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________________ की वास्तविक जानकारी प्राप्त किए केवल अफवाहों के आधार पर द्वेषबुद्धि से बिजोलिया क्षेत्र की कमेटी के विरुद्ध ऐसा प्रस्ताव लाया गया है। जब बिजौलिया क्षेत्र की सम्पूर्ण कमेटी द्वारा सर्वसम्मति से उक्त प्रस्ताव में वर्णित असत्य का खंडन हो जाने पर किसी प्रकार की शंका शेष नहीं रहने पर भी पुन: दुर्भावना और दुराग्रह से ग्रसित महासभा ने लखनउ में हुई कार्यकारिणी की बैठक में बिजौलिया कमेटी के प्रस्ताव को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है, जो समाचार विस्तार से जैन गजट के अंक 107/10 के पृष्ठ 5 पर प्रकाशित है। इस प्रस्ताव में सर्वाधिक खेदजनक बात तो यह है कि इसमें आचार्य वर्द्धमान सागर जी के सान्निध्य में स्थापित मूर्तियों को हटाने की असत्य बात को दो बार जोर देकर लिखकर दो साधुओं और उनके श्रद्धालुओं की भावनाओं को भड़काने का अवांछित प्रयास किया गया है। यदि कदाचित् यह घटना सत्य भी होती, तो भी महासभा के पदाधिकारियों का यह कर्तव्य था कि साधारण सभा में ऐसा विघटनकारी प्रस्ताव पारित करने के पहले बिजौलिया कमेटी से मिलकर घटना की पूरी जानकारी प्राप्त करते और समाधन का मार्ग खोजते। इस प्रस्ताव का दुष्परिणाम तुरंत देखने में आ रहा है कि प्रस्ताव के संबंध में जिनभाषित' में अक्टूबर-नवम्बर के अंक में संपादकीय लेख प्रकाशित हुआ। उसके विरोध में जैन गजट 107/5 पृष्ठ 2 पर दो भड़काउ पत्र प्रकाशित हुए और उसके खंडन में मदनगंज-किशनगढ़ की समाज द्वारा पारित प्रस्ताव प्रकाशित हुआ। मन में यदि सद्भावना हो तो सत्य से समाधान प्राप्त हो जाता है, किंतु यह सत्य है कि सत्य भी दुर्भावना का समाधन करने में अशक्त रहता है। सब कुछ देखकर ऐसा लगता है कि बिजौलिया क्षेत्र कमेटी को, जो वस्तुत: क्षेत्र के निर्माण व परिवर्तन-परिवर्द्धन के लिए सक्षम व उत्तरदायी है, एक किनारे रखकर दो साधुओं का आधार लेकर समाज की भावनाओं को भड़काने का अवांछनीय कृत्य किया जा रहा है, जिसका प्रारम्भ महासभा ने अपने मंच से किया है। एक अन्य प्रस्ताव महासभा की लखनउ में हुई प्रबंधकारिणी समिति की बैठक में पारित प्रस्ताव सं. 2 है जो जैन गजट के अंक 107/10 पृष्ठ 6 पर प्रकाशित है। प्रस्ताव के प्रारंभ में भट्टाकर-परंपरा की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि जैनधर्म के संरक्षण संवर्द्धन, जैन वाड्मय के संरक्षण, प्रणयन में इस परंपरा का योगदान अभिवंदनीय है। यदि हम भट्टाकर परंपरा के इतिहास का निष्पक्ष सर्वेक्षण करें, तो हम पायेंगे कि वास्तविकता उक्त कथन से सर्वथा विपरीत है। यद्यपि भट्टारक शब्द पूर्व में जैनधर्म के प्रभावक आचार्यो के लिए प्रयुक्त होता था, जिन्होंने अनेक ग्रंथ लिखकर दिगम्बर जैन धर्म की प्रभावना की, तथापि भट्टारक शब्द कालांतर में शिथिलाचारी दिगम्बर मुनियों के लिये प्रयुक्त होते-होते, वस्त्रधनादिपरिग्रह सहित मठाधीश सुविधाभोगी किंतु पीछी धारी एक विशेष वर्ग के लिए रूढ़ हो गया। यहाँ उन्हीं भट्टारकों एवं उन्हीं की परंपरा की चर्चा किया जाना प्रसंग प्राप्त है। समय बीतने के साथ ही भट्टारक वर्ग चारित्र में अधिकाधिक शिथिल होता गया और श्रावकों से बलात् भेंट वसूल कर अपना परिग्रह बढाने लगा। चौदहवीं शताब्दी में दिल्ली की गद्दी से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में भट्टारकों की गादियाँ स्थापित हो गईं। इन भट्टारकों ने अपने अस्तित्व के लिए श्रावकों को शास्त्राध्ययन से वंचित रखा और अपनी मंत्र-तंत्रादि शक्ति से प्रभावित रखा। वे भट्टारक स्वयं भी प्रायः आगमज्ञान से शून्य रहते हुए मंत्रतंत्रादि की आराधना में लीन रहने लगे और श्रावकों को आंतकित कर उनसे धन-वसूली करने लगे और श्रावकों के अज्ञान और असंगठन का लाभ उठाते हुए मठाधीश बनकर विलासी जीवन जीने लगे। उत्तर भारत में कतिपय स्थानों पर शास्त्रस्वाध्याय का प्रचलन रहा और कुछ जैन आगम के ज्ञाता विद्वान हुए। उनके प्रभाव से एवं श्रावकों में जाग्रत चेतना के कारण वहाँ तो भट्टारकों की परंपरा समाप्त प्राय हो गई। तथापि दक्षिण भारत में यह परंपरा अभी भी जीवित है। इनमें से एक श्रवण बेलगोल मठ के वर्तमान भट्टारक चारुकीर्ति जी विद्वान हैं और इस परंपरा में आई शिथिलताओं से उपर उठकर संयमित जीवन जीने के लिए प्रयत्नशील है। भट्टारक परंपरा के इतिहास के अध्ययन से हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि भट्टारक भ्रष्ट मुनियों की अवस्था है। जो दिगम्बर मुनि अपनी चर्या को दोषयुक्त बनाकर धीरे-धीरे वस्त्रादि परिग्रहधारी होकर मठाधीश एवं विलासी बन गए वे भट्टारक कहलाने लगे। वे दिगम्बर भेष छोड़कर वस्त्र पहिनने लगे, किंतु पीछी हाथ में रखते हुए अपना दिगम्बर मुनि के समान पूजा-सम्मान कराते रहे। उन्होंने अपने अस्तित्व के लिए दिगम्बर जैन धर्म के अंतरंग भावपक्ष को गौणकर अप्रैल 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524272
Book TitleJinabhashita 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size3 MB
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