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अनुशासक, रहस्य ग्रंथों को समाचीन जानकार, साम्य स्वभावी । का अर्थ आगम में, शास्त्रसन्दर्भित भाषा कहा है। वाणी संयम, लोभादि कषायों से परे, नि:संग, नि:स्पृह वृत्ति के धारक आत्महित | जिनमुद्रा स्वीकार करने वाले के लिए अनिवार्य है, यह भेष तीर्थेश वांच्छक, दृढसंकल्पी, विचारशील, कानों के पक्के, निर्भीक, गम्भीर, का है, गणधर भगवन्तों के द्वारा भी स्तुत्य है। कोई सामान्य नट, समताशील, सहनशील, समानता चर्या में रखने वाले ऐसे आचार्य भट का भेष नहीं है। साधु का मौन ही सर्वश्रेष्ठ आभूषण है। यदि के चरणों में ही प्रव्रज्या धारण करना चाहिए, अन्य के यहाँ नहीं। मौन नहीं रख सकते, तो सत्य धर्म, भाषा समिति का पालन साथ ही पूज्य आचार्य भगवन्तों के लिए चाहिए कि भगवान् अवश्य ही होना चाहिए। सज्जनों की परीक्षा वचनों से ही होती है जिनेन्द्रदेव के स्वरूप को प्रदान करने में भावुकता का परिचय न अत: वचन संयम होना आवश्यक है। वचन के उपरांत आगम में दें।
कायशुद्धि का वर्णन है। जिनदीक्षा धारण करनेवाले की देहशुद्धि एक पाषाण की प्रतिमा को भगवान् बनाने के लिए कितना | अनिवार्य है। विचार करना पड़ता है! यही अवस्था दीक्षार्थी के विषय में
आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रवचन सार जी में जिनदीक्षा समझना चाहिए। आचार ग्रन्थों में स्पष्ट दीक्षायोग्य पात्रों का वर्णन | धारण करने वाले पुरुष के शरीर कुल आदि का कथन किया है - है। योग्यता देखकर ही दीक्षा प्रदान करना चाहिए। संख्या बढ़ाने | वे जानते हैं दीक्षा देना उतना श्रेष्ठ नहीं है अपितु जिन आगम की के साथ संयम, एवं आगमज्ञता भी बढ़ाना चाहिए। दीक्षार्थी के | आज्ञा का पालन करते हुए योग्य पात्र को देना महत्वशाली है। अन्दर लोकाचार है या लोकोत्तराचार, आध्यात्मिकता है या | जिसके माध्यम से जिनशासन में किसी भी प्रकार का विकार न भौतिकता, वैराग्य भाव है या भावुकता है, आत्मप्रभावना, धर्म उत्पन्न होने पाए। श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुए व्यक्ति ही जिन दीक्षा के प्रभावना की दृष्टि है या देह प्रभावना की, जिन शासन को कलंकित | पात्र होते हैं। तो नहीं करेगा, इन बातों को ध्यान में रखते हुए यह भी देखे कि दीक्षार्थी के लिए कल्याणांग होना अतिआवश्यक है, यानि गुरु के प्रति श्रद्धा-विश्वास कितना है। १. (प्रथम लक्षण) शिष्य | कि निरोग शरीर होना चाहिए। शरीर में किसी भी प्रकार का रोग की गुरु में भक्ति है २. भव से भयभीत ३. विनयशीलता ४. | हो तो सर्वप्रथम उसका उपचार करा लेना चाहिए, जिससे कि धार्मिकता ५. शांत स्वभाव, नि:स्पृहता, शिष्टाचार-परायणता ये संयम पथ में किसी भी प्रकार का गति-अवरोध न रहे। एक अनिवार्य गुण हैं। ऐसे श्रेष्ठ गुणों से युक्त व्यक्ति को शिष्य बनाना | सामान्य सर्विस में जाने वाले व्यक्ति का शरीरपरीक्षण होता है, तब श्रेष्ठ है, परन्तु गुण हीनों के गुरु बनना श्रेष्ठ नहीं है।
यह तो मोक्ष मार्ग की सर्विस है। रोगी व्यक्ति को न दीक्षा लेनी जो दीक्षा के पूर्व ही अपने लोकाचार की भावना प्रकट चाहिए, न दीक्षादायक को देनी चाहिए। हाँ यदि अन्तिम समय कर रहा हो, आगम के विपरीत चर्या की ओर जा रहा हो, पद सल्लेखना की अवस्था हो, भाव निर्मल हो, उस समय दीक्षां अवश्य प्रतिष्ठा की शर्त रख रहा हो, यहाँ तक कि दीक्षा लेने के पूर्व ही ही धारण करनी चाहिए। गुरु-भक्ति-विहीन हो, ऐसा दीक्षार्थी क्या आत्म कल्याण करेगा? | जो अतिबाल, वृद्ध, मानसिक-विकलांग हो, वह जिनदीक्षा क्या धर्मगुरु के यश को वर्धमानता दिला पायेगा?
का पात्र नहीं है। जो उम्र तप करने में, उपसर्ग, परिषह सहन करने इस प्रकार के पात्र को दीक्षा के अयोग्य ही समझना में समर्थ हो उसी अवस्था में निर्ग्रन्थ-निष्क्रमणता को प्राप्त करना चाहिए। जिनदीक्षा धारण करने वाले व्यक्ति के मन, वचन, काय चाहिए। साधु अवस्था को प्राप्त करके प्रसन्नचित्त रहना चाहिए, की शुद्धि का होना परम आवश्यक है। त्रयशुद्धि के अभाव में वह | हीन दीन जैसा मुख नहीं करना चाहिए। यदि साधना का आनंद साधक न स्वकल्याण ही कर सकेगा, न परकल्याण। जिन शासन | होगा तो मुख मलीन हो ही नहीं सकता, मुख मलीन है तो वह की प्रभावना बनाये रखने हेतु दीक्षादायकों के लिए दीक्षार्थी की | अंतरंग अशुद्धता का प्रतीक ही समझना चाहिए अत: साधक के त्रयशुद्धि पर दृष्टिपात करना चाहिए।
लिए प्रमुदितमन होना चाहिए। मनोवृत्ति निर्मल है तो चारित्र भी निर्मल होगा। चित्त की | कुल, लोक में दुराचार-अपवाद रहित होना चाहिए। यदि शुद्धि ही चारित्र की शुद्धि है। जिसका चित्त अशुद्ध है उसका | अंग में ऐसा कोई विकार हो, जो जिन मुद्रा में बाधक हो तो उसे चारित्र कितना शुद्ध होगा? सर्वज्ञ के ज्ञान का विषय है, फिर भी क्षुल्लक, ऐलक दीक्षा ही धारण करनी चाहिए, मुनि दीक्षा धारण बहिरंग आचरण को देखकर अंतरंग परिणामों का आचार्य परमेष्ठी करने की अनधिकृत चेष्टा न करे। मुनि बनना उतना श्रेष्ठ नहीं, अनुमान लगा लेते हैं। वचन शुद्धि से तात्पर्य दीक्षार्थी की भाषा, जितना कि आगम-आज्ञा-पालन श्रेष्ठ है। भावनाएँ निर्मल रखे, मृदुल, गंभीर, वैराग्यसम्पन्न होना चाहिए। सारगर्भित हो, जो | अपने कर्मों के विपाक का चिन्तवन करे। मेरे अशुभ कर्म का अभद्रों के अंदर भी भद्रता उत्पन्न करा दे। वंचना रहित भाषा उदय है जो कि हमें निर्दोष शरीर की प्राप्ति नहीं हुई, परन्तु खिन्नता साधक पुरुषों की हुआ करती है। साथ ही हास्यमिश्रित, सावद्य, को प्राप्त न हों, ऐसा सम्यक् पुरुषार्थ करे। पुन: निर्दोष देह को प्राप्त कर्कश, मर्मभेदी, ग्रामीण भाषा का प्रयोग नहीं होना चाहिए। कर संयम साधना कर विदेही अवस्था को प्राप्त हो जाये, इस साधक की भाषा अनुवीचि भाषा हुआ करती है। अनुवीचिभाषा | प्रकार चिन्तवन करना चाहिये तथा जिन्होंने निर्दोष अवस्था को
अप्रैल 2003 जिनभाषित 13
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