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व्यवस्था नहीं है। अत: जब तक भट्टारक दिगम्बर मुनि के भेष में रहे, तब तक तो स्वस्थ परंपरा रही, परंतु जब से भ्रष्ट मुनि भट्टारक कहे जाने लगे तब से भट्टारक परपंरा अत्यंत अस्वस्थ परंपरा हो गई। इस प्रकार जैन आचार शास्त्र के विरुद्ध चर्यावाले भट्टारकों की इस पूर्णत: अस्वस्थ परंपरा को स्वस्थ परंपरा घोषित कर महासभा कैसा धर्म संरक्षण कर रही है?
प्रस्ताव में आगे उल्लेख है "इस स्वस्थ परंपरा के विषय में कुछ माह पूर्व किसी व्यक्ति ने, जिसमें लेखक का नाम व प्रकाशक का नाम नहीं है, हिंदी और कन्नड़ में "भट्टारक" पुस्तक के माध्यम से अपवाद का जो प्रयत्न किया है, श्री भारतवर्षीय दि. जैन (धर्म संरक्षिणी) महासभा उसे अविवेकपूर्ण मानती है तथा संस्था का दृढ़ विश्वास है कि इससे जैनधर्म का अवर्णवाद होगा। उनके प्रयत्नों से आर्ष परंपरा की पोषक समाज की भावनाओं को जबर्दस्त आघात पहुँचा है। यह पुस्तक "जिनभाषित'' पत्रिका के साथ वितरित की गई है जो चिंता की बात है। " महासभा के प्रस्ताव के उपुक्त अंश अत्यंत अविचारित, दुर्भाग्यपूर्ण एवं आश्चर्यकारी हैं। उपर्युक्त सभी बिंदुओं पर नीचे विचार किया जा रहा है।
ऐसा लगता है कि महासभा के पदाधिकारियों एवं प्रस्ताव के प्रस्तावक समर्थकों ने न पुस्तक को देखा है और न पढ़ा है। बिना देखे-पढ़े ही केवल पक्षापात एवं दुर्भावना के कारण विरोध के लिए विरोध में प्रस्ताव पारित किया गया है। पुस्तक पर मोटे अक्षरों में लेखक का नाम लिखा है “नाथूराम प्रेमी" जो उन्होंने सन् 1912 ई. अर्थात् 91 वर्ष पूर्व लिखी थी। श्री नाथूराम प्रेमी जैन इतिहास के प्रामाणिक लेखक और जैन साहित्य के उन्नायक विद्वान थे। वस्तुत: वे विद्वानों एवं लेखकों को जैसे हो वैसे सहायता कर लेखन कार्य के लिए प्रोत्साहित करते थे। उनको जैन विद्वानों का निर्माण करनेवाला विद्वान कहा जा सकता है। ऐसे निर्विवाद प्रामाणिक एवं धर्म प्रभावक विद्वान की प्राचीन पुस्तक की मिथ्या आलोचना कर महासभा ने अत्यंत अशोभनीय कार्य किया है। मेरे विचार में श्री नाथूराम प्रेमी की प्रामाणिकता एवं उनकी धर्म प्रभावना की तीव्र भावना की सम्पूर्ण जैन समाज ने सदैव भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पहली बार ऐसे ऐतिहासिक प्रामाणिक धार्मिक विद्वान् की पुस्तक की निराधार आलोचना कर महासभा ने कैसा धर्म संरक्षण किया है?
'जिनभाषित' पत्रिका ने देश के सर्वमान्य निष्पक्ष मूर्धन्य विद्वान् की प्राचीन ऐतिहासिक पुस्तक का जो अनुपलब्ध थी. पुन:प्रकाशन कर, वितरण कर जैन इतिहास से जैन समाज को परिचित कराने का पुण्य कार्य किया है। यद्यपि 'जिनभापित' ने पुस्तक एवं उसकी विषयवस्तु के संबंध में अपने कोई विचार प्रकट नहीं किये थे. तथापि पत्रिका को भी इसके लिए महासभा का कोप भाजन होना पड़ा है।
पुस्तक को बिना पढ़े ही प्रस्ताव में "भट्टारक" पुस्तक को भट्टारकों के अपवाद व धर्म के अवर्णवाद की दोषी घोषित किया गया है। वास्तविकता यह है कि भट्टारक पुस्तक में वर्तमान भट्टारकों के हो रहे अपवाद को दूर करने का उपाय बताया गया है। पुस्तक के पृष्ठ 30 पर “अब भट्टारकों की जरूरत है या नही" शीर्षक में निम्न पंक्तियाँ देखें- .
'अब इस बात का विचार करना चाहिए कि वर्तमान समय में भट्टारकों की जरूरत है या नहीं? मेरी समझ में जिस तरह राष्ट्रशकट को सुखपूर्वक चलाने के लिए राजकार्य धुरधर संचालकों को हमेशा जरूरत रहती है उसी प्रकार धर्मरथ को सुव्यवस्थित पद्धति से चलाने के लिए धर्मोपदेशकों की व धर्मज्ञों की आवश्यकता रहती है।'
पुनः पृष्ठ 33 पर "स्वरूप परिवर्तन" शीर्षक की निम्न पंक्तियाँ पठनीय हैं -
"यह तो निश्चय हो गया कि जैन समाज के लिए भट्टारकों को अथवा उनके समान एक वर्ग की आवश्यकता है।''... "हमारी समझ में यह बात संभव नहीं जान पड़ती कि भट्टारकों को लोग उनके वर्तमान स्वरूप में धर्मगुरु स्वीकार कर लेंगे। क्योंकि दिगम्बर सम्प्रदाय में जिन ग्रंथों की मान्यता है, उनके अनुसार जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है. भट्टारक पद न तो गृहस्थों की श्रेणी में आ सकता है और न मुनियों की। यद्यपि बीस पंथ के अनुयायी जिनकी संख्या लाखों की है, अब भी इन्हें अपना धर्मगुरु मानते हैं, परंतु यह नहीं समझना चाहिए कि वे इनके चरित्रों से संतुष्ट हैं। वे यह जरूर चाहते है कि इनके स्वरूप में परिवर्तन हो जावे। इसके सिवाय बीसपंथियों में जो समझदार हैं, धर्म के जानकार हैं, भोले भक्त नहीं है. व भट्टारकों को मुनि समझ कर अपना गुरु नहीं मानते है अर्थात् वे गुरु के स्वरूप को अन्यथा कल्पित नहीं करते हैं, किंतु धर्म के एक संचालक, प्रचारक या उपदेशक समझकर उनका सत्कार करते हैं। इससे यदि भट्टारकों के स्वरूप में उचित परिवर्तन किया जाय और शांतता से उसका अभिप्राय सर्व साधारण पर प्रकट कर दिया जाय, तो हमारी समझ में उसे तेरहपंथी जो कि उन्हें भषी व कलिंगा समझते हैं और बीसपंथी जो इन्हें शास्त्रोक्त नहीं, किंतु काम चलाउ गुरु समझते हैं, दोनों ही स्वीकार करेंगे।"... "स्वरूप परिवर्तन के लिए हमें एक यह युक्ति सूझ पड़ती है कि ये लोग अपने को मुनि नहीं, किन्तु सातवीं-आठवीं प्रतिमाधारी गृहस्थ ही स्वीकार करें और सब लोग उन्हें यही समझकर आदर सत्कार
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अप्रैल 2003 जिनभाषित
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