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वैय्यावृति की।
सांसारिक सुखों की अभिलाषा में वे ढोंग, पाखण्ड, क्रिया काण्ड रेवती रानी की श्रद्धा भक्ति देख क्षुल्लक हर्ष विभोर हो गए | को सहजता से ग्रहण कर लेती हैं। घर-परिवार के अनिष्ट की और अपनी माया समेट कर रोमांचित हो बोले- "देवि ! संसार | आशंका से वे कुमार्गरत हो जाती हैं। दृढ़ता एवं सकंल्प शक्ति श्रेष्ठ मेरे परम गुरु महाराज गुप्ताचार्य की धर्मवृद्धि तेरे मन को | की धनी, प्रकृत्या धीरा वीरा गंभीर रेवती तरला, सुशीला पवित्र करे। तुमने जिस भवसागर-तारक अमूढ दृष्टि अंग को | नारी के रूप में महिला समाज का गौरव हैं, साथ ही ऐसी ग्रहण किया है वह सम्यक्त्व प्रशंसनीय है।" गुणवती रानी रेवती प्रथम महिला भी जिसने अपने जीवनकाल में जिन वचनों में को आशीर्वाद देकर क्षुल्लक विहार कर गए। इसके बाद वरुण | श्रद्धा को अभिव्यक्त किया था, साधु समाज द्वारा समादृत नृपति और रेवती रानी ने काफी समय गृहस्थ जीवन सुख पूर्वक | हुई ऐसी श्राविकारत्न रेवती प्रथम-पांक्तेय अनुपम एवं विशिष्ट व्यतीत किया। एक दिन राजा को किसी कारण वैराग्य हो गया। वे | रमणी-रत्न हैं। अपने शिवकीर्ति पुत्र को राज्य सौंप कर साधु बन गए। आयु के
अपने पौरुष से नारी की गौरवान्वित महत्ता को प्रतिष्ठापित अन्त में समाधिमरण कर माहेन्द्र स्वर्ग में जाकर देव हुए। रेवती | करने वाली ये ऐसी जागृत महिला हैं, जिसने श्राविकाओं के रानी ने सुव्रता नामक आर्यिका से दीक्षा ग्रहण की और तपकर | स्वरूप को उज्ज्वल, स्निग्ध, मनोरम तथा पुण्य काया पल्लवित, सन्यास पूर्वक मरण किया। रेवती अखिल जैन नारी समाज की | पुष्पित और पवित्र बनाया। अन्तस् की परीक्षा करने की रेवती गतिदिशा में नव परिवर्तन की सूत्रधारिणी है। इन्होंने नारीत्व गौरव | रानी में अद्भुत क्षमता थी। अपने बल पर जिसकी सुपमा जागृत
और धर्म के मौलिक तत्त्वों के आत्मिक समीकरण से एक माडल | हुई, वह रानी रेवती ही है। रेवती रानी का चरित्र उज्ज्वल, शांत, तैयार किया है। सम्यदर्शन के बिना मुक्ति नहीं, उसी सम्यग्दर्शन | सरल. उदात्त, प्रभापूर्ण, जाज्वल्यमान है। यह वह जागृत महिला के आठ अंगों में एक अंग रानी रेवती का पर्याय वन गया है। ऐसी | है जिसने गृहस्थ जीवन में रहते हुए अपने व्यक्तित्व का सौरभ धर्मशीला कर्मवीरा नारी ने काफी गहनता से अपने व्यक्तित्व का | चुतर्दिक फहराया। इनका व्यक्तित्व प्रत्येक रूप में हृदय के तार सुखद निर्माण किया था अत: विजित रही। नारी धर्म, जिन श्रद्धा | को छूता है, छेड़ता है और अपने साथ रमा लेता है। नारीत्व
और सेवाव्रत के प्रति दृढ रह कर यह सांध्य तारा की भांति अपनी | साधना का विकास अपने सामर्थ्य से अपने बल बूते पर करने डगर पर एकाकी चलती रही। स्वयं उसने अपने नारीत्व को | वाली सचमुच रेवती नर-पूजिता है। इस अद्भुत नारी ने अपने जागृत रखा, जाज्वल्यमान, दीप्ति पूर्ण, आभा पूर्ण उर्जस्विता बनकर | धर्म, नारीत्व, साधना, ब्रहमचर्य की शक्ति से युगनारी को प्रभावित रानी रेवती जगतपूज्या बनी।
किया, चिर अखण्ड, चिरअनन्त, चिर महान, युगविभृति, युग इस प्रकार रानी रेवती ने जगविख्यात दोषारोपण को भी | वाणी को नव स्वर दिया। निर्मूल किया कि महिलाओं में मिथ्यात्वबुद्धि अधिक होती है, |
के.एच.-२१६ कविनगर, गाजियाबाद
आचार्य श्री विद्यासागर के सुभाषित
- ज्ञानरूपी दीपक में संयमरूपी चिमनी आवश्यक है, अन्यथा वह रागद्वेष की हवा से बुझ जायेगा। Hदीपक लेकर चलने पर भी चरण तो अन्धकार में ही चलते हैं। जब चरण भी प्रकाशित होंगे, तब
केलवज्ञान प्रकट होगा। * स्वस्थ ज्ञान का नाम ध्यान है और अस्वस्थ ज्ञान का नाम विज्ञान। म ज्ञान स्वयं में सुखद है, किन्तु जब वह मद के रूप में विकृत हो जाता है, तब घातक बन जाता
है।
म जीवन में ज्ञान का प्रयोजन मात्र क्षयोपशम में वृद्धि नहीं, वरन् विवेक में भी वृद्धि हो।
'सागर बूंद समाय' से उद्धृत
- अप्रैल 2003 जिनभापित 19
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