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________________ अज्ञान-निवृत्ति पं. माणिकचन्द जैन, न्यायाचार्य श्रीयुत बाबू नेमीचन्द जी वकील, सहारनपुर ने केवलज्ञान । स्तम्भनशक्ति और बहिरंग वेलंधर देवों के मजबूत नगर व्यवस्थित के फलविषय में एक प्रश्न पूछा है, जिसका उत्तर दूसरे जिज्ञासुओं | हो रहे मानने पड़ते हैं। धर्मद्रव्य कालत्रय में अधर्म नहीं हो सकता के लाभार्थ प्रश्नसहित नीचे दिया जाता है - है। सर्वार्थसिद्धि के देव या लौकान्तिक देव भविष्य में नारकी या प्रश्न - केवलज्ञान का फल अज्ञान की निवृत्ति हो जाना | तिर्यंच पर्यायको नहीं पा सकते हैं। रूप-गुण कालान्तर में रसप्रथम क्षण में तो ठीक ऊँचता है, क्योंकि बारहवें गुणस्थान के अन्त | गुण नहीं हो सकता है। आज महापद्म का जन्म नहीं होता है। इन में अज्ञान है, केवलज्ञान ने उत्पन्न होकर उस अज्ञान की निवृत्ति की, | सब कार्यों के लिये अनेक प्रागभाव, अन्योन्या भाव और अत्यन्ता किन्तु द्वितीयादि क्षणों में केवलज्ञानों का फल अज्ञान-निवृत्ति क्यों भाव की बलवत्तर भीतें खड़ी हुई हैं। बनारसी दलालों के समान ये माना जाय? जबकि वहाँ कोई अज्ञान अवशेष ही नहीं है? सब व्यक्त-अव्यक्त रूप से साथ लगे हुए हैं। अगुरुलघु-गुण भी उत्तर - पाँचों प्रमाणज्ञानों और भले ही तीनों कुज्ञानों को अन्य व्यावृत्तियों के करने में अनुक्षण अड़कर जुटा हुआ है। मिला लिया जाय, आठों ही ज्ञान सदा अज्ञानकी निवृत्ति करते ही ___"सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्याऽपोहव्यतिक्रमे।" रहते हैं, जैसे अग्नि सदा ही निकटवर्ती योग्य शीतका निवारण आप्तमीमांसा करती रहती है, अथवा सूर्य हमेशा तिरछा पचास हजार, ऊपर सौ इत्यादि आचार्य वाक्य भी इसी बात को पुष्ट करते हैं। योजन और नीचे १८०० योजन क्षेत्र के अन्धकार को मेटता रहता छेदोपस्थापना-संयम के मर्मस्पर्शी विद्वान् इस तत्त्व को शीघ्र समझ जावेंगे। यों केवलज्ञान को सर्वदा अज्ञाननिवृत्ति करनी पड़ती है। है। उदयकाल का सूर्य हो या दोपहर का, उसको शक्तिपूर्वक यह श्री माणिक्यनन्दी, विद्यानन्द स्वामी और प्रभाचन्द्र ने अनेक युक्तियों तमोनिवृत्ति करनी ही पड़ेगी। एक सैकिण्ड की भी ढील कर देने से अज्ञाननिवृत्ति को ज्ञान से अभिन्न ही बतलाया है और सिद्ध पर राक्षसोपम अंधकार तत्काल आ धमकेगा। किया है। पहिले क्षण का दीपक और लगातार घन्टों तक जल रही अज्ञान-निवृत्ति करते रहना ज्ञान का प्राण है। इसी से मध्यवर्ती दीपक की लौ भी उस तमोनिवृत्तिको सतत करते ही आचार्य महोदय ने "अज्ञाननिवृत्तिर्हानोपादानोपेक्षाश्च फलम्' रहते हैं। यदि मध्यवर्ती द्वितीयादि क्षणों में तमोनिवृत्ति न हो तो (परीक्षामुख) वही निविड़ तम तम आ धमकेगा। अत: प्रकाशस्वभाव उपेक्षाफलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः। तमोनिवृत्तिकी तरह स्वार्थनिर्णीति-स्वभाव ही अज्ञाननिवृत्ति है। पूर्वावाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे। आप्तमी. महान् नरपुङ्गवों में भी कुकर्म करने की योग्यता है, परन्तु इस प्रकार के वाक्यों द्वारा अज्ञान निवृत्ति को प्रमाण का | अपने स्वभावों के अनुसार महान् पुरुषार्थ करते हुये उन पाप कर्मों साक्षात् फल माना है। से बचे रहते हैं। पुरुषार्थ में ढील हो जाने से माघनन्दी और समकालीन उपज रहे दो पदार्थों में भी कार्यकारण भाव | द्वीपायन मुनि अपने ब्रह्मचर्य और क्षमाभाव से स्खलित हो गये थे। बन जाता है। जैसा कि अमृतचन्द्र सूरि के निम्न वाक्यसे प्रकट है- | श्री अकलंकदेव ने अष्टशती में "यावन्ति पररूपाणि, प्रत्येक कारण-कार्य-विधानं समकालजायमानयोरपि हि। तावन्तस्ततः परावृत्तिलक्षणा: स्वभावभेदाः प्रतिक्षणं प्रत्येतव्याः" दीपप्रकाशयोरिव... (पुरुषार्थसिद्धयुपाय ३४)। इत्यादि प्रमाणों द्वारा वस्तुतत्त्वको पुष्ट किया है। अभावात्मक किसी भी ज्ञानद्वारा तत्क्षण अज्ञान की निवृत्ति अवश्य हो | धर्मों के जौहरों का अन्तः निरीक्षण कीजिये। . जाती है। तभी तो केवलज्ञानी के अज्ञानभाव का होना असंभव है।। तत्त्वों का केवलज्ञान और अज्ञान दोनों परस्पर में व्यवच्छेद योग्यता को टाला नहीं जा सकता। रूप धर्म हैं। दोनों में से किसी एक का विधान कर देने पर शेष का यदि द्रव्यार्थिकनय या निश्चयनय एकेन्द्रियको सिद्ध समान निषेध स्वत: हो जाता है। केवल ज्ञान के स्वीकार के साथ लगे कहते हैं, तो सिद्धों को भी शक्तिरूप से एकेन्द्रिय हो जाने की हाथ ही अज्ञान निवृत्ति न मानने पर "वदतो व्याघात" दोष आता योग्यता कह देने में उनको क्या संकोच हो सकता है? बात यह है है। अत: केवलज्ञान का अज्ञाननिवृत्ति होना शाश्वत अनिवार्य कि जो कार्य नहीं हो रहा है उसको रोकने के लिये दृढ़ बाँध बँध फल है। भावात्मक कारण, कार्यों में भले ही क्षणभेद हो। किन्तु रहे हैं ऐसा मानना ही पड़ेगा। लवणसमुद्र का पानी जो ग्यारह प्रतिबन्धकाभावरूप कारण और प्रागभाव-निवृत्त्यात्मक कार्य इन हजार अथवा सोलह हजार योजन उठा हुआ है, यदि मचल जाय कारण कार्यों में क्षणभेद नहीं है। प्रकरण में ज्ञानावरणक्षय तो जम्बूद्वीप का खोज खो जाय। किन्तु "न भूतो न भावी न वा (केवलज्ञान) और अज्ञाननिवृत्ति में क्षणभेद नहीं है। दोनों का वर्तमानः।" पानी को वहीं डटा हुआ रखने के लिये अंतरंग | समय समय एक है और दोनों एक ही हैं। 'अनेकान्त' वर्ष ६ से साभार अप्रैल 2003 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524272
Book TitleJinabhashita 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size3 MB
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