SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनदीक्षा का पात्र कौन? मुनि श्री विशुद्धसागर जी आज प्राणी अपने आपको दु:खित अनुभव कर रहा है, । ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह महाव्रत कहलाते हैं। सुख की खोज में दौड़ रहा है पर खोज वहाँ रहा है जहाँ सुख है वह श्रेष्ठ मुमुक्षु जीव जिसके अंत: करण में वैराग्य के नहीं, जहाँ है वहाँ पर दृष्टि भी नहीं गयी। पर पदार्थों में, इन्द्रिय अंकुर स्फुट हुए हों, आत्महित की भावना से युक्त होकर मंगलोत्तम भोगों में, सुख की खोज करना गाय के सीगों से दुग्ध निकालना | शरणभूत आचार्य परमेष्ठी के चरणों में पहुँच जाता है । वह यह भी है। सत्यसुख ब्रह्मस्वरूप है। इन्द्रियों के तुच्छ सुखाभास को सुख | ध्यान रखता है कि मैं गुरु चरणों में समर्पित हो रहा हूँ। ये चरण स्वीकारना सबसे बड़ी अल्पज्ञता का द्योतक है। इन्द्रियजन्य सुख अब कभी नहीं छूटेंगे। जिसे गुरु बनाया है वह गुरु ही है। जैसे गुरु दुःखरूप है आचार्य भगवन् श्री कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं... शिष्य की परीक्षा करके स्वीकारता है वह योग्य है या नहीं, उसी सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं। प्रकार शिष्यता स्वीकार करने के पूर्व दीक्षार्थी के लिए भी वृद्ध जं इंदियेहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा। जनों से ज्ञान करके ही गुरु स्वीकारना चाहिए। जिसे स्वीकारा है प्रवचनसार १/७५ फिर छोड़ने की आवश्यकता नहीं, इसलिए साधक के लिए सर्वप्रथम अर्थ- जो पांच इन्द्रियों से प्राप्त हुआ सुख है वह सुख योग्य गुरु की खोज करना अनिवार्य है। कैसे आचार्य भगवन्त से दुःख रूप ही है, क्योंकि वह सुख पराधीन है, क्षुधा तृषादिबाधा | दीक्षा धारण करना चाहिए प्रवचनसार जी में कहा हैयुक्त है, असाता के उदय से विनाश होने वाला है, कर्म बन्ध का समणं गणिं गुण8 कुलरूववयोविसिट्ठमिट्ठदरं। कारण है। क्योंकि जहाँ इन्द्रिय सुख होता है वहाँ अवश्य रागादिक प्रवचनसार/३/३ दोषों की सेना होती है। उसी के अनुसार अवश्य कर्म धूलि लगती भावार्थ- जो उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ है उसकी सब है। और वह सुख विषम अर्थात् चंचलपन से हानि वृद्धि रूप है। लोग नि:शंक होते हुए सेवा करते हैं। जो उत्तम कुलोत्पन्न होगा आचार्य उमास्वामी ने इन्द्रिय सुख को दुखरूप ही कहा | उसके कुल की परिपाटी से ही क्रूर भावादिक दोषों का अभाव है- "दु:खमेव वा।" (तत्त्वार्थसूत्र/७/१०) निश्चय से होगा। इसलिए कुल की विशेषता होते हुए ही आचार्य इस प्रकार अंतरंग में वैराग्य भावना से युक्त होकर बाह्य होते हैं, आचार्य के बाहर से रूप की विशेषता ऐसी है कि देखने सुखों को दु:ख रूप जानकर भव्यजीव आत्मसुख की खोज में | से उनमें अंतरंग की शुद्ध अनुभव मुद्रा पायी जाती है, तो भी बाहर निकलता है, तब वह सुख को कैसे प्राप्त होता है? आचार्य कुन्दकुन्द के शुद्ध रूप कर मानों अंतरंग की बतलायी जा रही है। इस कारण महाराज लिखते हैं - रूप की विशेषता कर सहित होते हैं तथा वय (उम्र) करके __पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं। । विशेषता इस तरह है कि बाल, वृद्ध अवस्था में बुद्धि की विकलता (प्रवचनसार/३/१) | से रहित हैं तथा युवावस्था में कामविकार से बुद्धि की विकलता अर्थ- यदि तुम्हारी आत्मा भी दुख से मुक्त होने की होती है, उससे भी रहित हैं। ऐसी अवस्था की विशेषता लिए हुए अभिलाषा करती है, तो यतिधर्म को प्राप्त होओ। आचार्य कहे गये हैं और समस्त सिद्धांतोक्त मुनि की क्रिया के यति धर्म स्वीकार किये बिना किसी का कल्याण न हुआ आचरण करने तथा कराने में जो कभी भी पीछे दोष हुआ हो, है न होगा। जितने आज तक सिद्ध हुए हैं, व होंगे वे सब जिनमुद्रा उसको बतलानेवाले हैं, गुणों का उपदेश करने वाले हैं, इसलिए धारण करके ही । तीर्थंकर भगवान भी क्यों न हों, उन्हें भी दिगम्बरी अत्यंत प्रिय हैं साथ ही परनिंदा, स्वप्रशंसा, लोकेपणा, शिष्येपणा जैनश्वरी दीक्षा धारण करना पड़ती है। कुन्दकुन्द स्वामी सुत्तपाहुड रहित आचार्य भगवन्त होते हैं इत्यादि अनेक गुणों कर शोभायमान में कहते हैं जो आचार्य हैं, उनके पास जाकर भव्यवर मुमुक्षु जीव को नमस्कार ण वि सिज्झइ बत्थधरो, जिणसासणेजह वि होई तित्थयरो। करके प्रार्थना करना चाहिये - "हे प्रभो ! मैं संसार से भयभीत णग्गो हि मोक्खमग्गो, सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥ | हुआ हूँ सो मुझे शुद्धात्म तत्त्व की सिद्धि हेतु दीक्षा प्रदान करें।" अहो ! धन्य हैं वे जीव जिन्होंने अरिहन्त देव के द्वारा | तब आचार्य कहते हैं कि तुझे शुद्धात्मतत्व की सिद्धि स्वीकार किए गए जिन भेष को प्राप्त किया है। महाव्रतों को कराने वाली यह भगवती दीक्षा है, ऐसा कहकर वह मुमुक्षु आचार्य सामान्यजन धारण नहीं कर पाते हैं, महापुरुष धारण करते हैं। से कृपायुक्त किया जाता है। जिन आचार्य भगवन्त ने पूर्व में इसलिए मुनीश्वरों के व्रतों को महाव्रत कहते हैं अथवा यो कहें स्वगुरु से प्रायश्चित्त लिया है तथा अन्य साधुवर्ग को देते हुए देखा जो व्रत व्यक्ति को महान् बना देते हैं। वे अहिंसा, सत्य, अचौर्य, | | है. गुरु परम्परा तथा आर्ष आगम परम्परा के ज्ञाता हैं, कुशल 12 अप्रैल 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524272
Book TitleJinabhashita 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy