SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और मातृत्व का संरक्षण अत्यावश्यक है। जिन देशों में नारी को । तथा सुख शान्ति को चिर स्थायी बनाया जा सकता है। व्यक्ति का अर्थाजन के लिये मजबूर होना पड़ा है, वहाँ शिशुओं की बद से | वैयक्तिक विकास नर-नारी के समन्वय विकास से ही सम्भव है। बदतर स्थिति हो रही है। जब समाज में नारी का स्थान बहुत नीचा | परन्तु दोनों को अपने-अपने क्षेत्र को विशेष दक्षता और कर्त्तव्य हो जाता है, तब उसके साथ शिशुओं का स्थान भी नीचे उतर | परायणता से संभालना होगा। नर-नारी सुशील, संयमी, धर्मभीरु, आता है। जब शिशुओं को स्नेह और वात्सल्य की छाया के बिना | विवेकशील, कर्त्तव्य परायण, प्रशम और अनुकम्पा की भावना से बालाश्रमों में पाला जाता है, वे मानवीयता से रहित, स्वार्थी और | परिपूर्ण हो कर्त्तव्य पथ पर चलते रहें तो शोषित और शोषक का अपराधिक वृत्ति को धारण करने लगते हैं। परिवार टूटने से सामाजिक | प्रश्न ही नहीं उठता। संसार रथ के पहिये के रूप में नर-नारी संगठन और समन्वयता की बात कल्पना ही कही जायेगी। इधर | समन्वय के साथ ताल-मेल बैठाये तथा प्रकृतिप्रदत्त गुणों के आधार नारी प्रकृतिप्रदत्त गरिमा और वात्सल्य से वंचित हो सुखद वरदायिनी | पर अपनी-अपनी कार्य प्रणाली को यथाशक्ति कर्मठता तथा भी नहीं रह सकती। मानव में मानवीयता और देवत्व का गुण | उत्तरदायित्व के साथ लक्ष्मण रेखा के अन्दर रहकर निर्वहन करें, उसका वैयक्तिक सर्वांगीण विकास तभी संभव है जब उसका | तभी लौकिक और परलौकिक सुखसमृद्धि की उपलब्धि सम्भव वाल्य काल सुरक्षित और संरक्षित ही नहीं, वात्सल्य के साये में है। आज शिक्षित नारी धनार्जन को नहीं न्यायिक क्रान्ति को आगे व्यतीत हो। वैसे केवल स्वयं का पेट भर लेना पशु पक्षियों का | बढ़े। अनादिकालीन कुरीतियों और विषम परिस्थितियों से निपटने काम है। मानव सृष्टि का श्रेष्ठतम प्राणी इसलिये है कि वह स्वयं के के लिये समाज और राष्ट्र में एक न्यायिक क्रान्ति तथा आध्यात्मिक साथ परिवार (वृद्ध माता-पिता-दादा-दादी सहधर्मिणी पुत्र-पुत्री) लहर लाने का उत्तरदायित्व शिक्षित, सृजनशीला नारी पर ही है। आदि समाज तथा राष्ट्र के लिये जीवन उत्सर्ग करता है। उसे चार । उसे यह कार्य पाश्चात्य के अस्ताचल से नहीं प्राच्य के उदयाचल पुरुषार्थ-धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील रहकर के आलोक में करना है। नारी शक्ति और दृढ़ता की प्रतिमूर्ति है। ही जीवन यापन करना चाहिये। अत: अपनी असीम प्रेरणा शक्ति व्यावहारिक बुद्धि, करुणा, ममता, इसके लिये पुरुष को नि:स्वार्थ तथा कर्मशील हो स्व | प्रेम, स्नेह, विश्वास और आस्था के अस्त्रों से अन्याय और कुप्रवृत्तियों कर्तव्य का निर्वहन करना होगा, वह बाहुबल से जीविकार्जन करे | का नाश कर सकती है। और आय के अनुसार व्यय तथा सुखसुविधाओं के प्रति संयम व किहि नहि पावक जलसकहि, किहि नहि समुद्र समाय, सन्तोषी वृत्ति को धारण करे। नारियों को सुशिक्षित सुसंस्कृत तथा किहि ना करहि अबला प्रबल,किहि जगकाल न खाय । उन्नतिशील बना उनके सतीत्व और मातृत्व को सम्मान और संरक्षण 1/344, सुहाग नगर, फिरोजाबाद देकर ही राष्ट्र और समाज की प्रगति तथा आत्मनिर्भरता सम्भव है ग्रन्थ-समीक्षा श्रीसिद्धचक्र विधान पं. शिखरचन्द्र जैन 'साहित्याचार्य' अनुवादक एवं सम्पादक - प्रतिष्ठाचार्य भ्राताद्वय पं. | मूलभाव का शब्दश: अनुरूप सरल, सरस, रोचक शैली में सनतकुमार जी जैन एवं पं. विनोद कुमार जी जैन, रजवाँस | हिन्दी अनुवाद कर स्वनामधन्य प्रतिष्ठाचार्यद्वय श्री पं.सनतकुमार (सागर)म.प्र. जी एवं विनोदकुमार जी ने प्रभावना की दृष्टि से बड़ा उपकार प्रकाशक (सदाशय)- श्री देवेन्द्र कुमार जी (अजय), किया है। अब साधारण तथा जिज्ञासु श्रोताओं को यह अनुवाद अभिषेक कुमार जी जैन (बिजली वाले) 1/60/3, कबूल नगर, आत्मीय भावमयी प्रभावना-गंगा में अवगाहन करने में धार्मिक शाहदरा, दिल्ली-32 फोन (011)2594932 सोपान सिद्ध होगा। सरल हिन्दी अनुवाद समसामयिक माँग के प्रकाशन वर्ष : 2002, मूल्य प्रभावना हेतु 80 रु. मात्र परिप्रेक्ष्य में “गागर में सागर" भरने की उक्ति को चरितार्थ विमोचन स्थल : भगवान् पार्श्वनाथ उपसर्गजयी | करने वाला है। प्रकाशन पूर्ण सावधानीपूर्वक, आकर्षक साजतपोभूमि तीर्थक्षेत्र श्री बिजोलिया जी (भीलवाड़ा) राजस्थान सज्जा से पूरिपूर्ण है। प्रतिष्ठाचार्यद्वय बधाई के पात्र हैं। उनकी पावन सान्निध्य : पू. मुनिपुंगव श्री 108 सुधासागर जी | जिनवाणी के प्रति प्रभावनापूर्ण रुचि सराहनीय है प्रसंग: अ.भा. विद्वतपरिषद का 22वाँ महाधिवेशन, | पुस्तक "जिन-पूजा-पाठ सार्थ" भी प्रशंसनीय तथा प्रभावनापूर्ण दिनांक 16.10.2002 प्रयास की अविस्मरणीय धरोहर है। पुस्तक का कथ्य एवं तथ्य : प्रतिभासम्पन्न कविहृदय उपप्राचार्य, सन्तलालजी द्वारा रचित सिद्धचक्र (मंडल विधान) के पावन श्री गणेश दि.जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर -जनवरी 2003 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524269
Book TitleJinabhashita 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy