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________________ करें।"... "इस परिवर्तन का हमको विश्वास है कि कट्टर तेहरपंथी और भोले बीसपंथी दोनों ही अनुमोदन करेंगे। बल्कि यह मार्ग चल गया तो बीसपंथ-तेरहपंथ में जो वैमनस्य बढ़ गया है, वह कम होने लगेगा और धीरे-धीरे दोनों एक हो जायेंगे।" महासभा आचार्य शांतिसागर जी महाराज को अपना आदर्श मानती है और उनके विचारों को पूर्णतः मान्य करती है। आध्यात्मिक ज्योति के लेखक पं. सुमेरचन्द्र जी दिवाकर ने पुस्तक के पृष्ठ 269 पर आचार्य महाराज के साथ रहे मुनि श्री वर्द्धमान सागरजी से आचार्य महाराज के संबंध में हुई वार्ता प्रकाशित की है, जिसको भट्टारक पुस्तक में भी उद्धृत किया है । "वे (आचार्य महाराज) श्रवण बेलगोला में 15 दिन ठहरे थे। वहाँ के मठ के स्वामी भट्टारक जी के यहाँ आहार की विधि लगती थी, किंतु आचार्य महाराज वहाँ आहार नहीं लेते थे। महाराज कहते थे "मठ का अन्न ठीक नहीं है। वहाँ का धन प्रायश्चित, दण्ड आदि द्वारा प्राप्त होता है। निर्माल्य का धन नहीं लेना चाहिए" उपाध्याय के यहाँ भी महाराज आहार को नहीं जाते थे।" इस प्रकार आचार्य माहराज भट्टारकों को सद्गृहस्थ भी नहीं मानते थे और उनके यहाँ आहार ग्रहण करना भी उपयुक्त नहीं समझते थे। महासभा का दुर्भावानापूर्ण पक्षव्यामोह इस सीमा तक पहुँच गया है कि उसने आचार्य शांतिसागर महाराज के भी विचारों के विरोध में यह प्रस्ताव पारित किया है। पुस्तक के उपर्युक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि पुस्तक में सद्भावना पूर्वक भट्टारक सम्प्रदाय में आए दोषों को दूर कर उसके स्वरूप परिवर्तन के द्वारा उसको सर्वमान्य और सर्वोपयोगी प्रभावक संस्था बनाने का मार्ग सुझाया गया है। इसको अपवाद कहना एवं धर्म का अवर्णवाद कहना निराधार एवं आपत्तिजनक है। निर्दोष व्यक्ति पर मिथ्या दोषारोपण करना अपवाद कहलाता । दोषों को बताकर दोष दूर करने की एवं पुन: सन्मार्ग में स्थित होने की प्रेरणा तो स्थितीकरण कहलाती है जो सम्यग्दर्शन का अंग है। अतः भट्टारक पुस्तक के लेखक व वितरकों पर भट्टारक संस्था के अपवाद का दोष नहीं लगाया जा सकता, बल्कि उन्हें तो स्थितीकरण का श्रेय जाता है। दूसरी और भट्टारकों के विद्यमान दोषों एवं चारित्रिक विकृतियों का समर्थन करने एवं स्थितीकरण के लिए स्वरूप-परिवर्तन के सुझाव का विरोध करने के कारण महासभा धर्म के अवर्णवाद तथा अपवाद का दोष अनायास अपने उपर आमंत्रित कर रही है। महासभा के महारथीगण कृपया विचार करें कि इस प्रस्ताव द्वारा भट्टारक संस्था में आई असाधारण विकृतियों का समर्थन कर एवं सुधार के सुझावों का विरोध कर वे कैसा धर्म संरक्षण कर रहे हैं? दुर्भाग्यवश दिगम्बर जैनधर्म इस समय दो ओर से हो रहे आंतरिक आक्रमणों के कारण सिसक रहा है। एक ओर यह कहा जा रहा है कि पूजा, दान, व्रत, संयम आदि धर्म नहीं है और दिगम्बर मुनि महाराजों के स्थान पर अव्रती गृहस्थों को गुरु माना जाने लगा है। उनकी धारणा है कि इस युग में सच्चा दिगम्बर साधु कोई भी नहीं है। दूसरी ओर प्रत्येक नग्नवेषधारी साधु को सच्चा साधु मानते हुए शिथिलाचारी साधुओं को भी महिमामंडित करते हुए उनको अपने शिथिलाचार में प्रोत्साहित किया जाता है। कुछ साधु श्रावकों को धर्म तत्त्व से वंचित रखते हुए मंत्र-तंत्र अनुष्ठान पूजादि के द्वारा उनमें लौकिक सिद्धियों का लोभ उत्पन्न कर अपने अनुयायियों का समृह बना बैठे हैं। बहुसंख्यक भट्टारक भी इसी प्रकार अपने अस्तित्व के लिए श्रावकों को धर्म की वैज्ञानिकता से अपरिचित रखते हुए मंत्र-तंत्रादि क्रियाकांडों में उलझाए रखते हैं। ऐसे संकट के समय दिगम्बर जैनों की प्राचीनतम प्रतिनिधि संस्था महासभा का यह नैतिक दायित्व है कि वह समाज को संगठित कर योजनावद्ध तरीके से इस आध्यात्मिक, वैज्ञानिक, वीतराग दिगम्बर जैन तत्त्वज्ञान का प्रचार प्रसार करे। मेरी विनम्र प्रार्थना है कि इस प्रकार महासभा के मंच से ऐसे विघटनकारी प्रस्ताव पारित करने में आप शक्ति व्यय नहीं करें और सृजनात्मक सकारात्मक सोच के आधार पर समाज को संगठित कर समीचीन धर्म का संरक्षण करें। मुझे महासभा के यशस्वी अध्यक्ष एवं महामंत्री की पवित्र भावना और क्षमता पर गहरा विश्वास है । यह केवल पक्षव्यामोह ही है जो उन्हें भटका देता है। उन्होंने मुझे दो तीन बार समान विचारवाले धर्म श्रद्धालुओं को एकत्र कर विवादों से उपर उठकर संगठन को दृढ़ करने की अपनी पावन भावना बताई। अभी तक एक स्थान पर बैठकर विचार विमर्श का अवसर नहीं मिला। किंतु यदि हम ऐसा कर सके तो निश्चय ही महासभा को व्यापक उदार और विशाल बनाकर इसके साथ लगे "धर्म संरक्षणी" पद को सार्थक सिद्ध कर पायेंगे। मूलचन्द लुहाड़िया लाली मेरे लाल की, जित देखू तित लाल। लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल। सन्त कबीर - अप्रैल 2003 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524272
Book TitleJinabhashita 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size3 MB
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