Book Title: Jinabhashita 2003 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित पौष, वि.सं. 2059 कुण्डलपुर में बड़े बाबा के निर्माणाधीन मंदिर का स्वरूप वीर निर्वाण सं. 2529 LILL जनवरी 2003 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2002 जनवरी 2003 जिनभाषित मासिक वर्ष 1, अङ्क 12 सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व पृष्ठ कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462016 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 आपके पत्र : धन्यवाद सम्पादकीय : जिनशासन-भक्तों के लिए गंभीरता से चिन्तनीय । . लेख • प्रतिमाविज्ञान और उसके लाभ : मुनि श्री निर्णय सागर जी 5 .उपवास : मुनि श्री चन्द्रसागर जी सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया पं. रतनलाल बैनाड़ा डॉ. शीतलचन्द्र जैन डॉ. श्रेयांस कुमार जैन प्रो. वृषभ प्रसाद जैन डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' • भरतैरावत में वृद्धि-ह्रास किसका है? : पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया 10 •जीव का अकालमरण:एक व्यापक दृष्टि : डॉ. श्रेयांसकुमार जैन 13 .बालव्रत-संरक्षिका : अनन्तमती : डॉ. नीलम जैन 16 शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर.के.मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश राणा, जयपुर • यदि गाय माता है तो उसे काटते हो क्यों? : डॉ.सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' 18 • मानसिक व्यसन : पं.सनतकुमार,विनोदकुमार जैन 20 • नारी की दशा और दिशा : प्रो. (डॉ.) विमला जैन द्रव्य-औदार्य श्री गणेश कुमार राणा जयपुर • क्या आप जानते हैं आप क्या खा रहे हैं?: श्रीमती मेनका गाँधी 24 जिज्ञासा-समाधान ' : पं. रतनलाल बैनाड़ा बालवार्ता: बेईमान हैं हम सब : डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' 17 प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-351428, 352278 सुभाषित : : सुशीला पाटनी 12 . ग्रन्थ समीक्षा : सिद्धचक्र विधान : पं. शिखरचंद्र जैन समाचार 2, 7, 9, 19, 21, 25, 28-32 कविताएँ सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000रु. संरक्षक 5,000रु. आजीवन 500 रु. वार्षिक 100रु. एक प्रति 10 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। .गुरु : डॉ.सन्मति ठोले आवरण पृष्ठ 3 •तीर्थ अंकुर सिन्धु-विद्या : ज्ञानमाला जैन आवरण पृष्ठ 3 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य 'जिनभाषित' पत्रिका के उच्चस्तरीय एवं कुशल संपादन । से अनभिज्ञ रहती है। ऐसी प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया जाना हेतु अनेकश: बधाई। मैं यह पत्रिका विगत जुलाई (2002) माह | चाहिए। से निरंतर पढ़ रहा हूँ। पत्रिका बहुत अच्छी लगी। इस पत्रिका के डॉ. नरेन्द्र जैन 'भारती' सनावद प्रकाशन से जैनदर्शन एवं संस्कृति से संबंधित एक उच्चस्तरीय आपका सम्पादकीय भोजपुर में सन्त और बसंत, आचार्यश्री एवं आगमसम्मत पत्रिका की कमी दूर हुई है। इसमें प्रकाशित विद्यासागर जी का शास्त्रराधना, मुनिश्री प्रमाण सागर जी, पं. सामग्रीयाँ ज्ञानवर्द्धक एवं प्रेरणाप्रद होती हैं। विशेषत: पं. रतनलाल जुगलकिशोर जी द्वारा, डॉ. नीलम जैन, पं. मिलापचन्द्र कटारिया, जी बैनाड़ा द्वारा प्रस्तुत जिज्ञासा-समाधान ज्ञान पिपासुओं के लिए डॉ. वन्दना जैन, डॉ. ज्योति जैन, सुशीला पाटनी, प्रो. डॉ. के.जे. पठनीय मननीय एवं संग्रहणीय भी है। आजाबिया, पं. रतनलाल बैनाड़ा व डॉ. सुरेन्द्र जैन भारती सभी ने _ अक्टूबर-नवम्बर 2002 के संयुक्ताङ्क में बिजौलिया प्रसंग .अपने सार गर्भित विचार और लेखों से इस पत्रिका को मूल्यों पर से संबंधित महासभा का प्रस्ताव एवं भर्त्सना प्रस्ताव तथा आधारित, जिनवाणी की विशिष्टता एवं सत्य को उजागर किया सम्पादकीय प्रतिक्रिया पढ़ी। यद्यपि मैं भर्त्सनाप्रस्ताव के भावों से है। प्रकृति के समीप लौट चलें आरोग्यता प्रेरक है। सभी लेख सहमति रखता हूँ, तथापि मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि जिनभाषित जैसे उच्च स्तरीय पत्रिका को सामाजिक एवं व्यक्तिगत अति उत्तम और उपयोगी हैं। इन लेखों से और आपके सम्पादकीय से यह पत्रिका रत्न जड़ित हो गई है। इंतजार रहता है व पूरी आरोप-प्रत्यारोप एवं भर्त्सना आदि जैसी सामग्रीयों के प्रकाशन पढ़कर आनन्द प्राप्ति होती है। प्रशंसनीय है। से दूर रखना चाहिए। पत्रिका का उच्च स्तर बनाये रखने के लिए देवेन्द्रकुमार जैन यह आवश्यक है। किसी भी विवाद का स्पष्टीकरण तो हो, परन्तु 90, सूर्य निकेतन आरोपात्मक एवं भर्त्सनात्मक शैली का उपयोग नहीं, ताकि दिल्ली-110092 सामाजिक एवं व्यक्तिगत सौहार्द कायम रहे। जिनभाषित सितम्बर, 2002 देखकर हार्दिक प्रसन्नता हुई। पुनः पत्रिका के कुशल सम्पादन हेतु आपको अनेकशः | राष्ट्रीय स्तर के सुप्रसिद्ध श्रेष्ठी एवं विद्वान पण्डित रतनलाल जी बधाई। आशा है आपके सम्पादकत्व में यह पत्रिका निरन्तर प्रगति | बैनाड़ा ने श्रावकाचार के अनेक शास्त्रीय प्रमाण देकर श्रावकों को के पथ पर अग्रसर होती रहेगी। देव पूजा के पूर्व प्रतिदिन दातून एवं पानी के कुल्लों द्वारा मुख शुद्धि विमल सेठी, गया | के लिए अपनी सहजता और सरलता पूर्वक प्रभावी ढंग से प्रेरित 'जिनभाषित' का दिसम्बर, 2002 का अंक मिला। कवर किया है। निर्बाध शब्द अवश्य थोड़ा कठिन हो गया है। इसकी पृष्ठ पर तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ चारणाद्रि पहाड़-मंदिर एलोरा सरल व्याख्या आवश्यक है। स्वस्थ्य जीवन जीने के लिए उनकी (महाराष्ट्र) का चित्र नयनाभिराम लगा। सभी लेख स्तरीय हैं यह आगम सम्मत शास्त्रीय व्यवस्था अत्यधिक उपयोगी है। मेरे शास्त्राराधना एवं सल्लेखना लेख चिन्तन तथा मनन करने योग्य हैं। विनम्र अभिमत में देवदर्शन, मंत्रजाप एवं सामान्य लोकव्यवहार "नौकरों से पूजन कराना" (स्व. पं. जुगल किशोर जी मुख्तार) के पूर्व मुखशुद्धि आवश्यक कृत्य है। मुखशुद्धि के उपरांत किए का लेख प्रकाशित कर आपने समाज को सही दिशा निर्देश देने | जाने वाले उपरिलिखित कृत्य आत्मसंतोष प्राप्त करने के लिए का कार्य किया है। मैंने अपने पूज्य पिताजी से बार-बार यह सुना | गुणात्मक दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध होते है। है कि पुराने समय में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कभी कभार होती थीं | वैज्ञानिक श्रमण परम्परा एवं जैन जीवनशैली के ज्ञान को परन्तु उनमें जो जिनबिम्ब प्रतिष्ठापित होते थे उनकी न्यौछावर | रेखांकित करते हुए ऐसे प्रश्नोत्तर हमारी स्वस्थ्य जीवन शैली को राशि देने वाले दातार को यह नियम दिलवाया जाता था कि उसके बनाए रखने एवं उसे उत्तरोत्तर विकसित करने के लिए आधारभूमि परिवार का एक व्यक्ति पूजन करेगा। आज के अर्थ प्रधान युग में का कार्य करते हैं। यह आवश्यक है कि प्रत्येक पाठक अपनी पंचकल्याणकों के प्रतिष्ठाचार्य तक इस तरह का नियम नहीं जिज्ञासा को संतुष्ट करने के लिए इसी प्रकार के प्रश्न और प्रतिप्रश्न दिलवाते। आज की स्थिति यह है कि जैन समाज के नाम पर प्रस्तुत करें जिससे कि श्रद्धेय बैनाड़ा जी अपने सरल हृदय, सरल पंचकल्याणक हो रहे हैं, जबकि पंचकल्याणक के नाम पर सारे भाव और सरल ढंग से उत्तर देकर हमारी दैनंदिनी जीवन शैली को भारतवर्ष से चंदा लेने वाले चंद लोग ट्रस्टी बनकर उस राशि का | समृद्ध करते हुए हमारे ज्ञान के भण्डार को सदैव वृद्धिंगत कर सकें। मनमाना उपयोग करते हैं। चंदा भी इतनी दूर जाकर एकत्रित करते श्रीमती विमला जैन हैं कि वहाँ की समाज भक्तिवश चंदा दे देती है परंतु वस्तु स्थिति 30, निशात कॉलोनी,भोपाल म.प्र.- 462003 -जनवरी 2003 जिनभाषित 1 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 दिसम्बर, 2002 के "जैन गजट' में माननीय श्री 3. हम देवी देवताओं का अस्तित्व स्वीकारते हैं. उनको शंकरलाल जी भीण्डर वालों का पत्र पढ़ा, जिसमें उन्होंने | सम्यग्दृष्टि मानने के लिए भी तैयार हैं, पर उनका यथायोग्य सम्मान 'जिनभाषित' के संपादक और बिजौलिया समाज द्वारा महासभा करना उचित मानते हैं। उनको भगवान् के साथ वेदी पर विराजमान के विरुद्ध पारित प्रस्ताव को भ्रामक बतलाया है। इस विषय में करना, उनकी आरती उतारना, उनकी पूजा करने को मिथ्यात्व का मेरा निम्न कथन है पोषण मानते हैं। हमें स्वीकार है कि उनका यथायोग्य सम्मान हो. 1. क्षेत्रपाल पद्मावती का मंदिर में होना आवश्यक नहीं है अधिक नहीं। पर यदि कोई स्थापित करता है तो द्वार के बाहर ही स्थापित करना 4. माननीय श्री शंकरलाल जी ने लिखा है कि चाँदखेड़ी चाहिए। पूज्य आर्यिका सुपार्श्वमती जी तथा आचार्य श्री कुन्थुसागर मंदिर जी के शिलालेख में भगवान् आदिनाथ की प्रतिमा के अतिरिक्त जी ने इनको द्वारपालवत् कहा है। अन्य प्रतिमा का उल्लेख नहीं है। इसके उत्तर में निवेदन है कि 2. पिछले माह बिजौलिया समाज के प्रमुख व्यक्तियों से स्फटिक मणि के मूलनायक का शिलालेख वहाँ अभी भी लगा हुआ है, ये मूर्तियाँ वहाँ पहले से ही थीं। यह तो पूज्य मुनिश्री 108 चर्चा हुई। सबने यही कहा कि 1998 से पूर्व यहाँ क्षेत्रपाल सुधासागर जी महाराज का साहस था जो उन्होंने भूगर्भ की प्रतिमाओं पद्मावती की मूर्ति थी ही नहीं। अब मेरा प्रश्न यह है कि जब पूर्व को प्रकट किया। में नहीं थी, तो विराजमान क्यों की गई? महासभा का तो सिद्धांत पं. सुनील शास्त्री है कि पूजा-पद्धति जहाँ-जैसी है, उसमें बदलाव नहीं किया जाना 962, सेक्टर-7, आवास विकास चाहिए फिर पूर्व परंपरा को क्यों बदला गया? कॉलोनी, बोदला, आगरा ज्ञान प्राप्ति का अमूल्य अवसर पिछले बहुत समय से देखा जा रहा था कि समाज में बहुत से भाई-बहिन धर्म शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा रखते हुए भी अध्ययन नहीं कर पा रहे थे क्योंकि उनको उचित अध्यापक उपलब्ध नहीं हो पाते थे। इस समस्या के समाधान में "श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर" द्वारा 23 फरवरी 2003 से 5 मार्च 2003 तक एक जैन धर्म शिक्षण शिविर आयोजित किया जा रहा है, जिसमें देश के सभी प्रदेशों से आये हुए शिवरार्थी भाग ले सकेंगे। शिविर में अध्यापन पं. रतनलाल जी बैनाड़ा एवं ब्रह्मचारी भाइयों द्वारा किया जावेगा। शिविर में जैन धर्म शिक्षा भाग 1, 2, 3, 4 छहढाला, द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र का अध्यापन कराया जायेगा। एक शिविरार्थी किसी एक विषय का शिक्षण ले सकेगा। शिविर में भाग लेने वाले कृपया निम्न सूचना शीघ्र भिजवा देवें। शिविरार्थी का नाम पिता/पति का नाम पता ......... आयु . फोन नं. लौकिक शिक्षा धार्मिक शिक्षा कहाँ तक ले चुके हैं : 7. शिविर में क्या पढ़ना चाहेंगे शिविर में 20 वर्ष से 60 वर्ष तक के शिविरार्थी शामिल हो सकते हैं। आपका पत्र आने पर आपको फोन से आपका शिविरार्थी रजिस्ट्रेशन दे दिया जावेगा। शिविरार्थियों का भोजन, आवास एवं शिक्षण सामग्री नि:शुल्क प्रदान की जावेगी। शिविर स्थल : श्री दिगम्बर जैन संघी जी मंदिर, सांगानेर, जयपुर फोन नं. 0141-2730390 आयोजक श्रमण संस्कृति संस्थान वीरोदय नगर, सांगानेर, जयपुर फोन नं. 0141-2730552 2 जनवरी 2003 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय जिनशासन-भक्तों के लिए गम्भीरता से चिन्तनीय प्रसिद्ध साप्ताहिक 'जैन गजट' (19 दिसम्बर, 2002) के सम्पादकीय में माननीय प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी जैन ने कुछ जैन साधुओं और ब्रह्मचारियों की जिनशासन को सार्वजनिकरूप से बदनाम करनेवाली अविचारित कुचेष्टाओं पर गहन खेद व्यक्त किया है। वे लिखते हैं "एक आचार्य महाराज के विरुद्ध एक बहुरंगी पोस्टर हजारों की संख्या में छपाया गया है और उन्हें उत्तर भारत के जैन मन्दिरों,धर्मशालाओं तथा गली-चौराहों पर चिपकाया जा रहा है। पोस्टर की भाषा को पढ़कर शर्म को भी शर्म आने लगती है। पोस्टर पर नाम तो केवल एक ब्रह्मचारी का है, किन्तु यथार्थ में उसके पीछे असन्तुष्टों का एक पूरा ग्रूप काम कर रहा है। जो भी इसके पीछे हैं, वे कहने को तो विरक्त या विरागी हैं, किन्तु उनके भीतर का राग-द्वेष अभी गया नहीं है। अपने प्रति विगत में हुए व्यवहार का बदला लेने पर वे उतारू हैं और इसके लिए यह भद्दा तरीका अपना रहे हैं। संघ के शुद्धीकरण के नाम पर समाज में अशुद्धि फैलाने का हक किसी को नहीं है। अपनी साख जमाने के लिए किसी दूसरे की साख को उजाड़ने का यह तरीका सम्यक् मार्ग से उनके स्वयं के भटकाव का परिचायक है। हमारा और सभी धर्मानुरागियों का मन इससे क्षुभित हुआ है।" "पोस्टर में लगाए गये आरोपों के बारे में न तो हम कुछ जानते हैं और न जानना ही चाहते हैं। जिन बातों को बन्द कमरे में बैठकर करने में भी संकोच होता है, उन्हें चौराहों की चर्चा का विषय बनाना तो बेहयापन है। धर्म-साधना करने वालों को धर्म की विराधना का कार्य नहीं करना चाहिए। आरोप लगानेवाले भी कभी उसी संघ के अंग थे। संघ में रहकर प्रतिकार करने का साहस क्यों नहीं जुटा सके? अब संघ से बाहर आकर तीर चलाना तो हमारी दृष्टि में कायरता ही है। अपने भीतर की भड़ास निकालने का जो तरीका उन्होंने अपनाया है, वह बेहद कुत्सित है और हम उसकी निन्दा करते "हम आचार्य महाराज को भी कोई क्लीन चिट देने नहीं जा रहे हैं। उनके व्यक्तित्व में भी कुछ कमियाँ तो हैं, जिनकी वजह से उनके ही द्वारा दीक्षित शिष्य उनसे असन्तुष्ट होते रहते हैं। संघ में अनुशासन रखने का उनका तरीका कुछ ज्यादा ही कठोर और अव्यावहारिक है। आचार्य की एक आँख से यदि कठोरता टपकती हो तो दूसरी आँख में वात्सल्य भी झलकना चाहिए। अनुशासन और प्रताड़ना दो अलग-अलग वस्तुयें हैं। अनुशासन के नाम पर शिष्यों को प्रताड़ित करने से ही कभी-कभी इस तरह के विस्फोट सामने आते हैं। इसमें सुधार अपेक्षित है।" प्राचार्य जी के विचारों से मैं पूर्णतः सहमत हूँ और उक्त कुकृत्य से उनके मर्म को जो पीड़ा पहुँची है, निश्चय ही वह प्रत्येक जिनशासनभक्त को पहुँची होगी। मेरा हृदय भी उससे आहत है और मैं भी उक्त कुत्सित कृत्य की निन्दा करता गुरुओं के किसी व्यवहार से किन्हीं शिष्यों का असन्तुष्ट हो जाना स्वाभाविक है, किन्तु गुरु से बदलना लेने का विचार भी मन में आना किसी मोक्षाभिलाषी का लक्षण नहीं हो सकता। किन्तु जब कोई शिष्य ऐसा करने लगे और वह भी गुरु के चरित्र पर अश्लील आरोपों की बौछार करनेवाले बहुरंगी पोस्टरों को मन्दिरों, धर्मशालाओं, बाजारों और गली-चौराहों पर चिपकाकर, तब उस शिष्य का मोक्षाभिलाषी होना तो दूर, वह जिनशासन का अनुयायी भी नहीं हो सकता, प्रत्युत वह उसका शत्रु ही है। क्योंकि उसका ऐसा कुकृत्य अन्ततः जिनशासन को सरेआम कलंकित करने का हेतु बनता है। उक्त ब्रह्मचारी ने अपने गुरु पर अश्लील आरोपों की बौछार करनेवाले पोस्टरों को सार्वजनिक स्थानों पर चिपका कर जैनेतर समुदाय में एक दिगम्बर जैन मुनि की क्या छवि बनाई होगी, यह कल्पना कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं, हृदय उसकी विमूढ़ता, अदूरदर्शिता और तीव्रकषायान्धता से सन्ताप के आँसू बहाने लगता है। यदि कोई साधु वास्तव में मार्गच्युत हो जाता है, तो उसे मार्गस्थित करना प्रत्येक साधु एवं श्रावक का कर्तव्य है। इस पर भी यदि वह मार्गस्थित होने में रुचि नहीं दर्शाता, तो यह बात गोपनीयतापूर्वक समाज के प्रतिनिधि-पुरुषों की दृष्टि -जनवरी 2003 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में लायी जानी चाहिए। प्रतिनिधि-पुरुष मामले की गंभीरता से जाँच-पड़ताल करें और यदि पायें कि शिकायत सही है, तो वे समाज को यथार्थ से अवगत करायें और निर्देश परामर्श दें कि दोषी साधु को साधु मानना बन्द कर दिया जाय। यथार्थ से अवगत हो जाने पर और प्रतिनिधि-पुरुषों से दिशा-निर्देश मिल जाने पर श्रावक अवश्य ही ऐसे साधु की उपेक्षा करेंगे। उपेक्षा में वह शक्ति है कि या तो वह साधु सुधर जायेगा या उसे पाखण्ड छोड़कर गृहस्थ बनने पर मजबूर होना पड़ेगा। मायाचारी, भ्रष्ट साधुओं का अस्तित्व तभी तक कायम रहता है, जब तक समाज उन्हें मान्यता एवं महत्त्व देता रहता है। यही एकमात्र रास्ता है जिनशासन को अपकीर्ति से बचाते हुए भ्रष्ट और पाखंडी साधुओं से छुटकारा पाने का। किन्तु कथित ब्रह्मचारी ने अपने गुरु को सुधारने के नाम पर उन्हें पोस्टरों और पैम्फलेटों के द्वारा सार्वजनिकरूप से बदनाम करने का जो मार्ग अपनाया है, वह गुरु के लिए उतना हानिकारक सिद्ध नहीं हो रहा है, जितना जैनशासन के लिए हो| रहा है। उससे गुरु तो केवल जैनों में ही कलंकित हो रहे हैं, किन्तु जैनशासन की अपकीर्ति सारी जैनेतर दुनिया में हो रही है। ज्ञात हुआ है कि अपने उक्त शिष्य के द्वारा बदनाम किये गये आचार्यवर के सान्निध्य में अक्टूबर 2002 में एकधर्मसभा आयोजित हुई थी, जिसमें उन सभी ने,जिनके साथ आचार्यवर द्वारा अश्लील आचरण किये जाने के आरोप उक्त ब्रह्मचारी ने लगाये थे,मंच पर आकर सबके सामने घोषणा की, कि आचार्यवर पर लगाये गये सारे आरोप मिथ्या हैं। इससे सन्तोष हुआ है। किन्तु एक बात विचारणीय है कि कथित ब्रह्मचारी को ऐसे आरोपों की कल्पना करने का अवसर किस स्थिति से प्राप्त हुआ? वह स्थिति है मुनिसंघ में आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों का रहना । मुझे विश्वास है कि उक्त आरोपों के योग्य घटना इस संघ में नहीं घटी है, तथापि घट सकने के कारण मौजूद हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। और इसीलिए कोई झूठा आरोप भी लगा देता है, तो वह सन्देह का कारण बन जाता है। संघ में आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों के रहने से उनके साथ सम्पर्क के अनेक अवसर मिलते हैं, जिससे मानवसुलभ विकारोत्यत्ति एवं अवांछनीय घटना घटित होना बहुत संभव हैं। अतः इसे टालने के लिए आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों का मुनिसंघ से पृथक रहना ही उचित है। वर्तमान में परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी का संघ इस दृष्टि से आदर्शसंघ है। इसमें आर्यिकाएँ और ब्रह्मचारिणियाँ साथ नहीं रहतीं। आचार्यश्री ने आर्यिकाओं के अलग-अलग संघ बनाए हैं और प्रत्येक संघ को एक ज्येष्ठ आर्यिका के अनुशासन में रखा है। वे अलग-अलग विहार करती हैं, मुनिसंघ के साथ उनका विहार नहीं होता। किसी विशिष्ट अवसर पर आचार्यश्री की अनुमति से वे उनके दर्शनार्थ और मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए आती हैं। उस समय उनकी वसतिका पर्याप्त दूरी पर होती है। दर्शन-मार्गदर्शन प्राप्त कर वे वहाँ से चली जाती हैं। आचार्यश्री मुनियों को एक महत्त्वपूर्ण उपदेश देते हैं कि श्री और स्त्री से सदा दूर रहो। सभी मुनिसंघों को इसका अनुकरण करना आवश्यक है। ऐसा होने पर उपर्युक्त प्रकार के किसी भी ब्रह्मचारी या व्यभिचारी को मुनियों पर उक्त प्रकार के आरोप लगाना आसान बात नहीं होगी। यह प्रकरण बहुत लम्बा खिंच गया है। इससे गली-गली चौराहों-चौराहों पर जैनमुनि शंका-कुंशकापूर्ण चर्चा का विषय बना हुआ है। इसका निराकरण शीघ्र किया जाना चाहिए। समाज की जितनी भी प्रतिनिधि संस्थाएँ हैं: विद्वत्परिषद्, शास्त्रिपरिषद्, महासभा, महासमिति आदि, सभी से मेरा निवेदन है कि वे इस प्रकरण की शीघ्रातिशीघ्र जाँच-पड़ताल कर तथ्य को समाज के सामने लाने की कृपा करें, ताकि समाज निर्दोष सदोष व्यक्तियों के साथ यथायोग्य व्यवहार कर सके और निर्मल जिनशासन के मलिनीकरण पर रोक लगे। रतनचन्द्र जैन सूचना संपादक- कार्यालय का नया पता 1 जनवरी, 2003 से संपादक-कार्यालय का स्थान परिवर्तित हो गया है। अब कृपया निम्नलिखित पते पर पत्रव्यवहार करेंए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462016 दूरभाष 0755-2424666 4 जनवरी 2003 जिनभाषित - Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा विज्ञान और उसके लाभ मुनि श्री निर्णय सागरजी जैन धर्म में मुनि और श्रावक दोनों को मोक्षपथ का पथिक | आते हैं। प्रतिमा विज्ञान के संदर्भ में चर्चा करते रहते हैं। उसी कहा है। मुनिराज पूर्ण रूप से मोक्ष की ओर बढ़ते हैं। तो श्रावक | संदर्भ में नीचे एक मुनि और श्रावक का संवाद प्रस्तुत है। उनके पीछे-पीछे मोक्ष की ओर अपने कदम बढ़ाते चलता है। श्रावक- हे स्वामिन् ! नामेस्तु श्रावक घर में रहकर प्रतिपल यही भावना करता है कि वह धन्य मुनि- धर्म वृद्धिरस्तु (हाथ से आशीर्वाद देते हुए) भाग्य, धन्य घड़ी कब आवेगी जब मैं घर त्याग कर मुनिपद श्रावक- धन्य है आप, महान् मुनिपद को प्राप्त किया है। अंगीकार करूँगा। किन्तु अपनी शक्ति की कमी के कारण मुनिव्रत हम तो गृहस्थी की कीचड़ में लिप्त हैं, पापी हैं, हमको कहाँ धर्म का संकल्प नहीं ले पाता है। किन्तु घर में ही पंचेन्द्रियों के विषयों का सौभाग्य। से उदासीन रहता हुआ, धर्माराधना करता है। किसी किसी में मुनि - ऐसा नहीं, आप भी गृहस्थी में रहकर धर्म कर मुनिव्रत धारण की कमी देखकर सर्वज्ञ भगवान्, मुनि धर्म के बाद | सकते हैं। आचार्यों ने चांडाल (शूद्र) को भी धर्मात्मा बना दिया है। श्रावक धर्म का उपदेश देते हैं। उन्हीं सर्वज्ञ भगवान् की वाणी को श्रावक- तो हम भी धर्मात्मा हो सकते हैं। सुनकर गणधर परमेष्ठियों ने, आचार्यों ने शास्त्रों में प्रतिमा विज्ञान मुनि- क्यों नहीं, अवश्य हो सकते हैं। श्रावक घर में के रूप में श्रावक धर्म का वर्णन किया है। वास्तव में श्रावक धर्म रहकर भी 10वीं प्रतिमा का अच्छे से पालन कर सकता है। के कर्ता महान मेधा (बुद्धि) के धारक थे। जिन्होंने कम से कम श्रावक- यह प्रतिमाएँ क्या होती हैं? शक्तिमान श्रावकों को महान् मुनि पद की ऊँचाईयों को सरलता से मुनि- एक देश पापों को त्याग कर जो संयम धारण किया प्राप्त कराने के लिए प्रतिमाओं की व्यवस्था बनाई है, शास्त्रों में जाता है, वह प्रतिमा या श्रावक की कक्षा कहलाती है। इनकी श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ कही हैं संख्या ग्यारह हैं। दसणवय समाइच पोसह सचित्त रायभत्तेय। कहा भी हैबभारंभपरिग्गह अणुमणुमुद्दिट्ट देसविरदेदे॥ संयम अंश जगो जहाँ, भोग अरुचि परिणाम। अर्थात्-दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित त्याग, रात्रि उदय प्रतिज्ञा का भयो, प्रतिमा ताको नाम । भोजन त्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग, अर्थात्- जिसकी भोगों में रुचि नहीं है, आंशिक रूप से उद्दिष्ट त्याग यह श्रावक के ग्यारह स्थान (प्रतिमा) कहे गये हैं। पापों के त्याग की प्रतिज्ञा ले लेता है, उस प्रतिज्ञा को प्रतिमा कहते हैं। जैसे लौकिक जगत में बच्चों की बारह कक्षायें होती हैं फिर श्रावक- क्या एक साथ ग्यारह प्रतिमा धारण कर सकते हैं? कॉलेज और फिर कॉलेज से छुट्टी हो जाती है। वैसे ही मोक्ष मार्ग मुनि- एक साथ ग्यारह प्रतिमा अर्थात् क्षुल्लक, ऐलक पद में ग्यारह प्रतिमाएँ और ग्यारहवीं प्रतिमा के दो भेद ऐलक, क्षुल्लक | भी ले सकते हैं। किन्तु शक्ति हमारे पास उससे कम है तो एक से इस प्रकार बारह यह कक्षायें होती हैं। इनके ऊपर मुनि, जब मुनि | लेकर जितनी प्रतिमाएँ लेना हो, ले सकते हैं। आगे-आगे की केवल ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तब कुछ समय बाद मुनि मोक्ष चले | प्रतिमाओं में पूर्व की प्रतिमा का पालन करना आवश्यक है। जाते हैं । मुनिपद से भी छुट्टी हो जाती है। श्रावक- आर्यिका माताजी की कितनी प्रतिमा होती है? हमारे यहाँ कुछ श्रावक तो प्रतिमा के अनुरूप आचरण भी | मुनि- आर्यिका, आर्यिका होती है। उनके प्रतिमा रूप व्रत करते हैं पर प्रतिमा रूप संकल्प लेने से डरते हैं। उन्हें सही ज्ञान न नहीं होते हैं। होने के कारण भय रहता है कि प्रतिमा बहुत भारी कार्य होगा। श्रावक- महाराज जी कितनी प्रतिमा से शुद्ध आहार दूसरी तरफ कुछ श्रावक भोले होते हैं वह किसी के भी पास करना होता है। जाकर प्रतिमा धारण कर लेते हैं। पर वह यह नहीं जानते हैं कि मुनि- शुद्ध आहार तो सामान्य प्रत्येक जैनी व्यक्ति को प्रतिमा का स्वरूप क्या है, प्रतिमाओं का किस प्रकार पालन किया | करना चाहिए क्योंकि अशुद्ध अर्थात् अमर्यादित आहार करने से जाता है। ऐसी स्थिति में दोनों ही प्रकार के श्रावक सही लाभ से त्रस जीवों की हिंसा होती है। मर्यादा के बाहर के पदार्थों में सूक्ष्म वंचित रहते हैं। किन्तु कुछ विवेकी श्रावक प्रतिमा ग्रहण करने के सम्मूर्च्छन त्रस जीवों की हिंसा होती है। मर्यादा के बाहर के पूर्व ही अनुभवी लोगों से सलाह लेते हैं। प्रतिमाओं का स्वरूप, व पदार्थों में सूक्ष्म सम्मूर्च्छन त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। फिर भी उनके पालन की विधि का ज्ञान करते हैं। यदि उनकी शक्ति होती | कम से कम प्रतिमाधारियों को तो शुद्धि का आहार करना ही है, तो शक्ति अनुसार प्रतिमाएँ ग्रहण कर लेते हैं। यदि शक्ति नहीं | चाहिए। होती तो प्रतिमा के व्रत नहीं लेते हैं। बहुत लोग हमारे पास भी श्रावक- हेंडपंप का पानी ले सकते हैं? -जनवरी 2003 जिनभाषित 5 श्रा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 मुनि- हमारे यहाँ जिस पानी की जिवानी होती है वह लेने । आरंभ का त्याग करना आरंभ त्याग प्रतिमा है। वस्त्रों को छोड़कर योग्य पानी कहा है। नल, हेंडपंप से पानी के जीव पानी के ऊपर | शेष परिग्रह का त्याग करना परिग्रह त्याग नामक नौवीं प्रतिमा आते-जाते ही मर जाते हैं। जहाँ पानी छानने का कथन है, वहाँ से जानो। घर में रहकर भी किसी के द्वारा पूछने या बिना पूछे गृह विशेष समझ लेना। व्यापार सम्बन्धी अनुमति नहीं देना अनुमति त्याग नामक दसवीं श्रावक-प्रतिमाधारी श्रावक दवाइयाँ प्रयोग कर सकता है? | प्रतिमा है। जिन्होंने अभी तक निमंत्रण पूर्वक थाली गिलास आदि मुनि - शुद्ध दवाइयाँ जो अहिंसक रीति से बनी हों, वही अनेक बर्तनों में भोजन किया था। किन्तु अब मन वचन काय कृत ले सकते हैं। आज कल दवाइयों में मांस, खून का भी प्रयोग होने | कारित अनुमोदना इन नौ प्रकार से शुद्ध अनुद्दिष्ट आहार भिक्षा लगा है। इसलिए जानकारी करके ही दवाएँ ग्रहण करें। पूर्वक ग्रहण करते हैं तथा जो हाथ में या कटोरे में आहार करते हैं। श्रावक- महाराज ! घर त्याग कौन सी प्रतिमा में होता है? | वह उद्दिष्ट त्याग नामक ग्यारहवीं प्रतिमा है। ग्यारहवीं प्रतिमा मुनि - ग्यारह प्रतिमा में नियम से ग्रहत्याग जरूरी है, पर धारक ऐलक मात्र लगोंट पहनते हैं, नियम से केशलोंच और हाथ इसके पहले भी ग्रह त्याग कर सकते हैं, किन्तु अनिवार्य नहीं है। | में आहार करते हैं। किन्तु क्षुल्लक एक दुपट्टा रखते हैं। कैंची से भी श्रावक- पहली प्रतिमा का क्या स्वरूप है? बाल बनवा सकते हैं । क्षुल्लिका एक साड़ी और एक दुपट्टा रखती मुनि - आपको सभी प्रतिमाओं के संबंध में संक्षेप में बता | है। देता हूँ। पहली प्रतिमा में सप्तव्यसन त्याग, अष्टमूलगुण सहित श्रावक- महाराज श्री! सचित्त पदार्थों को प्रासक कैसे अहिंसा, सत्य, अर्चीर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन पांच अणुव्रतों का | बनाते हैं? पालन करते हुए, जो सच्चे देव शास्त्र गुरु की ही उपासना करते हैं | मुनि - प्रासुक के संबंध में आहार शुद्धि के प्रसंग में पहले अर्थात् शुद्ध सम्यक् दर्शन से युक्त हैं, वह प्रथम दर्शन प्रतिमाधारी | ही अच्छी तरह बताया है, वहाँ से समझ लेना। श्रावक है। जो अणुव्रतों को पहले सदा, पालन करते थे किन्तु | श्रावक- हमने पंडित जी के प्रवचन में सुना था, कि दूसरी व्रत प्रतिमा में उनको निर्दोश पालन करते हैं। उनको निर्दोष | सबसे सम्यग् दर्शन का पुरुषार्थ करना चाहिए? रखने के लिए दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदंड त्यागवत ये तीन गुणव्रत मुनि- इसमें एकांत नहीं है। धवला पुस्तक पांच में आचार्य तथा सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग तथा भोगोपभोग महाराज कहते हैं कि अनेक जीव अणुव्रतों या महाव्रतों के साथ ये चार शिक्षाव्रत ये (सातशील) भी पालन करना होता है। प्रतिक्रमण | या बाद में भी सम्यग् दर्शन प्राप्त करते हैं। अपनी शक्ति अनुसार में सामायिक, भोगोपभोग, अतिथिसंविभाग और सल्लेखना यह व्रत लेने से सम्यग् दर्शन और आसान हो जाता है। इसलिए व्रत चार शिक्षाव्रत कहे हैं। आगे की प्रतिमाओं में इन्हीं बारह व्रतों को | लेना किसी प्रकार व्यर्थ नहीं है। दूसरी तरफ जो अपने आपको विशेष रूप से पालना होता है। जो तीनों समय 48-48 मिनट कम सम्यग् दृष्टि अनुभव करते हैं, उनको भी चरित्र धारण कर पुरुषार्थ से कम नियम से सामायिक करते हैं। वे तीसरी सामायिक प्रतिमाधारी करना चाहिए। मात्र सम्यग् दर्शन से या मात्र सम्यग् ज्ञान से या हैं। बस रेल आदि में यात्रा करते समय सामायिक नहीं मानी जा | मात्र चरित्र धारण से मोक्ष न होगा। तीनों ही आवश्यक हैं। जो सकती है। क्योंकि क्षेत्र सीमा का परिमाण नहीं बन सकता है। ऐसा कहते हैं कि पहले सम्यग्दर्शन ही होना चाहिए, उन्हें अभी सामायिक प्रतिमाधारी को इसका अवश्य ध्यान रखना चाहिए। | आगम का पूरी तरह सही ज्ञान करना चाहिए। प्रत्येक मास में दो अष्टमी, दो चतुर्दशी चे चार पर्व आते श्रावक - हम तो व्रती बनना चाहते हैं, पर डर लगता है हैं। उन चारों पर्यों में सभी आरंभ, परिग्रह से मुक्त होकर धर्म | कहीं व्रत भंग हो गये तो। ध्यान करते हैं तथा पर्व के आगे पीछे के दिन एक समय आहार | मुनि- भैया! जब बस में बैठते हैं तो डर नहीं लगता, जल व पर्व में उपवास करते हैं। वह उत्कृष्ट प्रोषध है इसे | कहीं दुर्घटना हो गयी तो। जब व्यापार करते हैं तो डर नहीं लगता प्रोषधोपवास भी कहते हैं । पर्व के आगे पीछे एक ही समय आहार | कि कहीं घाटा हो गया तो, जब ऑपरेशन कराते हैं तो डर नहीं जल व पर्व में एक बार जल ग्रहण करते हैं वह मध्यम प्रोषध है। लगता कि कहीं मृत्यु हो गयी तो, किन्तु व्रत लेने में डर क्यों? व्रत तीनों दिन एकासन करना जघन्य प्रोषध है। जबकि दूसरी प्रतिमा धारण से कभी नहीं डरना चाहिए इसके बिना कल्याण न होगा। में पर्व के दिन ही एकासन आवश्यक है, सामयिक भी तीनों समय श्रावक - महाराज जी! पंचमकाल में तो मोक्ष है ही आवश्यक नहीं है। पाँचवी सचित्त त्याग प्रतिमा है इसमें अचित्त | नहीं, फिर अभी से व्रत क्यों धारण करें। (प्रासुक) पदार्थों को ही सेवन किया जाता है। रात्रि भोजन त्याग । मुनि- तुम्हारा कथन सत्य है किन्तु पंचमकाल में भी वृतों पहले भी था, परन्तु अब जो मन वचन काय कृत कारित अनुमोदना | के दो लाभ हैं। व्रतों को अच्छी तरह पालन करने से दुर्गति इन नौ प्रकार से रात्रि भोजन का तथा दिन में स्त्री सेवन का त्याग | (नरक, तिर्यंचगति) के अपार कष्टों से बच सकते हैं। तथा व्रतों करता है वही छठीं रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमाधारी है। पूरी तरह | के द्वारा अच्छी सल्लेखना कर लेते हैं तो जघन्य से दो तीन भव या ब्रह्मचर्य से रहना, सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। कृषि व्यापार आदि | उत्कृष्ट से सात आठ भव में मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। पंचमकाल 6 जनवरी 2003 जिनभाषित - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कारण भले ही इस भव से और भरत क्षेत्र से मोक्ष न हो, पर । श्रावक - आचार्यश्री ! मैंने निश्चय कर लिया कि अब विदेह क्षेत्र से तो हमेशा मोक्ष होता है। मानव पर्याय की दुर्लभता को नहीं खोना है। व्रत के बिना जीवन श्रावक- महाराज आज आपने मेरी आँखें खोल दी, मेरा व्यर्थ है, जबकि व्रत सहित मृत्यु सार्थक है। मैं तो अब एक क्षण मनुष्य जीवन सार्थक हो गया है। मैं इसी समय ही व्रती बनना भी व्यर्थ नहीं खोना चाहता हूँ। चाहता हूँ। कृपया कम से कम दूसरी प्रतिमा के व्रत देकर कृतार्थ आचार्य- ठीक है, एक बार पुनः विचार कर लो। करें। श्रावक - पक्का विचार कर लिया है। मुनि-देखो, मेरा काम आपको रास्ता दिखाना था। आपको आचार्य- ठीक है, अच्छे से साधना करना। दो प्रतिमा जो भी व्रत लेना हो, पास में आचार्यश्री हैं उनसे ग्रहण करो। और का संकल्प कर लो। कायोत्सर्ग (नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ लो) यदि कोई जाने अनजाने में दोष लग जावे तो, उनसे ही प्रायश्चित कर लो। लेकर व्रतों की शुद्धि करना। श्रावक- महाराज जल्दी से जल्दी मोक्ष जाने में मेरे को श्रावक - आचार्यश्री ! नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु कितना समय लगेगा? आचार्य - आशीर्वाद (मौन मुद्रा में) आचार्य- यदि तुम व्रती बनकर अच्छे से समाधिमरण कर श्रावक- आज मुनि श्री से मेरी आँखें खुल गयीं । कृपया लोगे तो आचार्य कहते हैं कि तीसरे भव में मोक्ष जा सकते हो । यहाँ कम से कम दूसरी प्रतिमा देकर कृतार्थ करें। से सोलह स्वर्ग, स्वर्ग से पुन: मनुष्य होकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हो। आचार्य - देखो, व्रत लेना सरल है, किन्तु उसका जीवन पर्यंत पालन करना होता है, यदि व्रत भंग हो जाते हैं, तो महान् श्रावक- समाधिमरण कैसे होता है? पाप लगता है। एक नियम तोड़ने का पाप एक मंदिर तोड़ने के आचार्य- अंत समय में समताभाव पूर्वक सभी प्रकार के पाप समान लगता है। इसलिए मृत्यु होने पर भी व्रत भंग नहीं आहार का त्याग पूर्वक शरीर का त्याग करना समाधिमरण है। करना चाहिए। विशेष भगवती आराधना ग्रंथ से समझना। महासंत के भोपाल आगमन से अमृत वर्षा से सरावोर हुई राजधानी आधुनिकता की दौड़ में अभ्यस्त भोपाल के नागरिकों । नेहरु नगर जैन मंदिर में आचार्यश्री के दर्शन करने राज्य की जीवनचर्या में अचानक आए बदलाव का कारण जानना | के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री श्री सुभाष सोजतिया एवं नगरीय चाहा तो ज्ञात हुआ कि एक महासंत के परम पवित्र पावन चरण प्रशासन मंत्री श्री सज्जन सिंह वर्मा भी पहुँचे। डॉ. पवन विद्रोही राजधानी में पड़ गए हैं। पिछले एक माह से मुनि मानतुंगाचार्य आचार्यश्री के दर्शनार्थ दोनों मंत्रियों को ले गए। आचार्यश्री के की तपस्या स्थली भोजपुर में शीतकालीन वाचना करने के | दर्शन कर दोनों मंत्री प्रभावित हुए तथा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा उपरांत सर्वोदयी सन्त आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज अपने | महोत्सव के लिए हर तरह का सहयोग देने का आश्वासन दिया। समूचे संघ के साथ राजधानी में पधारे। मिसरौद होते हुए | नेहरु नगर जैन मंदिर निर्माण के लिए श्री वर्माजी ने एक ट्रक जवाहर चौक स्थित श्री दिग.जैन मंदिर में प्रवेश करने के बाद | सीमेंट एवं श्री सुजोतिया जी ने ग्यारह हजार रुपये देने की आगामी 19 जनवरी से 25 जनवरी 2003 को भोपाल में आयोजित | स्वीकृति प्रदान की। पंचकल्याणक महोत्सव के स्थल न्यू दशहरा मैदान में पहुंचे। | रमता जोगी बहता पानी की कहावत को चरितार्थ करते आचार्चश्री के सान्निध्य में भूमिशुद्धि का कार्यक्रम प्रतिष्ठाचार्य हुए आचार्य श्री महावीर नगर पहुँचे। रविवार को आयोजित ब्रह्मचारी विनय भैया ने संपन्न कराया। धर्मसभा में आचार्य श्री ने कहा कि दूसरों के लिए जीने वाला ही रविवार के विशेष प्रवचनों में आचार्यश्री ने कहा कि जियो और जीने दो को सार्थक कर सकता है। उन्होंने कहा कि बाहरी आकर्षण को जब तक गौण नहीं किया जाएगा तब तक आँखें जो देखती हैं वह हमेशा सत्य नहीं हो सकता परन्तु ज्ञान अंतरंग में परिवर्तन संभव नहीं है। जो जैसा करता है उसे वैसा के चक्षुओं से हमेशा सार्वभौमिक सत्य दिखाई देता है। इस करते रहने दो आप तो सिर्फ अपना कर्म अच्छा करो तभी अवसर पर पंचकल्याणक महोत्सव समिति के अध्यक्ष श्री महेश सद्गति को प्राप्त हो पाओगे। इस धर्मसभा में विराजमान आचार्यश्री सिंघई एवं महामंत्री श्री सुरेशचंद जैन एवं पं. सुनील शास्त्री, की परम विदुषी शिष्या आर्यिका पूर्णमति माताजी ने कहा कि | आगरा ने अपने उद्गार व्यक्त किए। पहले किरण आती है फिर सूरज का आगमन होता है। सभा पं. कमलकुमार 'कमलाकुंर' कोटरा, भोपाल का संचालन पं. कमलकुमार 'कमलांकुर' ने किया। -जनवरी 2003 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपवास मुनि श्री चन्द्रसागर जी al उपवास: उत्सव लाता वैसे ही पूर्वोचार्यों ने उपवास को कर्मों के दहन की क्रिया पाप मिटाता कहा है। यदि रोग से बचना है शरीर शुद्धि रखना, उपवास के द्वारा ही सम्भव हो सकती है। जैसे अग्नि द्वारा कचरे को जलाया जाता वा वासना से भगाता - है वैसे ही उपवास रुपी तपाग्नि के द्वारा शरीर और आत्मा के सम्यक् दिलाता विकारी भाव रूप कचरे को जला कर शरीर और आत्मा को पवित्र समीचीन उपयोग में लगाता बनाया जाता है। सिद्धान्त व्याख्या में उपवास को अनरान संज्ञा भी उपवास तेरे पास मेरा वास प्राप्त है, जो अन्य से शरीर को शून्य रखने के लिए कहता है। तू नहीं है इन्द्रियों का दास उपवास से देह का स्नान परिणामों की खोट को उजाड़ना ही तो देश में छोड़ ममता समता से समाजा आत्म साधक की साधना का प्रतिफल है, हमें यदि रहे कि अनशन से कभी भी शरीर नहीं टूटता मन ढीला हुआ धारणा शक्ति कमजोर आकुलता मिटा निराकुलता जगा पड़ी नहीं कि शरीर के टूटने और दुखने की अनुभूति होने लगती “जीवन्त उपवास" है। ये तो इन्द्रियों के संकोच का साधन है। उपवास (कहें या पाप से मुक्ति, दुख से सुख, बुरे से अच्छे की ओर आना अनशन कहें या निराहार ये) एक ऐसी गुफा है जहाँ एकांत है, देह से ममता का भाव छूट जायेगा तो समता मय परिणाम से सोता शांति है प्रकाश तो है किन्तु चकाचौंध नहीं है वहाँ विषयभोगों की की यात्रा प्रारंभ कर हम अपने धाम में स्थित हो सकते हैं हमें याद चकाचौंध नहीं है कि आत्मा का प्रकाश है। यहाँ आत्मा का निशप्रति रहे कि भोजन दुख का तेज है क्योंकि भोगने के अर्थ में प्रकाश पर्याप्त है बाह्य प्रकाश का आलम्बन दुख की यात्रा सुख के प्रयोग है जहाँ भोग की अवस्था मौजूद वहाँ कलह आपदा विपदा मार्ग में रोड़ा अटकाना है। अनशन करके अनाज की बचत करना है, वैसे भी भोजन का न शब्द नाश का सूचक है। और ज शब्द देश की अनाज समस्या का समाधान है। आरंभ में कमी करना जगत भ्रमण का वाचक है। हिंसा से बचना अहिंसा पर चलना उपवास का मार्ग है। बस अब हमें चाहिए कि हम उपवास की ओर चलें अविरल साधना (आवश्यकता) में वृद्धि का दिन होता है। परिणामों में जो चलते चलें तो उ शब्द उत्सव उमंग पैदा कर मन में शांति की विशुद्धि आती है, उसमें लब्धी स्थानों में नियम से वृद्धि होती है। स्थापना करता है और आगे बढ़ें तो प शब्द पाप मिटाता है, तो वा निकट से आत्मा के दर्शन मिलन का यह महोत्सव मनुष्य जीवन शब्द वासना से भगाता है अब क्या कहानी गहराई में डूबने पर स को सार्थक बनाता, संकल्प पूर्वक क्रिया या किसी मनुष्य जीवन शब्द सम्यक दिलाता समीचीन उपयोग में लगाता है। हम अनुभव में ही सही रूप से हो पाती है। जो अध्ययन किया है। उसे उपवास के आधार से कह सकते हैं तो कष्ट सुख का साधनाभूत तत्व है, के द्वारा आत्मसात किया जा सकता है यह जुगाली का समय रहता देह को सताओं आत्मा को पाओ, कर्म को जलाओ स्वकल्याण के है। अब ध्यान रहे कि शरीर में कितना भी कष्ट हो तत्काल मार्ग पर लग जाओ। मैंने देखा मैंने पाया भोजन रोग का कारण है समयसार याद आये कोई आत्मा को मार नहीं सकता, कोई छेद राग-द्वेष की जड़ है। भोजन शरीर में पहुँचा नहीं की बेदना प्रारंभ नहीं सकता, मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ ऐसी भेद भिन्नता पुद्गल आगे चलकर आरंभ बन आत्मा के उपवन से हटा कर विनाश अलग जीव उपवास के महातीर्थ में उपजती है यह आत्म गुणा की पतन की ओर ला देता है। पूजा का दिवस जब भी मुक्ति का सम्पादन होगा उपवास करते उपवास के पास आये नहीं कि विकल्प जाल से बच गये, हुये ही होगा प्रवृत्ति में नहीं निवृत्ति में भोजन करते हुये कभी सभी अवस्था में निराहार अवस्था श्रेष्ठ आत्मीय अवस्था ही निर्विकार किसी को मुक्ति का लाभ नहीं हुआ न हो सकता है। यहाँ प्रत्येक दशा जो हमारे मनोभावों में उज्जवलता आती है। साथ ही निद्रा जय | कार्य से छूटने की जो भाषा है वही उपवास की वास्तविक जीव विजय को पालती है। ये तो आत्मा के निकट आने रूप यात्रा जो उपासना के विम्ब में मन, वचन, काय तीनों की एकता के साथ हिंसा से अहिंसा की ओर चरण बढ़ना जो कि आचरण का मूलतः | लगना उपवास के प्रवर्तक तीर्थंकरों के प्रति समर्पण भाव रखना सूचक बिन्दु है। पापों से बचत का मार्ग शांति की पताका है। । ही उत्थान कि दिशा का बोध दर्शन हमारे बन्द नेत्रों को खोल 8 जनवरी 2003 जिनभाषित - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म शक्ति का दिग्दर्शन कराता है। राग छूटेगा तो विरागता से | कारण बन याचना वृत्ति से विराम ले राम की ओर चलती है यदि जनहित रखता है, वैसे ही राग आग का कारण है, खाने का भाव | उपवास का संकल्प है तो कोई भोजन की थाली भी दिखा दे तो संसार की वृद्धि का कारण खाना पड़ रहा है एक दिन ऐसा आये भी इच्छा नहीं मचल सकती, साध्य को प्राप्त करने वाले ऐसे ही खाना ही छूट जाये तो ऐसा भाष रखता है वह नीरस भोजन करने साधक हुआ करते । गला सूखते हुए भी पानी पीने की इच्छा नहीं वाला ही होता है। जिसका संसार बहुत कम हो सकता है, ऐसा | करते हैं कई तो ऐसे हैं जो शरीर की सेवा से भी विराम ले आत्मा उपवास शीतल धाम वन दुनियाँ के भोगियों को उपदेश बिना बोले सेवा में लग जाते हैं। इसी साधना काल में यदि साधक को कोई देता है कि शांति, सुख, समृद्धि चाहते हो तो भोग से विराम लेना | वेदना हो जाये तो वे आह जन्य शब्द का प्रयोग नहीं करते पंचपरमेष्ठी सीखो तो तुम्हें स्व की अनुभूति होगी। वाचक शब्द का ही प्रयोग करते हैं और आगम वाक्य है, उपवास वैसे भी दोषों का परिमार्जन करने की विधी उपवास की | तप आत्मा का परम उपकारक है। चर्या में निहित है। मोक्ष के धाम का पहुँच मार्ग के पास रहना मौन मराठी में एक कहावत है किकी अवस्था है। एक बात और स्मरणशाली बनी की उपवास के "साधाकांची दशा उदास असावी" समय चर्या में निखार लाने के लिये विशेष साधना करना जिससे साधक की दशा विषय भोगों से उदास रहना चाहिये तब शरीर को अधिक पीड़ा है। शरीर को जितना अधिक पीड़ित | कहीं वह होश पूर्वक मरण कर सकता है ये साधना उपवास के करोगे उतना अधिक शीतल शांति का अनुभव होगा परिणाम | वशीभूत व्यक्ति सल्लेखना (समाधी) के निकट आ सकता है। और स्वरूप मोह, ममता, अपनापन छूटता जायेगा। इन्द्रियों से लगातार आत्मा में वास कर पंचपरमेष्ठी के स्मरण में काल व्यतीत करके काम लेने से वे कमजोर नहीं, श्रमशील बनती हैं और मन को उपवास नाम को सार्थक कर सकता है क्योंकि उपवास का दिवस खीचे रहने से संकोच की स्थिति नहीं बन सकती। मन ढीला होते | पंचपरमेष्ठी के स्मरण का काल होता है। ही चर्या में प्रमाद जन्य दोष लगने का पूरा-पूरा अवसर रहता है। एक आहार एक उपवास साथ की साधना का प्रतिफल उपवास ही ऐसी अग्नि है जो विकारी भावों को जलाने में सहकारी | चिन्तन के रूप में पूर्ण हुआ। ध्वजारोहण एवं शोभायात्रा बिजौलिया, 10 दिसम्बर । बिजौलिया पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र पर दिनांक 11 से 16 दिसम्बर के जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव का ध्वजारोहण एवं शोभायात्रा हर्ष उल्लासमय वातावरण में सम्पन्न हुआ। पूज्य आचार्य 108 श्री विद्यासागर जी महाराज के सुयोग्य शिष्य पूज्य मुनि श्री 108 सुधासागर जी, 105 क्षुल्लक श्रीगंभीर सागर जी महाराज, 105 क्षुल्लक श्री धैर्यसागर जी महाराज ससंघ सान्निध्य में बैण्ड, बाजे, ढोल-नगाड़े के साथ ऐतिहासिक जलूस, सुसज्जित वेशभूषा में, अनुशासित ढंग से शोभायात्रा कृषि उपज मण्डी से प्रारंभ होकर पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र पर पहुँची। ध्वजारोहण श्री अशोक पाटनी (आर.के. मार्बल्स लि. किशनगढ़), श्री गणेश राणा, जयपुर द्वारा सम्पन्न हुआ। सभी अतिथियों ने मुनिश्री को श्रीफल भेंट कर आशीर्वाद प्राप्त किया। पिच्छिका परिवर्तन समारोह बिजौलिया, 10 दिसम्बर। श्री पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र, बिजौलिया के श्री 1008 जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के मण्डप स्थल पर दोपहर में श्री 108 मुनि सुधासागर जी महाराज ससंघ का पिच्छिका परिवर्तन समारोह सम्पन्न हुआ। पूज्य 108 मुनि श्री सुधासागर जी महाराज की पुरानी पिच्छिका श्री पी.सी.जैन, भीलवाड़ा ने, पूज्य 105 क्षुल्लक श्री गम्भीर सागर जी महाराज की पुरानी पिच्छिका श्री शांतिलाल ने, पू. 105 क्षु. श्री धैर्यसागर जी महाराज की पिच्छिका श्री कुन्तीलाल गोधा, बिजौलिया ने त्याग, संयम, व्रत लेकर ग्रहण की और नवीन पिच्छिकाएँ कमेटी, नवयुवकमण्डल, सुज्ञान जाग्रति मण्डल बिजौलिया ने भेंट की। पूज्य मुनि ने श्री पिच्छिका परिवर्तन समारोह में बोलते हुये कहा कि श्रमण संस्कृति के सूत्र दिगम्बर जिनमुद्रा रुढ़िवादिताओं से परे मानवता का संदेश देती है और पूरे विश्व के कल्याण की भावना का प्रतीक है। दि. जैन मुनियों के पास यह कोमल मयूर पिच्छिका छोटे जीवों की रक्षा के लिये है। -जनवरी 2003 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतैरावत में वृद्धिह्रास किसका है? स्व.पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया श्री भगवदुमास्वामी कृत-तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे अध्याय में "इमौ वृद्धिह्रासौ कस्य भरतैरावतयोर्ननु क्षेत्रे एक सूत्र है कि 'भरतैरावतयोर्वृद्धिहासौ षट्समयाभ्या- | व्यवस्थितावधिके कथं तयोवृद्धिह्रासौ अत उत्तरं पठति ।" मुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्।' इसका शब्दार्थ ऐसा होता है कि | अर्थ- यह घटना बढ़ना भरत और ऐरावत क्षेत्रों का है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह कालों में भरत और ऐरावत का | यदि यहाँ पर यह शंका हो कि भरत और ऐरावत क्षेत्र तो अवधिवाले वृद्धिह्रास होता है। इस सामान्य वचन के दो अभिप्राय हो सकते | स्थित हैं कभी उनका बढ़ना घटना नहीं हो सकता, फिर यहाँ हैं। एक तो यह है कि 'भरत और ऐरावत का क्षेत्र घटता बढ़ता है | उनके वृद्धिह्रास का उल्लेख कैसा? वार्तिककार इसका उत्तर देते और दूसरा यह है कि 'भरतैरावत में प्राणियों के आयुकायादि घटते बढ़ते रहते हैं। भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासौ....' और 'ताभ्यामपरा "तात्त्थ्यात्ताच्छब्द्यसिद्धिर्भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासयोगः।।1।। भूमयोऽवस्थिताः' इन सूत्र वाक्यों से न मालूम सूत्रकार का असली | इहलो के तात्स्थ्यात्ताच्छब्द्यं भवति यथा गिरिस्थितेषु वनस्पतिषु अभिप्राय क्या था? तत्त्वार्थसूत्र पर जो राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, दह्यमानेषु गिरिदाह इत्युच्यते, तथा भरतैरावतस्थेषु मनुष्येषु सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थसार जैसी विशाल टीकायें हैं, वे भी एकमत वृद्धिह्रासावापद्यमानेषु भरतैरावतयोवृद्धिह्रासावुच्येते।'' नहीं हैं और इन टीकाओं के अतिरिक्त अन्य जैनग्रंथों का भी प्राय: | अर्थ- संसार में तात्स्थ्य-रूप से ताच्छब्ध का अर्थात् यही हाल है। इन सब में कोई ग्रंथकर्ता तो 'आयुकायादि की वृद्धि | आधेयभूत पदार्थों का कार्य आधारभूत पदार्थों का मान लिया जाता ह्रास का कथन करते हैं, किन्तु 'भूमि का वृद्धिह्रास नहीं हो है, जिस प्रकार पर्वत में विद्यमान वनस्पतियों के जलने से गिरिदाह सकता, या हो सकता' ऐसा कुछ नहीं कहते। कोई आयुकायादि | माना जाता है उसी प्रकार भरत और ऐरावत क्षेत्रों के मनुष्यों में की ही वृद्धि ह्रास बताते हैं और भूमि के वृद्धि हास का स्पष्ट | वृद्धिह्रास कह दिया जाता है। खंडन करते हैं। तथा कोई ऐसे भी हैं जो क्षेत्र की घटाबढ़ी का "अधिकरणनिर्देशो वा ॥2॥ मुख्य उल्लेख करते हैं व आयुकायादि की घटाबढ़ी गौणरूप से "अथवा भरतैरावतयोरित्यधिकरणनिर्देर्शोऽयं स चाधेयमाबताते हैं और कोई सूत्रकार की तरह केवल सामान्य ही विवेचन | कांक्षतीति भरते ऐरावते च मनुष्याणां वृद्धिह्रासौ वेदितव्यौ।" करते हैं। नीचे हम पाठकों की जानकारी के लिये इसी बात को अर्थ- अथवा 'भरतैरावतयोः' यह अधिकरणनिर्देश है। ग्रंथों के उद्धरण देकर स्पष्ट करते हैं। आचार्य नेमिचन्द्र त्रिलोकसार अधिकरण सापेक्ष पदार्थ है, वह अपने रहते अवश्य आधेय की में कहते हैं कि आकांक्षा रखता है। भरत और ऐरावत रूप आधार के आधेय "भरहेसुरेवदेसु ये ओसप्पुस्सप्पिणित्ति कालदुगा। मनुष्य आदि हैं, इसलिए यहाँ पर यह अर्थ समझ लेना चाहिए कि उस्सेधाउवलाणं हाणीवड्वी य होतित्ति ।।779॥ भरत और ऐरावत क्षेत्रों में मनुष्यों की वृद्धि और ह्रास होता है। अर्थ- भरत और ऐरावत क्षेत्र में जीवों के शरीर की ऊँचाई | इसी सूत्र का विवेचन करते हुए पूज्यपादाचार्य ने सर्वार्थसिद्धि में आयु, बल, इनकी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में क्रम से ऐसा कहा हैवृद्धि हानि होती है। "वृद्धिश्च ह्रासश्च वृद्धिह्रासौ। काभ्यां षट्समयाभ्याम् । कयो: सकलकीर्ति कृत मल्लिनाथपुराण के 7वें परिच्छेद में लिखा भरतैरावतयोः। न तयोः क्षेत्रयोवृद्धिहासौ स्तः। असम्भवात्। तत्स्थानां मनुष्याणां वृद्धिहासौ भवतः। अथवा अधिकरणनिर्देश: भरते ऐरावते उत्सर्पिण्सवसर्पिण्यो: षटकाला हानिवृद्धिजाः। च मनुष्याणां वृद्धिहासाविति। किंकृतौ वृद्धिहासौ? अनुभवायु: आयुःकायादिभेदेन सर्वे प्रोक्ता जिनेशिना ।। 88 । प्रमाणादिकृतौ।" भावार्थ- षट्कालों में जो वृद्धिह्रास होता है वह भरतैरावत अर्थ- उत्सर्पिणी ओर अवसर्पिणी के छह काल आयु के क्षेत्र का नहीं होता, क्योंकि यह असम्भव है; किन्तु भरतैरावत कायादि की हानि वृद्धि को लिये हुये हैं, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। में स्थित मनुष्यों के भोगोपभोग आयुकायादि का होता है। वही इन अवतरणा से इतना हा सिद्ध ह कि आयुकायादि का हानवृद्धि | अधिकरण निर्देश से भरतैरावत का कहा जाता है। होती है किन्तु इससे क्षेत्र का हानिवृद्धि विषयक कुछ भी विधिनिषेध इन उल्लेखों से साफ प्रकट है कि 'भरतैरावत क्षेत्र की हानि प्रकट नहीं होता। अस्तु आगे देखिये वृद्धि नहीं हो सकती। बल्कि सर्वार्थसिद्धि के कर्ता ने तो उसे तत्त्वार्थराजवार्तिक के तीसरे अध्याय में उक्त सूत्र की व्याख्या | बिल्कुल असम्भव बताया है। अब सामान्य कथन देखियेकरते हुए श्रीमद्भट्टाकलंकदेव कहते हैं कि महाकवि वीरनन्दि ने चन्द्रप्रभचरित काव्य के 18 वें सर्ग 10 जनवरी 2003 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में कहा है कि के वचनों से क्षेत्रस्थित मनुष्यों के आयुकायादि का वृद्धिह्रास "भरतैरावते वृद्धिहासिनी कालभेदतः। प्रतिपादन किया है, न कि पौद्गलिक भूमिका । प्रतिवादी का ऐसा उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यौ कालभेदावुदाहृतौ ॥35॥" कहना ठीक नहीं है, क्योंकि गौण शब्द के प्रयोग से मुख्य अर्थ तथा अमृतचन्द्राचार्य विरचित तत्त्वार्थसार में लिखा है। घटित होता है वर्ना निष्प्रयोजन मुख्य शब्द का अर्थ क्यों छोड़ा "उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यौ षट्समे वृद्धिहानिदे। जावे। अत: भरतैरावत के क्षेत्र का वृद्धिहास मानना ही मुख्य है भरतैरावतौ मुक्त्वा नान्यत्र भवतः क्वचित्।। 208॥" और उन क्षेत्रस्थ मनुष्यों का वृद्धिह्रास मानना गौण है, इस प्रकार इन श्लोकों में वही सामान्य कथन किया है जैसा कि कहना ही ठीक है और यही प्रतीति में आता है। तत्त्वार्थसूत्र में है। इसी ढंग को लिये हुए ऐसा ही अस्पष्ट कथन श्लोकवार्तिक के इस कथन से साफ है कि विद्यानंदस्वामी हरिवंशपुराण में है जिसमें कि तीन लोकका खूब विस्तृत वर्णन है, भूमि की घटी-बढ़ी को मुख्य रूप से मानते हैं, साथ ही उनकी जिनसेन ने लिखा है। यथा उक्त कारिका से यह भी प्रकट होता है कि उस समय क्षेत्र की कल्पस्ते द्वे तथार्थानां वृद्धिहानिमती स्थितिः। हानि-वृद्धि को मानने वाले और न मानने वाले दोनों प्रकार के भरतैरावत क्षेत्रेष्वन्येष्वपि ततोऽन्यथा ॥ आगम मौजूद थे, जिसे उन्होंने 'प्रवचनैकदेशस्य च सातवें सर्ग के 63वें श्लोक का हिन्दी अनुवाद ऐसा है तद्बाधकस्याभावात् आगमान्तरस्य च तद्बाधकस्याप्रमाणत्वात्' शब्दों 'उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी में भरतैरावत के पदार्थों का वृद्धि ह्रास से प्रकट किया है और क्षेत्र की हानिवृद्धि के बाधक आगम को होता है।' अप्रमाण कोटि में डाल दिया है। न केवल यही, बल्कि श्लोकवार्तिक अब क्षेत्र की हानि वृद्धि मानने वालों की सुनिये । विद्यानंद | में कालभेद से भमि को समतल मानने से भी इन्कार किया है. महोदय अपने श्लोकवार्तिक में 'ताभ्यामपराभूमयोऽवस्थिताः' सूत्र | जैसा कि उसकी निम्न पंक्तियों से जाहिर किया हैकी व्याख्या करते हुए कहते हैं 'न च वयं दर्पणसमतलामेव भूमिं भाषामहे प्रतीतिविरोधात् "न हि भरतादिवर्षाणां हिमवदादिवर्षधराणां च सूत्रत्रयेण तस्याः कालादिवशादुपचयापचयसिद्धेर्निम्नोन्नताकाररसद्भावात.' विष्कंभस्य कथनं बाध्यते प्रत्यक्षानुमानयोस्तदविषयत्वेन (पृष्ठ 377) तबाधकत्वायोगत्। प्रवचनैकदेशस्य च तद्बाधकस्याभावात् पुन: आगमांतरस्य च तद्बाधकस्याप्रमाणत्वात्। तत एव सूत्रद्वयेन 'तदापि भूमिनिम्नत्वोन्नतत्वविशेषमात्रस्यैव गते: तस्य च भरतैरावतयोस्तदपरभूमिषु च स्थिततेर्भदस्य वृद्धिहासयोगायोगाभ्यां | भरतैरावतयोर्दष्यत्वात.' (पष्ठ 378) विहितस्य प्रकथनं न बाध्यते।" (पृ. 354) ऐसे ही गुणभद्राचार्यकृत उत्तरपुराण के इस श्लोक से इसका भाव ऐसा है कि भरतैरावत क्षेत्र का वृद्धिहास मानने ध्वनित होता है। यथापर ऊपर तीन सूत्रों में जो भरतादिक्षेत्र और हिमवदादि वर्षधर पर्वतों ततो धरण्या वैषम्यविगमे सति सर्वतः। का विस्तार वर्णन किया है, उसमें बाधा आएगी। शंकाकार की इस भवेच्चित्रा समाभूमिः समाप्तात्रावसर्पिणी 353 पर्व 76 शंका का उत्तर देते हुए विद्यानंदि लिखते है कि उसमें कोई बाधा अर्थ- इसके बाद पृथ्वी का विषमपना सब नष्ट हो जायेगा नहीं आ सकती क्योंकि वह प्रत्यक्ष अनुमान का विषय नहीं है। रही और चित्रा पृथ्वी निकल आवेगी तथा यहाँ ही पर अवसर्पिणी आगमप्रमाण की बात तो प्रवचन का एक देश तो उसमें कोई बाधा काल समाप्त हो जायेगा। नहीं देता और जो उसके बाधक आगमान्तर हैं, वे अप्रमाण हैं श्लोकवार्तिक में अन्य भी कई ऐसी बातें है जो ग्रन्थान्तरों इसलिए सूत्रद्वय से जो भरतैरावत और अपर भूमि के वृद्धिह्रासके योग-अयोग का किया कथन है वह अबाधित है।' से एकमत नहीं रखतीं, उनका विशेष विवेचन अन्य स्वतन्त्र लेख जो लोग इसका विपरीत भाव निकालते हैं उन्हें द्वारा बताया जा सकता है। श्लोकवार्तिक में एक खास उल्लेख श्लोकवार्तिक के पृष्ठ 378 की निम्नस्थ पंक्तियों पर ध्यान देना योग्य विषय यह है कि 'मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयोर्नुलोके' सूत्र का चाहिए निरूपण करते हुए भूगोल भ्रमण पर अच्छा विचार किया गया है "भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासौ षट् समयाभ्यामुत्सर्पिण्य- | इस प्रकार का वर्णन अन्य संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थों में नहीं मिलता वसर्पिणीभ्यां इति वचनात् तन्मनुष्याणामुत्सेधानुभवायुरा- | है। यह खूबी श्लोकवार्तिक में ही है। दिभिर्वृद्विहासौ प्रतिपादितौ न भूमेरपरपुद्गलैरिति न मन्तव्यं, इस विषय में श्वेताम्बरों का आगम निम्न प्रकार हैगौणशब्दप्रयोगान्मुख्यस्य घटनादन्यथा मुख्यशब्दार्थातिक्रमे आत्मारामजी-कृत 'सम्यक्त्व-शल्योद्वार' पुस्तक के पृष्ठ प्रयोजनाभावात्। तेन भरतैरावतयो: क्षेत्रयोवृद्धिह्रासौ मुख्यत: | 45 में लिखा है - प्रतिपत्तव्यौ, गुणभावतस्तु तत्स्थमनुष्याणामिति तथा वचनं 'शाश्वती वस्तु घटती बढ़ती नहीं है सो भी झूठ है क्योंकि सफलतामस्तु ते प्रतीतिश्चानुल्लंघिता स्यात्"। गंगा-सिंधु का पाट, भरतखण्ड की भूमिका, गंगासिन्धु की वेदिका, भावार्थ- "भरतैरावतयोर्वृद्धि हासौ.....'' इत्यादि सूत्रकार | लवण समुद्र का जल वगैरह बढ़ते-घटते हैं।' -जनवरी 2003 जिनभाषित 11 'शा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सारे विवेचन से जो ऊपर दिगम्बर जैनों के आगम वाक्य उद्धृत किये गये हैं उनमें करीब-करीब सब ही विद्यानंद से सहमत नहीं मालूम होते, खासकर अकलंक और पूज्यपाद तो बिल्कुल ही विरुद्ध हैं। हरिवंशपुराण का कथन श्वेताम्बरों के सम्यक्त्व शल्योद्वार से कुछ समानता रखता है। हाँ, अलबत्ता सूत्रकार के वचन जरूर विद्यानन्द की तरफ झुकते ज्ञात होते हैं और श्वेताम्बरों के उक्त कथन के साथ तो विद्यानंद का अति साम्य है ही । किन्तु दि. जैन ग्रन्थों में ऐसा देखने में नहीं आता जिसमें विद्यानन्द की तरह क्षेत्र की हानि - वृद्धि का स्पष्ट उल्लेख हो विद्वानों का कर्तव्य है कि वे इस विषय के प्राचीन ग्रन्थ टटोलें । खोज करने पर जरूर कुछ इस विषय रहस्य का उद्घाटन होगा। विद्यानन्दजी के प्रवचनैकदेशस्य च तद्बाधकस्याभावात् " वाक्य से तो वैसा कथन मिलने की और भी अधिक सम्भावना है। स्वामी विद्यानन्द जी बड़े नैयायिक विद्वान् थे, इसलिये तर्क बल से वैसा कथन कर दिया होगा, ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है। विद्यानन्द जैसे एक ऊँचे आचार्य के प्रति वैसी भावना रखना एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य समझना चाहिये। किसी सम्यक् को धारण करो, मूल मंत्र यह जान । भव-भव के बंधन करें, ये ही तीर्थ महान ॥ पानी पीवो छानकर, रोग निकट नहीं आय। लोग कहें धर्मात्मा, जीव जन्तु बच जाय ॥ बीड़ी मदिरा पीवना नहीं भलों का काम । भंग आदि की लत बुरी, क्यों होते बदनाम ॥ सुभाषित जुआ खेलना मांस मद, वेश्या-गमन शिकार । चोरी परनारी रमण, सातों व्यसन निवार ॥ काम क्रोध मद लोभ से, हिय से अन्धे चार । नयन अन्ध इनमें भला, करे न पर अपकार ॥ मात-पिता की चाकरी, यह भी तीरथ जान । सुख पावे प्राणी सदा, सुनलो देकर कान ॥ 12 जनवरी 2003 जिनभाषित सिद्धान्त की बात को स्वरुचि से निरूपण करना स्वयं विद्यानन्दजी ने अनादरणीय कहा है। यथा- "स्वरुचिविरचितस्य प्रेक्षवतामनादरणीयत्वात्' (श्लोकवार्तिक पू. 2 ) पुन: 'न पूर्वशास्त्रानाश्रयं यतः स्वरुचिविरचित्वादनादेयं प्रेक्षावतां भवेदिति यावत् (श्लोकवार्तिक पू. 2 ) जिन्होंने विद्यानन्दजी के ग्रन्थों का मनन किया है वे मानते हैं कि जिन शासन का जो कुछ भी गौरव है उसका श्रेय विद्यानन्द जैसे आचार्य महोदयों को ही है। अतः विद्यानन्द जी की कृति पर अश्रद्धा प्रकट करना निःसार है। बल्कि हमें तो उनसे अपने को धन्य समझना चाहिए कि ऐसे ऐसे तार्किक दिग्गज विद्वानों ने भी परमपावन जिनेन्द्र का आश्रय लिया है और जब कि विद्यानन्द स्वामी ने खुद अपने कथन को प्रवचन के एक देश से अबाधित लिखा है, तो फिर स्वरुचि रचना की कल्पना उठाने को स्थान ही कहाँ है ? 'जैन निबन्धरत्नावली' से साभार संकलन : सुशीला पाटनी मधुर वचन ही बोलिये, करें सभी सम्मान । वशीकरण यह मंत्र है, निश्चय कर यह मान ॥ काम नित्य खोटे करे, खोजे सुख का मेल । फिरता चक्कर काटता, ज्यू घाणी का बैल ॥ भीतर से धर्मी बनो छोड़ो मायाचार। करनी - कथनी एक हो, यही धर्म का सार ॥ चक्रवर्ती की संपदा, इन्द्र सरिखे भोग। काक वीट सम गिनत हैं, सम्यग्दृष्टि लोग ॥ कर्तव्य सदा करते रहो, होनी है सो होय । मत झूठी चिन्ता करो, अंतर पड़े न कोय। आर. के. मार्बल्स लि., मदनगंज किशनगढ़ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव का अकाल मरण : एक व्या डॉ. श्रेयांसकुमार जैन जीव का अकाल मरण भी होता है, ऐसा प्राक्तन आचार्यों । वे लोग महात्मा/सत्पुरुष कहलायें ऐसे लोगों के मन्तव्य को पुष्ट ने कहा है। भुज्यमान आयु के अपकर्षण का कथन बहुलता से | करने हेतु डॉ. हुकुमचन्द्र भारिल्ल द्वारा लिखित "क्रमबद्ध पर्याय" किया गया है। अधिकांशरूप से यह कहा गया है कि कर्मभूमिया नामक पुस्तक जब से प्रकाशित हुई तभी से विशेषरूप से लोगों तिर्यञ्च और मनुष्य अपवर्त्य आयु वाले होते हैं क्योंकि इनकी को "अकालमरण" नहीं होता है, यह मतिभ्रम हुआ है, क्योंकि भुज्यमान आयु की उदीरणा संभव है। इस पुस्तक में आचार्य प्रणीत ग्रन्थों की उपेक्षा कर क्रमबद्धपर्याय मुख्यत: आध्यात्मिक विषय के प्रतिपादक तत्त्वार्थसूत्र की सिद्धि हेतु अकालमरण का निषेध किया गया है, केवल काल नामक ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय के अन्तिम सूत्र "औपपादिक मरण को ही माना है, जो व्यवहारनय के विपरीत है। चरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः" से स्पष्ट है कि आचार्यों ने निश्चय-व्यवहार का आश्रय लेकर ही सर्वत्र उपपाद जन्म वाले देव और नारकी, चरमोत्तम देहधारी और व्याख्यान किया है, उन्होंने "अकालमरण" के विषय में जो कहा असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीव अनपवर्त्य (परिपूर्ण) आयु है, वही यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। प्राय: सभी आर्षग्रन्थों में वाले होते हैं। जो इनसे भिन्न संख्यात वर्षायुष्क कर्मभूमिया मनुष्य अकालमरण को माना गया है। और तिर्यञ्च हैं वे अपूर्ण आयु वाले भी होते हैं, उनकी आयु पूर्ण पञ्चसमवाय ही कार्यसाधक हैं, अकेले नियति से सिद्धि होने से पहिले भी क्षय हो सकती है। नहीं होने वाली है। कार्य की सिद्धि के लिए निमित्त और पुरुषार्थ सूत्र में आये हुए अनपवर्त्य शब्द के आधार पर ही आचार्य | की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। कुछ ऐसे निमित्त जीव को अकलंक देव ने लिखा है "बह्यस्योपघातनिमित्तस्य विषशस्त्रादेः | मिलते हैं, जिनके कारण भुज्यमान आयु की उदीरणा हो जाती है सति सन्निधाने ह्रासोऽपवर्त इत्युच्यते। अपवर्त्यमायुः येषां त इमे और जीव का समय से पूर्व अकाल में ही मरण हो जाता है। इसी अपवायुषः नापवायुषोऽनपवायुषः। एते औपपादिकादय को शास्त्रीय प्रमाणों सहित प्रस्तुत किया जा रहा हैउक्ता अनपवायुषाः, न हि तेषामायुषो बाह्यनिमित्तवशाद आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने अकालमरण के निम्न कारण पवर्तोऽस्ति ।" अर्थात् बाह्य कारणों के कारण आयु का ह्रास होना | बतलाये हैंअपवर्त है। बाह्य उपघात के निमित्त विष शस्त्रादि के कारण आयु विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणं संकिलेसाणं। का ह्रास होता है, वह अपवर्त है। अपवर्त आयु जिनके है, वह आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिजदे आऊ ॥25॥ अपवर्त आयु वाले हैं और जिनकी आयु का अपवर्तन नहीं होता, वे हिम अणलसलिलगुरुयर पव्वतरुरुहण पडयणमंगेहिं। देव,नारकी,चरम शरीरी और भोगभूमिया जीव अनपवर्त आयु रसविज्जोयधराणं अणयपसंगेहिं विविहेहिं ।।26।। - . वाले हैं, क्योंकि बाह्यकारणों से इनकी आयु का अपवर्तन नहीं . भावपाहुड़ होता है। - - अर्थात्- विषभक्षण से, वेदना की पीड़ा के निमित्त से, अपवर्तन शब्द का अर्थ घटना/कम होना है और अनपवर्तन | साधर क क्षय हा जान स, भय स, शस्त्रघात स, सक्लश पारणाम का अर्थ कम न होना है। आयु कर्म का अपवर्तन ही अकालमरण | से आहार तथा श्वास के निरोध से, आयु का क्षय हो जाता है और है। अर्थात् पूर्वबन्ध अनन्तर होने वाले आयकर्म का उदय होकर हिमपात से अग्नि से जलने के कारण, जल में डूबने से. बडे पर्वत उसके क्षय के कारण जो मरण होता है, उसको अकालमरण या पर चढ़कर गिरने से, बड़े वृक्ष पर चढ़कर गिरने से, शरीर का भंग अपमृत्यु कहते हैं। जो मरण आयुकर्म के पूर्वबन्ध के अनुसार | हान स, पारा आद रस क सयाग (भक्षण.) स आयु का व्युच्छद अपवर्तन के अभाव में होता है, वही स्वकाल मरण है। हो जाता है। .. शास्त्रों में स्वकालमरण और अकालमरण दोनों का व्याख्यान आचार्य शिवार्य सल्लेखना लेने वाले भव्यात्मा को संबोधन है, किन्तु नियतिवाद के पोषक एकान्तवादी विद्वानों ने पर्यायों की | करते हुए कहते है.......... नियतता को सिद्ध करने के लिए शास्त्रों में वर्णित अकालमरण [...........इय तिरिय मणुय जम्मै सुइदं उववज्झि ऊण बहुबार। जैसे विषय का निषेध करना शुरु किया। ऐसा करना मुझे सोद्देश्य अवमिच्चु महादुक्खं तिव्वं पत्तोसि तं मित्तं ।।27 ।। भग.आ. लगता है, क्योंकि लोगों को संसार, शरीर, भोगों से भयभीत न हे मित्र इस प्रकार तिर्यञ्च और मनुष्य जन्म में चिरकाल रहने की प्रेरणा और पुरुषार्थहीन बनाना उनका उद्देश्य रहा है, | तक अनेक बार उत्पन्न होकर तू अपमृत्यु के महादुःख को प्राप्त जिससे भोग विलासितां में लिस रहने वाले उन्हें बिना त्याग और हआ है। RANDITREENAME . तप के धर्मात्मा माना/जाना जाय। संसार शरीर से राग करने वाले उक्त कथन अकालमरण की मान्यता में साधक ही हैं, -जनवरी 2003 जिनभाषितः : 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाधक नहीं है। आयु कर्म है। इसका पूर्ण होने से पूर्व ही उदय में | पूर्व ही पका दिए जाते हैं या परिपक्व हो जाते हैं, ऐसा देखा जाता आना उदीरणा है। किसी भी कर्म की उदीरणा उसके उदयकाल में | है-उसी प्रकार परिच्छिन्न (अवधारित) मरणकाल के पूर्व ही ही होती है। यह उदीरणा भुज्यमान तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु की | उदीरणा के कारण से आयु की उदीरणा होकर अकाल मरण हो सर्व सम्मत है किन्तु भुज्यमान देवायु और नरकायु की भी उदीरणा | जाता है। (तत्त्वार्थवार्तिक 2/52 की टीका) आचार्यवर्य आगे इसी सिद्धान्त में मिलती है जैसाकि लिखा भी है "संकमणाकरणू- को सिद्ध करने के लिए और प्रमाण देते हैं। वे कहते हैं कि णाणवकरणा होंति सव्व आऊणं" (गोम्मट कर्म गा. 441) एक | आयुर्वेद के सामर्थ्य से अकालमरण सिद्ध होता है, जैसे अष्टांग संक्रमण को छोड़कर बाकी के बन्ध, उत्कर्षण, उपकर्षण, उदीरणा, | आयुर्वेद को जानने वाला अति निपुण वैद्य यथाकाल वातादि के सत्त्व, उदय, उपशान्त, निधत्ति और निकाचना ये नवकरण सम्पूर्ण | उदयपूर्व ही वमन, विरेचन आदि के द्वारा अनुदीर्ण ही कफ आदि आयुओं में होते हैं। दोषों को बलात् निकाल देता है, दूर कर देता है तथा अकाल मृत्यु किसी भी कर्म की उदीरणा उसके उदयकाल में ही होती | को दूर करने के लिए रसायन आदि का उपदेश देता है। यदि है। उदीरणा को परिभाषित करते हुए नेमिचन्द्राचार्य ने कहा है अकालमरण न होता तो रसायन आदि का उपदेश व्यर्थ है। रसायन "उदयावली के द्रव्य से अधिक स्थिति वाले द्रव्य को अपकर्षकरण का उपदेश है, अत: आयुर्वेद के सामर्थ्य से भी अकाल मरण सिद्ध के द्वारा उदयावली में डाल देना उदीरणा है।" इससे निष्कर्ष होता है। दुख का प्रतीकार करने के लिए आयुर्वेदिक प्रयोग है, निकला कि कर्म की उदीरणा उसके उदय की हालत में ही हो ऐसा नहीं है उभयत: औषधि का प्रयोग देखा जाता है। केवल सकती है अथवा अनुदय प्राप्त कर्म को उदय में लाने को उदीरणा दु:ख के प्रतीकार के लिए ही औषध दी जाती है, यह बात नहीं है, कहते हैं।" अपितु उत्पन्न रोग को दूर करने के लिए और अनुत्पन्न को हटाने उदीरणा भुज्यमान आयु की ही हो सकती है क्योंकि के लिए भी दी जाती है। जैसे औषधि से असाता कर्म दूर किया गोम्मटसार कर्मकाण्ड में बध्यमान आयु की उदीरणा का "परभव जाता है, उसी प्रकार विष आदि के द्वारा आयु ह्रास और उसके आउगस्स च उदीरणा णत्थि णियमेण" इस नियम के आधार से | अनुकूल औषधि से आयु का अनपवर्त देखा जाता है। स्पष्ट निषेध किया गया है। यह भी कहा है कि देव नारकी,चरमोत्तम | महान् तार्किक विद्यानंदस्वामी भी उक्त कथन का काल देह के धारक तथा असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य तिर्यञ्च और अकालनयों की दृष्टि से समर्थन करते हुए लिखते हैं कि को छोड़कर बाकी के उदयगत आयु की उदीरणा संभव नहीं है।। जिनका मरण काल प्राप्त नहीं हुआ उनके भी मरण का अभाव नहीं सभी कर्मों की उदीरणा अपकर्षकरण होने पर ही होती है अर्थात् उनका भी मरण हो जाता है क्योंकि खड्ग प्रहार आदि के है। जब तक कर्म के द्रव्य की स्थिति का अपकर्षण नहीं होगा, द्वारा मरण काल प्राप्त न होने पर भी मरण देखा जाता है। यदि यह तब तक उस द्रव्य का उदयावली में क्षेपण नहीं हो सकता। जो कहा जाये कि जिनका मृत्युकाल आ गया उन ही का खड्ग प्रहार कर्म अधिक समय तक उदय में आता रहेगा, वह उदयावली में आदि द्वारा मरण देखा जाता है, जिनका मरण काल आ गया उनका प्रक्षिप्त होने पर उदय में आकर नष्ट हो जायेगा। यह अपकर्षण के तो उस समय मरण होगा ही अत: खड्ग प्रहार आदि की अपेक्षा बिना नहीं हो सकता। नहीं रखता अर्थात् खड्ग प्रहार आदि होगा तब भी मरण होगा और खड्ग प्रहार आदि नहीं तब भी मरण होगा क्योंकि उसका मरणकाल भट्टाकलंक देव ने औपपादिक जन्मवाले देव-नारकी, व्यवस्थित (नियत) है। जिनके मरणकाल का खड्ग प्रहार आदि चरमोत्तम देहधारी और असंख्यात वर्षायुष्क को अनपवर्त्य आयु अन्वयु व्यतिरेक है अर्थात् खङ्ग प्रहार आदि होगा तो मृत्युकाल वाले अर्थात् कालमरण को प्राप्त होने वाले बताकर स्पष्ट कर दिया उत्पन्न हो जायगा, यदि खड्ग प्रहार आदि नहीं होगा तो मरण काल है कि जिनकी आयु संख्यात वर्ष की होती है, ऐसे कर्मभूमिया उत्पन्न नहीं होगा, उनका मृत्युकाल अव्यवस्थित (अनियत) है मनुष्य और तिर्यञ्च अपवर्त्य अर्थात् अकालमरण को प्राप्त हो अन्यथा खड्ग प्रहार आदि की निरपेक्षता का प्रसंग आ जायगा सकते हैं, उन्होंने लिखा है "अप्राप्तकालस्य मरणानुपलब्धेरपवर्ताभाव किन्तु अकाल मृत्यु के अभाव में आयुर्वेद की प्रमाणभूत चिकित्सा इतिचेत् नः दृष्टत्वादाम्रफलादिवत् । यथा अवधीरितपाकालात्-प्राक् तथा शल्य चिकित्सा (ऑपरेशन) की सामर्थ्य का प्रयोग किस पर सोपायोप सत्याग्रफलादीनां दृष्टपाकस्तथा परिच्छिन्नमरणकालात किया जायगा? क्योंकि चिकित्सा आदि का प्रयोग अकालमृत्यु के प्रागुदीरणा प्रत्यय आयुषो भवत्यपवर्तः।" अर्थात्-अप्राप्तकाल में | प्रतीकार के लिए किया जाता है। आगे और भी कहते हैंमरण की अनुपलब्धि होने से अकालमरण नहीं है, ऐसा नहीं "कस्यचिदायुरुदयान्तरङ्गे हेतौ बहिरङ्गे पथ्याहारादौ विच्छिन्ने कहना क्योंकि फलादि के समान जैसे कागज पयाल आदि उपायों जीवनस्याभावे प्रसक्ते तत्सम्पादनाय जीवनाधानमेवापमृत्यो के द्वारा आम्र आदि फल अवधारित (निश्चित) परिपाककाल के | रस्तुप्रतिकारः" अर्थात् आयु का अन्तरङ्ग कारण होने पर भी किन्तु 14 जनवरी 2003 जिनभाषित - Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 12. पथ्य आहार आदि के विच्छेद रूप बहिरङ्ग कारण मिल जाने से । क्योंकि जहाँ काल के आधार पर कार्यसिद्धि बतायी है, वहीं जीवन के अभाव का प्रसंग आ जाता है। ऐसा प्रसंग आने पर जीवन | अकाल में भी कार्य होता है ऐसा सर्वज्ञकथन है। यही प्रामाणिक है। के आधारभूत आहारादिक अकालमृत्यु के प्रतीकार हैं। हाँ, | अनेक पौराणिक कथनों के आधार पर आयु के अपकर्षकरण अकालमरण का मृत्युकाल निश्चित होता तो अकाल मृत्यु का | | का स्पष्टीकरण हो जाता है। लौकिक उदाहरण से भी समझा जा प्रतिकार नहीं हो सकता था जैसे काल मरण का मृत्युकाल व्यवस्थित सकता है। जैसे मोटरगाड़ी की तेल की टंकी पूरी भरी हुई है, है, उसका प्रतिकार नहीं हो सकता किन्तु अकाल मृत्यु का प्रतीकार | उसके द्वारा हजार मील की यात्रा पूरी हो सकती है किन्तु गाड़ी हो सकता है, अतः अकाल मृत्यु का मृत्यु काल अव्यवस्थित | चार सौ मील चलकर रुक गयी। जब कारण पर विचार किया (अनियत) है, वह मृत्यु काल बहिरंग विशेष कारणों से उत्पन्न | गया, तब पता चला कि टंकी में सूराख हो जाने से तेल क्षय को होता है। प्राप्त हो गया अत: गाड़ी समय से पूर्व बन्द हो गई, यात्रा भी पूरी बाह्यकारणों से आयु का क्षय होता है, यही बात | न करा सकी इसी प्रकार आयु कर्म भी किसी बाह्य या अन्तरंग नेमिचन्द्राचार्य ने कही है। भगवती-आराधना में असत्य के प्रसंग निमित्त को पाकर समय से पूर्व क्षय को प्राप्त हो जाता है। में कहा गया है "विद्यमान पदार्थ का प्रतिषेध करना सो प्रथम | संदर्भअसत्य है, जैसे कर्मभूमि के मनुष्य की अकाल में मृत्यु का निषेध अण्णत्थठियस्सुदये संथुहणमुदीरणा हु अत्थि तं ॥ गो. कर्म. करना। यह प्रथम असत्य मानना निश्चित ही काल मरण के समान गा, 439 उदयावलि बाह्यस्थितस्थिति द्रव्यस्यापकर्षण अकाल मरण की सत्ता सिद्ध करता है।" कर्मभूमिया मनुष्य और वशादुदयावल्यां निक्षेपणमुदीरणा खलु। अपक्वपाचनतिर्यञ्च बध्यमान और भुज्यमान आयु में अपवर्तन होता है इसका मुदीरणा। प्रमाण तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक से निम्नरूप में देखिए- "आयुर्बन्धं कुर्वतां जीवानां परिणामवशेन बध्यमानस्य आयुष: अपवर्तनमपि परभवायुषो नियमेनोदीरणा नास्ति उदयगतस्यैवोपपादिक भवति। तदेवापश्वर्तनं घात इत्युच्यते। उदीयमानायुरपवर्तस्य चरमोत्तम देहा-संख्येयवर्षायुभ्योऽन्यत्र तत्संभवात् ॥ गो. कदलीघाताभिधानात्।" आयु कर्म का बन्ध करने वाले जीवों के कर्म. सं.टीका गा. 918 परिणाम के कारण से बध्यमान आयु का अपवर्तन भी होता है, | 3. तत्त्वार्थवार्तिक प्रथम भाग पृष्ठ 427, 28 (आर्यिका वही अपवर्तन घात कहा जाता है, क्योंकि उदीयमान आयु के सुपार्श्वमतीकृत टीका) अपवर्तन का नाम कदलीघात है। 4. न ह्यप्राप्तकालस्य मरणाभावः खङ्गप्रहारादिभिर्मरणस्य यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि बध्यमान आयु की स्थिति दर्शनात् । प्राप्त कालस्यैव तस्य तथा दर्शनमिति चेत् कः में और अनुभाग में जिस प्रकार अपवर्तन होता है, उसी प्रकार पुनरसौ कालं प्राप्तोऽपमृत्युकालंवारे प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता, भुज्यमान आयु की स्थिति और अनुभाग में भी अपवर्तन होता है द्वितीय पक्षे खड्गप्रहारादिनिरपेक्षत्व प्रसंगः। सकलबहि: किन्तु बध्यमान आयु की उदीरणा नहीं होती और भुज्यमान आयु कारण विशेषनिरपेक्षस्य मृत्युकारणस्य मृत्युकालव्यवस्थिते: की उदीरणा होती है, जिससे अकालमरण भी होता है, यह उक्त शस्त्रसंयातादि बहिरंग कारणान्वयव्यतिरे कानुअनेकों प्रमाणों से सिद्ध होता है। विद्यायिनस्तस्यापमृत्यु कालत्वोवपत्तेः। तद्भावे पुनरायुर्वेद आचार्यों ने ऐसे महापुरुषों का उल्लेख किया है जिनका प्रामाण्यचिकित्सादीनां व सामोपयोगः। अकाल में आयु का क्षय हुआ है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक2/53 की टीका जैनागम में नयविवक्षा के कथन को ही प्रामाणिक माना 5. विसवेयणरत्तक्खय भयसत्थग्गहणं सं किले सेहिं । गया है। आचार्य अमृतचन्द्र काल के साथ अकाल का उल्लेख करते हुए लिखते है- "कालनयेन निदाघदिवसानुसारिपच्यमानसहकार उस्सासाहाराणं णिरोहणो छिज्जदे अऊ॥ कर्मकाण्ड 57 फलवत्समयायत्तसिद्धिः अकालनयेन कृत्रिमोष्मपञ्यमान सहकार पढमं असंतवयणं सभूदत्यस्स होदि पडिसेहो। . फलत्समयानायत्तसिद्धिः" (प्रवचनसार) अर्थात्- काल ने कार्य णस्थि णरस्स अकाले मच्चुत्ति जधेय भादीयं ॥ भग. 830 की सिद्धि समय के अधीन होती है, जैसे आम्रफल गर्मी के दिनों में अन्तस्स चक्रधरस्य ब्रह्मदत्तस्य बासुदेवस्य च कृष्णस्य पकता है । अर्थात् कालनय से कार्य अपने व्यवस्थित समय पर होता है। अकालनय से कार्य की सिद्धि समय के आधीन नहीं होती है, अन्येषां च तादृशीनां बाह्य निमित्त वशादायुरपवर्तदर्शनात्जैसे आम्रफल को कृत्रिम गर्मी से पका लिया जाता है। इससे यह - (तत्त्वार्थवार्तिक 2/53/6) स्पष्ट है कि सर्वकार्यकाल के अनुसार ही होते हैं ऐसा नहीं है 24/32, गाँधी रोड, बड़ौत (उ.प्र.) -जनवरी 2003 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालव्रत संरक्षिका : अनन्तमती - डॉ. नीलम जैन, अनन्तमती नाम है उस अनन्य बुद्धिमती महिला का जिसके । बचाती हुई पर्वत नदियाँ लांघती हुई अयोध्या नगरी पहुँची और अन्तरंग में बाल्यकाल से प्रज्वलित है तप संयम और विवेक की | यहाँ उसे पद्मश्री आर्यिका के दर्शन हुए। ज्योति । माता-पिता द्वारा सहज भाव से मुनिराज के सान्निध्य में इधर अनन्तमती के पिता भी पुत्री वियोग में सन्तप्त हृदय गृहीत ब्रह्मचर्य व्रत को जीवन का अभिन्न अंग बनाकर तथा परीक्षाओं को सान्त्वना देने के उद्देश्य से तीर्थाटन करते हुए अयोध्या नगरी की कठोर वेदनाजन्य कसौटी पर सर्वथा शुद्ध रहकर जिसने अपने में अनन्तमती के मामा के यहाँ ठहरे हुए थे। वहाँ आहार हेतु पूरे इहलोक और परलोक को अलंकृत कर जीवन धन्य किया। चौक को देखकर उन्हें अनन्तमती का स्मरण हो गया और तत्काल चम्पापुर नरेश प्रियदत्त एवं रानी अंगवती की राजपुत्री ही खोज बीन करने पर अनन्तमती से मिलन हुआ। पिता के हृदय अनन्तमती अष्टान्हिका पर्व में पिताश्री की अनुज्ञा से भी धर्मकीर्ति में वात्सल्य जागृत हुआ और अनन्तमती से घर चलने का आग्रह मुनिराज से ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लेती है। पिता बाल्यकाल किया लेकिन अनन्तमती ने पग-पग पर संसार की कालिमा का में मात्र आठ दिवस के लिए स्वीकार किए व्रत को विस्मृत कर प्रत्यक्ष दर्शन किया था ऐसे दुष्ट संसार से अब उसे वैराग्य आ गया जाते हैं पर अनन्तमती का अन्तरंग विवेक बार-बार उनके चितवन | था उसने समस्त मोह जाल छिन्न विछिन्ना करके वरदत्त मुनिराज को प्रश्नचिह्नित करता है यदि ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है तो फिर आठ दिन की शिष्या पद्मश्री (कमलश्री) आर्यिका से जैनेश्वरी दीक्षा ले ली ही के लिए क्यों? जीवन भर के लिए क्यों नहीं? पिता सर्वथा | तथा नि:काक्षित हो व्रत का पालन करने लगी। उसके मन में अनभिज्ञ थे पुत्री के मानस हेतु दृढ़ता से युवती होते ही सुयोग्य वर किसी भी प्रकार का प्रलोभन, वाच्छा, आकांक्षा नहीं थी। परमागम के चयन हेतु प्रभावरत हो जाते है तथा सहज भाव से अनन्तमती | का ध्यान करती हुई अनन्तमती आत्मचिन्तनरत हो गई। के सम्मुख भी जब प्रसंग आया तो अनन्तमती के तर्क और दृढ़ता अनुशासन बद्ध, दृढ़ता और धर्मपरायणता उसने जीवन को देख माता-पिता निरूपाय हो गए। लावण्यमती पुत्री ने जीवन | भर श्रम द्वारा सीखा था। अन्तरात्मा ने ही स्मरण कराया कि भर के लिए ब्रह्मचर्य स्वीकार कर लिया और धर्मसाधना को भौतिक सुख और पारलौकिक सुख एक साथ नहीं रह सकते। जीवन का लक्ष्य बनाया। अनन्तमती धर्म में लीन थी इधर पूर्वकृत | उनका मन अपने वर्तमान अवस्था पर वितृष्णा से भर गया था और पापकर्म अपनी लीला दिखाने हेतु आतुर ! एक दिन बगीचे में उन्होंने निश्चय कर लिया था कि अब वह अपना जीवन झूला झूलती अनन्तमती का अपहरण कुण्डल मण्डित नामक आत्मकल्याण हेतु ही समर्पित करेगी। इस दृढ़ संकल्प का उन्होंने विद्याधर कर लेता है। किन्तु पत्नी के द्वारा प्रताड़ित एवं धिक्कारे इतनी क्षमता से पालन किया कि शारीरिक कष्ट, मारना ताड़ना का जाने पर उसे पर्णलध्वी नामक भयंकर अटवी में छोड़ देता है। भी उन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। जीवन के दुर्गम और रेतीले कर्मों का दुष्चक्र तो अभी प्रारंभ ही हुआ था पुन: भीलराज के रूप | बंजर में भी आध्यात्मिकता का स्त्रोत उसे रसाक्ति कर गया वह में दुर्देव सम्मुख आ खड़ा होता है। भील अपनी कामुकता प्रकट उन्नत आध्यात्मिक जीवन के लिए तत्पर हो गई। यही कारण है करता है किन्तु शील के अखण्ड बल से वनदेवी अनन्तमती की कि उनका जीवन विशुद्धता नि:स्वार्थता और आत्मबलिदान के रक्षा करती है। देवी के डर से भील राज ने अनन्तमती को साहूकार | रूप में अद्यतन हमारे सम्मुख प्रेरक रूप में प्रस्तुत हैं। के हाथों सौंप दी लेकिन पुष्पक सेठ भी था तो पुरुष ही- उस ध्यान और तपस्या द्वारा व्रत रूपी कवच को धारण कर अनिन्द्य सुन्दरी को देख वह भी विवेक खो बैठा अब अनन्तमती | भेद-विज्ञान रूपी शस्त्रों से कर्मों को परास्त करने लगी। उग्र का नारीत्व और शौर्य जागृत हो उठा उसने पुष्पक सेठ को अपनी | तपश्चणरत अनन्तमती अन्त में सन्यासमरण कर बारहवें स्वर्ग में वचन ज्वाला से ऐसा भस्मीभूत किया कि वह तत्काल उसे बला | देव हुई और अठारह सागर की आयु प्राप्त की। अनन्तमती की यह समझ स्वयं को बचा गया पर उसको एक कुट्टिनी की काली कथा भगवान महावीर के प्रमुख गणधर गौतम ने राजा श्रेणिक को कोठरी में डाल आया। कुट्टिनी कामसेना ने भी अनन्तमती को | आनन्दपूर्वक सुनाई तथा सच्ची सम्यग्दृष्टि अनन्तमती सम्यग्दर्शन विपरीत देखकर अत्याचार प्रारंभ तो किए परन्तु उसे अप्रभावी के द्वितीय अंग निकांक्षित अंग की प्रतिरूपा बनकर स्मरणीय बन देख हार गई और राजा सिंहराज को सौंप आई जैसे ही उस पापी | गई। सम्यक् दर्शन के आठ अंगों की प्रकाशिका एवं विवेचिका सिंहराज ने भी अपने अपवित्र हाथों को बढ़ाया तभी वनदेवी ने | कथाओं में अनन्तमती का जीवनवृत श्रद्धासहित स्मरण किया प्रकट होकर उसे ललकारा और उसके पापकर्मों का उचित दण्ड | जाता है। विपत्तियों के मध्य प्रकृत्या कोमल बालिका का कठोर देकर अन्तर्निहित हो गई। उसने तत्काल नौकर द्वारा अनन्तमती | संकल्प एवं वज्रमय चरित्र नम्रीभूत कर देता है। अनन्तमती को जंगल में छुड़वा दिया। अनन्तमती अपने कौमार्य धन को | अनन्तरूपा विराट होकर अग्रणी हो जाती है। ब्रह्मचर्य की सच्ची 16 जनवरी 2003 जिनभाषित - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संरक्षिका अनन्तमती आगम का सुनहरा पृष्ठ है। इन पौराणिक | भी वह न टूटी, न हारी बल्कि अग्नि में तपे कुन्दन की तरह नारी ने संघर्ष मूल्यों के लिए स्वयं को प्राणांत तैयारी के साथ निखरी ओर इन कामुम भेड़ियों के लिए सिंहनी बनकर गरजी। जोखिम में डाला है। वह उन तत्त्वों को संवारती है वे स्थापित वरना जितनी चुनौतियां, विकृतियों का सामना उसे करना पड़ा और समर्थ है जिन्होंने स्थापित होने में सदियां खपायी है। | क्या वे उसे बहा न ले जाती। शुद्ध तात्त्विक, वास्तविक और अंतः इनके व्यक्तित्व में प्रतिपल विराटता का दर्शन रहा है। जेठ का | सारी चेतना से हम जब इसका शोध करते हैं कि उसके चरित्र में घाम स्वयं सिर पर झेलते अडिग वृक्ष की भांति अपने आश्रय वे कौन से बीजाणु थे जो तमाम विपरीत और लगभग परस्त करने दाताओं को छाया और फल ही दिये हैं। आज भी हमें इनके वाली स्थितियों के बीच भी उसे, उसके सामूहिक मन को चरित्र में यही प्रतिफलित होते देखते हैं। आत्मविजय की दूरगामी दृष्टि देते हैं- सच यह चेतना, अंतबेधि अनन्तमती ने अपने शील कवच के सम्मुख कभी स्वयं ब्रह्मचर्य की शक्ति थी जो सच्ची जैन नारी की मूर्त परिभाषा है। को साधन हीन, शस्त्रविहीन नहीं समझा अपनी लम्बी त्रासदी, | अनन्तमती विलक्षण अनन्तशक्तिरूपा है जैसे पीड़ा, जकड़न के विरूद्ध उसके मन में निश्चयत: कितना क्षोभ | अग्रवाहिनी सरिता अचल पाषाण खंडों में टकराकर प्रबल उत्पन्न हुआ होगा, किन्तु पूरे संयम व धैर्य से उसने अभिव्यक्ति को वेग से बढ़ती है इसी प्रकार सांसारिक बाधाएँ उसके कर्मठ शक्ति दी। श्रमण संस्कृति में उससे पूर्व की सन्नारियों ने जो उपसर्गों जीवन में द्विगुणित उत्साह भरने वाली प्रेरणा शक्ति बन गई के मध्य भी अडिगता रखी उसके भीतर वह भी रक्त की भाँति | थी। प्रवाहित रहा है। इसीलिए भंयकर यातनाओं आत्याचारों के मध्य । के.एच. - 216, कविनगर गाजियाबाद बालवार्ता बेईमान नहीं हैं सब डॉ.सुरेन्द्र जैन 'भारती' एक बार एक युवक बड़े उत्तेजित स्वर में बड़बड़ाता । झुठी कसम खाई तथा न्यायालय में भी गवाहों के मुकर जाने हुआ चला जा रहा था कि "संसार में कहीं भी न्याय नहीं है, के कारण मेरा विश्वास ईमानदारी से डगमगाया तो मुझे लगा सबके सब बेईमान हैं, कोई किसी का भला नहीं चाहता।" कि संसार में कहीं न्याय नहीं है जबकि वास्तविकता तो यह यह सुनकर एक सज्जन जैसे दिखने वाले व्यक्ति ने उसे | है कि यदि न्याय नहीं होता तो मैं न्यायालय जाता ही क्यों?" रोका और पूछा कि- "जो तुम कह रहे हो क्या वह सत्य है?" | युवक के उक्त विचार सुनकर वे सजन मुस्कुरा दिये उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- हाँ, बिल्कुल। और बोले कि "जीवन का सत्य मात्र इतना नहीं है कि अपेक्षित तब उन सज्जन ने पूछा कि-तुम्हारा न्याय पर विश्वास परिणाम मिलें, बल्कि जीवन का सत्य तो यह है कि तुम परिणाम के लिए अपने पथ पर, अपने कर्त्तव्य पर दृढ़ रहो। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- हाँ है। यदि संसार में न्याय, ईमानदारी और भलमनसाहत नहीं होती तब उन सज्जन ने फिर पूछा- "क्या तुम ईमानदार नहीं | तो लोगों का जीना मुश्किल हो जाता।" हो?" उक्त युवक ने उन सज्जन को प्रणाम किया और कहा तब वह व्यक्ति बोला-"मैं तो ईमानदार हूँ, मैंने कभी कि "अब मेरी आस्था स्पष्ट है कि संसार में अच्छाईयाँ सदैव कोई बेईमानी नहीं की।" रहती हैं, किन्तु जब बुराइयाँ और बुरे लोग समाज में अधिक तब वे सज्जन बोले- "यदि तुमने कभी बेईमानी नहीं आदर-सम्मान पाने लगते हैं तो अच्छाइयाँ और अच्छे लोग की और तुम ईमानदार हो तो फिर तुम कैसे कह सकते हो कि समाज के परिदृश्य से गायब होने लगते हैं। अत: जरूरी है कि सबके सब बेईमान है?" अरे भाई, जब तुम बेईमान नहीं हो, हम सदैव सक्रिय रहें ताकि अन्याय, बेईमानी और बुराई तुम न्याय की उम्मीद करते हो, किसी का बुरा नहीं चाहते तो अपना कुचक नहीं फैला सकें।' इसका मतलब स्पष्ट है कि संसार में न्याय, ईमानदारी, भलाई बच्चो! यह कहानी हमें बताती है कि हमें सक्रिय अभी भी है।" रहकर सच्चाई, न्याय, ईमानदारी, भलाई के कामों और इनके यह सुनकर वह युवक अवाक् रहा गया। कुछ क्षण काम करने वालों को सदैव प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि रूककर उसने कहा कि "मैं स्वयं बड़े भ्रम में था, तुमने मुझे । हम और हमारा समाज अन्याय से मुक्त रह सके। वास्तविकता बतादी। जब महाजन ने मेरे रुपये हड़प लिये और | ___एल-65, न्यू इन्दिरा नगर ए, बुरहानपुर (म.प्र.) -जनवरी 2003 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि गाय माता है तो उसे काटते हो क्यों? ____ डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' गाय संसार का सबसे निरीह प्राणी है जिसे पशु जाति की । अर्थात्- मेरे आगे गायें रहें, पीछे गायें रहें, मेरे हृदय में अपेक्षा तो पशु कह सकते हैं किन्तु जब उसका वात्सल्य देखते हैं तो लगता है कि वह मानव जननी से कम नहीं है। प्रीति को श्रीकृष्ण श्रेष्ठ गोपालक के रूप में आज भी श्रद्धास्पद हैं। परिभाषित करना हो तो गाय और बछड़े की मिसाल सामने रखनी आज पाठ्यपुस्तकों में गाय को मांस देने वाला पशु या गाय से ही पड़ती है। गाय के स्थान पर भैंस को नहीं रखा जा सकता यह मांस मिलता है; पढ़ाया जाने लगा है जो उसकी अहिंसक वृत्ति से एक उदाहरण से स्पष्ट है। एक बार गाय का 'बछड़ा' दौड़ते- अन्याय है। माँ के मरने पर शिशु की क्षुधा को शान्त करने वाला दौड़ते आया और कुएँ में गिर गया जब गाय ने उसके (भाने का जब कोई नहीं था तब गाय ने आगे आकर अपना दूध प्रस्तुत किया स्वर सुना तो वह भी रस्सी तुड़ाकर भागी और उसी कुएँ में गिर और जीवनदान दिया। आज संसार में ऐसे लाखों मनुष्यों की गयी किन्तु जब यही स्थिति भैंस के साथ घटित हुई कि उसका संख्या है जिन्हें माँ का दूध पीने का सौभाग्य नहीं मिला, जो गाय 'पाड़ा' कुएँ में गिरा तो वह उसे बचाने के लिए कुएँ में गिरने की का दूध पीकर ही पले-बढ़े और संसार में गाय के दूध से जीवन बजाय कुएँ की जगत पर खड़ी-खड़ी टर्राती रही। वात्सल्य की दान पाकर सुख भोग रहे हैं। उसी जननी तुल्य गाय का ऐसा प्रतिमूर्ति गाय पुत्र और माता के स्नेह, वात्सल्य, प्रीति का आधार अनादर कि उसे दुग्ध विहीन होने पर मांस के लिए काट दिया बन गयी। गाय को कृषि प्रधान भारत देश में प्रमुख धन माना गया जाय? आचार्य अमितगति ने 'श्रावकाचार' में गाय की रक्षा को है यथा- "गोभिर्न तुल्यं धनमस्ति किंचित्" और हो भी क्यों न | पुण्य कर्म माना हैउसके समान पवित्र विचार, दान की पूंजी किसके पास है? लोक गो-बालब्राह्मण-स्त्री पुण्यभागी यदीष्यते। में यह नीति प्रसिद्ध है कि "तृणं भुक्त्या पयः सूते कोऽन्यो धेनुसम: सर्वप्राणिगणत्रायी नितरां न तदा कथम्।।11/3 शुचिः।" अर्थात् आश्चर्य है कि तिनके चबाकर दूध उत्पन्न करने यदि गौ (गाय), ब्राह्मण, बालक और स्त्री की रक्षा करने वाली गाय के समान और कौन पवित्र है? महाभारत में भी कथन वाला पुण्य भागी है तो जिसने सम्पूर्ण प्राणी समूह की रक्षा का व्रत आया है कि "मातरः सर्व भूतानां सर्व सुख प्रदा:" अर्थात् गाय लिया है वह उससे विशिष्ट क्यों नहीं अर्थात् वह विशिष्ट ही है। सभी प्राणियों की माता एवं सभी को सुखप्रदान करने वाली है। | आज गाय से प्राप्त पदार्थों को रोग नाशक मानकर 'काऊयह मनुष्य की ही अधमता है जो ऐसी गायों को दूध के स्थान पर थैरेपी' बनायी गयी है जिससे कैंसर जैसे असाध्य रोग भी ठीक मांस पाने के लिए काट डालता है। हिन्दुओं में गाय को मातृ तुल्य होने लगे हैं। डॉ. गौरीशंकर जे. माहेश्वरी के अनुसार 'काऊमानकर पूजा जाता है जिससे विधर्मी-कसाई गाय के प्रति विरोध थैरेपी' से मधुमेह, गुर्दा, हृदय और कैंसर जैसी बीमारियों पर काबू रखते हैं और जब उसे काटते हैं तो सर्वप्रथम लात से प्रहार से किया जा सकता है। गाय के दूध से निर्मित घी से गठिया का उसका अपमान करते हैं फिर काटते हैं। कटते समय भी गाय के उपचार किया जाता है। गाय का घी लगाने से नेत्रविकार, कुष्ठ रंभाने की ध्वनि (चीत्कार) निकलती है मानो अपने पुत्रों को और जलने के रोगों में लाभ होता है। गाय के दूध में वसा कम प्राणरक्षा के लिए बुला रही हो। होने से कोलेस्ट्रॉल नहीं बढ़ता तथा उसमें 'केरोटिन' होने से भारतीय संस्कृति में गाय की प्रतिष्ठा उसकी निरीहता, कैंसर नहीं होता। दिल के मरीजों के लिए गाय का दूध अमृत के चरने का स्वभाव, दुग्ध-दान वात्सल्य और बछड़े उत्पन्न करने के | समान है। यूरोपीय चिकित्सकों ने गाय के दूध से तपेदिक की कारण है। गाय का दूध पथ्य होता है एवं घी अमृत तुल्य माना चिकित्सा की है। गाय के दूध से मानव शरीर की प्रोटीन और गया है। बछड़े बड़े होकर बैल बनकर खेती के काम आते हैं। | कार्बोहाइड्रेट की पूर्ति तो होती ही है साथ ही रोग-प्रतिरोधी खेतों को बीजवपन से पूर्व हल चलाकर नरम बनाया जाता है यह | क्षमता भी बढ़ती है। गाय के इतने उपकार होने पर भी देश के कार्य बिना बैलों की सहायता के नहीं होता था आज भले ही कत्लखानों में प्रतिदिन लगभग 50,000 गायों की नृशंस हत्या कर ट्रेक्टर जैसे यंत्र उपलब्ध हैं किन्तु वे भी बैलों जैसे उपयोगी नहीं | दी जाती है। भारत जैसे अहिंसक देश के लिए यह कलंक की हो सकते। क्योंकि बैल खेतों में मात्र कार्य ही नहीं करते थे बल्कि | बात है। एक गाय को काटकर मांस, रक्त, हड्डी, चर्बी आदि बेचने उनका मल-मूत्र विसर्जित कर खाद भी प्रदान करते थे। इसलिए | से लगभग 20,000 रुपये की आय में ही दूध पिलाया जाता है। तो कामना की गयी कि उदाहरण के लिए एक देशी गाय के 4 स्तनों में से दो स्तनों का ही गावो में अग्रतः सन्तु गावो में सन्तु पृष्ठतः। दूध बछड़े को पिलाया जाता है शेष दो स्तनों का दूध दुह लिया गावो में हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम्॥ जाता है जो मनुष्यों-बालकों के पीने के काम आता है। आयुर्वेद 18 जनवरी 2003 जिनभाषित - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अनुसार दूध मधुर, स्निग्ध, वात-पित्त नाशक, दस्तावर, वीर्य | नागदान मणि तो विष को नष्ट करने वाला है और उसका जहर को शीघ्र उत्पन्न करने वाला, शीतल, सर्वप्राणियों के अनुकूल, तत्काल मार देता है। जीवनरूप, पुष्टिकारक, बलदायक, बुद्धि को उत्तम करने वाला, | गौसंरक्षण के लिए यह जरूरी है कि हम पुरानी परम्पराओं बाजीकरण, आयु स्थापक, आयुष्य देने वाला, संधानकारक, ओज के अनुसार गाय को भी धन माने-गोधन और गाय रखने वालों को एवं कान्तिवर्द्धक होता है। दूध जीर्णज्वर, मानसिक रोग, उन्माद | सम्पन्नता की दृष्टि देखें। गाय की हत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगायें। शोष, मूर्छा, भ्रम, संग्रहणी, पांडु रोग, दाह, तृषा, हृदयरोग, शूल, | परमपूज्य संतशिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने उदावर्त, गुल्म, ब्रस्तिरोग, अर्श, रक्तपित्त, अतिसार, योनिरोग, | 'मांस निर्यात निरोध आंदोलन' का एक प्रमुख गौसंरक्षण केन्द्रों परिश्रम, गर्भस्त्राव आदि कारणों में हितकारी है। जो बालक या | (गौशालाओं) की स्थापना माना है और इसकी पूर्ति हेतु वे निरन्तर वृद्ध क्षीण, दुर्बल होते हैं उन्हें दूध परम हितकारी होता है। कहते स्थान-स्थान पर गौशालायें खुलवा रहे हैं। उन्हीं के प्रमुख शिष्य हैं निरन्तर दूध पीने को मिले तो साठा भी पाठा दिखाई देता है। मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज, मुनिश्री समतासागर जी महाराज, गाय, भैंस, बकरी, ऊँटनी आदि जानवरों के दूध में गाय के दूध | मुनिश्री प्रमाणसागर जी महाराज, मुनिश्री समाधिसागर जी महाराज को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है अत: गाय का दूध पीना परम हितकर | ने अनेक स्थानों पर गौशालायें स्थापित करवाकर हजारों गायों को है। 'यशस्तिलक चम्पू' में कहा है कि पालने का संकल्प समाज को दिलवाया है जिस दिन यह 'संतक्रान्ति' शुद्धं दुग्धं न गोमांसं वस्तुवैत्र्यिमीदृशम्। बन जायेगी उस दिन यह देश पुन: दूध-घी की नदियों वाला देश, विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः॥ सोने की चिड़िया वाला देश कहलायेगा। हमें उस दिन का इंतजार अर्थात्- गाय का दूध शुद्ध है, गौ मांस नहीं। वस्तु के नहीं करना चाहिए अपितु वह दिन लाने के लिए गाय पालना चाहिए। स्वभाव की विचित्रता ही ऐसी है जैसे कि-साँप के फणा का | एल-65, न्यू इन्दिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.) भोपाल में पंचकल्याणक एवं पंचगजरथ महोत्सव 19 जनवरी से 25 जनवरी 2003 तक सकल दि. जैन समाज, भोपाल द्वारा श्रीमज्जिनेन्द्र | व्यवस्था समिति द्वारा की गई है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, पंचगजरथ महोत्सव, सप्तवेदी प्रतिष्ठा व 4. छप्पन कुमारी 1,111.00 रुपये की राशि में बनाई कलशारोहण कार्यक्रम परमपूज्य सर्वोदयी सन्त आचार्य श्री 108 | जायेंगी। विद्यासागर जी महाराज के ससंघ सान्निध्य में भव्य आयोजन 5. जिनको प्रतिमा प्रतिष्ठित करानी हैं वे अपनी प्रतिमा होने जा रहा है। विधिवत् 10 जनवरी तक जाँच कराकर श्री दिगम्बर जैन मंदिर इस महोत्सव में भोपाल स्थित विभिन्न जिनालयों की जवाहर चौक, भोपाल में जमा कराएँ।। वेदी प्रतिष्ठा एवं कलशारोहण के आयोजन भी सम्मलित हैं। इस 6. सात इंच से छोटी प्रतिमा प्रतिष्ठा के लिए स्वीकार मांगलिक एवं धार्मिक आयोजन के प्रतिष्ठाचार्य वाणीभूषण, | नहीं की जावेगी। बालबह्मचारी श्री विनय भैया, बंडा रहेंगे। महत्त्वपूर्ण जानकारी ___7. पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव की अन्य जानकारी निम्न प्रकार है : के लिए कार्यालय में सम्पर्क करें1. प्रमुख पात्रों का चयन 5 जनवरी, 2003 को भोपाल कार्यालय में होगा। जैन धर्मशाला, चौक, भोपाल फोन : 2748935 2. प्रत्येन्द्र बनने का सौभाग्य 1,11,111.00 रुपये की न्यौछावर राशि देकर प्राप्त होगा, उन्हें गजरथ में बैठने की पात्रता जवाहर चौक, टी.टी. नगर, भोपाल फोन : 2776712 रहेगी। पं. सुनील शास्त्री 962, सेक्टर-7, 3. सामान्य इन्द्र-इन्द्राणी 5101.00 रुपये की न्यौछावर आवास विकास कॉलोनी, आगरा राशि जमा कर बन सकेंगे। इन्द्र-इन्द्राणी के लिए गणवेश की -जनवरी 2003 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसिक व्यसन पं. सनत कुमार, विनोद कुमार जैन वैचारिक अपंगता, दूषित चिन्तन, अपरिपक्व बौद्धिक क्षमता | ध्यान दें और व्यक्ति की सोच समीचीन बना सकें तो हम व्यसन सोच को परिवर्तित कर मन को व्यसनों की ओर जाने को प्रेरित | मुक्त समाज बनाने में सफल होंगे। करती है। अत: विकृत विचारधारा के उद्भव को समझ कर . जल्दबाजी का व्यसन हमें विचार करने का मौका ही समीचीन चिन्तन के बहाव को दिशा देनी होगी। व्यक्ति के अन्दर | | नहीं देता, और बिना विचार किया गया कोई भी कार्य सफल नहीं अनेक विपरीततायें ऐसी हैं जो मन को दूषित करती हैं और जब होता। जल्दबाज लोगों की झोली में असफलताओं का ढेर लग मन दूषित हो जाता है तब व्यक्ति तनाव में जो जाता है जो मन, तन | जाता है। वह सफलता के अभाव में अपनी बची-खुची सोच/समझ और धन को खराब करता है, अतः हमें सबसे पहले मानसिक को भी गवाँ देता है। जल्दबाजी में व्यक्ति उद्देश्यहीन कार्य भी व्यसनों से बचना होगा। उन्हें पहचानना होगा। कुछ बिन्दु दे रहा करता चला जाता है, जिसके दुष्परिणाम को भोगता हुआ कुंठित हूँ जो व्यसन से न लगते हुए भी व्यक्ति, समाज और देश को | हो जाता है। जल्दबाजी में व्यसनी व्यक्ति तम्बाकू, गुटखा आदि न विकृत बनाते हैं। खाने की प्रतिज्ञा ले लेता है, और उसका अन्त वहीं होता है, . निन्दा मानव मन की वह विकृति है जो व्यसन रूप | जिसके आगे उसे हारकर पुन: इन्हें ग्रहण करना पड़ते है। जल्दबाजी लेते ही व्यक्ति को छिद्रान्वेषी कृतघ्न एवं संकुचित विचार धारा | के व्यसन से एक सकारात्मक सोच वाले को बचना चाहिये। वाला बना देती है। निन्दक जीवन को प्रगतिशील नहीं बना पाता, . स्वार्थपरता आज मनुष्य की पर्याय बन गई है। उसकी दृष्टि निरन्तर दूसरों के अवगुणों की खोज में रहती है। स्वार्थी व्यक्ति निरन्तर अपनी सोच को अपने निहित स्वार्थों के निन्दा करने वाले को अपने उत्थान के लिए समय नहीं होता उसे | चारों ओर ही केन्द्रित रखता है। उसका चिन्तन विस्तृत एवं गंभीर निन्दा किये बगैर चैन नहीं मिलता। निन्दा व्यक्ति को पतन की | नहीं बन पाता है। वह निरन्तर संकीर्ण मानसिकता का ही अनुसरण ओर ले जाने वाला व्यसन है। करता है। जब व्यक्ति स्वकेन्द्रित होकर कार्य करता है, तो वह . अविश्वास की भावना मस्तिष्क को असमंजस में | अपनी और समाज की उज्ज्वल छवि को समाप्त कर अनेक रखती है जिससे विचारों में स्थिरता नहीं आ पाती। विश्वास एक विषमताओं को बढ़ावा देते हैं जो हमें घातक होती हैं। स्वार्थ ऐसा गुण है जो मनोबल को सुदृढ़ बनाता है, जो हमारी सोच/चिन्तन | व्यक्ति को अधिक संचय की प्रवृत्ति की ओर ले जाकर अपने को को सकारात्मक बनाता है। अविश्वास, नफरत, कटुता और मन | दूसरों से महान दिखने का दिखावा करने वाला बना देता हैं। मुटाव को पैदा करता है जिससे समाज में दूषित वातावरण निर्मित | स्वार्थ मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देता, उसमें अनेक विकृतियाँ होता है। प्रकट दिखाई देने लगती हैं जिससे वह समाज में अलग-थलग . . . द्वेष व्यक्ति के स्वभाव में कटुता लाता है जिससे | पड़ जाता है, लेकिन क्या करें, यह सब कुछ जानते हुये भी हम शिष्टाचार/सदाचार आदि उसका साथ छोड़ देते हैं। द्वेषी व्यक्ति | स्वार्थ के व्यसन में अंधे हैं। इससे बचने के लिये हमें सर्वोदयी निरन्तर दूसरों को घृणा की दृष्टि से देखता है उपकारों, भलाइयों | चिन्तन को बढ़ावा देना होगा। एवं सहृदयता को भूलकर वह बुराइयों में फँसता चला जाता है। |.... .."हम बड़े हैं" यह विकृत सोच का प्रतीक है। ऐसी आदत व्यक्ति को कभी ऊँचे नहीं उठने देती द्वेष विवेक का | सैद्धान्तिक दृष्टि से हम सब समान हैं। गुणों की अपेक्षा कोई भी घातक होता है जो व्यक्ति को अंधकार की ओर जाने की प्रेरणा | मनुष्य कम नहीं है। अपने को बड़ा मानकर यह अपना सामाजिक देता है, जिससे उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। कद बौना कर, गौरव नष्ट कर लेता है। बड़ेपन का अहसास जीवन . ईर्ष्या/जलन व्यक्ति का वह महाव्यसन है जो उसे | के वास्तविक स्वरूप से अपरिचित रहकर अस्तित्वहीन जीवन अन्दर ही अन्दर जलाकर खोखला कर देता है। ऐसा व्यक्ति दूसरों जीता है। और अपने को छोटा मानने वाला भी इसी तरह का का विकास सहन नहीं कर पाता। दूसरों के पतन के लिये वह व्यसनी है। जो अपने को हीन/छोटा/असहाय मान कर निराशा के अपने तन, मन, धन को नष्ट करते हुये भी नहीं हिचकता। अत: | गर्त में चला जाता है। वह विस्तृत चिन्तन करने की स्थिति में नहीं मानसिक और शारीरिक क्लेश भोगता रहता है, ऐसे व्यक्ति को | रहता। इस विचारधारा की आदत से उबर नहीं पाता ओर जीवन प्राप्त कुछ नहीं होता अपितु जो पास होता है वह भी समाप्त हो | भर हीनता/कुण्ठा/दीनता जैसी मानसिक बुराईयों को भोगता रहता जाता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति अपनी आँख फोड़कर दूसरों को अपशकुन | है। यह छोटे/बड़ेपने की क्षुद्र मानसिकता से उबरने के लिये हमें करना चाहता है। इस मानसिक व्यसन के प्रभाव से वह अपना | अपने आप का मिष्पक्ष मूल्यांकन करना होगा। अपने वास्तविक हिताहित भूल जाता है ऐसे खतरनाक व्यसनों की ओर यदि हम | स्वरूप के ज्ञान से यह व्यसन हमारे ऊपर असर नहीं कर पाता। 20 जनवरी 2003 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद / लापरवाही / असावधानी व्यक्ति के जीवन को नीरस और असफल बना देती है। शरीरिक सुस्ती दवा से और मानसिक सुस्ती स्वपुरुषार्थ से ठीक होती है। यह प्रमाद / सुस्तपन जीवन का बोझ है। इससे व्यक्ति कभी उत्थान नहीं कर पाता। उसे हर समय हर कार्य में उलझन ही लगती है और अन्त में पछतावा हाथ लगता है, ऐसे व्यसन से हमें सदा बचना चाहिये। सजगता, सर्तकता जीवनोत्थान के प्रमुख आधार हैं। लोभ समस्त सामाजिक/मानसिक एवं वैयक्तिक बुराईयों का भण्डार होता है। लोभ का व्यसनी सद्गुणों से बहुत दूर रहता है। हमें सारे संसार के वैभव को पाने की भावना से एवं भोजनादि की अति लिप्सा से अपने को दूर रखकर जीवन के उत्थान की दिशा में सोचना है। लोभ ऐसा व्यसन है, जिसके अनेक बीभत्स रूप हैं इस बुराई को अपने मस्तिष्क में न आने दें। अपेक्षायें हमारे जीवन को तनाव, निराशा, झूठे, दंभ नीरसता से दूषित कर हमारा समाजिक स्तर नीचे गिरा देती हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपेक्षाओं के मकड़जाल में जीता है। यदि उसकी अपेक्षायें पूरी नहीं होती तो वह अपने को अपाहिज / अपंग या अधूरा मानकर निराशा के गर्त में चला जाता है। दान, पूजा, स्तवन आदि रजवाँस (सागर) म.प्र. चमत्कारों से युक्त जैन मंदिर जतारा का भौंयरा जी प्रकाश जैन 'रोशन' छठवीं सातवीं शताब्दी में स्थापित तंत्र, मंत्र, यंत्र की सिद्धि मंत्रघटा, जंत्रघाटी, सलीमाबाद, जयतारा आदि नामों से अलंकृत जतारा के जैन मंदिर का भयरा श्री पपौरा, अहार, बँधा एवं पवा जी आदि क्षेत्रों के समान अतिशय एवं चमत्कारी है । मन्दिर की ऐतिहासिकता के बारे में कहा जाता है कि राजा जय शक्ति जो जिन सिद्धान्तों का पालन करता था जिसकी मृत्यु 857 में हुई थी, के समय जैन मन्दिर के भोंयरे की भव्य प्रतिमायें प्रतिष्ठित हुई थीं। भौंयरे की भव्य प्रतिमाओं का निर्माण कब का है, ज्ञात नहीं है। मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथ के जिनालय का मूल श्रोत प्राचीन भोयरा (तलघर) है जिससे लगी हुई चारों ओर की वेदियाँ मन्दिर को शोभायमान करती हैं। इस भूगर्भ की महत्ता के बारे में उल्लेखनीय है कि इस भौंयरे में दो शिलालेख हैं पहला शिलालेख संवत् 1153 के उल्लेख के साथ निसाव के पत्थर पर है, जबकि इसी स्थान पर दूसरा शिलालेख प्रतिमा के नीचे लगा सन् 1421 का है। प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रथ्वी वर्मा का पुत्र | मदन वर्मा सन् 1130 से 1165 तक यहाँ का शासक रहा है। मंदिर के द्वितीय जिनालय का निर्माण भी इसी समय का है। मंदिर के अन्य जिनालय इसी दशक में हुये पंच कल्याणकों के दौरान निर्मित हुये हैं इस तरह एक परकोटा के भीतर स्थित चार जिनालयों में विभक्त भट्ट जैन मन्दिर दो गंध कुटी, दो स्वाध्याय सदन एवं अतिशय युक्त भौंयरे के साथ धार्मिक स्थल की महत्ता को स्वत: महान कार्य भी अपेक्षाओं के चलते दूषित हो जाते हैं। तनाव हमारी जीवन शक्ति को नष्ट कर देता है। मानवीय रिश्तों को असंतुलित कर देता है। तनाव हमारे जीवन को घुन की तरह लग जाता है, जो हमारे तन-मन को क्षीण करता है । वस्तुस्थिति की समीक्षा करें, तो पता चलता है कि तनाव गलत सोच है, जो बिना आधार के जीवन को खोखला बनाता है। तनाव से ही गंभीर रोग हो जाते हैं, जिससे हमारा अंत हो जाता है। अतः हम वस्तु के स्वभाव को समझकर अपने सोच को सकरात्मक बनावें, जिससे हमें और समाज को नई दिशा मिल सके। ये ऐसे व्यसन हैं जिनकी तरफ हमारा ध्यान हीं नहीं जाता ये ही हमारे पतन के कारण हैं। इन्हें अपने अन्दर न पनपने दें। और आने वाली पीढ़ी को भी यही मार्गदर्शन दें कि मानसिक व्यसन ही हमारी दिशा और दशा के जिम्मेदार हैं, ये जीवन को निराशा एवं पतन की ओर ले जाते हैं। इनसे बचने के लिये सकारात्मक सोच के साथ समता, संयम और साधना की त्रिवेणी में गोते लगाने पड़ेंगे। ही उजागर कर देता है। इस अतिशय क्षेत्र की अनेक जैन संतों ने चमत्कारी भी बताया है। ऐसा माना जाता है कि श्री नेमिनाथ जिनालय में विराजमान भगवान् नेमिनाथ की प्रतिमा के दायें हाथ में अंगूठा के पास से आतताइयों ने मूर्तिभंजन का प्रयास किया किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। छैनी के निशान अभी भी विद्यमान हैं, क्षेत्रीय भौंयरे जी में देवों द्वारा किये गये नृत्य गायन भजन, कीर्तन एवं पूजन की क्रियायें जतारा के अनेक श्रावकों ने सुनी हैं । क्षेत्र के अंतर्गत स्थानीय समाज की एक प्रबन्ध कारिणी समिति के अलावा जैन नवयुवक संघ, जैन महिला समिति, जैन महासमिति आदि अनेक सामाजिक संस्थायें हैं जो क्षेत्र की व्यवस्था एवं विकास का कार्य करती हैं। वर्तमान में परम पूज्य मुनि श्री विमर्शसागर महाराज इसी क्षेत्र की महान् विभूति हैं। देश के महान आध्यात्मिक संत श्री गणेश प्रसाद वर्णी यहीं से प्रेरणा पाकर आगे बढ़े हैं जबकि अन्य विद्वानों में श्री पं. मोतीलाल वर्णी, कड़ोरे लाल भायजी, स्वरूप चंद वनपुरिया, पं. मौजीलाल जैन अट्टार आदि विद्वान आध्यात्मिकता के क्षेत्र में अग्रेषित हुये हैं । मंत्री- दि. जैन समाज एवं दि. जैन महासमिति जतारा, जिला टीकमगढ़ (म.प्र.) फोन - 54223 -जनवरी 2003 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी-लोक नारी की दशा और दिशा प्रो. (डॉ.) विमला जैन मानव समाज में नारी को आद्या शक्ति कहा है, वह जीव । भी दहेज उत्पीड़न और परित्यक्ता की वेदना अवर्णनीय है। इतना लोक में प्राण को वहन करने वाली, उसको पोषण देने वाली तथा सब कुछ होता है उस राष्ट्र और समाज में जहाँ अदृश्य प्राणी मात्र पालक है। अत: सृष्टि में नारी को पुरातनी भी माना है। आदिम और जल, पृथ्वी, वनस्पति तक के लिये करुणा भावना और वेदना प्रकृति ने नारी को दी है वह ममतामयी, स्नेहिल, उदार तथा अहिंसा की बात की जाती है। कन्याभ्रूणहत्या तथा कन्या को करुणा की स्वाभाविक प्रतिमूर्ति है। जीव पालन के प्रवृत्ति जाल | अशिक्षित रख कुपोषण देकर पालना तथा अनमेल विवाह आदि को प्रकृति ने नारीदेह और मन तन्तुओं से जोड़ा है। इस प्रवृत्ति को के द्वारा गर्त में ढकेलना वात्सल्यमूर्ति माता-पिता द्वारा होता है, स्वभावतः चित्त की अपेक्षा हृदय में ही अधिक गम्भीर और वहीं दहेज उत्पीड़न, हत्या, परित्याग की वेदना में उसका पति प्रशस्तरूप से स्थान मिला है, यह वही प्रवृत्ति है जो नारी के बीच परमेश्वर होता है, जो अग्नि को साक्षी बनाकर पंचों के सामने बन्धन-जाल निर्माण करती है। स्व और पर को धारण करने के शपथ पूर्वक संरक्षण का वचन देकर लाया था। इस सारे अन्याय लिये प्रेम-स्नेह, करूणा-धैर्य और साहस अत्यन्त आवश्यक है पूर्ण व्यवहार में समाज, कानून और धर्म सभी पुरुष का ही साथ और यह नारी में जन्मजात तथा स्वाभाविक होता है। मानव श्रृंखला देते हैं, क्योंकि सामाजिक व्यवस्थाएँ, विधि-विधान, धर्म, नैतिकता और समाज का मूलाधार इसी स्नेह वात्सल्य के बन्धन पर निर्भरहै, | सबके संस्थापक पुरुष ही होते हैं। "नरकत शास्त्रों के सब बन्धन नारी इसे सहर्ष स्वीकारती हुई आनन्दानुभूति में रमण करती है। हैं नारी को ही लेकर, अपने लिये सभी सुविधाएँ पहले ही कर बैठे नारी का नारीत्व समर्पण में है, तो यौवन का सुरभितफल मातृत्व नर।" बिलाव कोई भी कानून चूहों के पक्ष में बनाये यह संभव में है। पहले तो स्वयं अपने जीवन के लिये फिर इस जीवन को नहीं है। इस प्रकार नारी को सदैव ही द्वितीय श्रेणी का स्थान दिया जीने योग्य बनाने के लिये नारी के बिना पुरुष की बाल्यावस्था गया है। कभी उसे विषबेल कहकर धिक्कारा गया है, तो कभी असहाय है, युवावस्था सुखरहित और वृद्धावस्था सांत्वना देने पतिता कहकर दुतकारा गया है। आधुनिक युग,जो समाजवाद वाले सच्चे और वफादार साथी से रहित होती है, क्योंकि नारी ही। और गणतंत्र की दुहाई देता है, उसमें विज्ञान की उपलब्धि के रूप माँ रूप में जन्म देकर अंक से लगा पोषण और दुलार देती है, | में लाखों कन्याभ्रूणहत्या, बलात्कार और दहेज हत्या जैसे अपराधों स्नेहिल आंचल का संरक्षण दे पालन करती तथा मानवता का पाठ | के विषय में कहना ही व्यर्थ है, क्योंकि सब जानते हुए अनजान पढ़ाती है। यौवन काल में प्रेयसी का सुखद आलम्बन तथा गृह | हैं। नारी का लावण्य विज्ञापन और धनार्जन का माध्यम बन गया लक्ष्मी का सुख संवर्धन भी नारी पर ही निर्भर है, उसे धर्म, अर्थ, | है। आज नारी पिता, पति, पुत्र के हाथों में भी सुरक्षित नहीं है। काम त्रिवर्ग का प्रेरक ही नहीं निर्णायक भी माना गया है। वृद्धावस्था । ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि नारी शारीरिक और में भावात्मक एवं संवेदनशील साथी के अतिरिक्त परिचारिका के आर्थिक रूप से सबल और स्वावलम्बी होना चाहेगी। आज वह रूप में साथ निभाने वाली नारी ही होती है। पुरुष जब भी और जो भ्रमित है, दिशाबोध के लिये तड़फ रही है। एक तरफ वह पूर्व भी महान् बना है उसके आरम्भिक प्रेरणा का स्रोत नारी ही रही परम्पराओं और स्वसंस्कृति से जुड़ी रहकर नारीत्व की निधि है। नारी का अप्रत्यक्ष भावात्मक पुरुषार्थ कभी भी द्रव्य या अन्य सतीत्व और मातृत्व की रक्षा करना चाहती है तो दूसरी ओर प्रगति किसी वस्तु से तोला नहीं जा सकता। आज भी यदि भारतीय के नाम पर आर्थिकरूप से स्वावलम्बी बनने को प्रयत्नशील है। संस्कृति और नैतिकता जीवित है तो उसका श्रेय भी नारी की | यद्यपि स्वावलम्बी बनने के लिये उसे अंगारों पर चलकर एक सहनशीलता और त्याग बलिदान से परिपूर्ण जीवनशैली और चर्या | नयी दुनिया में कदम रखना होता है और उस नई दुनियाँ में और को ही दिया जायेगा। भी अधिक खूखार भेड़िये हैं। आज स्थिति यह है कि इधर जाओ इतना सब कुछ होते हुये भी नारी की कोमल भावनाओं | तो कुँआ उधर जाओ तो खाई। आज समाज में बाल ब्रह्मचारिणियों और कमनीय काया के प्रति मानव समाज का वर्बरता पूर्ण व्यवहार | की संख्या में दिन पर दिन वृद्धि हो रही है। जिनमें कुछ तो वास्तव रहा है, कभी उसके सतीत्व से खिलवाड़ कर नगरबधू बनाया में वैराग्य भाव के कारण निवृत्ति का मार्ग चुनती हैं, परन्तु काफी गया है, तो कभी विषकन्या बना कर कूटनीति के कुचक्र की धार | कुछ विषम परिस्थितियों से मजबूर हो निवृत्तिमार्ग पकड़ना चाहती बनाया गया है, कभी उसे अग्नि परीक्षा देनी पड़ी है, तो कभी जौहर की ज्वाला में जलना पड़ा है और कभी पति के शव के | आज प्रबुद्ध वर्ग, समाजसेवी, राष्ट्र के कर्णधार तथा धर्म साथ सती कहकर जिन्दा जलाया गया है, यही नहीं देवदासी और | तथा नैतिकता के पथप्रदर्शकों को दूरदर्शिता तथा सहृदयता से इस दासी विक्रय कर विनमय की वस्तु समझा गया है। उसकी कोमल, | विषय पर चिन्तन करना होगा, मानवत्व की रक्षार्थ उन्हें न्याय के कमनीय काया को खिलौना बना कर खेला गया है। मादा शिशु झरोखे में झाँकना होगा। नारी यह दुहरी जिन्दगी बहुत दिन नहीं हत्या और कन्या भ्रूण हत्या प्राचीनतम भी है और अत्याधुनिक | जी सकती। यदि मानवता का संरक्षण करना है तो नारी के सतीत्व 22 जनवरी 2003 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मातृत्व का संरक्षण अत्यावश्यक है। जिन देशों में नारी को । तथा सुख शान्ति को चिर स्थायी बनाया जा सकता है। व्यक्ति का अर्थाजन के लिये मजबूर होना पड़ा है, वहाँ शिशुओं की बद से | वैयक्तिक विकास नर-नारी के समन्वय विकास से ही सम्भव है। बदतर स्थिति हो रही है। जब समाज में नारी का स्थान बहुत नीचा | परन्तु दोनों को अपने-अपने क्षेत्र को विशेष दक्षता और कर्त्तव्य हो जाता है, तब उसके साथ शिशुओं का स्थान भी नीचे उतर | परायणता से संभालना होगा। नर-नारी सुशील, संयमी, धर्मभीरु, आता है। जब शिशुओं को स्नेह और वात्सल्य की छाया के बिना | विवेकशील, कर्त्तव्य परायण, प्रशम और अनुकम्पा की भावना से बालाश्रमों में पाला जाता है, वे मानवीयता से रहित, स्वार्थी और | परिपूर्ण हो कर्त्तव्य पथ पर चलते रहें तो शोषित और शोषक का अपराधिक वृत्ति को धारण करने लगते हैं। परिवार टूटने से सामाजिक | प्रश्न ही नहीं उठता। संसार रथ के पहिये के रूप में नर-नारी संगठन और समन्वयता की बात कल्पना ही कही जायेगी। इधर | समन्वय के साथ ताल-मेल बैठाये तथा प्रकृतिप्रदत्त गुणों के आधार नारी प्रकृतिप्रदत्त गरिमा और वात्सल्य से वंचित हो सुखद वरदायिनी | पर अपनी-अपनी कार्य प्रणाली को यथाशक्ति कर्मठता तथा भी नहीं रह सकती। मानव में मानवीयता और देवत्व का गुण | उत्तरदायित्व के साथ लक्ष्मण रेखा के अन्दर रहकर निर्वहन करें, उसका वैयक्तिक सर्वांगीण विकास तभी संभव है जब उसका | तभी लौकिक और परलौकिक सुखसमृद्धि की उपलब्धि सम्भव वाल्य काल सुरक्षित और संरक्षित ही नहीं, वात्सल्य के साये में है। आज शिक्षित नारी धनार्जन को नहीं न्यायिक क्रान्ति को आगे व्यतीत हो। वैसे केवल स्वयं का पेट भर लेना पशु पक्षियों का | बढ़े। अनादिकालीन कुरीतियों और विषम परिस्थितियों से निपटने काम है। मानव सृष्टि का श्रेष्ठतम प्राणी इसलिये है कि वह स्वयं के के लिये समाज और राष्ट्र में एक न्यायिक क्रान्ति तथा आध्यात्मिक साथ परिवार (वृद्ध माता-पिता-दादा-दादी सहधर्मिणी पुत्र-पुत्री) लहर लाने का उत्तरदायित्व शिक्षित, सृजनशीला नारी पर ही है। आदि समाज तथा राष्ट्र के लिये जीवन उत्सर्ग करता है। उसे चार । उसे यह कार्य पाश्चात्य के अस्ताचल से नहीं प्राच्य के उदयाचल पुरुषार्थ-धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील रहकर के आलोक में करना है। नारी शक्ति और दृढ़ता की प्रतिमूर्ति है। ही जीवन यापन करना चाहिये। अत: अपनी असीम प्रेरणा शक्ति व्यावहारिक बुद्धि, करुणा, ममता, इसके लिये पुरुष को नि:स्वार्थ तथा कर्मशील हो स्व | प्रेम, स्नेह, विश्वास और आस्था के अस्त्रों से अन्याय और कुप्रवृत्तियों कर्तव्य का निर्वहन करना होगा, वह बाहुबल से जीविकार्जन करे | का नाश कर सकती है। और आय के अनुसार व्यय तथा सुखसुविधाओं के प्रति संयम व किहि नहि पावक जलसकहि, किहि नहि समुद्र समाय, सन्तोषी वृत्ति को धारण करे। नारियों को सुशिक्षित सुसंस्कृत तथा किहि ना करहि अबला प्रबल,किहि जगकाल न खाय । उन्नतिशील बना उनके सतीत्व और मातृत्व को सम्मान और संरक्षण 1/344, सुहाग नगर, फिरोजाबाद देकर ही राष्ट्र और समाज की प्रगति तथा आत्मनिर्भरता सम्भव है ग्रन्थ-समीक्षा श्रीसिद्धचक्र विधान पं. शिखरचन्द्र जैन 'साहित्याचार्य' अनुवादक एवं सम्पादक - प्रतिष्ठाचार्य भ्राताद्वय पं. | मूलभाव का शब्दश: अनुरूप सरल, सरस, रोचक शैली में सनतकुमार जी जैन एवं पं. विनोद कुमार जी जैन, रजवाँस | हिन्दी अनुवाद कर स्वनामधन्य प्रतिष्ठाचार्यद्वय श्री पं.सनतकुमार (सागर)म.प्र. जी एवं विनोदकुमार जी ने प्रभावना की दृष्टि से बड़ा उपकार प्रकाशक (सदाशय)- श्री देवेन्द्र कुमार जी (अजय), किया है। अब साधारण तथा जिज्ञासु श्रोताओं को यह अनुवाद अभिषेक कुमार जी जैन (बिजली वाले) 1/60/3, कबूल नगर, आत्मीय भावमयी प्रभावना-गंगा में अवगाहन करने में धार्मिक शाहदरा, दिल्ली-32 फोन (011)2594932 सोपान सिद्ध होगा। सरल हिन्दी अनुवाद समसामयिक माँग के प्रकाशन वर्ष : 2002, मूल्य प्रभावना हेतु 80 रु. मात्र परिप्रेक्ष्य में “गागर में सागर" भरने की उक्ति को चरितार्थ विमोचन स्थल : भगवान् पार्श्वनाथ उपसर्गजयी | करने वाला है। प्रकाशन पूर्ण सावधानीपूर्वक, आकर्षक साजतपोभूमि तीर्थक्षेत्र श्री बिजोलिया जी (भीलवाड़ा) राजस्थान सज्जा से पूरिपूर्ण है। प्रतिष्ठाचार्यद्वय बधाई के पात्र हैं। उनकी पावन सान्निध्य : पू. मुनिपुंगव श्री 108 सुधासागर जी | जिनवाणी के प्रति प्रभावनापूर्ण रुचि सराहनीय है प्रसंग: अ.भा. विद्वतपरिषद का 22वाँ महाधिवेशन, | पुस्तक "जिन-पूजा-पाठ सार्थ" भी प्रशंसनीय तथा प्रभावनापूर्ण दिनांक 16.10.2002 प्रयास की अविस्मरणीय धरोहर है। पुस्तक का कथ्य एवं तथ्य : प्रतिभासम्पन्न कविहृदय उपप्राचार्य, सन्तलालजी द्वारा रचित सिद्धचक्र (मंडल विधान) के पावन श्री गणेश दि.जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर -जनवरी 2003 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या आप जानते हैं, आप क्या खा रहे हैं? श्रीमती मेनका गाँधी एक भारतीय का उदाहरण भी हमारे सामने है, जिसने अमरीका में कोर्ट के सामने मैकडॉनल्डस की पोल खोली। वर्षों तक मैकडॉनल्डस ने लोगों को झूठ बोला कि वे चिप्स को वैजिटेबल ऑयल में तलते हैं। सच्चाई सामने आ चुकी है कि मैक्डॉनल्डसचिप्स को वैजिटेबल ऑयल में तलने से पहले उन्हें गाय की चर्बी में डुबोते हैं। सभवतः उसी के समान हमारे देश में भी वे चिप्स जो दूसरे देशों से आयात किये जाते हैं, उनमें इस तरह की सामग्री मिली होती है। एक उपभोक्ता के रूप में आपकी पसंद लाखों जानवरों | 4. चुइंगम - हालाँकि यह प्राकृतिक गम (पेस्ट) से के जीवन व मृत्यु का निर्णय करती है। कहने का अर्थ यह है कि | बनाई जाती है, लेकिन फिर भी इसमें ग्लेसरिन, सैट्रिक एसिड व यदि आप अपनी दैनिक इस्तेमाल की वस्तुओं के प्रति जागरूक पशुओं से प्राप्त होने वाला एमूलसिकिएरस आवश्यक रूप से हैं, तो संभवत: आप न केवल जानवरों का जीवन बचा सकते हैं, मिला होता है। यदि यकीन न हो तो इसके खोल पर आप पढ़ बल्कि उन वस्तुओं का निर्माण करने वाले उत्पादकों व निर्माताओं सकते हैं। को भी अन्य विकल्पों के प्रयोग के लिए बाध्य कर सकते हैं। 5. चिप्स - विदेशों से फास्टफूड की दुकानों पर जितनी बहुत से उत्पादक व निर्माता आपको धोखे में रखते हुए भी प्रकार की चिप्स मिलती हैं, उन्हें पशुओं की चर्बी में तला अपने उत्पादों के रूप में आपके समक्ष अदृश्य रूप में जानवरों | जाता है। पैकेटों में बिकने वाले चिप्स पर ध्यान से देखें कि यह का मांस, उनकी त्वचा, हड्डियाँ परोस देते हैं और आपको पता भी बेजिटेबल ऑयल में तली गई है या नहीं। नहीं चलता कि इन उत्पादों के रूप में आप क्या कुछ प्रयोग कर 6. चॉकलेट - चॉकलेट में सामान्यत: जानवरों से प्राप्त रहे हैं। इन सबके पीछे एक मुख्य कारण है कि जानवरों का मांस तत्त्वों का सम्मिश्रण होता है। कुछ ऐसे ही सम्मिश्रण हैं, अंडे की व अन्य अंग उत्पादों में प्रयोग होने वाले अन्य विकल्पों के जर्दी, अंडे की लेसिथिन शेलैक व जैलेटिन आदि। नेस्ले की मुकाबले अधिक सस्ते होते हैं। इन उत्पादों में से अनेक पर तो | किटकैट कॉफ रेन्नेट से बनती है। इसके अतिरिक्त तर्किश डे निर्माता इनमें प्रयुक्त संघटकों का नाम भी अंकित नहीं करते। लाइट, फ्रूट रोल्स, टॉफियों, जूजूबिज, पीपरमिंट्स आदि में जैलेटिन कुछेक निर्माता अपने उत्पादों पर तत्त्वों का नाम लिखते भी हैं, तो मिला होता है। पोलों की मिंट में गाय की चर्बी मिली होती है। इनका मनोवैज्ञानिक ही प्रयोग करते हैं, जो आपकी समझ से | 7. शीतल द्रव- (कोलाज)- बाजार में आज बिकने बाहर की बात है। वाले अधिकतर शीतल पेयों (कोलाज) में ग्लाइसेरोल मिला 1. एलबुमेन - इसे आप अण्डे की जर्दी भी कह सकते होता है। कोला कोला कम्पनी ने इस बात को स्वीकार भी किया हैं। आमतौर पर इसे ब्रेड या मिठाइयों आदि में प्रयोग किया जाता है कि उनके उत्पाद में यह पदार्थ मिलाया जाता है। आइसक्रीम में है। यदि आप किसी मिठाई या डबल रोटी पर परत जैसी कोई | भी अंडा व गेलैटिन मिलाया जाता है। चीज देखें तो समझ जाइए कि यह अण्डे की जर्दी से की गई 8. जैली व जैम भी गेलैटिन युक्त होता है। सफाई के कारण है। जानवरों की हड्डियों का निर्माण कैलशियम १.बर्क - बर्क सिल्वर का बना होता है इस सिल्वर को फॉस्फेट से होता है। जानवरों की हड्डियों का ब्रेड के गूंथे हुए गाय व भैंस की आँतों के बीच रखकर पीटा जाता है, तब कहीं आटे की गुणवत्ता में निखार के लिए प्रयोग किया जाता है। जाकर वर्क तैयार होता है। 2. एजिनोमोटो - यह मछली से बनता है यह सॉस व | 10. रिवोफ्लेविन - यह संतरी व पीले रंग का पदार्थ चाइनीज फूड में प्रयोग किया जाता है। होता है, जिसमें अका व भिष्ट मिला होता है। वैजिटेबल से बना 3. पनीर - विदेशों से कई जगह चीज (पनीर) के रियोपेलविन काफी महंगा होता है। निर्माण में जिन्दा प्याना मछली के पेट से निकाले एसिड का 11. वोरसेसर्ट सॉस - इसके निर्माण में मछली का प्रयोग किया जाता है। इस एसिड को रेन्नेट कहते हैं और दूध से इस्तेमाल किया जाता है। खाद्य पदार्थों में मिलाए जाने वाले कुछ पीन बनाने की प्रक्रिया में प्रयोग किया जाता है। भारत में बछड़ों संघटक इस प्रकार हैं। के रेन्नैट पर पाबंदी है और यहाँ पर इसके स्थान पर रसायनों का (अ) जिलाटाइन - यह संघटक जानवरों की हड्डियों, प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के तौर पर क्राफ्ट चीज (पनीर) त्वचा व अन्य शारीरिक अंगों को पानी में उबालकर प्राप्त किया बछड़े के रेन्नेट से बनता है। जाता है। जानवरों के ये अंग बूचड़खानों से प्राप्त किये जाते हैं। 24 जनवरी 2003 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ब) कोचिनिएल एक लाल रंग का जर है जो सकैल कीट-पतंगों को (पूँछ वाले) मारकर उनके मृत शरीर को सुखाकर प्राप्त किया जाता है। (स) शेलैक कीट-पतंगों के मृत शरीर को बोला जाता है। 11 ग्राम शेलैक प्राप्त करने के लिए एक लाख कीटपतंगों की बलि दी जाती है। (ट) ग्लसरीन ग्लाइसरोल कफी ग्लैसरीन जानवरों के शरीर से ही प्राप्त की जाती है, लेकिन इसे पेट्रोलियम से बनाया जा सकता है। उत्पादक भी इस बात से वाकिफ नहीं होते हैं कि ग्लैसरीन मुख्यत: जानवरों से ही प्राप्त होती है और शायद यही कारण है कि वे इसे बार-बार अपने उत्पादों में प्रयोग करते हैं और कहते हैं कि उनका उत्पाद विशुद्ध रूप से प्राकृतिक है । (त) स्टेआटिक एसिड यह भी पशुओं के शरीर से प्राप्त होने वाला पदार्थ है और उसे साबुन, सौन्दर्य प्रसाधनों व मोमबत्ती बनाने में भी प्रयोग किया जाता है। - शायद अब तो आपको मालूम हो ही गया होगा कि वे उत्पाद जिन्हें आप भी प्राकृतिक या वनस्पति आधारित मान चुके है, वास्तव में कई बहुपयोगी जानवरों की बलि के बाद ही आप तक पहुँचते हैं। आप इसे रोक सकते हैं। हाँ, यह बात सच है कि इन उत्पादों को बिना जानवरों के अंगों के प्रयोग के भी बनाया जा न्यायमूर्ति ए. डी. सिंह और न्यायमूर्ति मुकुल मुद्गल की खंडपीठ ने गैर वनस्पति अवयवों से निर्मित सभी दवाओं और सौंदर्य प्रसाधनों के पैकेटों पर लाल डाट से जबकि वनस्पति आधारित दवाओं और सौंदर्य प्रसाधनों के पैकेटों पर हरे डाट. से वर्गाकार आकृति बनाने का आदेश दिया। इन आकृतियों में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ लिखी होनी चाहिए। न्यायालय ने गंभीर हालत वाले रोगियों का हित ध्यान में रखते हुए जीवनरक्षक दवाओं को इन निर्देशों के पालन से मुक्त रखा है। खंडपीठ ने स्वास्थ्य महानिदेशक को दो महीने के भीतर जीवन रक्षक दवाओं की सूची जमा करने का निर्देश भी दिया है। दवाओं व सौंदर्य प्रसाधनों के अवयवों की जानकारी देना आवश्यक नई दिल्ली 13 नवम्बर, वार्ता । दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण फैसले में खाद्य सामग्रियों की तरह ही दवाओं और सौंदर्य प्रसाधनों के पैकेटों पर यह उल्लिखित करना अनिवार्य कर दिया है कि उनका निर्माण वनस्पति आधारित अवयवों से हुआ है या जीव जंतु आधारित अवयवों से। खंडपीठ के उक्त निर्देश श्री उजैर हुसैन की याचिका को निपटाते हुए दिया। उन्होंने जीव जंतुओं के अवयवों से निर्मित सौंदर्य प्रसाधनों और दवाओं के पैकेटों पर इससे संबंधित सूचनाएँ दिये जाने के निर्देश देने की अपील की थी। सरकार की ओर से अधिसूचना जारी होने तक न्यायालय के निर्देशों पर अमल किया जाना है। केन्द्र सरकार ने पहले सौंदर्य प्रसाधनों के बारे में न्यायालय में मसौदा प्रस्तुत किया था । सकता है और बनाए भी जा रहे हैं, लेकिन इसके लिए आपको अमूमन थोड़ा सा अधिक खर्च करना होगा और उन पदार्थों का बहिष्कार करना होगा जिनके निर्माण के लिए जानवरों के अंगों का प्रयोग होता है। एक भारतीय का उदाहरण भी हमारे सामने है। जिसने अमरीका में कोर्ट के सामने मेक्डॉनल्डस की पोल खोली। वर्षों तक मैकडॉनल्डस ने लोगों से झूठ बोला कि वे चिप्स को वेजिटेबल ऑयल में तलते हैं। सच्चाई सामने आ चुकी है कि मैकडॉनल्डस चिप्स को बेजिटेबल ऑयल में तलने से पहले उन्हें गाय की चर्बी में डुबोते हैं। संभवत: उसी के समान हमारे देश में भी वे चिप्स जो दूसरे देशों से आयात किये जाते हैं, उनमें इस तरह की सामग्री मिली होती है। अब निर्णय आपके हाथ में है कि आप ऐसे उत्पादों का प्रयोग करते हैं या नहीं, लेकिन एक बात तो मैं ही आपको जरूर कहना चाहूँगी कि भले ही ये उत्पाद कुछ सस्ते व स्वादिष्ट हो सकते हैं, लेकिन आपकी सेहत के लिए ये अत्यंत हानिकारक हैं। यदि आप अपने आपको पूरी तरह शाकाहारी बनाना चाहते हैं तो प्राकृतिक तत्त्वों से निर्मित उत्पाद ही अपनाएँ। राजस्थान टाइम्स अलवर से साभार प्रेषक- निर्मल कुमार पाटौदी 22 जाय बिल्डर्स कॉलोनी इन्दौर-452003 याचिका में उन सौंदर्य प्रसाधनों और दवाओं पर चेतावनी अंकित करने की माँग की गई थी जिनका निर्माण जंतुओं के अवयवों से होता है। याचिकाकर्ता ने दलील दी थी कि ऐसी चीजों में जंतुओं के अवयवों के इस्तेमाल पर कुछ उपभोक्ताओं को आपत्ति है और उन लोगों को इस बारे में जानकारी हासिल करने का अधिकार है। याचिका में जीव-जन्तुओं के अवयवों से बनी वस्तुओं के डिब्बों पर भूरे रंग में एक वृत्ताकार संकेतक लगाने की माँग की गई थी। याचिकाकर्ता का कहना था कि देश की जनसंख्या के लगभग 60 प्रतिशत लोग शाकाहारी हैं और लगभग 90 प्रतिशत लोग अंग्रेजी में लिख पढ़ नहीं सकते। केन्द्र सरकार ने खाद्य अपमिश्रण अधिनियम के तहत खाद्य सामग्रियों पर उसमें प्रयुक्त अवयवों की जानकारी अंकित करने की तर्ज पर ही सौंदर्य प्रसाधनों के लिए भी दिशा-निर्देश देने पर विचार करने के संकेत दिये थे। -जनवरी 2003 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा क्या श्री कृष्ण को नरकायु का बंध पहले हो चुका था ? यदि हाँ, तो उसका कारण क्या था ? समाधान- श्री कृष्ण को नरकायु का बंध मरण समय से पूर्व ही हो चुका था । उत्तर पुराण 72 / 186-187 में इस प्रकार कहा है जिज्ञासा समाधान तथा जरत्कुमारश्च, कौशाम्ब्यारण्यमाश्रयत् । प्राग्यबद्ध नरकायुस्यो, हरिरन्वास दर्शन 1186 भाव्यमानात्यनामासौ नाहं शक्नोमि दीक्षितुम् । शक्तान्न प्रतिवघ्नामीत्यास्त्री बाल मद्योषयत् ॥187 अर्थ- जरत्कुमार कौशाम्बी के वन में जा पहुँचा। जिसने पहले ही नरकायु का बंध कर लिया था ऐसे श्री कृष्ण ने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर तीर्थकर प्रकृति के बंध में कारणभूत सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन किया तथा स्त्री, बालक आदि सबके लिए घोषणा कर दी कि मैं तो दीक्षा लेने में समर्थ नहीं हूँ, परन्तु जो समर्थ हों, उन्हें मैं रोकता नही हूँ । " 2. उत्तर पुराण 72/286 में इस प्रकार कहा है : बायुरपि दृशमय्यमञ्चान्त्यनाम चास्मादद्योड गमदसौ धृतरायाः । तद्धीधनाः कुरूत दान मखंडमायुर्वधं प्रति प्रतिपदं सुख लिप्सवश्चेत् । अर्थ- देखो, श्री कृष्ण ने पहले नरक आयु का बंध कर लिया था, और उसके बाद सम्यग्दर्शन तथा तीर्थंकर नाम कर्म प्राप्त किया था । इसीलिए उन्हें राज्य का भार धारण करने के बाद नरक जाना पड़ा। 3. हरिवंशपुराण पृष्ठ 768, सर्ग 62/63 में इस प्रकार कहा 秉 इत्यादिशुभचिन्तात्मा, भविष्यत्तीर्थकृद्धरिः । बद्धायुष्कतयामृत्वा तृतीयां पृथ्वीमितः ॥ (631) अर्थ- इत्यादि शुभविचार जिनकी आत्मा में उत्पन्न हो रहे थे, और जो भविष्यत् काल में तीर्थंकर होने वाले थे, ऐसे श्रीकृष्ण पहले से ही वद्धायुष्क होने के कारण मरकर तीसरी पृथ्वी में गये । उपर्युक्त प्रमाणों से नरकायु के, पूर्व में ही बंध प्रसंग स्पष्ट हो जाता है। इसके कारण का स्पष्ट कथन नहीं मिलता, परन्तु उत्तर पुराण पृष्ठ 385 में इस प्रकार कहा है- "दूसरे दिन वर के हाथ में जलधारा देने का समय था । उस दिन मायाचारियों में श्रेष्ठ तथा दुर्गति को जाने की इच्छा करने वाले श्री कृष्ण का अभिप्राय लोभ कषाय के तीव्र उदय से कुत्सित हो गया । उन्हें इस बात की आशंका उत्पन्न हुई कि कहीं इन्द्रों के द्वारा पूजनीय भगवान् नेमिनाथ हमारा राज्य न ले लें। . महापाप का बंध करने वाले श्री कृष्ण ने ऐसा उन लोगों को आदेश दिया। (152-157) उपर्युक्त प्रमाण से ऐसा ध्वनित होता है कि भगवान् नेमिनाथ के साथ महान् मायाचारी रूप पाप करने के कारण श्री को कृष्ण 26 जनवरी 2003 जिनभाषित - ****** + पं. रतनलाल बैनाड़ा नरकायु का बंध हुआ हो। यदि किसी शास्त्र में, नरकायु स्पष्ट प्रमाण हो तो विद्वत्गण लिखने का कष्ट करें। जिज्ञासा पंचाध्यायी को पं. रतनचन्द जी 'अनार्ष ग्रंथ' क्यों कहा है? बंध का मुख्तार ने समाधान- पंचाध्यायी ग्रंथ, श्री अमृतचन्द्राचार्य द्वारा रचित नहीं है। इसके लेखक पं. राजमल जी थे। यह ग्रंथ 16 वीं शताब्दी का है। पं. रतनचंद जी मुख्तार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व ग्रंथ के पृष्ठ 271 पर मुख्तार साहब ने लिखा है " श्रीषट्खंडागम सूत्र के सामने पं. राजमलजी के वाक्य कैसे प्रमाणभूत माने जा सकते हैं? जिनको गुरु परम्परा से उपदेश प्राप्त नहीं हुआ है, वे ग्रंथ रचने में प्रायः स्खलित हुये हैं। उनके बनाये हुये ग्रंथ स्वयं प्रमाणरूप नहीं हैं। किन्तु उनकी प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिये आचार्य वाक्यों की अपेक्षा करनी पड़ती है। पृष्ठ 118 पर लिखा है- पंचाध्यायी अनार्ष ग्रंथ है। वास्तव में पंचाध्यायी के बहुत से प्रसंग आगम सम्मत नहीं है। कुछ प्रमाण यहाँ प्रस्तुत हैं 1. पं. राजमलजी ने स्वरूपाचरण नामक चारित्र का उल्लेख इस ग्रंथ में किया है। जबकि इनसे पहले किसी भी ग्रंथ में, किसी भी आचार्य ने 'स्वरूपाचरण चारित्र' का उल्लेख नहीं किया है। यह परम्परा इन्होंने ही चलाई जो आगम सम्मत नहीं है। 2. इस ग्रंथ में चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि के प्रतिसमय नित्य असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा कही है, जबकि जयधवल पु. 12, पृ. 284-285 में स्पष्ट लिखा है कि अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण में प्रारंभ किये गये वृद्धिरूप परिणाम सम्यक्त्व प्राप्त होने पर जब तक रहते हैं, तब तक दर्शन मोहनीय के अतिरिक्त अन्य कर्मों की असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा होती है। उसके पश्चात् विघातरूप (मंद) परिणाम हो जाते हैं तब असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा, स्थिति कांडकघात, अनुभाग कांडकघात आदि सब कार्य बंद हो जाते हैं । अतः पंचाध्यायी का मत आगम सम्मत नहीं है । 3. पंचाध्यायी श्लोक नं. 1088 में कहा है पंचाक्षासंज्ञिनां चापि, तिरश्चां स्यान्नपुंसकः । द्रव्यतो भावतश्चापि वेदो नान्यः कदाचनः ॥1088 ॥ अर्थ- असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचों के भी नपुंसक वेद होता है। इन सब में द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से नपुंसक वेद ही होता है, अन्य नहीं । समीक्षा- उपर्युक्त कथन भी आगम सम्मत नहीं है। श्री पुष्पदंताचार्य ने षटखंडागम सत्प्ररूपणा सूत्र 107 में कहा है कि तिर्यंच असैनी पंचेन्द्रिय से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तीनों वेदों से युक्त होते हैं । अतः पंचाध्यायी का कथन ठीक नहीं है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. पंचाध्यायी श्लोक नं. 1092 में कहा है - | युगपदौदारिकतैजसकार्मणाहारकाणि चत्वारि, वैक्रियिकं वा "कश्चिदापर्यन्यामात् क्रमादास्ति त्रिवेदवान् अर्थ-"कोई एक पर्याय | अस्तित्वमाश्रित्य पंचापि भवंति। में क्रमानुसार तीन वेद वाला होता है।" अर्थ- प्रमत्त संयत मुनि के, आहारक वैक्रियक शरीर का समीक्षा - उपर्युक्त कथन भी आगम सम्मत नही है। | उदय होने पर भी, उन दोनों शरीरों का एक काल में प्रवृत्ति का श्रीधवल पु. 1/346 में इस प्रकार कहा है “जैसे विवक्षित कषाय | अभाव होने से, एक के त्याग होने से एक साथ औदारिक, तैजस, केवल अंतर्मुहूर्त पर्यन्त रहती है, वैसे सभी वेद एक अंतर्मुहूर्त कार्मण तथा आहारक या वैक्रियक चार हो सकते हैं, अथवा पर्यन्त नही रहते हैं, क्योंकि जन्म से लेकर मरण तक किसी एक अस्तित्व का आश्रय लेकर पाँच भी होते हैं। वेद का उदय पाया जाता है (अर्थात् एक पर्याय में भाव वेद | जिज्ञासा - क्या सभी विमानों की उपपाद शय्याओं पर परिवर्तन नहीं होता)"। देव तथा देवी दोनों पैदा होते हैं या कुछ अन्य भी विशेषता है? 5. पंचाध्यायी - श्लोक नं. 680 में कहा है "संज्वलन समाधान - उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में श्री त्रिलोकसार कषाय के स्पर्धक सर्वघाती नहीं है" जबकि श्री कषाय पाहुड़ गाथा 525 में इस प्रकार कहा है5/4-22 के अनुसार संज्वलन कषाय के स्पर्धक सर्वघाति तथा | दक्खिण उत्तर देवी, सोहम्मीसाण एव जायते। तहिं सुद्ध देशघाति दोनों प्रकार के होते हैं। देवि सहिया, छच्चउलक्खं विमाणाणं । 5241 तद्देवी ओ पच्छा, 6. पंचाध्यायी श्लोक नं.690 के अनुसार चारित्र मोहनीय उवरिमदेवा णयंति सगठाणं । सेस विमाणा छच्चदुवीस लक्ख देवदेवि का कार्य, आत्मा के सम्यग्दर्शनगुण का घात करना नहीं हो सकता। सम्मिस्सा। 5251 यह कथन भी आगम सम्मत नहीं है। क्योंकि अनंतानुबंधी कषाय अर्थ- दक्षिण उत्तर कल्पों की देवांगनायें क्रम से सौधर्म के उदय से सम्यक्त्व का घात तथा सासादनगुणस्थान की प्राप्ति तथा ईशान स्वर्ग में ही उत्पन्न होती हैं । वहाँ शुद्ध (केवल) देवियों होती है। की उत्पत्ति से युक्त छह लाख और चार लाख विमान हैं। उन इस प्रकार पंचाध्यायी के बहुत सारे विषय आगमविरुद्ध होने से पं. मुख्तार साहब ने उसे 'अनार्ष' ठीक ही कहा है। पं. देवियों को उत्पत्ति के पश्चात् उपरिम कल्पों के देव अपने-अपने फूलचंदजी सिद्धांत शास्त्री ने भी इस ग्रंथ की प्रस्तावना में इसके स्थान पर ले जाते हैं। शेष 26 लाख तथा 24 लाख विमान, देव कतिपय वर्णनों को उचित नहीं माना है। देवियों (दोनों) की उत्पत्ति से संमिश्र है। 524-525 जिज्ञासा- क्या किसी मनुष्य के पाँचों शरीर भी संभव हैं? | अर्थात् दक्षिण कल्पों के देवों की सभी देवियाँ सौधर्म में समाधान- तत्त्वार्थ सूत्र अ.2/43 में इस प्रकार कहा गया है तथा उत्तर कल्पों के देवों की सभी देवियाँ ईशान स्वर्ग में उत्पन्न तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः। 43 ॥ । होती हैं। सौधर्म स्वर्ग में 32 लाख और ईशान स्वर्ग में 28 लाख अर्थ- एक साथ एक जीव के तैजस और कार्मण से | विमान हैं। इनमें से 6 लाख तथा 4 लाख उपपाद शय्याओं पर मात्र लेकर चार शरीर तक विकल्प से होते हैं। इस सूत्र की टीका में देवियाँ ही उत्पन्न होती हैं, शेष पर दोनों उत्पन्न होते हैं। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने चार शरीरों की व्याख्या में औदारिक, तिलोयपण्णत्ति, अधिकार 8, गाथा नं. 333 से 336 तक आहारक, तैजस व कार्मण ये चार शरीर कहे हैं। उन्होंने औदारिक, | भी उपर्युक्त प्रकार का ही कथन है। वैक्रियक, तैजस और कार्मण इन चार शरीरों को नहीं कहा। यह प्रश्नकर्ता- सुमतचन्द्र जी दिवाकर, सतना शायद इसलिये नहीं कहा कि अ.2 के सूत्र नं. 46"औपपादिकं जिज्ञासा-मरीचि ने दीक्षा से भ्रष्ट होने के बाद कौन सा वैक्रियकम्" में पू. आ. उमास्वामी ने, उपपाद जन्म से पैदा होने | मत चलाया था? क्या सांख्यमत उसने चलाया था? वाले शरीर को वैक्रियक माना है। तदनुसार ऋद्धिप्राप्त मुनियों के समाधान- श्री आदिपुराण पर्व 18 श्लोक 62 में इस विक्रिया द्वारा बनाये शरीर को वैक्रियक शरीर नहीं माना। परन्तु | प्रकार आचार्य जिनसेन ने कहा है - आचार्य उमास्वामी महाराज ने स्वयं "लब्धिप्रत्ययं च" (सूत्र नं. तदुपज्ञममूद् योगशास्त्रं तन्त्रं च कापिलम् । येनामं 47) द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि वैक्रियक शरीर लब्धि से भी | मोहितोलोक: सम्यग्ज्ञान परांगमुखः (62) पैदा होता है। अत: यह सिद्धान्त सामने आता है कि किसी मनुष्य अर्थ- (पं. पन्नालाल जी कृत) योगशास्त्र और सांख्यशास्त्र के औदारिक, वैक्रियक, तैजस, कार्मण ये चार शरीर भी हो सकते | प्रारंभ में उसी के (मरीचि के) द्वारा कहे गये थे, जिनसे मोहित हैं। साथ ही यदि उन मुनिराज को आहारक ऋद्धि भी प्राप्त है तो हुआ यह जीव सम्यग्ज्ञान से परांगमुख हो जाता है। ऐसा मानना चाहिए कि उनके योग्यता तो पाँचों शरीरों की है, पर श्री उत्तरपुराण 74 में मरीचि का चरित्र चित्रण बहुत विस्तार आहारक तथा वैक्रियक शरीर की एक साथ प्रवृत्ति न होने से एक से किया गया है। इसके अनुसार समस्त अन्यमतों का प्रवर्तन साथ पाँचों शरीर नहीं हो सकते। यही बात राजवार्तिक 2/43 की मरीचि द्वारा ही हुआ था। टिप्पणी में स्पष्ट कही गई है। " प्रमत्तसंयतस्य आहारकवैक्रियक 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी शरीरोदयत्वेऽपि तयोरेककाले प्रवृत्त्यभावात् एकतरत्यागेन । आगरा- 282002 (उ.प्र.) -जनवरी 2003 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार नेमावर में प्राकृतिक चिकित्सा संगोष्ठी । समाधिस्थ संत परमपूज्य गुरुवर आचार्यश्री ज्ञानसागर जी महाराज गत दिनों देश में सम्पन्न अनेक त्रिदिवसीय संगोष्ठियों के | के चित्र का अनावरण किया एवं दीप प्रज्वलन दिल्ली से आई हुई मध्य श्री सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र, रेवातट, नेमावर की चिकित्सक डॉ. सलिला तिवारी ने किया, उपर्युक्त दोनों डॉक्टरों के साथ डॉ. गोष्ठी इसलिए अधिक सफल कही गई क्योंकि उसमें देश के सुरेश कुमार गाँधी, दिल्ली ने भी अपने महत्त्वपूर्ण विचार रखे। विभिन्न शहरों और गाँवों से करीब 112 चिकित्सक पहुँचे थे, शिविर में स्थानीय और बाहरी कुल 48 मरीजों ने स्वास्थ्य जिसमें से करीब 24 ने 3 दिन के 6 सत्रों में अपनी विषय वस्तु । लाभ लिया, जिनके विषय में इंडियन एक्सप्रेस, अमृतसर के पूर्व प्रस्तुत कर श्रोताओं को स्वस्थ रहने का प्रशस्त मार्ग दिया। | पत्रकार श्री ऋषभ कुमार जैन ने यथायोग्य जानकारी दी। प्रथम दिन के प्रथम सत्र में डॉ. एस.व्ही.राय (सेवानिवृत्त सायंकालीन सत्र में कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री एच.ओ.डी मेडिकल कॉलेज, भोपाल) ने डायबिटीज के बारे में अजयकुमार, श्री आशीष कुमार एवं श्री ओमप्रकाश भाई (सूरत) बताकर स्वास्थ्य को सही रखने का परामर्श दिया। डॉ. गुरु गोस्वामी ने दीप प्रज्वलन कर कार्यक्रम को गति दी। संचालन कर रही डॉ. एवं श्रीमती अन्नपूर्णा गोस्वामी ने पंचमहाभूत तत्त्व (आकाश, रेखा जैन ने, अतिथियों एवं वक्ताओं का संक्षिप्त परिचय दिया पवन, अग्नि, जल और पृथ्वी) के बारे में बताकर उसी से अपने तदुपरान्त डॉ. मुरलीधर कन्जानी ने 'उपवास के विषय में अनुभव', स्वास्थ्य को सही रखने की जानकारी दी। डॉ. अमृतलाल मूढ़त डॉ. वेदप्रकाश गोयल, मुम्बई ने जीने की कला और योग' श्री (अध्यक्ष-म.प्र.प्रा.चि.बोर्ड) ने अपने आलेखों, भाषणों में अस्थमा ऋषभ कुमार जैन ने श्वासोच्छ्वास का 'प्रदूषण एवं पर्यावरण' डॉ. आदि रोगों और उनकी उपचार शैली पर प्रकाश डाला। श्रीमती अन्नपूर्णा गोस्वामी, रायपुर ने स्त्री रोग के विषय में जानकारी भाग्योदय तीर्थ प्राकृतिक चिकित्सालय, सागर के दी। इस बीच बैतूल से पधारे डॉ. मुरलीधर एवं माता योगमूर्ति ने तत्त्वावधान में त्रिदिवसीय गोष्ठी में संतशिरोमणि प.पू. 108 आचार्यश्री पूज्य आचार्यश्री के चरणों में श्रीफल चढ़ाया। जबलपुर से आमंत्रित विद्यासागर जी मुनि महाराज ससंघ उपस्थित थे। सत्रान्त में उन्होंने युवा डॉ. अमित जैन ने मानवशरीर के जोड़ों पर विषद व्याख्यान वक्ता चिकित्सकों के विषयों पर गंभीरता से विवेचन किया और दिया एवं रेखाचित्र एवं प्रोजेक्टर के सहयोग से जोड़ों के दर्द, उन्हें तथा उपस्थित जनसमूह को आशीर्वाद दिया। कार्यक्रम का सूजन, कार्यक्षमता में कमी आना आदि पर मार्गदर्शन दिया। डॉ. संतुलित संचालन ब्र. बहिन डॉ. रेखा जैन (इन्सपेक्टर) ने किया। अमित की प्रस्तुति एवं वक्तव्य शैली ने एक ओर जहाँ समस्त वे अपनी बारह सदस्यीय टीम सहित गोष्ठी की व्यवस्था में भी वरिष्ठ डॉक्टरों को प्रभावित किया, वहीं पूज्य आचार्यश्री को भी व्यस्त रहीं। फलतः उनके साथ-साथ उनकी टीम की डॉक्टर सोचने पर मजबूर कर दिया। दर्शक तो वाह-वाह करके झूम रहे बहिनों की प्रशंसा स्वाभाविक है। थे, जब अमित जी ने कहा कि मानवशरीर में रक्त संचार की सही द्वितीय सत्र में स्वदेशीय आन्दोलन के अध्यक्ष श्री राजीव गति ही सारी बीमारियों का इलाज करती है, तो लोग उनसे अनेक दीक्षित (पूर्व, एस.आई.आर वैज्ञानिक) ने दीप प्रज्वलन किया। बातों को जानने के लिए प्रश्न पर प्रश्न करने लगे, जिनका समाधान दिल्ली से आए डॉ. महेन्द्र गुप्ता ने 'योग, स्वास्थ्य एवं तनाव के उन्होंने सहजता से दिया, कार्यक्रम के मुख्य आयोजक श्री लिए' विषय पर विचार रखे। तीन शिविरों में लगातार आर्थिक चमनलालजी जैन, दिल्ली ने डॉ. अमित को प्रशस्ति पत्र, दुपट्टा सहयोग करने वाली दिल्ली-निवासी श्री चमनलाल जी जैन एवं एवं प्रतीक चिह्न से सम्मानित किया और फिर मंच पर उपस्थित उनकी पत्नी श्रीमती उषा जैन का सम्मान किया गया। उक्त सभी वक्ताओं को सम्मानित किया गया। गोष्ठी में हर वक्ता के भाषण के बाद श्रोतागण प्रश्न करते कार्यक्रम के अगले चरण में डॉ. निर्मला जी मूढ़त, थे और वक्ता उन्हें समाधान देते थे। रात्रि में डॉक्टरगण शिविर में | रतलाम, डॉ. हर्षद राय त्रिवेदी, नीमच ने मोटापा आदि विषयों पर आये लोगों की परेशानियों का हल बतलाते थे। डॉ. अमरनाथ जैन | प्रेरक विचार रखे। सत्र के अंत में परम पूज्य आचार्यश्री ने समस्त (संचालक-भाग्योदय तीर्थ चिकित्सालय, सागर) हास्ययोग का | वक्ताओं के वक्तव्य पर बारी-बारी से समुचित चर्चा की एवं प्रदर्शन करते थे। जनसामान्य को बतलाया कि जब तक फल और फसल पक ना सत्रान्त में परमपूज्य आचार्य श्री ने अपने उदबोधन में | जावे, तब तक जानकार व्यक्ति उनका सेवन नहीं करते। यही बतलाया कि “शिक्षित और दीक्षित" व्यक्ति युग को आगे बढ़ाने | स्थिति साग-सब्जी के साथ भी है। पुराने समय में आँख का दर्द की योग्यता रखते हैं। "योग और उपयोग" को तब उस दिशा में | बंधन से, पैर का दर्द मर्दन से और पेट का दर्द लंघन से' हटाया ले जाया जाता है जिसका कि प्रशिक्षण प्राप्त किया होता है। जाता था, जो शतप्रतिशत प्राकृतिक क्रिया थी। वह आज भी दूसरे दिन सत्र में डॉ. पन्नालाल वर्मा, डॉ. कन्जानी ने | अपना मूल्य बनाए हुए है। 28 जनवरी 2003 जिनभाषित - दूसर । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतिम दिवस में प्रथम सत्र का शुभारंभ ब्रह्मचारिणी बहनों । रश्मि, डॉ. रूपाली, डॉ. मृदुला का सार्वजनिक अभिनंदन किया ने मंगलगान से किया गया। उस दिन संयोग से सभी वक्ता एवं प्रतीक चिह्न भेंट किया। कार्यक्रम की अंतिम कड़ी के रूप में ब्रह्मचारिणी बहनें ही थीं। डॉ. संगीता जैन ने "जोड़ों के दर्द एवं | डॉ. रेखा जैन ने परमपूज्य आचार्यश्री का आह्वान किया और आदर उपचार एवं आहार" डॉ. नीता जैन ने "डायबिटीज के उपचार सहित बोली कि अब मैं संसार के सबसे बड़े डॉक्टर को निवेदन एवं आहार" डॉ. सपना जैन ने "मोटापा के उपचार एवं आहार" | पूर्वक आमंत्रित करती हूँ, यह वाक्य सुनकर जन-साधारण को के बारे में बतलाया, डॉ. रेखा जैन ने जो संचालन भी कर रही थी, हार्दिक खुशी हुई, अत: तालियों की गड़गड़ाहट से आकाश गूंज अपने वक्तव्य में कहा कि आदमी को प्रतिदिन 2200 से 2400 | उठा। गुरुवर ने तीनों दिनों के सत्रों पर प्रकाश डाला, फिर श्रावकों कैलोरी की आवश्यकता पड़ती है। अत: उसे दिन भर में वह प्राप्त से कहा कि आपको स्व के साथ-साथ पर के बारे में हर पल करना चाहिए। उन्होंने रोज उपयोग में आने वाले, विभिन्न खाद्य सोचना होगा। अनेक प्रकार के शिक्षासूत्रों को प्रदान करते हुए पदार्थों में कैलोरी की मात्रा बतलाने के लिए एक चार्ट जारी उन्होंने स्पष्ट किया, कि दीपक हजार हो सकते हैं, किन्तु प्रकाश किया। जो बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। रेखा दीदी ने व्यंग्य | एक ही होता है, उसी तरह चिकित्सा-पद्धितयाँ अनेक हो सकती करते हुए कहा कि कैलोरी की मात्रा सात्त्विक पदार्थों से ही ली । हैं, पर स्वास्थ्य एक ही होता है। अत: सफल चिकित्सकों को भी जावे, क्योंकि आज का आदमी, बीबी को तलाक दे सकता है पर | अभिमान नहीं करना चाहिए व अभयदान देना चाहिए। प्राणों से प्यारी चाय को नहीं। डॉ. रेखा जैन के आभार प्रदर्शन के साथ ही त्रिदिवसीय डॉ. पन्नालाल जी वर्मा ने हृदय रोग पर गहन चर्चा की। संगोष्ठी का 27 जून 2002 की संध्या बेला में समापन किया गया। और प्राकृतिक उपचार बतलाए, अंत में परमपूज्य आचार्यश्री ने डॉ. रेखा जैन सभी वक्ताओं के कथन को स्पर्श करते हुए बतलाया कि प्रमाद भाग्योदय तीर्थ प्राकृतिक चिकित्सालय, सागर (म.प्र.) का अभाव होना जरूरी है, वह उचित खाद्य पदार्थों से वा संतुलित श्री टी.के.विद्यार्थी को राष्टपति शौर्य-पदक कैलोरी से किया जा सकता है। किन्तु उसका एक प्रकार और है, दृष्टि नासा पर रखने से भी प्रमाद का अभाव होता है, उसी से देश के चुनिंदा पुलिस अधिकारियों को अदम्य साहस एवं पल-पल झपकती आँखों से उन्मेष और निमेष का अभाव होता उत्कृष्ट कर्तव्यनिष्ठा के लिए दिये जाने वाले राष्ट्रपति शौर्य पदक है। अनेक दृष्टांत बतलाते हुए आचार्यश्री ने स्पष्ट किया कि उन्मत्तता हेतु इस वर्ष छतरपुर निवासी उप पुलिस अधीक्षक श्री तुषारकांत हटाने के लिये पाँचों इन्द्रियों का विश्राम करना आवश्यक है। जैन विद्यार्थी को भी चयनित किया गया है। खास बात यह है कि तीसरे दिन के अंतिम सत्र में डॉ. वन्दना जैन ने योग | डबरा (ग्वालियर) एस.डी.ओ.पी. श्री विद्यार्थी इस वर्ष सर्वोच्च संबंधी जानकारी दी एवं डॉ. अल्पना जैन ने आहार के विषय में | पुलिस-अलंकरण हेतु मध्यप्रदेश से चयनित एकमात्र पुलिस संक्षिप्त एवं सारगर्भित जानकारी दी, शिविर में आये हुए श्री पार्श्वनाथ अधिकारी हैं । ज्ञातव्य है कि तुषारकांत छतरपुर के स्वतंत्रता संग्राम ब्रह्मचर्याश्रम, गुरुकुल एलोरा के 200 छात्र वा शिक्षक तथा खातेगाँव सैनानी, पूर्व विधायक एवं लेखक स्व. डॉ. नरेन्द्र विद्यार्थी एवं पूर्व स्कूल से 75 छात्र व शिक्षक भी आये थे। प्राध्यापक डॉ. श्रीमती रमा जैन के सुपुत्र हैं। इस बीच शिविरवासियों ने अपने अनुभव जनसामान्य के | श्री टी.के. विद्यार्थी ने असाधारण वीरता एवं उच्चस्तरीय बीच मंच पर आकर स्पष्ट किए वा चिकित्सा से संबंधित कर्मचारियों | कर्त्तव्यनिष्ठा का परिचय देते हुए म.प्र. शासन द्वारा पच्चीस हजार को आचार्यश्री के फोटो तथा प्रमाणपत्र से सम्मानित किया गया। | रुपये के इनामी कुख्यात दस्यु सरगना किशन काछी (30) को ___ अंत में डॉ. रेखा दीदी ने अपना सारगर्भित वक्तव्य दिया । एक अत्यंत साहसिक मुठभेड़ में धराशायी किया था। यह मुठभेड़ जिसमें उन्होंने भाग्योदय की तुलना अन्य चिकित्सालयों से करते शिवपुरी जिले के ग्राम बरसोड़ी में 25 जनवरी 2000 को रात एक हुए माता एवं धायमाता की सेवा का अंतर बतलाया। डॉ. रेखा | बजे हुई थी, तब श्री विद्यार्थी करैरा में एस.डी.ओ.पी. थे। दस्यु जैन ने सिंहघोषणा की कि देश की रक्षा के लिए केवल शिक्षा ही | प्रभावित क्षेत्र भितरवार में पदस्थता के दौरान श्री विद्यार्थी ने 5-5 नहीं स्वास्थ्य भी जरूरी है। उन्होंने अंत में एलोरा से आए हुए हजार रुपये के इनामी कुख्यात दस्युओं, गरीबा रावत एवं बंटी छात्रों की पुस्तकों एवं पोषाकों के लिए आर्थिक सहायता देने के रावत, 30 हजार रुपये के इनामी दुर्दान्त दस्यु सरगना कल्लू पिनपिना लिए जन सामान्य से अपील की। भाग्योदय चिकित्सालय के एवं उसके सम्पूर्ण गिरोह तथा दो टूंखार सरगनाओं 22 हजार संचालक डॉ. अमरनाथ जैन ने चिकित्सालय को सेवा प्रदान कर | रुपये के इनामी गोविन्द यादव व 15 हजार रुपये के इनामी मुन्ना रही डॉक्टर्स बहनों की प्रशंसा की एवं डॉ. रेखा जैन का आभार यादव को साहसिक मुठभेड़ों में धराशायी किया था। डबराप्रदर्शन किया, इसी क्रम में सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र, नेमावर कमेटी पदस्थ होते ही श्री विद्यार्थी ने पिछले माह ग्वालियर में हुई भाजपा द्वारा डॉक्टर रेखा, डॉ. सपना जैन, डॉ. संगीता, डॉ. नीता, डॉ. | नेता की हत्या के आरोपी 15 हजार रुपये के इनामी एक पेशेवर वंदना, डॉ. देविका, डॉ. मीनू जैन, डॉ. अल्पना, डॉ. श्रद्धा, डॉ. | हत्यारे को डबरा में ही साहस पूर्वक धर दबोचा था। इस प्रकार -जनवरी 2003 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपन श्री विद्यार्थी जहाँ भी रहे, खूखार दस्युओं एवं बदमाशों के आतंक | साधु को संस्कारित कर मुक्तिमार्ग में लगाने वाले होते हैं। संग्रह से क्षेत्र की जनता को भयमुक्त कराने में अपनी जान की बाजी | निग्रह और अनुग्रह कर साधु-संघ को अनुशासित रख धर्मप्रभावना लागने से भी नहीं चूके। करते हैं। श्रावकों को धर्मप्रवृत्ति हेतु सत्प्रेरणा दे स्व-पर को संसार श्री विद्यार्थी के बड़े भाई डॉ. सुमति प्रकाश जैन के अनुसार सागर से पार उतारने में नौका सदृश आचार्य श्री विद्यासागर इस राष्ट्रपति शौर्य पदक हेतु तुषारकांत के नाम के चयन की अधिसूचना युग के प्रणेता हैं।" मुनि श्री प्रमाणसागरजी ने उनके अनूठे व्यक्तित्व भवन से हाल ही में प्राप्त हुई है। उल्लेखनीय है श्री विद्यार्थी शुरु से पर प्रकाश डालते हुए कहा कि "आम मानव पद, प्रतिष्ठा, प्रभुता, ही मेधावी एवं परिश्रमी रहे हैं। महाराजा कॉलेज छतरपुर में प्रवेश | पैसा और प्रशंसा के पंच पकार के पीछे भाग रहा है, परन्तु आचार्य लेने के कुछ समय बाद ही उनका चयन एम.ए.सी.टी. भोपाल श्री विद्यासागर इन सबसे दूर निवृत्तिमार्ग के नि:स्पृह सन्त हैं'। जैसे प्रतिष्ठित रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया था। यहाँ से ऐलक निश्चय सागर ने अपनी विनयांजलि में कहा कि आचार्य बी.ई. आनर्स करने के बाद सन् 1992 में वे एम.पी. पी.एस.सी. | श्री ने सैकड़ों आगम ग्रन्थ लिखे हैं, वे निर्ग्रन्थचर्या के आदर्श की परीक्षा में बैठे और पहले ही प्रयास में प्रावीण्य सूची में तीसरा | श्रमण हैं। स्थान पाते हुए उप पुलिस अधीक्षक चुने गये। प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी ने कहा कि आचार्य विद्यासागरजी इंजी.एन.सी.जैन के महान् व्यक्तित्व और कृतित्व स्वरूप ये तीनों शिष्यप्रवर विराजमान अध्यक्ष-जैन समाज, छतरपुर (म.प्र.) हैं। इनके चातुर्मास की स्थापना आचार्य विद्यासागर के 34वें दीक्षा कल्पद्रुम महामंडल विधान संपन्न दिवस से तथा समापन इकतीसवें आचार्यपदारोहण दिवस पर हुई आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से आ.कल्प विवेक सागर जी महाराज की सुयोग्य शिष्या आर्यिका है। 27 वर्ष पहले आचार्यश्री का चातुर्मास इसी महावीर बाहुबली विज्ञानमति माता जी ससंघ के सान्निध्य में श्रमण संस्कृति संस्थान जिनालय प्रागंण में हुआ था। पं. उमेश जैन ने अपनी काव्यांजलि सांगानेर से पधारे ब्र. संजीव भैया कटंगी के निर्देशन में 6 नवम्बर में आचार्य श्री को भगवान् की अनुकृति कहा। डॉ. विमला जैन ने से 18 नवम्बर तक कल्पद्रुम महामंडल विधान का आयोजन | काव्य विनयांजलि में आचार्य श्री को अनूठे शिष्य और अपूर्व किया गया। महान गुरु बताया। इस अवसर पर मंगलाचरण कवि युगल जी ने 400 इन्द्र-इन्द्राणियों के बीच फिल्मी धुनों से रहित | किया. इकतीस दीपकों से आचार्यश्री के विशाल चित्र की आरती आध्यात्मिक भजनों के स्वर से भरी भक्ति, परम पूज्य आर्यिका | उतारी गयी। पं. अनूप जैन एडवोकेट ने मंच संचालन किया। विज्ञान मति माता जी की सहज प्रवचनशैली और विधानाचार्य ब्र. उत्सव के आरंभ में जैननगर-मन्दिर से विभव नगर शान्ति नाथ भैया के विधान को अर्थ सहित समझाने के ढंग ने जनता को मंत्र जिनालय तक आचार्यश्री के विशाल चित्र के साथ शोभा यात्रा मुग्ध कर दिया। ब्र.संजीव भैया के तथ्यपरक, प्रभावपूर्ण रात्रिकालीन निकाली गयी। प्रवचनों की श्रृंखला जैनाजैन जनता के आकर्षण का मुख्य केन्द्र रहा। चातुर्मास समापन की अन्तिम धर्म सभा 24.11.2002 को विधान की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह रही कि पूज्य माताजी | सम्पन्न हुई जिनमें चातुर्मास की उपलब्धि बताते हुए पं. नरेन्द्र के आशीर्वाद से सभी ने विधान समाप्ति के पूर्व ही अपनी बोलियों | प्रकाश ने कहा "चार माह दस दिन का सान्निध्य फिरोजाबाद के की राशि जमा कर दी थी। विधान से हुई 20 लाख की आय को इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा जायेगा। अनेक गहन विषय पर बड़े मंदिर आरोन के जीर्णोद्धार के लिए दान की घोषणा की गई। अनवरत प्रवचन, वारह चिकित्साशिविर (नि:शुल्क) भाग्योदय प्रमोद वर्षद सागर द्वारा, त्रिदिवसीय वृहद् विद्वत्संगोष्ठी (मोक्षशास्त्र), पंच फिरोजाबाद में आ. विद्यासागरजी का दिवसीय विविध विधान, अनेक सार्वजनिक स्थानों पर धर्म सभायें, इकतीसवाँ आचार्य-पदारोहण समारोह प्रतिदिन के प्रवचनों का अनेक समाचार पत्रों में सचित्र बृहद् श्रमणपरम्परा के वाहक आचार्य शिरोमणि श्री विद्यासागर विवरण तथा पूरे प्रवास काल में दूर-दूर से आने वाले भक्तों की जी का 31वाँ आचार्यपदारोहणदिवस अभूतपूर्व धर्म प्रभावना तथा भीड़ यह सब अमिट और अविस्मरणीय धर्मप्रभावना ऐतिहासिक विशेष उत्साह के साथ मुनि श्री समतासागर जी, श्री प्रमाण सागर जी, ऐलक श्री निश्चय सागर जी के सान्निध्य में अपार जन समूह और अभूतपूर्व है। सन्तत्रय के शुभाशीष के बाद सन्तों का विहार के मध्य 22.11.2002 को 'श्री शान्ति नाथ पार्क' विभव नगर, कम्पिला जी मंगल क्षेत्र की ओर हो गया है। श्रद्धालुओं ने छल फिरोजाबाद में सानन्द सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर मुनि श्री छलाती आँखों और रुंधे कंठ से जयघोष के साथ अपने गुरुओं को समतासागर जी ने 'आचार्य' का महत्त्व बताते हुए कहा“आचार्य | विदाई दी।" सिद्ध परमेष्ठी और अरिहन्तों की छाया होते हैं तथा उपाध्याय और | डॉ. विमला जैन 30 जनवरी 2003 जिनभाषित - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौरभ का राष्ट्रीय जैन युवा प्रतिभा सम्मान जयपुर में मैत्री समूह के तत्त्वावधान में सम्पन्न राष्ट्रीय जैन युवा प्रतिभा सम्मान समारोह में छतरपुर के होनहार छात्र सौरभ जैन को आई.आई.टी. में चयनित जैन विद्यार्थियों की प्रावीण्य सूची में देश में पहला स्थान पाने पर विशेष सिल्वर ट्रॉफी एवं आई.आई.टी. में चुने जाने पर जनरल ट्रॉफी के दोहरे सम्मान से नवाजा गया है। पूज्य मुनिश्री क्षमासागर जी एवं मुनिश्री भव्यसागर जी के सान्निध्य तथा प्रख्यात उद्योगपति व समाजसेविका श्रीमती सरयू दफ्तरी के मुख्य आतिथ्य में सम्पन्न इस अद्वितीय समारोह में देश के विभिन्न राज्यों की विशिष्ट शैक्षणिक उपलब्धियों वाली करीब 350 प्रतिभायें सम्मानित हुई, जिनमें छतरपुर जिले की 15 प्रतिभायें भी शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि इस गरिमापूर्ण अनूठे कार्यक्रम का सफल संचालन छतरपुर के श्री राजेश बड़कुल, डॉ. के श्री राजेश बड़कुल, डॉ. सुमति प्रकाश जैन एवं जयपुर की टी.वी. उद्घोषिका श्रीमती मोना सोगानी ने किया न्यायालय की नगरी में न्यायाधीश सम्मेलन तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली पर एक नवीन स्वर्णिम इतिहास की संरचना हो उठी, जब 3 नबम्बर 2002 को पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माता जी (ससंघ) के मंगल सान्निध्य में न्यायालय नगरी प्रयाग में भव्य न्यायाधीश सम्मेलन सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों सहित प्रशासनिक विभाग, सरकारी स्वास्थ्य विभाग, शैक्षणिक क्षेत्र इत्यादि के विशिष्ट महानुभावों ने इस सम्मेलन में भाग लिया। विद्यासागर जैन पाठशालाओं की पहली वर्षगाँठ छतरपुर। नगर के विभिन्न जैन मंदिरों में पूज्य मुनिश्री प्रशांत सागर जी एवं मुनिश्री निवेंग सागर जी की प्रेरणा से गतवर्ष प्रारंभ की गई आचार्य श्री विद्यासागर दिगम्बर जैन पाठशालाओं की पहली वर्षगाँठ विविध धार्मिक तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए हर्षोल्लास से मनाई गई। इन तीनों पाठशालाओं में लगभग ढाई सौ बच्चों को धर्म का वैज्ञानिक तथा तर्कसंगत स्वरूप समझाते हुए संस्कारवान बनाने की शिक्षा समाज की ही सुशिक्षित बहिनें निःस्वार्थ भाव से निरंतर दे रही हैं। कु. श्वेता जैन, कु. रजनी जैन शिक्षिका विद्यासागर दि. जैन पाठशाला, छतरपुर (म.प्र.) नगर में वर्षायोग : एक अच्छा अनुभव इस वर्ष हमारे नगर में पूज्य मुनि श्री समतासागर जी, प्रमाणसागर जी एवं ऐलक निश्चयसागर जी का वर्षायोग सम्पन्न हुआ, जिसने आज से सत्ताइस वर्ष पूर्व (सन् 1975) में हुये उनके दीक्षा गुरु पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के वर्षायोग की स्मृतियों को ताजा कर दिया। जैन-जैनेतर नागरिकों को इस वर्षायोग ने बहुत प्रभावित किया। चौराहों पर लोगों को यह चर्चा करते हुए सुना गया कि इस वर्ष अपने नगर में अच्छे जैन साधु आए हैं। चूँकि इन साधुओं का अपना कोई प्रोजेक्ट' नहीं था. इसलिए धर्मप्रेमियों पर कोई अतिरिक्त आर्थिक बोझ नहीं पड़ा। टोना-टोटका से भी इनका कोई वास्ता नहीं था और न ये किसी को कोई मंत्र-तंत्र ही देते थे प्रबुद्ध वर्ग को इनकी इस सच्ची साधुता ने अत्यन्त प्रभावित किया। धर्मसभाओं में तीन महीनों तक प्रतिदिन श्रोताओं की अच्छी उपस्थिति होती रही। इनके प्रवचनों में आत्मानुशासन, नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा एवं सदाचार पर अधिक जोर रहता था, एक विशेष बात यह भी रही कि इनकी ओर से चमक-दमक से परिपूर्ण आकर्षक पण्डाल के लिए भी कोई आग्रह नहीं था । सभायें भारत विख्यात श्री महावीर जिनालय ( स्व. सेठ श्री छदामीलाल जैन ट्रस्ट) के परिक्रमामार्ग-स्थित चबूतरों पर उन्मुक्त आकाशीय वितान (प्रकृति की गोद) में चलती रहीं। कोई भी अपव्यय नहीं हुआ। * नरेन्द्रप्रकाश जैन (प्राचार्य ) जैनधर्म संबंधी डाक टिकटों एवं सिक्कों के संग्रह प्रदर्शित डाक टिकिट संग्रहकर्ताओं की अग्रणी संस्था सेंट्रल इण्डिया फिलाटेलिक सोसायटी तथा अंतर्राष्ट्रीय समाज सेवी संस्था लायंस क्लब सतना के संयुक्त तत्त्वाधान में सतना में विगत 17 नवम्बर, 2002 को विभिन्न संग्रहों की एक प्रदर्शनी "सिटपेक्स-2002 " का आयोजन किया गया। भगवान् महावीर के छब्बीस सौवें जन्म कल्याणक वर्ष के उपलक्ष्य में इस प्रदर्शनी में भगवान् महावीर एवं जैनधर्मसंबंधी डाक टिकटों लिफाफों, मोहरों और सिक्कों का सुधीर जैन का विस्तृत संग्रह विशेष रूप से प्रमुखता से प्रदर्शित किया गया। प्रारंभ में लायंस क्लब सतना के अध्यक्ष एन.के. जैन ने स्वागत भाषण दिया तथा अंत में सेंट्रल इण्डिया फिलाटेलिक सोसायटी के सचिव सुधीर जैन ने आभार प्रदर्शित करते हुये श्री सुरेश जैन को एक स्मृति चिह्न तथा नेपाल सरकार द्वारा जारी 250 रुपये मूल्य का चाँदी का महावीर भगवान् का सिक्का भेंट किया। सतना के वरिष्ठ डाक टिकट संग्रहकर्ता सुधीर जैन ने जैन धर्म के सिद्धान्त, तीर्थंकर, जैन संत, जैन महापुरुषों, जैन तीर्थों, मंदिरों और मूर्तियों, जैन आयोजनों, शाकाहार आदि पर सैकड़ों डाक टिकटें लिफाफे आदि प्रदर्शित किये। उनके द्वारा प्रदर्शित जैन धर्म संबंधी सिक्का संग्रह ने भगवान् महावीर पर नेपाल सरकार तथा भारत सरकार द्वारा जारी सिक्के, पंजाब सरकार द्वारा जारी सोने व चाँदी के सिक्के, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम से जारी तथाकथित टोकन, विभिन्न जैन संतों, तीर्थों और पंच कल्याणक आदि समारोहों पर जारी चाँदी के स्मारक सिक्के आदि प्रदर्शित थे। सुधीर जैन, युनिवर्सल केबिल्स लिमिटेड सतना (म.प्र.) 485005 - जनवरी 2003 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोष व समताभाव से आध्यात्मिक विकास । आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की संभव जन्मस्थली में भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठा ___ 'संतोष व समताभाव से ही आध्यात्मिक विकास संभव महोत्सव है' ये वक्तव्य मुनिश्री क्षमासागर जी महाराज ने श्री दिगम्बर जैन दिगम्बर जैनाचार्य 108 श्री विद्यासागर जी महाराज की श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर के छात्र विद्वानों को सम्बोधित जन्मभूमि सदलगा में नवनिर्मित "श्री दिगम्बर जैन मंदिर" का करते हुये दिया। मुनिश्री ने आगे कहा कि भौतिक सुख के लिये व्यक्ति अथक परिश्रम करता है, जिसका आध्यात्मिक जीवन में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव संतशिरोमणि आ. 108 श्री कोई अस्तित्व नहीं। व्यक्ति को अपनी बुद्धि के विकास के लिये विद्यासागर जी महाराज के संघस्थ मुनियों एवं आर्यिकाओं के सारभूत तत्त्वों को ग्रहण करना चाहिये। मुनि श्री भव्यसागर जी | सान्निध्य में दिनांक 2 फरवरी से 8 फरवरी 2003 तक बालब्रह्मचारी महाराज ने अपने सम्बोधन में कहा कि हमें धर्म और संस्कृति की | श्री प्रदीप जी अशोक नगर के प्रतिष्ठाचार्यत्व में सम्पन्न होने जा रहा रक्षा के लिये यदि अकलंक-निकलंक की तरह कष्ट सहने पड़ें तो | है। भी पीछे न हटें। कार्यक्रम के प्रारंभ में राकेश जैन एवं छात्रों ने | महोत्सव स्थल - हाईस्कूल मैदान, सदलगा, तालुकामगलाचरण किया। चिंतामणि बज ने द्वीप प्रज्वलन किया एवं ब्र. । | चिकौड़ी जिला-बेलगाम (कर्नाटक) 591239 संजीव कटंगी ने "जाते हो तो ले चलो हमको अपने साथ" सुंदर सम्पर्क सूत्र : 1. पंचकल्याणक महोत्सव समिति भजन प्रस्तुत किया एवं संस्थान के अधिष्ठाता श्री रतनलाल बैनाड़ा ने संस्थान की गतिविधियों से सभी को अवगत कराया। कार्यक्रम श्री 1008 शांतिनाथ दि. जैन मंदिर का संचालन डॉ. शीतलचन्द्र जैन ने किया। उपाध्यक्ष- श्री सुरेन्द्र अप्पन प्रधान आलोक जैन बिरधा जनरल मैनेजर- सदलगा अरबन बैंक श्री दि.जैन श्रमण संस्कृति फोन : घर 0831-651678 कार्या. 651730 संस्थान सांगानेर, जयपुर (राज.) । जिनवाणी/ आगम बहुत नहीं बहुत बार पढ़ने से ज्ञान का विकास होता है। विनय से पढ़ा गया शास्त्र विस्मृत हो जाने पर भी परभव में केवलज्ञान का कारण बनता है। तत्त्व चिंतन एक ऐसा माध्यम है जो सभी चिन्ताओं को मिटाकर जीवन में निखार लाता है। समयसार को कंठस्थ करने की जरूरत नहीं, बल्कि हृदयस्थ करने की जरूरत है। इस प्रचार-प्रचार के युग में कागजी फूलों से ही खुशबू नहीं आने वाली, न ही कागजी दौड़ से हम मंजिल को पा सकते हैं। खदान खोदने से सारे के सारे हीरे निकलते हैं ऐसा नहीं, बहुत सारा खोदने पर जब कभी एकाध हीरा मिल जाता है इसी प्रकार बार-बार ग्रन्थों का स्वाध्याय करने पर एक अलग ढंग से सोचने का रास्ता बनता है, कुछ न कुछ नया प्राप्त होता है। ग्रन्थों का पठन पाठन मात्र ही कल्याणकारी नहीं है, क्योंकि वह तो शब्द ज्ञान ही है, जिसे मूढ़ अज्ञ जन भी । आचार्य श्री विद्यासागर जी कर सकते हैं। किन्तु शब्दों से अर्थ तथा अर्थ से परमार्थ की ओर हमारे ज्ञान की यात्रा होनी चाहिये। आप पुराणों को पढ़ना प्रारंभ कर दीजिये और उपन्यासों को लपेटकर रख दीजिये, नहीं तो उपन्यासों के साथसाथ आपका भी न्यास हो जायेगा। उपन्यासों को पढ़कर न आज तक कोई सन्यासी बना है और न ही आगे बनेगा। हाँ..... उपन्यास की शैली में यदि हम पुराणों को देखना चाहें पढ़ना चाहें तो यह बात अलग है। उपन्यास की शैली से मेरा कोई विरोध नहीं लेकिन भावना दृष्टि और हमारा उद्देश्य साफ सुथरा होना चाहिये। जिनवाणी का कोई निर्धारित मूल्य नहीं होता, वह तो अनमोल वस्तु है, उसके लिये जितना भी देना पड़े कम कभी भी जिनवाणी के माध्यम से अपनी आजीविका नहीं चलाना। जिससे रत्नत्रय का लाभ होता है, उसको क्षणिक व्यवसाय का हेतु बनाना उचित नहीं। 32 जनवरी 2003 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन में गुरु चुनना पर हाँ सोच समझ के । 1 गुरु किन्तु चुनना और जिसे चुनो उसे ही गुनना संकट और संपत में सुख और दुख में सत्कार और तिरस्कार में न भूलना न झूलना फिर किसी अन्य में । क्योंकि गुरु अनेक नहीं एक होते है तभी हम नेक होते हैं। समर्पण जीवन फिर वह हमारा नहीं उनका होता है क्योंकि शिष्य हम उनके होते हैं गुरु की राह होते है चलने के लिए लाठी अंगुली प्रकाश और आँख होते हैं. जिनके सहारे हम चलते हैं। अपनी यात्रा करते हैं, अपनी सारी उलझनें उन पर उड़ेलकर हलके होते हैं उनकी राह पर चल प्रसन्न होते हैं वे उन्नायक हमारे जीवन के सहारे होते डॉ. सन्मति ठोले जैन मंदिर के सामने, राजा बाजार औरंगाबाद- 431001 ( महाराष्ट्र ) "तीर्थ अंकुर सिंधु-विद्या" ज्ञानमाला जैन, भोपाल सुयुग स्रष्टा तपोनिधिको नमन मैं संप्रेषती हूँ । चित्र अपलक देखती हूँ ॥ सरल, निश्छल, मधुर- स्मित, नयन द्वय वात्सल्य पूरित । साक्षात् छवि वैराग्य की, वरद कर मुद्रा सुहासित। 1 चरित तेरा पंथ मेरा, स्वप्न ऐसा देखती हूँ । चित्र तेरा देखती है ॥ चरण तेरे पड़ें जिस पथ, सम शरण पाते सभी जन । ज्ञान रत्न बटोरते हैं, चिरप्रतीक्षित भव्य जन-मन । आज पंचम काल में भी, काल- चौथा देखती हूँ। चित्र तेरा देखती हूँ | आत्मखोजी ! आत्म साधक ! आत्मा को शत वंदनायें । तीर्थ अंकुर "सिन्धु-विद्या" साध्वियों में चन्दनायें । तपोनिधि के संघ में ही, गणधरागत देखती हूँ । चित्र अपलक देखती हूँ । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि.नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल /588/2002 ऐलोरा जैन गुफाएँ ऐलोरा जैन गुफा समूह में गुहा क्र. 33 का दर्शनीय दृश्य स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक :रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-I, महाराणा प्रताप नगर, inelibrary.org Jain Ed"भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित /