाव होते हैं या गुणों में अन्य प्रकार पढमादु एक्कतीसे, पभ-णाम-जुदस्स दक्खिणोलीए। परिणमन होता है वह जीव का परिणाम है। पुद्गल में क्रियारहित बत्तीस-सेढिबद्धे, अट्ठारसम्मि चेट्ठदे सक्को॥३४१॥ अवस्था में जो वर्ण आदि का बदल जाना होता है अर्थात् आम के अर्थ- प्रथम से इकतीसवें प्रभ नामक इन्द्रक की दक्षिण हरे रंग का पीला पड़ जाना, सफेद कपड़े में पीलापन आ जाना, | श्रेणी में बत्तीस श्रेणी बद्धों में से अठारहवें श्रेणबद्ध विमान में इन्द्र मकान के पाषाणस्तंभ में जीर्णता आ जाना आदि परिणाम हैं। स्थित है। जबकि द्रव्य में जो स्थान से स्थानांतर होने पर परिणमन होता है । भावार्थ - सौधर्म ईशान स्वर्ग के ३१ पटल हैं जो एक के वह क्रिया है। गेंद का ऊपर उछलना, मशीन का चलना, हाथ पैरों | ऊपर एक हैं। उनमें से सबसे ऊपर के पटल में दक्षिण श्रेणी में ३२ का संकोच विस्तार होना, अंगुली को टेढ़ा सीधा करना, आदि रूप श्रेणीबद्ध विमान हैं उन श्रेणीबद्धों के १८ वें नम्बर विमान में जो परिणमन है उसे क्रिया रूप परिणमन जानना चाहिये। । सौधर्म इन्द्र का निवास है। श्री त्रिलोकसार में गाथा नं. ४८३ में भी सारांश में क्रिया रहित वस्तु के परिणमन को परिणाम और | इसी प्रकार कथन पाया जाता है। क्रिया सहित वस्तु के परिणमन को क्रिया कहते हैं। प्रश्नकर्ता - सत्येन्द्र कुमार जैन, रेवाड़ी प्रश्न कर्ता - श्री मनीष कुमार जैन, सहारनपुर प्रश्न-५. देव और नारकियों के आयुबंध-योग्य अपकर्ष प्रश्न- सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र कौन से इन्द्रक विमान में | काल कब आते हैं? रहता है? समाधान- देव और नारकी जीवों का अकालमरण नहीं समाधान- स्वर्गों में देवों के विमानों की रचना इस | होता। इनकी आयु के जब अंतिम छह माह बाकी रहते हैं तब प्रकार है। प्रत्येक पटल के सबसे मध्य में जो एक विमान है उसे | आयुबंध-योग्य आठ अपकर्ष काल होते हैं। उन्हीं में इनके आयु इन्द्रक विमान कहते हैं और उसकी चारों दिशाओं में जो श्रेणीबद्ध | बंध होता है। (पंक्ति बद्ध) विमान हैं उन्हें श्रेणीबद्ध विमान कहते हैं। शेष 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी स्थानों के विमानों को प्रकीर्णक विमान कहा जाता है। इन्द्रक । आगरा-282002 (उ.प्र.) भक्ति जिनने जोड़ ली है पं. योगेन्द्र दिवाकर "ईश" क्या है ? आत्मा क्या है? और क्या संसार है? यह समझने पर, नहीं फिर दूर आत्मोद्धार है। स्वार्थमय संसार से, परदा हटा अज्ञान का। और पथ दिखने लगा, फिर आत्म के उत्थान का। भक्ति जिनने जोड़ ली है, केवली भगवान् से। जगमगाते चित्त उनके, वास्तविक श्रद्धान से॥ दिवाकर निकेतन सतना (म.प्र.) - अप्रैल 2003 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विद्यासागर जी की पूजा राजेन्द्र 'रमण' हे परम गुरु विद्यासागर, तुम हो इस जग के दुखहारी। । ऊँ ह्रीं श्री १०८ आचार्य-विद्यासागरमुनीन्द्राय कामवाणविनाशनाय हो मोक्ष मार्ग के पथदर्शक, हो तीन रतन के तुम धारी॥ | पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। थे धन्य मलप्पा पिता और थीं,धन्य श्रीमती महतारी। हो गया धन्य सदलगा ग्राम, फिर धन्य हई धरती सारी॥ विकराल अनल ये क्षुधा रही, जो शान्त कभी न हो पायी। बाल्य काल से हे गुरुवर, तुम रहे उदासी इस जग से। पड्रस व्यंजन के सेवन ने, इसकी ज्वाला ही भड़काई।। कर्मों के क्षय की राह चुनी, फिर डिगे नहीं किंचित् मग से। हे गुरुवर एक तुम्ही औषधि, इस क्षुधा रोग के मेटन को। आव्हानन करके हे गुरुवर, मन मंदिर तुम्हें बिठाता हूँ। जग के सारे उत्तम व्यंजन, मैं लाया तुम ढिग भैंटन को। तुमको पाकर अपने भीतर, में धन्य-धन्य हो जाता हूँ॥ ऊँ ह्रीं श्री १०८ आचार्य विद्यासागरमुनीन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय ॐ ह्रीं श्री १०८ आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्र। अत्र अवतर-अवतर नवयं निर्वपामीति स्वाहा। संवौषट् । अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठ:ठः। अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् ।। मोह-तिमिर में फंस करके, हर क्षण मैंने ठोकर खाई। निज ज्ञानदीप की अमिट जोत, हे नाथ नहींअब तक पाई। जनम-जनम से इस भव वन में, भटक रहा हूँ, हे गुरुवर। बन करके ज्ञानरवि तुमने, इस मोहतिमिर का नाश किया। दिशाहीन हूँ आज न मुझको, राह सूझती है गुरुवर। मेरा अन्तर हो ज्योतिर्मय, मैंने अब तेरा शरण लिया। धो देता है सब मैलों को ये नीर परम पावन गुरुवर। ऊँ ह्रीं श्री १०८ आचार्य-विद्यासागरमनीन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय भर हेम पात्र में क्षीर नीर, अर्पित मैं करता हूँ गुरुवर॥ दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ऊँ ह्रीं श्री १०८ आचार्य विद्यासागर मुनीन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। पल-पल कर्मों को बाँध-बाँध, मैंने ही इन्हें बढ़ाया है। तप की अग्नि से तुमने तो, हर क्षण ही इन्हें नशाया है। वौराकर सातों व्यसनों में, न सँभल सका हूँ मैं इक पल। ये धूप सुवासित तेरे ढिग, मैं आज जलाने आया हूँ। क्रोध मान से मोह लोभ से, झुलस गया है अन्तःस्थल। मेरे भी ऐसे कर्म जलें, बस यही भाव भर लाया हूँ। सभी ताप को हर करके, शीतलता देता है चन्दन। ॐ ह्रीं श्री १०८ आचार्य-विद्यासागरमनीन्द्राय अष्टकर्मदहनाय अन्तर का ताप मिटाने को, चन्दन से मैं करता वन्दन।। धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ऊँ ह्रीं श्री १०८ आचार्य-विद्यासागरमुनीन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा। सब सुन्दर मिष्ठ सुवासित फल, तेरे सम्मुख मैं ले आया। आतम फल मुझको ही केवल, अब मेरे गुरुवर है भाया। अष्ट कर्म से बँध करके मैं, जन्म मरण करता आया। हे दया सिन्धु औघड़ दानी, तेरी अनुकम्पा हो जाये। लाख चौरासी योनि में, मैं भवसागर में भटकाया। चलते-चलते तेरे पथ में, फल मुझे मोक्ष का मिल जाए। लाया हूँ मैं अक्षत तंदुल, बस अक्षय निधि को पाने को। ऊँ ह्रीं श्री १०८ आचार्य विद्यासागरमनीन्द्राय मोक्षफलप्राप्तय फलम पूजा मैं इनसे करता हूँ, भवसागर से तर जाने को। निर्वपामीति स्वाहा। ऊँ ह्रीं श्री १०८ आचार्य-विद्यासागरमुनीन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। अति विनय पूर्ण हो, शीश नवा तेरे सम्मुख अब आऊँ मैं। मिट जाये मेरे दुःख सारे, भव सागर से तर जाऊँ मैं ।। मन्मथ वाणों से विधा हुआ, कब स्थिर निज मैं हो पाया। द्रव्य सँजो करके आठों, मैं तुमको अर्पित करता हूँ। काम-कीच से मलिन हुआ, निज शुचिता को खोता आया। तन, मन, धन सारा ही जीवन, मैं तुम्हें समर्पित करता हूँ। निज में निज ही की महक उठे, निज पद को पाने आया हूँ। ऊँ ह्रीं श्री १०८ आचार्य-विद्यासागरमुनीन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अय॑म् तेरे सौरभ से जो महके, वो पुष्प चढ़ाने लाया हूँ॥ निर्वपामीति स्वाहा। 26 अप्रैल 2003 जिनभाषित Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमाला अनुपम गुरुवर को पाकर के, सब धन्य स्वयं को पाते हैं। वो आज हमारे सम्मुख हैं, हम चरणों में झुक जाते हैं। तीर्थ सनातन अगर बचे, तो ही हम सब बच पायेंगे। देव, शास्त्र, गुरु संगम में, तब ही डुबकी खा पायेंगे ।। इस ओर सदा चिन्तन जिनका, हैं तीरथ के सद्धारक। हे पूज्य पुजारी पूजा के, जो बस एक सच्चे संवाहक। दो कदम जहाँ भी थम जाते, बस तीर्थ वहाँ बन जाते हैं। वो आज हमारे सम्मुख हैं, हम चरणों में झुक जाते हैं। जिनका बस ध्यान लगाने से, सब दोष पाप धुल जाते हैं। जिनका बस ध्यान लगाने से, सब विघ्न आप टल जाते हैं। जिनका सुमरन करने से ही, मिट जाते हैं दैनिक दुख भी। जिनका सुमरन करने से ही, मिल जाते हैं भौतिक सुख भी।। जिनका चिन्तन भर करने से, सब संचित पाप नशाते हैं। वो आज हमारे सम्मुख हैं, हम चरणों में झुक जाते हैं। है नमस्कार हे दीनबन्धु, है नमस्कार हे परमधीर। है नमस्कार हे कृपासिन्धु, है नमस्कार हे तपोवीर ।। हे मोक्ष प्रदाता नमस्कार, हे शिव-सुख-दाता नमस्कार । हे शान्तिसुधाकर नमस्कार, हे क्षमादिवाकर नमस्कार ।। हों चिरजीवी गुरुवर अपने, सब यही भावना भाते हैं। वो आज हमारे सम्मुख है, हम चरणों में झुक जाते हैं। जो सत्य अहिंसा की मूरत, करुणा के गहरे सागर हैं। जो-जो शुचि सुन्दर है जग में, उन सबके ही वो आगर हैं ।। त्यागी भौतिक सुख साधन के, किंचित न पास में हैं रखते। अनमोल रतन संयम से ही, जो कोटि रवि सम हैं दिपते ।। जिनकी छाया में आकर के, हम सब सद्गुण पा जाते हैं। वो आज हमारे सम्मुख हैं, हम चरणों में झुक जाते हैं। जिनकी छवि है अनुपम सुन्दर, मुस्कान फूल बरसाती है। मुरझायी ज्ञान लता जिनकी, वाणी सुनकर खिल जाती है ।। तप की अग्नि में तप करके, कुन्दन सी जिनकी है काया। उन महातपी के चरणों में, नतमस्तक है जग की माया ।। जिनके आभा-मंडल में आ, सब जीव शान्ति पा जाते हैं। वो आज हमारे सम्मुख हैं, हम चरणों में झुक जाते हैं। दोहा परम पूज्य गुरू श्रेष्ठ की, पूजा कही बनाए। जो-जो श्रद्धा से पढ़े, 'रमण' मोक्ष पद पाये। बुद्धिहीन होकर गुरु, भक्ति के बस होय। रवि छूने का कृत्य यह, क्षमा कर दियो मोय॥ महा सिन्धु गुण आपके, है भक्ति मम नाव। श्रद्धा के पतवार मम, गुरुवर पार लगाव।। दुर्बल मेरी लेखनी, तब गुण गुरु अनन्त । तेरे गुण का गान ही, करते रहते सन्त। एम.आई.जी.-७४ इन्द्रा काम्प्लेक्स, विदिशा (म.प्र.) मेरी कविताएँ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' छूटी-छुटी मात्र शब्द अजगर : अजगर खा लिया अजग ने आज निरीह, निरपराध अज को अच्छा होता यदि कर सकता विरोध अज '' गर॥ उ और ऊ के अन्तर नहीं हैं बल्कि रखते हैं बड़ा ही वैचारिक/सामाजिक महत्त्व कम नहीं है इनका अन्तर। भय कम नहीं सूखी-सुखी लुटी-लुटी राम मरा हो सकता है मरा राम नहीं हो सकता 'आरक्षण' के भय से। -अप्रैल 2003 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार वेदी प्रतिष्ठा एवं कलशारोहण सम्पन्न बेहाल है। हमारी संस्कृति में गाय को धर्म व मानवता के भाव में औद्योगिक एवं धार्मिक नगरी मदनगंज-किशनगढ़ में पूजनीय स्थान दिया गया है, आज समूचे राज्य में जगह-जगह नवनिर्मित दो जिनालयों में त्रिदिवसीय स्वयं सेवी संस्थाएं व परोपकारी व्यक्ति नि:स्वार्थ रूप से गोवंश १७ से १९ जनवरी तक धार्मिक के बचाने हेतु भरसक प्रयास कर जीवों के प्रति दया हेतु अग्रणी बने हुए हैं। सरकार भी अपने सीमित संसाधनों के बावजूद कार्यक्रम के शुभारम्भ के दौरान प्रथम अकाल की मार से पीड़ित पशुधन की रक्षार्थ हर सम्भव प्रयास दिन बयोवृद्ध समाज सेवी व आर.के. कर रही है। गोशालाओं को गायों के पालन-पोषण हेतु अनुग्रह मार्बल्स के मुखिया श्री रतनलाल राशि के बतौर १२ रुपये प्रति पशु के हिसाब से दिया जा रहा है। पाटनी द्वारा झण्डारोहण, तत्पश्चात्, परन्तु स्वयंसेवी संस्थाओं व समाज के भामाशाहों को अब अधिक घटयात्रा, वेदी शुद्धि सकलीकरण, उदारता रखनी होगी व प्रयास रहना चाहिए कि चारा-पानी के जाप्य, यागमंडल विधान तथा इन्द्र अभाव को लेकर गायें काल का ग्रास न बनें। इन्द्रानियों के हवन-पूजन के बाद दोनों समारोह में समाजसेवी दीपचन्द्र चौधरी ने आर.के. मार्बल्स जिनालयों में वेदी प्रतिष्ठा एवं कलशारोहण महोत्सव धूमधाम से परिवार की तरफ से मदनेश गोशाला में संचालित पशु शिविर व सम्पन्न हुआ। नारेली ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र की गोशाला हेतु तीन-तीन लाख रुपये मुनिपुंगव सुधासागरजी के सान्निध्य में हाऊसिंग बोर्ड की आर्थिक सहायता देने की घोषणा भी की। इस दौरान किशनगढ़ स्थित महावीर जिनालय में सैकड़ों धर्मावलम्बियों के जय-जयकारों मार्बल एसोसिएशन की तरफ से अध्यक्ष जयनारायण अग्रवाल ने के बीच आर.के. मार्बल के चैयरमेन श्री अशोक पाटनी द्वारा | पशु शिविर की समस्त कार्य व्यवस्थाओं को चलाने हेतु शिविर भगवान् महावीर की प्रतिमा धार्मिक विधिविधानपूर्वक प्रतिष्ठापन का सम्पूर्ण खर्चा वहन करने की घोषणा की। समारोह के अन्तर्गत के साथ ही जिनालय के गुम्बज पर कलशारोहण किया गया। किशनगढ़ नगरपालिका के अध्यक्ष सुरेश दगड़ा ने पालिका की श्रीमती सुशीला पाटनी तरफ से आवारा पशुओं के चारा-पानी हेतु सवा लाख रुपयों का अध्यक्ष, ज्ञानोदय महिला मण्डल चैक जिला कलेक्टर के माध्यम से शिविर समिति को सौंपा। जीव आर.के. मार्बल्स परिवार, मदनगंज किशनगढ़ सेवा संस्थान भोपाल की तरफ से पशुओं का मुफ्त चारा उपलब्ध निरीह मूक पशुओं का वध राष्ट्र की धार्मिक व कराए जाने की घोषणा भी हुई। शिविर संयोजक राधेश्याम ईनाणी सांस्कृतिक विरासत का अपमान ने बताया कि मार्बल एसोसिएशन व नगर प्रशासन पालिका के किशनगढ़ से विहार करके जयपुर रोड़ स्थित पाटनी फार्म | समन्वित प्रयासों से संचालित इस शिविर में १२०० पशुओं को पहुँचने से पूर्व मध्य रास्ते में श्री मदनेश गौशाला परिसर में गोवंश शरण दिए जाने की व्यवस्था है। इससे पूर्व आर.के. मार्बल्स के सरक्षण समिति के तत्त्वावधान में आयोजित एक पशु शिविर के सुरेश पाटनी ने पशु शिविर में मौजूद मवेशियों व व्यवस्थाओं का शुभारम्भ समारोह में मुनिश्री सुधासागर जी ने अपने मंगल प्रवचन में जायजा लिया। कार्यक्रम का प्रारम्भ महेन्द्र पाटनी द्वारा प्रस्तुत कहा कि भारत देश का दुर्भाग्य है कि आज यहाँ सरे आम चल रहे मंगलाचरण व श्रेष्ठी कंवरीलाल पाटनी द्वारा किए गए दीप प्रज्ज्वलन बूचड़ खानों में निरीह मूक पशुओं का वध किया जाकर हमारे राष्ट्र की से हुआ। गणमान्य नागरिकों ने मुनिश्री को श्रीफल भेंट कर उनकी धार्मिक व सांस्कृतिक विरासत का अपमान किया जा रहा है। अय॑थना की। मुनि सुधासागरजी ने पशुधन विशेषकर गायों को सरंक्षण श्रीमती सुशीला पाटनी अध्यक्ष, ज्ञानोदय महिला मण्डल दिए जाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा कि चमड़े की आर.के. मार्बल्स परिवार, मदनगंज किशनगढ़ वस्तुओं का उपयोग व प्रयोग बन्द करना अब समय की पुकार है। गो-शालाओं के पोषण हेतु ज्यादा कुछ दान-धर्म नहीं वरन मात्र डॉ. शीतलचन्द्र जैन एवं डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' बीडी, गुटका व शराब का सेवन तजकर इसकी राशि को ही अगर महाकवि आचार्य ज्ञानसागर पुरस्कार से पुरस्कृत हम अर्पण करने का साहस जुटा लेंवे तो किसी भी संस्थान, समाज आचार्य ज्ञानसागर वागर्थ-विमर्श केन्द्र ब्यावर (राज.) व सरकार का मोहताज होने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। मगर इस की ओर से दिया जाने वाला 'महाकवि आचार्य श्री ज्ञानसागर सबके लिए भी संकल्पबद्ध होने की जरूरत है। पशु शिविर शुभारम्भ पुरस्कार' (राशि ५१०००/-) श्री मजिनेन्द्र आदिनाथ समारोह के मुख्य अतिथि व जिला कलेक्टर निरंजन आर्य ने कहा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव समिति, अलवर (राज.) के सौजन्य कि आज अकाल के कारण पशुधन चारा-पानी की समस्या से | से दि. १८ फरवरी ०३ को जानकल्याणक महोत्सव के शभावसर 28 अप्रैल 2003 जिनभाषित Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर एक भव्य समारोह में पू. क्षुल्लक श्री गम्भीरसागर जी महाराज बुरहानपुर- अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् एवं पू. क्षुल्लक श्री धैर्यसागर जी महाराज के सान्निध्य में जैनदर्शन | के महामंत्री डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' का आचार्य ज्ञानसागर के प्रमुख अध्येता डॉ. शीतलचन्द जैन, प्राचार्य-आचार्य संस्कृत वागर्थ विमर्श केन्द्र, ब्यावर (राज.) द्वारा श्रीमज्जिनेन्द्र पंचकल्याणक महाविद्यालय, जयपुर एवं युवा मनीषी डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन प्रतिष्ठा महोत्सव, अलवर (राज.) में प.पू. मुनि पुंगव श्री सुधासागर भारती' (प्रधानसंपादक-पार्श्वज्योति), बुरहानपुर को क्रमश: छठवें जी महाराज, क्षुल्लक श्री गम्भीर सागर जी महाराज एवं क्षुल्लक एवं सातवें पुरस्कार से ५१०००/-रु., भव्य प्रशस्तिपत्र, शाल- श्री धैर्यसागर जी महाराज के सान्निध्य में सातवें महाकवि आचार्य श्रीफल एवं पुष्पहार भेंटकर पुरस्कृत किया गया। ज्ञानसागर पुरस्कार (राशि-५१०००रु.) से पुरस्कृत होने पर स्थानीय अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद् द्वारा विदेशों में जैन पार्श्व ज्योति मंच (राजि.) द्वारा दि. २ मार्च को एक समारोह में साहित्य सम्प्रेषित डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' एवं उनकी सहधर्मिणी श्रीमती इन्द्रा अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद द्वारा श्री पं. अमरचन्द जैन जैन 'भारती' (प्रकाशिका-पार्श्व ज्योति) का पुष्पहार एवं श्रीफल (कोषाध्यक्ष) सतना एवं प्रो. डॉ. नन्दलाल जैन रीवा के संयोजकत्व भेंटकर हार्दिक अभिनन्दन किया गया। संजय कुमार जैन में परिषद की विदेशों में जैन साहित्य के प्रचार-प्रसार के निर्णय को कोषाध्यक्ष-पार्श्व ज्योति मंच, न्यू इंदिरा नगर, बुरहानपुर मूर्तरूप देने के लिए लंदन विश्वविद्यालय, डॉ. के.वी. मरडिया लीड्स यूनिवर्सिटी, डॉ. रान गीब्स चैस्टर कॉलेज, चैस्टर, डॉ. अनेकान्त ज्ञानमंदिर शोधसंस्थान, बीना (म.प्र.) फुजीनागा सिन मियावोनोजो, गियाजावी, जापान, डॉ. क्रिस्टफ का ११ वाँ स्थापना समारोह एारण, साउथ एशियन इन्स्टीट्यूट, टाइडोमवर्ग, जर्मनी आदि के २० फरवरी १९९२ को स्थापित अनेकान्त ज्ञानमंदिर पुस्तकालयों हेतु जयधवल तथा ज्ञानपीठ से प्रकाशितजैन साहित्य, शोधसंस्थान बीना (सागर) म.प्र. ने २० फरवरी २००३ को संस्थान अध्यात्म अमृत कलश, मल्टी डायमेन्शनल एस्पेक्ट्स ऑफ के संस्थापक ब्र. संदीप 'सरल' के पुनीत सान्निध्य एवं मार्गदर्शन अनेकान्तवाद, जैनिज्म इन ग्लोबल पर्सपेक्टिव, दी जैन वर्ल्ड ऑफ में संस्थान का ११ वाँ स्थापना दिवस समारोह सादगीमय किन्तु नान लिविंग, बायोलॉजी इन तत्वार्थसूत्र, जैन कार्मोलॉजी, रिलीजियन उत्साहमय वातावरण में सम्पन्न हुआ। एण्ड कल्चर ऑफ जैन्स, सर्वोदयी जैन तन्त्र, ग्लॉसरी आऊफ जैन कार्यक्रम का प्रारम्भ २० फरवरी को प्रातः श्रुतपूजन एवं टर्स, आई एम् महावीर, जैन सिस्टम इन नर कौल, बेसिक रैनेट्स भक्तामर स्तोत्र पाठ के साथ प्रारम्भ किया गया। दोपहर में २ बजे ऑफ जैनिज्म, कल्याणमंदिर स्तोत्र (अंग्रेजी), पं. जगन्मोहनलाल मंगलाष्टक का सामूहिक मंगलाचरण गान किया गया। तत्पश्चात् ११ शास्त्री साधुवाद ग्रंथ, डॉ. कासलीवाल अभिनन्दन ग्रंथ तथा जीवराज ग्रंथमाला सोलापुर से प्रकाशित साहित्य भेजा गया है। भविष्य में | महानुभावों ने मंगलदीप प्रज्जवलित किये। अनेकान्त जैन भी इसी तरह मौलिक एवं अंग्रेजी में अनूदित जैन साहित्य भेजे जाने की आवश्यकता एवं योजना है अत: जो भी दानी महानुभाव अपनी विनम्र अनुरोध ओर से विदेशों में जैन साहित्य भिजवाना चाहते हों वे अपनी कोटि-कोटि मुनियों की निर्वाण स्थली श्री दि. जैन सिद्धक्षेत्र सहयोग राशि निम्नलिखित पते पर भिजवाकर सहयोग करें - फलहोड़ी बड़ागाँव (धसान) टीकमगढ़ (म.प्र.) (भारत वीय डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन, मंत्री अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद दि. जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी बम्बई संवद्धता क्र. १२७'') में चंन्देल एल ६५, न्यू इन्दिरानगर, ए, बुरहानपुर (म.प्र.)-४५०३३१ | कालीन श्री १००८ भगवान महावीर जिनालय का जीर्णोद्धार का फोन-०७३२५-२५७६६२ कार्य वृहद स्तर पर चल रहा है। स्थानीय क्षेत्रीय समाज के सहयोग जैन साहित्य मंगवायें से एक तिहाई कार्य पूर्ण हो चुका है, अर्थाभाव में कार्य में अवरोध पार्श्व ज्योति कार्यालय में विक्रय हेतु उपलब्ध महत्वपूर्ण | (व्यवधान) आ रहा है संकल्पित समयावधि पूर्ण होने जा रही है स्वाध्यायोपयोगी कृतियाँ मँगवायें- डॉ. रमेशचन्द जैन द्वारा लिखित | अत: समस्त समाज के उदारहृदय तीर्थभक्तों से विनम्र अनुरोध है जैनपर्व (मूल्य-३१ रुपये) श्रावक धर्म (मूल्य-१२ रुपये) उद्बोधन | कि अपनी चंचला लक्ष्मी का सदुपयोग कर पुण्य लाभ लेते हुए (मूल्य-१२ रुपये), डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' द्वारा लिखित-पासणाह संकल्पित अवधि में ही यह कार्य पूर्णकराकर अनुगृहीत करें। चरिउ: एक समीक्षात्मक अध्ययन (मूल्य-५० रुपये), जलगालन सहयोग राशि एस.बी.आई. कोड ३७११ बड़ागाँव (धसान) खाता विधि और उसका वैशिष्ट्य (मूल्य-१२ रुपये) नं. ४/१४८५ बी. के नाम से भेजने का कष्ट करें। डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' दि. जैन सिद्धक्षेत्र फलहोड़ी पार्श्व ज्योति कार्यालय, एल. ६५ बड़ागाँव (धसान ) टीकमगढ़ (म.प्र.) न्यू इन्दिरानगर, ए, बुरहानपुर | रिसडा में पंचकल्याणक प्रतिष्श महोत्सव सानन्द सम्पन्न डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' एवं श्रीमती इन्द्रा जैन कोलकाता- महानगर कोलकाता से बीस किलोमीटर का अभिनन्दन - अप्रैल 2003 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूरी पर बसे रिसड़ा उपनगर में नव निर्मित शिखरयुक्त जिन मंदिरजी की वेदी में देवाधिदेव श्री १००८ सुपार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा जी के प्रतिष्ठापन हेतु पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव का आयोजन पूज्य दिगम्बर जैनाचार्य श्री १०८ वासुपूज्य सागर जी महाराज संघ के सान्निध्य में बाल ब्रह्मचारी, संहितासूरि पं. धर्मचन्द शास्त्री के आचार्यत्व में ३० जनवरी से ६ फरवरी २००३ तक सानन्द सम्पन्न हुआ । अजीत पाटनी श्री राजेशकुमार जैन का आकास्मिक निधन अखिल भारतीय दि. जैन महिला संगठन एवं राष्ट्रीय जैन महिला संघ एटा की संरक्षिका वयोवृद्ध समाज सेविका श्रीमती नंदन बाई जैन के ज्येष्ठ पुत्र श्री राजेश कुमार जैन 'पप्पू' का लम्बी बीमारी के बाद परन्तु आकस्मिक निधन का समाचार सुनकर एटा जैन समाज में शोक व्याप्त हो गया, । 'वीर कॉम्पलैक्स' वालों के नाम से विख्यात श्री राजेश कुमार जैन धार्मिक विचारों वाले कर्त्तव्य परायण सुशील तथा मृदुभाषी थे। इन्होंने अपने पीछे भरा पूरा परिवार छोड़ा है। अखिल भारतीय दि. जैन महिला संगठन एवं राष्ट्रीय जैन महिला संघ एटा उनके कल्याण की कामना करता है। बबीता जैन अध्यक्षा जैन महिला संगठन राष्ट्रीय संघ शिक्षण शिविर प्रभावनापूर्वक संपन्न श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर के तत्त्वावधान में श्री दिगम्बर जैन संघी मंदिर के प्रांगण में २३ फरवरी से ५ मार्च तक शिक्षण शिविर प्रभावनापूर्वक संपन्न हुआ। शिविर में तत्त्वार्थ सूत्र, द्रव्यसंग्रह, जैन तत्त्वविद्या विषयों का अध्यापन पं. रतन लाल वैनाडा एवं व्र. संजीव भैया कटंगी के निर्देशन में संपन्न हुआ। शिविर में जयपुर एवं अन्य स्थानों से पधारे शिक्षार्थियों ने भाग लिया। शिविर की आशातीत सफलता और आवश्यकता को देखते हुए आगामी शिविर श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर में २० जुलाई से ३० जुलाई तक आयोजित होने की घोषणा की गई। पं. राजेन्द्र कोतमा शिखरजी में ठहरने का उत्तम स्थान तीर्थक्षेत्र कमेटी द्वारा गठित आंदोलन समिति द्वारा खरीदी गई नौ हजार वर्ग फुट भूमि पर निर्मित शाश्वत ट्रस्ट भवन व अतिथि आवास व भोजनशाला का झारखंड के राज्यपाल एम. राजा जायस व धर्मस्थल के डॉ. वीरेन्द्र हेगड़े ने संयुक्त रूप से गत शुक्रवार को मधुवन में उद्घाटन कर लोकार्पित किया। श्री किशोर जैन वीर सेवा मंदिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली- ११०००२ अध्यक्ष धनकुमार जी पाण्डया का आकस्मिक निधन धर्मपरायण, कर्तव्यनिष्ठ, समाजसेवी, लोहपुरुष बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी स्व. श्री धनकुमार जी पाण्ड्या 'अध्यक्ष' प्रबन्ध 30 अप्रैल 2003 जिनभाषित कारिणी कमेटी श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मंदिर संघीर्ज सांगानेर का आकस्मिक स्वर्गवास दिनांक १७.१.२००२ को ह गया। स्व. आदरणीय श्री धनकुमार जी पाण्ड्या मंदिर संघीजी सांगानेर के आधार स्तम्भ थे 1 निर्मल कासलीवाल, मानद मंत्री जीजोट (नागौर) वेदी प्रतिष्ठा एवं कलशारोहण संपन्न आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर से पधारे व्र. संजीव भैया के कुशल निर्देशन में १२ फरवरी से १४ फरवरी तक बंदी प्रतिष्ठा कलशारोहण का कार्यक्रम धूम धाम के साथ संपन्न हुआ। संजय पाण्ड्या, कु. नमिता दिनेश कुमारजी गंगवाल को 'रंगरेखा' स्पर्धा में सुवर्ण पदक 'यंग इंडियन्स, मुंबई' संस्था द्वारा आयोजित रंगरेखा चित्रकला स्पर्धा में औरंगाबाद महाराष्ट्र निवासी कु. नमिता दिनेशकुमार जी गंगवाल को सुवर्ण पदक प्राप्त हुआ। इस राष्ट्र स्तरीय स्पर्धा में देशभर से 23 लाख छात्र-छात्राएँ सम्मिलित हुए थे। कक्षा 8 से 10 तक के विभाग में नमिता ने प्रथम क्रमांक प्राप्त किया। जयपुर मुंबई में आयोजित समारोह में ज. जे. स्कूल ऑफ आर्ट, मुंबई के प्रो. महाजन एवं प्रो. राउत के करकमलों द्वांरा नमिता को 'सुवर्ण पदक प्रदान किया गया। कु. नमिता गंगवाल युवा उदयोजक एवं जैन डायमंड टूल्स, औरंगावाद के संचालक, श्री दिनेश कुमार जी पन्नालाल गंगवाल की सुपुत्री तथा श्री पाश्र्वनाथ • ब्रह्मचर्याश्रम गुरुकुल एलोरा के संचालक श्री पन्नालाल जी गंगवाल काकाजी की पोती हैं। उन्होंने श्री सरस्वती भवन महाविद्यालय औरंगाबाद से 11 वीं की परीक्षा दी है। इससे पहले भी विविध चित्रकला स्पर्धाओं में कु. नमिता ने अनेक पुरस्कार प्राप्त किये हैं। कु. नमिता का अभिनंदन और शुभेच्छा । गुलाबचंद्र बोरालकर समन्तभद्र जैन गुरुकुल एलोरा (औरंगाबाद ) महाराष्ट्र नवोदित विद्वानों का सम्मान समारोह सम्पन्न श्रमण परम्परा के पोषक व आगम पद्धति से चलनेवाले विद्वानों की न्यूनता को दृष्टिपथ में रखकर पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के मंगल आशीर्वाद व मुनिपुंगव सुधासागर जी की पावन प्रेरणा से सन् 1996 में संस्थापित श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान ने इस वर्ष 22 नवोदित विद्वानों को आगम का सही ज्ञान प्रदान कर तैयार किया है। दिनांक 5.3.2003 को इन नवोदित विद्वानों को सम्मानित किया गया। ब्र. भरत जैन Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेश सूचना श्रमण परम्परा के उन्नायक आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के शुभाशीर्वाद एवं मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज की मंगल प्रेरणा से संचालित श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर का सातवाँ शैक्षणिक सत्र 7 जुलाई 2003 से प्रारम्भ होगा। छात्रों को लौकिक शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक संस्कार भी प्रदान किये जाते हैं। यहाँ पर छात्रों को आवास, भोजन व पुस्तकादि की निःशुल्क व्यवस्था के साथ खेलकूद के लिये विशाल प्रांगण, कम्प्यूटर शिक्षा एवं अंग्रेजी भाषा की प्रवीणता के लिये प्रशिक्षित शिक्षकों की व्यवस्था प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये विशेष दिशा निर्देश की भी सुविधा उपलब्ध है। इच्छुक छात्रों को समय-समय पर विधि विधान, वास्तुविज्ञान एवं ज्योतिष् का भी प्रशिक्षण दिया जाता है। इसमें सम्पूर्ण भारत से प्रवेश के लिये अधिक छात्र इच्छुक होने से विभिन्न प्रदेशों के लिये स्थान निर्धारित हैं अतः स्थान सीमित हैं। धार्मिक अध्ययन सहित कुल पाँच वर्ष के पाठ्यक्रम में दो वर्षीय उपाध्याय परीक्षा (सीनियर हायर सेकण्डरी के समकक्ष) माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर से एवं त्रिवर्षीय शास्त्री स्नातक परीक्षा (बी.ए. के समकक्ष) राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है। जो सरकार द्वारा आई.ए.एस. और आर. ए. एस. जैसी किसी भी सर्वमान्य प्रतियोगिता परीक्षा में सम्मिलित होने के लिये मान्य है । जिन छात्रों ने 10 वीं की परीक्षा (अंग्रेजी सहित) दो है अथवा उत्तीर्ण कर ली है तथा जो प्रवेश के इच्छुक हैं वे दिनांक 22 मई से 29 मई 2003 तक उक्त संस्थान में चयन हेतु शिविर में उपस्थित होवें । शिविर के पश्चात् चयनित छात्रों को ही प्रवेश मिल सकेगा। सम्पर्क:श्री राजमल बेगस्या ( उपाधिष्ठाता ) T. 5058674, 9414047419 कार्या. 0141-2730552, 5177300 श्री दि. जैन श्रमण संस्कृति संस्थान वीरोदयनगर, सांगानेर, जयपुर 303902 (राज.) श्रमण संस्कृति आध्यात्मिक शिक्षण शिविर श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर में दिनांक 20 जुलाई से 30 जुलाई तक श्रमण संस्कृति आध्यात्मिक शिक्षण शिविर का आयोजन किया जा रहा है। शिविर में बालबोध, छहढाला, द्रव्यसंग्रह, जैन सिद्धांत प्रवेशिका, करणानुयोगदीपक, तत्त्वार्थसूत्र आदि विषयों का पं. रतनलाल जी बैनाड़ा, डॉ. पं. शीतल चन्द्र जी जयपुर ब्र. संजीव भैया, ब्र. भरत भैया, डॉ. श्रेयांस कुमार जैन बड़ौत, डॉ. रमेश चन्द्र जी बिजनौर द्वारा अध्यापन कराया जायेगा । इस अवसर पर राष्ट्रीय लब्ध प्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा अनेक विषयों पर तत्त्व चर्चा करने का एवं प्रातः सायं प्रवचन का भी लाभ प्राप्त होगा। शिविरार्थियों की भोजन एवं आवास की समुचित व्यवस्था है । अत: अनुरोध है कि धर्मप्रेमी महानुभाव शिविर में पधार कर धर्म लाभ लें। आने की सूचना पत्र द्वारा अवश्य दें। डॉ. शीतलचन्द्र जैन निदेशक, कार्यालय- 0141-2730552, 5177300 साहित्याचार्य डॉ. पन्नालाल जैन स्मृति युवाचिंतक पुरस्कार डॉ. शीतल जैन जोधपुर को उनके शोध-पत्र " जीवन दर्शन एवं गुरु तत्त्व " पर साहित्याचार्य डॉ. पन्नालाल जैन स्मृति युवाचिंतक पुरस्कार-2003 अखिल भारतीय दर्शन-परिषद द्वारा पुणे में आयोजित 48 वें अधिवेशन के अवसर पर प्रदान किया गया। प्रतिवर्ष यह पुरस्कार श्रेष्ठ युवा दार्शनिक के लिये प्रदान किया जाता है । यह तीसरा वर्ष है। यह जानकारी डॉ. एस.पी. दुबे अध्यक्ष अखिल भारतीय दर्शन परिषद एवं अध्यक्ष दर्शन विभाग रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर ने प्रदान की। डॉ. राजेश जैन शिशुरोग विशेषज्ञ नमक मण्डी, सागर डी.एस.पी. विद्यार्थी 'पुलिसमेन ऑफ दि ईयर' से सम्मानित छतरपुर- राष्ट्रपति शौर्य पदक हेतु चयनित छतरपुर निवासी श्री तुषारकांत विद्यार्थी एस. डी. ओ. पी. डबरा को ग्वालियर विकास समिति ने अपने 25 वें 'टापटेन ऑफ दि ईयर पुरस्कार समारोह' में 'पुलिसमेन ऑफ दि ईयर' के पुरस्कार से सम्मानित किया है। श्री विद्यार्थी को यह पुरस्कार म.प्र. शासन के गृहमंत्री श्री महेंद्र बौद्ध, ग्रामोद्योग मंत्री श्री के. पी. सिंह, विधायक रमेश अग्रवाल, कमिश्नर श्री विमल जुल्की एवं ग्वालियर रेंज के आई. जी. श्री एस. एस. शुक्ला ने प्रदान किया। राजेश बड़कुल पूर्व मंत्री जैन समाज, छतरपुर बड़ौत में पंच कल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न उत्तरप्रदेश की धर्म नगरी बड़ौत में जो शिक्षालयों तथा मनोहारी जिनालयों से शोभित है, श्री 1008 अजितनाथ दिगम्बर जैन मंदिर के जिनबिम्बों की प्राण प्रतिष्ठा 5 मार्च से 10 मार्च 2003 तक सम्पन्न हुई । सात शिखरों एवं नौ वेदियों के निर्माण के साथ भव्य गजरथ तथा पालकी का निर्माण भी कारीगरों द्वारा कुशल किया गया है। मंदिर की जमीन से ऊँचाई 108 फुट है तथा शिखर की ऊँचाई 56 फुट है। नगर एवं क्षेत्र के सातिशय पुण्योदय से परमपूज्य सन्तशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का मंगलमय आशीर्वाद एवं उनके सुयोग शिष्यों परमपूज्य मुनि श्री समतासागर जी महाराज, परमपूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज, परम अप्रैल 2003 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य ऐलक श्री निश्चयसागर जी महाराज, बा. ब्र. राजेन्द्र भैया, बा. न. अन्नु भैया के पावन सान्निध्य का सौभाग्य मिला। पंचकल्याणक की क्रियाएँ ब्र. प्रदीप जी, अशोक नगर तथा डॉ. श्रेयांस जी. बड़ौत के आचार्यत्व में सम्पन्न हुईं। वेदी प्रतिष्ठा सम्पन्न डॉ. धन्य कुमार जैन, पूर्व चेयर मेन अवागढ़ द्वारा मंदिर नसिया जी, कोठी नया बाग, अवागढ़ (जिला-एटा) में, प्रतिष्ठाचार्य श्री शचीन्द्र कुमार " सौम्य" मथुरा के सान्निध्य में भव्य वेदी प्रतिष्ठा एवं पंचकल्याणक समारोह सम्पन्न कराया गया। पं. सुनील शास्त्री 962, सेक्टर-7 आवास विकास कॉलोनी, आगरा (उ.प्र.) फोन: 0562-2277092 शिलान्यास एवं भूमिपूजन श्री दिगम्बर जैन लेखराज नगर कमेटी द्वारा लेखराज नगर, सिविल लाइन्स अलीगढ़ में मंदिर विस्तार हेतु नवीन भूमि खरीदकर उसका शिलान्यास एवं भूमि पूजन, ब्र. श्री राकेश भैया जी के मार्ग दर्शन में दिनांक 22 फरवरी 2003 को सम्पन्न हुआ। आचार्य श्री विद्यासागर जी ससंघ कुण्डलपुर में आत्मा का कोई नाम नहीं होता है। जिनबिम्ब के दर्शन से यह ज्ञात होता है कि हमारी आत्मा का स्वरूप छोटा- - बड़ा नहीं अपितु सभी का समान है। उपर्युक्त उद्गार आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कुण्डलपुर के विद्याभवन में आयोजित अपने मंगल प्रवचन में अभिव्यक्त किए। प्रवचन के पूर्व मंगलाचरण नीतू नीलू जैन ने प्रस्तुत किया, जबकि आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज का चित्र अनावरण सोगानी जी हजारी बाग एवं द्वीप प्रज्वलन पवन कुमार, नरेश कुमार, दिल्ली के करकमलों से सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर कुण्डलपुर क्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष संतोष सिंघई के साथ अन्य पदाधिकारियों, सदस्यों एवं अनेक स्थानों से आये भक्तों, तीर्थ यात्रियों ने आचार्य श्री को श्रीफल अर्पित किए। आचार्य श्री ने अपने मंगल उद्बोधन में आगे कहा कि अज्ञान से अपने द्वारा अपना दीपक बुझ जाता है, परंतु ज्ञान होने से उसे हवा से बचाया जा सकता है। बड़े-बड़े साधक भी अपनी शारीरिक साधना से आत्मिक साधना करते हैं। गुरु हमें हेय का त्याग एवं उपादेय को ग्रहण करने का प्रकाश प्रदान करते हैं। अच्छे को अच्छा समझो एवं उसकी अच्छाइयों को ग्रहण करो, जो बुरा है, उसकी बुराइयों को वहीं छोड़ दो। यदि दूसरों को शांत करना है तो स्वयं शांत हो जाओ । आज तक हमने खोया है, खोजा नहीं, सभी सामग्री वीतरागता प्राप्ति के लिए है। कुण्डलपुर में ग्रीष्म कालीन वाचना का शुभारंभ 18 मार्च 2003 को राष्ट्रसंत आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के ससंघ सान्निध्य में ग्रीष्म कालीन वाचना हेतु मंगल कलश की स्थापना श्री अशोक कामर्शियल दमोह द्वारा की गई । इस अप्रैल 2003 जिनभाषित 32 अवसर पर उपस्थित अपार जन समुदाय को आचार्यश्री ने अपना मंगल आशीष देते हुए मंगल प्रवचन में कहा कि गुरुओं की वाणी को सुनकर हृदयंगम करना चाहिए, न कि एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकालना चाहिए। स्मरण रहे कि तीर्थ क्षेत्र कुण्डलपुर जी में अतिशययुक्त श्री बड़े बाबा के भव्य मंदिर निर्माण हेतु तीव्रगति से काम चल रहा है, वहीं पहाड़पुर के पत्थरों पर नागर शैली से अभिभूत नक्काशी के साथ दिलवाड़ा के जैन मंदिरों के समकक्ष बनने वाले इस भव्य मंदिर हेतु क्षेत्र कमेटी ने अधिक से अधिक दान राशि देने की धर्मावलंबियों से अपील की है। प्रवेश सूचना श्रमण ज्ञानभारती मथुरा पू. आ. श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद एवं पू. उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज की प्रेरणा से श्रमण ज्ञान भारती छात्रावास का शुभारंभ 11 जुलाई सन् 2001 को भ जंबूस्वामी निर्वाण क्षेत्र, चौरासी, मथुरा में हुआ था। इस छात्रावास में हाईस्कूल पास छात्रों को लिया जाता है। इन छात्रों को मथुरा के कॉलेजों में आर्ट्स एवं कॉमर्स की कक्षाओं में इण्टर में प्रवेश दिलाया जाता है। कॉलेज के समय के अलावा, अन्य समयों में छात्रावास के रहने के काल में इन छात्रों को धार्मिक शिक्षण, पूजा, आरती सामायिक करना आदि आवश्यक होता है। छात्रावास में प्रथम वर्ष में छहढाला, द्रव्य संग्रह व दूसरे वर्ष में रत्नकरण्ड श्रावकाचार तथा तत्त्वार्थसूत्र एवं इष्टोपदेश का अध्ययन कराया जाता है। छात्रावास का पूरा कोर्स 5 वर्ष का है। शेष 3 वर्षों में इण्टर पास करने के बाद जीवकांड, कर्मकांड, समयसार, पंचास्तिकाय आदि ग्रंथों का क्रम से अध्ययन कराया जायेगा। छात्र को धार्मिक परीक्षा देना तथा अच्छे प्राप्तांक के योग्य परिश्रम करना आवश्यक होता है। छात्रावास में भोजन, आवास, पुस्तकें एवं शिक्षा तथा परीक्षा शुल्क आदि की निःशुल्क व्यवस्था है। छात्रावास का मुख्य उद्देश्य देश में जैन विद्वानों की कमी दूर करना है । अतः जो भी छात्र, कॉलेज शिक्षा के साथ धर्म पढ़ने के इच्छुक हों तथा हाईस्कूल के समकक्ष अर्थात् दसवीं कक्षा पास कर चुके हों, वे अपना प्रार्थनापत्र, दसवीं कक्षा के परीक्षाफल के साथ, 20 जून 2003 से पूर्व तक भिजवा दें। प्रार्थनापत्र में पूरा पता तथा फोन नं. अवश्य लिखें व अपना एक फोटो अवश्य संलग्न करें। वर्तमान में 22 छात्र, छात्रावास में रहकर धार्मिक शिक्षण ले रहे हैं। धार्मिक शिक्षण का कार्य श्रेष्ठि विद्वान श्री निरंजनलाल जी बैनाड़ा, अधिष्ठाता, पं. जिनेन्द्र शास्त्री जैन दर्शनाचार्य तथा ब्र. अरुण द्वारा संपादित किया जाता है। अन्य विषयों के लिये कुशल शिक्षकों की व्यवस्था भी की जाती है। इस वर्ष कुल 15 छात्र लेने हैं, जिनका चयन योग्यता आदि के आधार पर किया जायेगा। अतः शीघ्रताशीघ्र प्रार्थना पत्र निम्न पते पर भिजवायें। । अधीक्षक, श्रमण ज्ञान भारती छात्रावास, श्री 1008 भ. जंबूस्वामी निर्वाण क्षेत्र चौरासी, मथुरा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधकथा चावल के पाँच दाने राजगृह में धन्य नाम का एक धनी और बुद्धिमान | जब हरे-हरे धान पककर पीले पड़ गये, उन्हें एक तेज दतिया व्यापारी रहता था। उसके चार पतोहुएँ थीं जिनके नाम थे | से काट लिया। फिर धानों को हाथ से मला और उन्हें साफ़ उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी। करके कोरे घड़ों को लीप-पोतकर, उन पर मोहर लगाकर एक दिन धन्य ने सोचा, मैं अपने कुटुम्ब में सबसे | कोठार में रखवा दिया। दूसरे साल वर्षा ऋतु आने पर फिर से बड़ा हूँ और सब लोग मेरी बात मानते हैं। ऐसी हालत में यदि | इन धानों को खेत में बोया और पहले की तरह काटकर साफ मैं कहीं चला जाऊँ, बीमार हो जाऊँ, किसी कारण से काम | करके घड़ों में भर दिया। की देखभाल न कर सकूँ, परदेश चला जाऊँ या मर जाऊँ तो इसी प्रकार तीसरे और चौथे वर्ष किया। इस तरह उन मेरे कुटुम्ब का क्या होगा? कौन उसे सलाह देगा, और कौन | पाँच दानों के बढ़ते-बढ़ते सैकड़ों घड़े धान हो गये। घड़ों को मार्ग दिखाएगा? कोठारे में सुरक्षित रख रोहिणी निश्चिन्त होकर रहने लगी। यह सोचकर धन्य ने बहुत-सा भोजन बनवाया और | चार वर्ष बीत जाने के बाद एक दिन धन्य ने सोचा कि अपने सगे-सम्बन्धियों को निमन्त्रित किया। मैंने जो अपनी पतोहुओं को धान के दाने दिये थे, उन्हें बुलाकर भोजन के बाद जब सब लोग आराम से बैठे थे तब | पूछना चाहिए कि उन्होंने उनका क्या किया। धन्य ने अपनी पतोहुओं को बुलाकर कहा, "देखो बेटियो, मैं धन्य ने फिर अपने सगे-सम्बन्धियों को निमन्त्रित तुम सबको धान के पाँच-पाँच दाने देता हूँ। इन्हें सँभालकर किया और उनके सामने पतोहुओं को बुलाकर उनसे धान के रखना और जब मैं माँगू मुझे लौटा देना।" दाने माँगे। चारों पतोहुओं ने जवाब दिया, 'पिताजी की जो आज़ा', पहले उज्झिका आयी। उसने अपने ससुर के कोठार और वे दाने लेकर चली गयों। में से धान के पाँच दाने उठाकर ससुर जी के सामने रख दिये। सबसे बड़ी पतोहू उज्झिका ने सोचा, "मेरे ससुर के | धन्य ने अपनी पतोहू से पूछा कि ये वही दाने हैं या कोठार में मनों धान भरा पड़ा है, जब वे माँगेंगे कोठार में-से | दूसरे? लाकर दे दूंगी।" और उसने उन दानों को फेंक दिया और उज्झिका ने उत्तर दिया, "पिताजी, उन दानों को तो काम में लग गयी। मैंने उसी समय फेंक दिया था। ये दाने आपके कोठार में से दूसरी पतोहू भोगवती ने भी यही सोचा कि मेरे ससुर लाकर मैंने दिये हैं।" के कोठार में मनों धान भरा पड़ा है। उन दानों का छिलका यह सुनकर धन्य को बहुत क्रोध आया। उसने उज्झिका उतारकर वह खा गयी। को घर के झाड़ने-पोंछने और सफाई करने के काम में नियुक्त तीसरी पतोहू रक्षिका ने सोचा कि ससुर जी ने बहुत- कर दिया। से लोगों को बुलाकर उनके सामने हमें जो धान के दाने दिये तत्पश्चात् भोगवती आयी। धन्य ने उसे खोटने, पीसने हैं, और उन्हें सुरक्षित रखने को कहा है, अवश्य ही इसमें | और रसोई बनाने के काम में लगा दिया। कोई रहस्य होना चाहिए। उसने उन दानों को एक साफ़ । उसके बाद रक्षिका आयी। उसने अपनी पिटारी से कपड़े में बाँध, अपने रत्नों की पिटारी में रख दिया, और उसे धान के पाँच दाने निकालकर अपने ससुर के सामने रख अपने सिरहाने रखकर सुबह-शाम उसकी चौकसी करने लगी। दिये। इस पर धन्य प्रसन्न हुआ और उसे अपने माल-ख़ज़ाने चौथी पतोहू रोहिणी के मन में भी यही विचार उठा की स्वामिनी बना दिया। कि ससुर जी ने कुछ सोचकर ही हम लोगों का धान के दाने अन्त में रोहिणी की बारी आयी। उसने कहा, “पिताजी, दिये हैं। उसने अपने नौकरों को बुलवाकर कहा, “जोर की | जो धान के दाने आपने दिये थे, उन्हें मैंने घड़ों में भरकर वर्षा होने पर छोटी-छोटी क्यारियाँ बनाकर इन धानों को खेत कोठार में रख दिया है, उन्हें यहाँ लाने के लिए गाड़ियों की में बो दो। फिर इन्हें दो-तीन बार निदाई-गुड़ाई करके एक आवश्यकता होगी।" स्थान से दूसरे स्थान पर रोपो, और इनके चारों ओर बाड़ धानों के घड़े मँगाये गये। धन्य अत्यन्त प्रसन्न हुआ। लगाकर इनकी रखवाली करो।" रोहिणी को उसने सब घर-बार की मालकिन बना दिया। नौकरों ने रोहिणी के आदेश का पालन किया, और प्रस्तुति - डॉ. जगदीशचन्द्र जैन Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि.नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003 भगवान् महावीर का गर्भावतरण देवेन्द्र कुमार जैन जिला एवं सत्र न्यायाधीश आकाश में छा गये रजत मेघ होने लगी वर्षा रत्नों की हर्ष और उल्लास की विषादयुक्त चेहरों पर खिलाखिला उठी हँसी खेतों में झूमकर गाने लगी फसलें वासन्ती बयारें मलयगंधी हो बह चली कलरव ने भर दिया अंतरिक्ष का सूनापन। धूप हुई गुनगुनी विधु की शीतलता बढ़ी नक्षत्रों की लकदक ने बिखेर दिया आनंद आलोक यत्र तत्र सर्वत्र। माता के गर्भ में अंकुरण के पहले ही छह मास हुआ यह चमत्कार सावधान महावीर ले रहे अवतार। निद्रामग्न त्रिशला ने देखे जो सोलह स्वप्न अलस्सुबह विस्मित हो राजा से किया प्रश्न सिद्धार्थ ने ज्योतिष से माँगा जब समाधान उसने बताया तब राजा को हर्षित हो रानी के गर्भ में आ गये वर्धमान राजन हो भाग्यवान धन्य हुआ कुण्डग्राम। राजा ने खोल दिये भण्डारों के बंद द्वार रत्न बँटे धान्य बँटा अंधियारा कोष घटा त्रिशला के अंतस में विराज गई अपूर्व छटा नव-मासी प्रतीक्षा भी बन गई सुखद भार। जे.डी.ई.-1, भगवती नर्सिंग होम के सामने हरदा (म.प्र.) स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित।