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सम्यक्चारित्र की उपादेयता
मोक्ष के साक्षात् उपायों में चारित्र का सर्वातिशायी महत्त्व है। अभिप्राय के सम्यक् अथवा मिथ्या होने से चारित्र सम्यक् या मिथ्या हो जाता है। सम्यक्चारित्र मुक्तिलाभ कराता है और मिथ्याचारित्र अनन्त संसार का वर्द्धन कराने वाला है। चारित्र में सम्यक्पना सम्यग्दर्शन के द्वारा ही आता है। सम्यक्त्व चारित्ररूपी महल की नींव है। नींव जितनी मजबूत होती है, प्रासाद उतना ही स्थिर होता है, वैसे ही सम्यग्दर्शन जितना सुदृढ़ होगा उतना ही साधक का चारित्र स्थिर होगा । चारित्र एक विराट् वृक्ष है तो सम्यक्त्व उसका मूल है। मूल के अभाव में वृक्ष चिरस्थायी नहीं रह सकता, आँधी और तूफान में वह धराशायी हो जाता है। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के अभाव में चारित्र की निर्मलता नहीं हो सकती है। सम्यग्दर्शन के सुदृढ़ होने पर सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति ही नहीं होती, वरन् विकास भी होता है। सम्यक्चारित्र का अर्थ समझने के पूर्व चारित्र की व्युत्पत्ति आदि को जानना भी आवश्यक है ।
तत्त्वार्थ की प्रतीति के अनुसार क्रिया करना चरण या चारित्र कहलाता है, अर्थात् मन, वचन, काय से शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना चरण है। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में लिखा है चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम्।' जो आचरण करता है अथवा जिसके द्वारा आचरण किया जाता है अथवा आचरण करना मात्र चारित्र है। भगवती आराधना में कहा है 'चरति याति तेन हितप्राप्तिः अहितनिवारणञ्चेति चारित्रम्' जिससे हित को प्राप्त करते हैं और अहित का निवारण करते हैं उसको चारित्र कहते हैं अथवा 'चर्यते सेव्यते सज्जनैरिति वा चारित्रम् सामायिकादिकम् ' सज्जन जिसका आचरण करते हैं, वह चारित्र है । इस प्रकार शब्द का विशेष अर्थ और महत्त्व जानकर चारित्र की परिभाषा पर विचार करना अपेक्षित है, सो आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी द्वारा प्रतिपादित चारित्र का स्वरूप प्रस्तुत किया जा रहा है
हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुनसेवापरिग्रहाभ्याञ्च । पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥
रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४९
हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुनसेवन और परिग्रह इन पाँचों पापों की भावात्मक प्रणालिकाओं क्रोध, मान, माया, लोभ, मोहादि सतत प्रवाहित कुभावों से विरक्त होना चारित्र कहा जाता है, जिसका आचरण सम्यग्ज्ञानी मानव करता है।
चारित्र की प्राप्ति ही मानव जीवन की सार्थकता है। चारित्र ही वास्तव में धर्म है, जैसा कि आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है
16 अप्रैल 2003 जिनभाषित
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प्रवचनसार गाथा ७
चारित्र वास्तव में धर्म है और जो धर्म है, वह साम्य है, ऐसा जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा गया है। साम्य ही यथार्थत: मोह और क्षोभरहित आत्मा का परिणाम हैं।
डॉ. श्रेयांस कुमार जैन
चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोति णिद्धिट्टो । मोहवोहविहीणो परिणामो अप्पणो ह समो ॥
आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी भी चारित्र की महत्ता बतलाते हुए कहते हैं
चारित्रं भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ॥ पुरुषार्थसिद्धयुपाय ३९ कारण यह है कि समस्त पाप युक्त योगों के दूर करने से चारित्र होता है। वह चारित्र समस्त कषायों से रहित होता है, निर्मल होता है। जो राग-द्वेष रहित वीतराग होता है, वह चारित्र आत्मा का परिणाम होता है।
यहाँ आत्मा में लीनता का मुख्य हेतु सम्यक्चारित्र को ही बताया गया है । चारित्र के सम्यक्पने में मुख्य भूमिका सम्यग्दर्शन की होती हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती है, जैसा कि जिनशासन की महती प्रभावना करने वाले आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी ने कहा है
कहा है
जिस प्रकार बीज के बिना वृक्ष की उत्पत्ति नहीं हो सकती, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि नहीं होती है।
सम्यग्दर्शन को तो कर्णधार ही स्वीकार किया है, उन्होंने
विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः । न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३९
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दर्शनज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते ।
दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्ष्यते ॥
रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३६
जिस प्रकार किसी भी नाव का जलाशय के उस पार जाना खेवटिया के अधीन होता है, उसी प्रकार संसारी जीव का संसार समुद्र को पार करना सम्यग्दर्शन के अधीन होता है।
मोक्षमार्ग में ज्ञान और चारित्र का कम महत्त्व नहीं है, किन्तु इनमें सम्यक् पना सम्यक्त्व से ही आता है, जैसा आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है
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