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गये तो यक्ष सर्प रूप में महाराज श्री को मिला। इस गुफा में चैत्यालय निकालने का अंतराल कम से कम पांच वर्ष का होना जरूरी है, परन्तु मुनिश्री पांच वर्ष के अंतराल के पूर्व ही गुफा में चले गये थे फिर भी अपनी प्रबल इच्छा शक्ति एवं अपूर्व धर्म साधना से चैत्यालय को गुफा से बाहर श्रद्धालुओं के लिए दर्शनार्थ निकाल कर लाये थे । यह चैत्यालय पहले भी परमपूज्य आचार्य शांति सागर जी महाराज, देशभूषण जी महाराज एवं अन्य दो-तीन मुनि महाराज भूगर्भ से बाहर ला चुके थे। परन्तु 20 जून सन् 1999 में मुनिश्री सुधासागर जी महाराज भूगर्भ के चतुर्थ तल से पहलीबार एक रत्नमयी चतुर्थकालीन अद्वितीय चैत्यालय पूर्ववर्ती चैत्यालय के साथ लेकर आये जिसमें सभी प्रकार के अमूल्य रत्नों के लगभग एक सौ एक जिनबिम्ब थे । लाखों करोड़ों लोगों ने चैत्यालय के दर्शन, अभिषेक से अपना जीवन धन्य किया। इस बार भी वही यक्ष सर्प रूप में महाराज श्री को मिला एवं मुनिश्री के दोनों पैरों के बीच से इस प्रकार निकला मानों मुनि श्री की तपस्या एवं साधना को नमोस्तु कर गया हो।
संघी जैन मंदिर में मुनिश्री के पदार्पण के पूर्व सभी मूर्तियों पर धूल चढ़ रही थी, कोई दर्शन करने भी नहीं आता था। मंदिर में मात्र चार पांच सौ रुपये की सिलक थी, पर मुनिश्री ने मंदिर के सारे वास्तु दोषों को दूर करवाया जिससे आज यह मंदिर एक अतिशय क्षेत्र के रूप में सारे भारत में जाना जाने लगा है। कई वर्षों से कई नये निर्माण कार्य चल रहे हैं एवं मंदिर में लाखों रुपये का ध्रुव फंड निर्मित हो गया है। सैकड़ों यात्री रोज ही दर्शन के लिए यहाँ पहुँचते हैं। यह सब मुनिश्री की तपश्चर्या का ही प्रताप है, जो वे यक्षों से भी सामना करने का साहस कर लेते हैं ।
सांगानेर के पूर्व मुनिश्री सुधासागर जी महाराज जिस क्षेत्र पर पहुँचे, चाहे वह देवगढ़, बजरंगगढ़, सौरोनजी, सिरोंज, नसिया, बैनाड़, भव्योदय (रैवासा), ललितपुर क्षेत्रपाल जी, अशोक नगर, सुदर्शनोदय आवां अजमेर, नारेली आदि कोई भी क्षेत्र हो सभी का जीर्णोद्धार इस तरह कराया है कि सब कुछ कल्पना के परे
विषयासक्तचित्तानां गुणः को वा न नश्यति ।
न वैदुष्यं न मानुष्यं नाभिजात्यं न सत्यवाक् ॥
अर्थ विषयसक्त मनुष्य के प्रायः सभी गुणों का नाश हो जाता है। उसमें न वैदुष्य
बचता है, न मनुष्यता, न कुलीनता और न सत्य ।
22 अप्रैल 2003 जिनभाषित
लगता है। सारे क्षेत्र अपने पुराने वैभव को प्राप्त हुए लगने लगे हैं। मुनिश्री की कल्पना शक्ति, दूरदृष्टि एवं अगाध चिंतन ने सभी तीर्थक्षेत्रों के पुरातत्त्व को बरकरार रखते हुए इतना उन्नत एवं व्यवस्थित करा दिया है कि अब ये क्षेत्र जो जीर्णता की कगार पर थे, अब हजारों साल तक धर्मानुरागियों का जीवन धन्य करते रहेंगे। जिन लोगों ने देवगढ़ अतिशय क्षेत्र के दर्शन जीर्णोद्धार के पहले एवं बाद में किये होंगे वे मुनि श्री सुधासागर जी महाराज का गुणगान करते नहीं थकते एवं मुनिश्री की कृतज्ञता को जीवन भर नहीं भूल सकते मुनिश्री ने कई महीनों तक दिनदिन भर पहाड़ी पर रहकर एक एक मूर्ति को यथोचित स्थान दिया है एवं मंदिरों की जमीन से शिखर तक मरम्मत करवाई है। यह कार्य किसी अन्य साधु के द्वारा करवा पाना कल्पना के बाहर की बात है ।
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नारेली स्थित नवीन तीर्थ क्षेत्र "ज्ञानोदय" जो कि एक बहु उद्देशीय तीर्थ क्षेत्र के रूप में मुनिश्री सुधासागर जी महाराज के गंभीर, दूरदर्शी, एवं विस्तृत चिंतन का मूर्तरूप है, अजमेर से 8 कि.मी. दूर किशनगढ़ मुख्य हाइवे पर स्थित है। बहुत ऊँचे एवं । लंबे पर्वत पर लाल पत्थर के चौबीस भव्य जिनालय, पर्वत पर ही अष्ट धातु की आदिनाथ, भरत एवं बाहुबली भगवान् की विशाल खड़गासन प्रतिमायें विराजमान एवं बहुत बड़े आकार का सहस्रकूट चैत्यालय, पर्वत के नीचे महावीर भगवान् का अलग एक बहुत बड़ा जिनालय (जिसके निर्माता श्री आर. के. मार्बल्स) हजारों पशुओं की क्षमता वाली गोशाला, औषधालय, स्कूल, बड़ी-बड़ी धर्मशालायें, संत निवास, बड़े-बड़े पार्क एवं घने वृक्षोंवाला यह क्षेत्र पूरे भारत में अपने स्वरूप का एक मात्र तीर्थ है । पर्वत पर बने लाइन से 24 उत्तुंग मंदिरों से क्षेत्र की सुंदरता कई गुनी दिखाई देती है । पर्वत पर जाने के लिए सुविधाजनक सीढ़ियाँ बनी हुई हैं एवं वाहन के द्वारा भी पर्वत पर जाया जा सकता है। क्षेत्र के अपने कई वाहन हैं, जो यात्रियों की सुविधा के लिए उपयोग में लाये जाते हैं। यह क्षेत्र दि. जैन समाज के लिए मुनिश्री की महान देन हैं।
कमशः
पराराधनजाद् दैन्यात् पैशुन्यात् परिवादतः । पराभवात्किमन्येभ्यो, न विभेति हि कामुकः ॥
अर्थ- कासासक्त मनुष्य दूसरे की खुशामद से उत्पन्न दीनता, चुगली, निन्दा और तिरस्कार से भी नहीं डरता, तब अन्य बातों से डरने की तो बात ही दूर ।
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'क्षत्रचूडामणि'
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