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________________ को आत्मानुभव का प्रबल साधक बन जाती है। का अभिप्राय है "वर्तमान पर्याय में भावी पयार्य का अभाव"। फिर एक बात और भी है। अगर किसी को बिठाना दूसरों इसका मतलब है कि जो उन्नत है वह गिर भी सकता है और जो को अनुचित मालूम पड़े अथवा स्थान इतना भर जाय कि फिर | पतित है वह उठ भी सकता है। और यही कारण है कि सभी कोई जगह ही अवशेष न रहे, तो ऐसे में मुनि महाराज वहाँ से | आचार्य, महान् तपस्वी भी त्रिकालवर्ती तीर्थंकरों को नमोस्तु प्रस्तुत उठना पसन्द करेंगे अथवा उपसर्ग समझ कर बैठे रहेंगे, तो भी | करते हैं और भविष्यत् काल के तीर्थंकरों को नमोस्तु करने में उनकी मुद्रा ऐसी होगी कि देखनेवाला भी उनकी साधना और | भावी नय की अपेक्षा सामान्य संसारी जीव भी शमिल हो जाते हैं तपस्या को समझ कर शिक्षा ले सके। बिच्छू के पास एक डंक | तब किसी की अविनय का प्रश्न ही नहीं है। आपकी अनंत शक्ति होता है। जो व्यक्ति उसे पकड़ने का प्रयास करता है, वह उसको | को भी सारे तपस्वियों ने पहिचान लिया है, चाहे आप पहिचानें डंक मार ही देता है। एक बार ऐसा हुआ। एक मनुष्य जा रहा था, अथवा नहीं। आप सभी में केवलज्ञान की शक्ति विद्यमान है यह बात उसने देखा कीचड़ में एक बिच्छू फँसा हुआ है। उसने उसे हाथ | भी कुन्दकुन्दादि महान् आचार्यों द्वारा पहचान ली गई है। से जैसे ही बाहर निकालना चाहा, बिच्छू ने डंक मारने रूप प्रसाद अपने विनय गुण का विकास करो। विनय गुण से असाध्य ही दिया, और कई बार उसे निकालने की कोशिश में डंक मारता | कार्य भी सहज साध्य बन जाते हैं। यह विनय गुण ग्राह्य है, रहा, तब लोगों ने उससे कहा- "बावले हो गये हो। ऐसा क्यों उपास्य है, आराध्य है । भगवान् महावीर कहते हैं- "मेरी उपासना किया तुमने?""अरे भाई बिच्छू ने अपना काम किया और मैंने | चाहे न करो, विनय गुण की उपासना जरूर करो। विनय का अर्थ अपना काम किया, इसमें मेरा बावलापन क्या?" उस आदमी ने | यह नहीं है कि आप भगवान् के समक्ष तो विनय करें और पासये उत्तर दिया। इसी प्रकार मुनिराज भी अपना काम करते हैं । वे तो | पड़ोस में अविनय का प्रदर्शन करें। अपने पड़ौसी की भी यथायोग्य मंगल की कामना करते हैं और गाली देनेवाले उन्हें गाली देने का | विनय करो। कोई घर पर आ जाये तो उसका सम्मान करो।" काम करते हैं। तब तुम कैसे कह सकते हो कि साधु किसी के | "मानेन तृप्ति न तु भोजनेन" अर्थात् सम्मान से तृप्ति होती है, प्रति अविनय का भाव रख सकता है? भोजन से नहीं, अत: विनय करना सीखो, विनय गुण आपको शास्त्रों में अभावों की बात आई है। जिसमें प्राग्भाव का | सिद्धत्व प्राप्त करा देगा। तात्पर्य है "पूर्व पर्याय का वर्तमान में अभाव" और प्रध्वंसाभाव । 'ममग्र' (चतुर्थखण्ड) से उद्धृत हार्मोनल दूध पीने से नपुंसकता का खतरा बढ़ा धड़ल्ले से बिक रहे प्रतिबंधित ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन सावधान ! दूधवाला कहीं,आपके जीवन भर की खुशियाँ छीनकर तो नहीं ले जा रहा। यदि आपकी शक्ति क्षीण होती जा रही है तो तय मानिए कि आपको नपुंसकता की बीमारी ने घेर लिया है। दूधवाले पर नजर रखिए और दूषितं दूध पीना बंद कर दें। गौरतलब है कि घर-घर यह बीमारी पहुँचाने का ठेका ले रखा है जिले के मेडीकल स्टोर संचालकों ने। दरअसल इन दिनों अधिकांश मेडीकल स्टोरों पर प्रतिबंधित 'ऑक्सीटियोसिन' इंजेक्शन धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं। जल्दी व अधिक दूध निकालने के प्रलोभन में दुधारू पशुओं को इंजेक्शन लगाये जा रहे हैं। यह इंजेक्शन मात्र 75 पैसे में आसानी से पशु मालिकों को मिल जाता है। शाहगढ़ प्रतिनिधि के अनुसार पुश चिकित्सालय में पदस्थ डॉ. खान ने बताया कि आक्सोटियोसिन हार्मोनल इंजेक्शन है। यह इंजेक्शन दुधारू जानवरों के शरीर पर दुष्प्रभाव डालता है और दूध में मौजूद पौष्टिक तत्त्वों को नष्ट कर देता है। दूषित दृध के जरिए मनुष्य के शरीर में पहुँचने वाले हार्मोनल मनुष्य की कामुक शक्ति क्षीण करते हैं। यह दूषित दूध भविष्य में नपुंसकता की बीमारी का सबब बन सकता है। वहीं बच्चों के स्वास्थ्य पर इसका घातक असर होता है। बच्चों का विकास अवरुद्ध हो जाता है। ज्ञातव्य हो कि न्यायालय के आदेश के बाद इस इंजेक्शन को प्रतिबंधित किए जाने के बाद मेडीकल स्टोर संचालकों को हिदायत दी गई थी कि चिकित्सक द्वारा लिखी पर्ची पर आवश्यकतानुसार इंजेक्शन बेचा जाना चाहिए। परंतु मेडीकल संचालकों की मनमानी पर जिला प्रशासन व औषिधी नियंत्रक के उदासीन रवैये के चलते लगाम नहीं लगा पा रही। वहीं इस इंजेक्शन का उपयोग करने वाले पशुमालिकों का तर्क है कुछ दुधारू जानवरों की आदत होती है कि जब तक उन्हें भरपेट चारा नहीं मिल जाता दूध नहीं देते। और गांव से शहर तक आना और ग्राहकों को समय पर दूध उपलब्ध कराना पड़ता है। इसी मजबूरी के चलते इन इंजेक्शनों का इस्तेमाल करना पड़ता है। वहीं जिन दुधारू पुशओं के बच्चे मर जाते हैं, उन्हें बगैर इंजेक्शन लगाए दुहना मुश्किल होता है। 'दैनिक जागरण' भोपाल २१ फरवरी २००३ -अप्रैल 2003 जिनभाषित १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524272
Book TitleJinabhashita 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size3 MB
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