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सम्पादकीय
यह कैसा धर्म संरक्षण ?
अखिल भारतवर्षीय दि. जैन महासभा भारत के दिगम्बर जैन समाज की सर्वाधिक प्राचीन प्रतिनिधि संस्था है। दिगम्बर जैन समाज में पूजापद्धति के आधार पर बीस पंथ, तेरा पंथ दो प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित थीं, किंतु महासभा के संस्थापकों ने दोनों पक्षों को सभा में प्रतिनिधित्व दिया और पक्षपातरहित नीति अपनाई। महासभा के संस्थापक अध्यक्ष एवं आगे भी अनेक अध्यक्ष एवं पदाधिकारी तेरापंथ विचाराधारा के श्रद्वालु रहे, किंतु उन्होंने महासभा के मंच से उक्तपंथ भेद का विवाद उत्पन्न नहीं होने दिया और पंथ पक्षपात से उपर रहते हुए दिगम्बर जैन समाज की एकता और संगठन एवं दिगम्बर जैन धर्म की प्रभावना को महासभा का उद्देश्य बनाया। उन्होंने पूजापद्धतियों के विभेद के कारण समाज में कटुता उत्पन्न नहीं होने दी। इसी प्रकार बीसपंथ विचारधारावाले सज्जन भी महासभा के अध्यक्ष रहे, किंतु उन्होंने भी महासभा की संगठनमूलक नीति का कभी उल्लघंन नहीं किया। लम्बे समय तक दोनों विचारधारा के लोगों ने महासभा को अपना समझा और महासभा के झंडे के नीचे मिलकर समाजहित एवं धर्मप्रभावना के कार्यक्रमों में उत्साहपूर्वक भाग लिया।
किंतु अत्यधिक खेद के साथ लिखना पड़ता है कि गत कुछ वर्षों से महासभा के योग्य अध्यक्ष एवं अन्य पदाधिकारियों द्वारा महासभा की स्थापित रीति-नीति उपेक्षित हो रही है। उन्होंने दिगम्बर जैन धर्म की प्रभावना के महान् व्यापक और उदार उद्देश्यों के लिए स्थापित महासभा को मानों अपनी निजी संस्था बना लिया है और वे महासभा के मंच एवं उसके मुखपत्र का उपयोग अपनी एकपक्षीय विचारधारा के प्रचार एवं पोषण में करने लगे हैं। परिणामस्वरूप समाज को बाँटे जाने के साथ-साथ अब तो हमारे आराध्य देवशास्त्रगुरु को भी बाँटा जा रहा है। महासभा की साधारण सभा और कार्यकारिणी समिति के मंच से समाज में फूट डालने वाले आगमविरुद्ध प्रस्ताव पारित किए जा रहे हैं। अखिल समाज की प्रतिनिधि संस्था के द्वारा अपनी व्यक्तिगत एकपक्षीय विचारधारा का पोषण दुर्भाग्यपूर्ण है।
महासभा के साथ एक पवित्र पद " धर्म संरक्षिणी" जुड़ा हुआ है, जो महासभा के पदाधिकारियों के कंधों पर एक महान् नैतिक उत्तरदायित्व डालता है। उन्हें इस बात की सावधानी रखना आवश्यक है कि कहीं उनके किसी कार्य से " धर्मसंरक्षण" के स्थान पर धर्म की हानि और महासभा के स्थापित उद्देश्यों का उल्लघंन तो नहीं हो रहा है। दिगम्बर जैन धर्म के मूल सिद्धांत वीतरागता, अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत हैं, जिनके आधार हमारे सच्चे देव, गुरु और शास्त्र हैं। हमारे देव वीतरागी हैं, गुरु वीतरागी, अहिंसक और अपरिग्रही हैं तथा हमारे शास्त्र अनेकात्मक रूप से उक्त सिद्धांतों के प्ररूपक हैं। जब और जहाँ उक्त सिद्धांत बाधित होते हैं, तब और वहाँ धर्म संरक्षण कैसे संभव हो सकता है ?
महासभा के केन्द्र में स्थित इसके वर्तमान सुयोग्य अध्यक्ष निःसन्देह सामाजिक संगठन एवं धर्मसंरक्षण के लिए चिंतित तो हैं और इसके लिए उनके द्वारा समर्पित रूप से किया जा रहा अथक श्रम निश्चय ही अत्यंत प्रशंसनीय है, किंतु समर्पित भावना होते हुए भी कदाचित् पक्षव्यामोह के कारण एवं अफवाहों और शंकाओं के आधार पर बनाई गई धारणाओं के कारण वे महासभा के व्यापक उद्देश्यों से भटक जाते हैं और लिए गए निर्णयों के दूरगामी विपरीत परिणाम देखने में आते हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आधार पर कोई भी व्यक्ति किसी आम्नाय या पद्धतिविशेष के समर्थन-विरोध में वीतराग चर्चा के रूप में स्वयं के व्यक्तिगत विचार तो व्यक्तिगत रूप से प्रकट कर सकता है, किन्तु अखिल भारतीय दिगम्बर जैन समाज की प्रतिनिधि संस्था के मंच से किसी एक आम्नाय की किसी मान्यता के समर्थन/विरोध का प्रस्ताव यदि पारित किया जाता है तो यह निश्चय ही अत्यंत आपत्तिजनक है और संस्था की निष्पक्ष एवं संगठनपरक नीति को नष्ट करनेवाला होते हुए समाज को विघटन की ओर ले जानेवाला है।
अभी हम केवल महासभा द्वारा पारित दो प्रस्तावों की चर्चा करना चाहेंगे। पहला उदयपुर में हुए महासभा के साधारण अधिवेशन में पारित प्रस्ताव सं. 2 है जो जैन गजट के अंक 106/40 पृष्ठ 5 पर प्रकाशित हुआ है। साधारण सभा में प्रस्ताव पारित करने क पूर्व घटना की पूरी जानकारी प्राप्त करने की जिम्मेदारी कार्यकारिणी समिति की होती है, किंतु सखेद लिखना पड़ता है कि बिना घटना
अप्रैल 2003 जिनभाषित
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