SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कार्यकारण-व्यवस्था चाहे सांसारिक क्षेत्र हो या पारमार्थिक क्षेत्र, सर्वत्र जो भी कार्य सम्पन्न होते हैं, वहाँ कारणपूर्वक ही कार्य सम्पन्न होते हैं। किसी भी कार्य का जो निश्चित कारण होता है, उस कारण की उपेक्षा करके वह कार्य न कभी सम्पन्न हुआ, न भविष्य में सम्पन्न किया जा सकता है। जैसे किसी भूखे व्यक्ति को अपनी क्षुधाशमन करने के लिये रोटी बनाना है। तब रोटी तो हुई कार्य और आटा हुआ कारण। जब तक आटा नहीं होगा, तब तक रोटी बनाना, रोटी प्राप्त करना संभव ही नहीं है। अतः रोटी बनाने के लिए आटे का सद्भाव नियमतः आवश्यक है। आज तक किसी ने भी आटे के अभाव में अथवा आटे का अभाव करके रोटी नहीं बनाई है, न बनाते हुए किसी अन्य व्यक्ति को देखा होगा। उपर्युक्त उदाहरण से हम समझ सकते हैं कि नियामक कारण का ( साधक कारण का ) अभाव करके कोई भी कार्य सम्पन्न करना संभव नहीं है। शंका- इस प्रकार की कार्य कारण व्यवस्था के नियम में भी कोई कारण है क्या? समाधान- कोई भी कारण नहीं, यह तो है, वस्तु का स्वभाव है। शंका- कार्य किसे कहते हैं? समाधान- जो कर्त्ता के द्वारा किया जाता है, उसे कार्य कहते हैं । शंका- कारण किसे कहते हैं? समाधान- जिसके होने पर कार्य होता है, जिसके नहीं होने पर इष्ट कार्य नहीं होता है, वह कारण कहलाता है। अध्यात्म में कारण दो प्रकार के कहे गये हैं- १. उपादान कारण २. निमित्त कारण । वस्तु व्यवस्था शंका- उपादान कारण किसे कहते हैं? समाधान- जो कारण, कार्य रूप में परिणमित होता है, वह उपादान कारण कहलाता है, जैसे रोटी के लिये आटा । शंका- निमित्त कारण किसे कहते हैं ? समाधान- जो कारण स्वयं कार्य रूप में परिणमित तो नहीं होता है, परंतु कार्य के होने में सहयोगी अवश्य होता है। जैसे रोटी बनाने में चकला, बेलन, तबा आदि । अन्य प्रकार से भी कारण के भेद देखे जाते हैं, जैसे १. साधक कारण २. बाधक कारण । Jain Education International शंका- साधक कारण किसे कहते हैं ? समाधान- जो कारण कार्य रूप में परिणमन करता है अथवा कार्य के सम्पन्न होने में सहयोगी हुआ करता है। जैसे रोटी निर्माण के लिए चकला, बेलन आदि । 10 अप्रैल 2003 जिनभाषित मुनि श्री निर्णयसागर जी शंका- बाधक कारण किसे कहते हैं ? 1 समाधान- जो कारण कार्य रूप परिणमन में किसी प्रकार सहयोगी तो होता नहीं है, परन्तु कार्य का बाधक सिद्ध होता है। बाधक कार्य के सद्भाव में इष्ट कार्य संभव नहीं हो सकता है। जैसे कमल के खिलने में रात्रि, रोटी बनाने के लिये अनाज के टुकड़े अथवा चोकर । शंका- एक कारण से एक ही कार्य सम्पन्न हो सकता है। अथवा अनेक कार्य ? समाधान- न्याय ग्रंथों में कहा है " एककारणेनानेक कार्यसम्भवाद् वह्निवत्" अर्थात् एक कारण से अनेक कार्य संभव हो सकते हैं अग्नि के समान। एक अग्नि कारण से प्रकाश, प्रताप, पाचकत्व कार्य संभव देखे जाते हैं। इसी प्रकार आटे के द्वारा रोटी बनती है, हलुआ भी बनता है, कढी भी बनती है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि साधक कारणों का अभाव करके किसी भी कार्य को सम्पन्न नहीं किया जा सकता है। यही कारण कार्य-व्यवस्था जैनदर्शन में हमेशा रही है, कम से कम स्वाध्याय करनेवाले साधर्मी बंधुओं को अवश्य ही समझ लेना चाहिये। किंतु स्वाध्याय करते हुए भी भटकना नहीं चाहिये। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज स्वाध्याय के प्रसंग में हमेशा कहते हैं दुकान घर की हो सकती है, दुकान में विक्रय होने वाला माल भी घर का हो सकता है, विक्रय करने वाला व्यक्ति घर का हो सकता है, परंतु दुकान में तराजू, बाँट, लीटर, मीटर कभी भी घर के नहीं होने चाहिये। यदि तराजू बाँट लीटर, मीटर घर के बना लिये तो अपराध माना जावेगा । उसे शासन-प्रशासन द्वारा दण्डित किया जावेगा। अतः अच्छा होगा कि सरकारी नियमों की तरह जैन दर्शन के पढ़ने-पढ़ाने वाले जैन दर्शन के नियमों का पालन करें। यही सच्चे श्रावक की पहचान होगी। अन्यथा शास्त्र स्वाध्याय करके कराके भी भटक सकते हैं। सही कार्यकारण-व्यवस्था की जानकारी के बिना शास्त्र स्वाध्याय करना कराना वरदान नहीं अभिशाप होगा। वर्तमान (२००, २५० वर्षों) के कुछ शास्त्र स्वाध्यायकारों ने पूर्व आचार्यों की वाणी को न समझते हुए कार्यकारण व्यवस्था को ही बिगाड़ दिया है। हम ऊपर समझ कर आये हैं कि कारण के सदभाव में कार्य सम्पन्न होता है, न कि कारण के अभाव में । जैसे अग्नि के अभाव में न प्रकाश होगा, न प्रताप होगा। कार्य कारण व्यवस्था को नहीं समझने वाले विद्वान् लोगों का कहना है कि शुभोपयोग का अभाव शुद्धोपयोग का कारण है, और शुद्धोपयोग केवलज्ञान का कारण है। यहाँ एक जगह अभाव को कारण माना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524272
Book TitleJinabhashita 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy