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________________ पर सवप्रथम वाले लेखों का पिटारा है, जो संग्रहणीय होता है। यह ऐसी पत्रिका । आवश्यक समझकर दे रहा हूँ। है, जिसमें अभी तक किसी प्रकार का दूषण नहीं आ पाया है। यह सर्वप्रथम डॉ. श्री देवेन्द्र कुमार जी शास्त्री के शब्दों का संपादक के कौशल का परिणाम है। इसमें पक्षपात का कीड़ा नहीं | उल्लेख करता हूँलगा है, जिससे इसका प्रगति पथ निर्दोष, सहज, सरल एवं "जयजयकार के साथ शत सहस्त्र इन्द्र, माहेन्द्र तथा व्यवस्थित है। लौकान्तिक देव, प्रभु का अभिषेक करते हैं।' (जन्माभिषेक के 'जिनभाषित' जिनेन्द्र की दिव्यध्वनि भव्य जीवों तक | प्रसंग में, प्राकृत विद्या, जनवरी-जून २००२, पृष्ठ ६८) पहुँचाने का कार्य चिरकाल तक करती रहे, ऐसी भावना है। प्रस्तुत कथन पर मेरी समीक्षा का वाक्य निम्न हैपं. सनत कुमार, विनोद कुमार जैन "यह कथन आगमविरोधी है। लौकान्तिक देव केवल रजवाँस, सागर (म.प्र.) | दीक्षाकल्याणक में ही भगवान् के वैराग्य की प्रशंसा करने आते 'जिनभाषित' फरवरी २००३ का अंक मेरी दृष्टि के सामने | हैं। यह प्रसिद्ध विषय है।" है। पाठकों के पत्रों, समीक्षा तथा प्रतिवाद आदि को निष्पक्ष भाव । मैं समझता हूँ कि भाई बंसल जी ने श्री कटारिया जी के से समुचित स्थान दिये जाने की विशेषता से संपादक जी का उदार आशय को न समझ कर लौकान्तिक देवों द्वारा भी भगवान् के दृष्टिकोण परिलक्षित हो रहा है। अभिषेक की पुष्टि की है। उनके सामान्य कथन में वे लौकान्तिक पृष्ठ सं. ४ पर डॉ. श्री राजेन्द्र कुमार जी बंसल अमलाई देवों को भी सम्मिलित कर रहे हैं। यह उचित नहीं है। उन्हें स्वयं वालों के पत्र को पढ़ा। इसमें इन्होंने मेरे लेख की चर्चा करते हुये | आगम के अवर्णवाद का भय होना चाहिये। निम्न प्रकार समीक्षा की है लौकान्तिक देवों द्वारा भी अभिषेक करने की आगम विरोधी “श्री पं. शिवचरन लाल जैन ने 'जिनभाषित' अक्टूबर सिद्धि के निरसन रूप मेरे कथन को अवर्णवादी एवं दुर्भावनापूर्ण २००२ पृष्ठ २४ पर यह कथन अवर्णवादी लिखा था, जिसमें डॉ. कहना स्वयं बंसल जी की सद्भावना का परिचायक नहीं हो देवेन्द्र कुमार जी शास्त्री ने जन्माभिषेक प्रकरण में लौकान्तिक सकता। वे बौद्धिक कार्यों के अभ्यासी हैं। उनसे मेरा आग्रह है कि देवों द्वारा भी अभिषेक करने का उल्लेख किया था। श्री कटारिया अपनी भावना को निर्मल बनाते हुए शास्त्रों का पुन: अवलोकन जी के मत के अनुसार लौकान्तिक आदि सभी देव कल्याणकों के करें और लौकान्तिक देवों द्वारा जन्माभिषेक करने के कतिपय सभी समारोहों में जाते हैं। सम्माननीय श्री पं. शिवचरन लाल जी प्रमाण मुझे एवं समाज को प्रस्तुत करें, ताकि जिसकी भी हो, का आरोप स्वत: मिथ्या सिद्ध हो जाता है। दुर्भावनापूर्ण कथन दुर्भावना एवं अवर्णवादी प्रवृत्ति दूर हो सके। मैं एतदर्थ आभारी इष्ट नहीं है।" रहूँगा। 'जिनभाषित' पत्रिका एवं उसके संपादक की मैं मुक्त प्रस्तुत समीक्षा स्वस्थ एवं आगमानुकूल नहीं है। इन्होंने कण्ठ से प्रशंसा करता हूँ। भ्रमों के निवारण हेतु इसका प्रयत्न मेरे कथन को अवर्णवादी एवं दुर्भावनापूर्ण उल्लिखित किया है। सराहनीय है। यद्यपि मैं प्रतिवाद करने का अभ्यासी नहीं हूँ, तथापि आगम की शिवचरन लाल जैन गरिमा का अवमूल्यन करना इष्ट नहीं है। इस दृष्टि से स्पष्टीकरण | सीताराम मार्केट, मैनपुरी (उ.प्र.) कर्मणां विनियोगेन वियोगः सह बन्धुना। प्राप्ते तत्रापरं दुःखं शोको यच्छति सन्ततम्॥ अर्थ- कर्मों के अनुसार इष्टजनों के साथ वियोग का अवसर आने पर यदि शोक होता है, तो वह आगे और भी दु:ख देता है। प्रत्यागमः कृते शोके प्रेतस्य आदि जायते। ततोऽन्यानपि सङ्गह्य विदधीत जनः शुचम्॥ अर्थ- यदि शोक करने से मृतक व्यक्ति वापस लौट आता हो, तो दूसरे लोगों को भी इकट्ठाकर शोक करना चाहिए। पद्मपुराण 2 अप्रैल 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524272
Book TitleJinabhashita 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size3 MB
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