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प्राप्त किया है उन्हें शीघ्र संयम पथ पर गमन कर देना चाहिए। क्या । चाहिए। मुनि मुद्रा को प्राप्त करके भी यदि किसी ने उसके विपरीत मालूम पुन: यह अवस्था प्राप्त हुई या नहीं। जैनेश्वरी दीक्षा स्वेच्छाचार आचरण किया, तो वह तीव्र कर्मास्रव करके दुर्गति का पात्र होगा, से परे हुआ करती है, यह भेष आत्महितार्थ ही स्वीकार किया वह जिनदर्शन का शत्रु है। कारण यह है कि हीन आचरण को जाता है। परहित हो जाए सहजता में तो कोई निषेध भी नहीं है, देखकर जन समूह की आस्थाएँ शिथिल हो जायेंगी जैन मुनियों के परन्तु सर्वथा परहित में लगे रहना निज हित को छोड़कर, इसे | प्रति । अत: मेरा उन परम पूज्यपाद आचार्य भगवन्तों के चरणों में जिनागम स्वीकार नहीं करेगा, जिनदीक्षा चैतन्य-मालिनी, त्रयभक्तिपूर्वक नमोस्तु निवेदित है कि स्वपर कल्याणी जैन दीक्षा परमानन्दशालिनी, भगवती आत्मा की प्राप्ति हेतु धारण की जाती सुपात्र को ही प्रदान करें, अपात्र को त्रिलोकपूज्य मुद्रा प्रदान न है। जिनभेष प्रचार के लिए नहीं आचार के लिए स्वीकार किया | करें। पुन: उन बड़भागी जीवों की वंदना करता हूँ, जिन्होंने भोगों जाता है, इसे धारण कर इच्छाओं की पूर्ति में नहीं लगाना, अपितु की ज्वाला से बचकर आत्मयोग को धारण किया है, जिनमुद्रा इच्छाओं का निरोध करना है।
स्वीकार कर श्रमण संस्कृति की परम्परा को अग्रिम जीवन्त रूप अहो! धन्य हैं वे जीव, जिन्होंने कलिकाल में भी मुनि | प्रदान किया है। ऐसे सम्पूर्ण वीतराग, निर्दोष, संयमाराधक, श्रमण मुद्रा को स्वीकारा है। संसार में इन्द्रियभोगों के लिए अनेक भेष हैं | संतों के चरणों में नमोस्तु तथा पूज्यपाद गुरुदेव के चरणों की परन्तु आत्म सुख के उपभोग का एक मात्र निर्ग्रन्थ भेष है। ऐसी | वंदना करता हूँ, जिनके प्रसाद से यह निर्ग्रन्थ अवस्था मुझे प्राप्त पावन मुद्रा को प्राप्त कर ख्याति, लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा में नहीं लगाना | हुई।
रहीम के रत्न
जो रहीम उत्तम प्रकृत, का करि सके कुसंग। चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥
जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटाय। ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सों खाय॥
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय। बारे उजियारो लगै, बढ़े अँधेरो होय॥
जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय। बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अँधेरो होय॥
धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात । जैसे कुल की कुलबधू, चिथड़न माँह समात॥
प्रीतम छबि नैनन बसी, पर छबि कहाँ समाय। भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिर जाय॥
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अप्रैल 2003 जिनभाषित -
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