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नारी-लोक
नारी की दशा और दिशा
प्रो. (डॉ.) विमला जैन
मानव समाज में नारी को आद्या शक्ति कहा है, वह जीव । भी दहेज उत्पीड़न और परित्यक्ता की वेदना अवर्णनीय है। इतना लोक में प्राण को वहन करने वाली, उसको पोषण देने वाली तथा सब कुछ होता है उस राष्ट्र और समाज में जहाँ अदृश्य प्राणी मात्र पालक है। अत: सृष्टि में नारी को पुरातनी भी माना है। आदिम और जल, पृथ्वी, वनस्पति तक के लिये करुणा भावना और वेदना प्रकृति ने नारी को दी है वह ममतामयी, स्नेहिल, उदार तथा अहिंसा की बात की जाती है। कन्याभ्रूणहत्या तथा कन्या को करुणा की स्वाभाविक प्रतिमूर्ति है। जीव पालन के प्रवृत्ति जाल | अशिक्षित रख कुपोषण देकर पालना तथा अनमेल विवाह आदि को प्रकृति ने नारीदेह और मन तन्तुओं से जोड़ा है। इस प्रवृत्ति को के द्वारा गर्त में ढकेलना वात्सल्यमूर्ति माता-पिता द्वारा होता है, स्वभावतः चित्त की अपेक्षा हृदय में ही अधिक गम्भीर और वहीं दहेज उत्पीड़न, हत्या, परित्याग की वेदना में उसका पति प्रशस्तरूप से स्थान मिला है, यह वही प्रवृत्ति है जो नारी के बीच परमेश्वर होता है, जो अग्नि को साक्षी बनाकर पंचों के सामने बन्धन-जाल निर्माण करती है। स्व और पर को धारण करने के शपथ पूर्वक संरक्षण का वचन देकर लाया था। इस सारे अन्याय लिये प्रेम-स्नेह, करूणा-धैर्य और साहस अत्यन्त आवश्यक है पूर्ण व्यवहार में समाज, कानून और धर्म सभी पुरुष का ही साथ और यह नारी में जन्मजात तथा स्वाभाविक होता है। मानव श्रृंखला देते हैं, क्योंकि सामाजिक व्यवस्थाएँ, विधि-विधान, धर्म, नैतिकता और समाज का मूलाधार इसी स्नेह वात्सल्य के बन्धन पर निर्भरहै, | सबके संस्थापक पुरुष ही होते हैं। "नरकत शास्त्रों के सब बन्धन नारी इसे सहर्ष स्वीकारती हुई आनन्दानुभूति में रमण करती है। हैं नारी को ही लेकर, अपने लिये सभी सुविधाएँ पहले ही कर बैठे नारी का नारीत्व समर्पण में है, तो यौवन का सुरभितफल मातृत्व नर।" बिलाव कोई भी कानून चूहों के पक्ष में बनाये यह संभव में है। पहले तो स्वयं अपने जीवन के लिये फिर इस जीवन को नहीं है। इस प्रकार नारी को सदैव ही द्वितीय श्रेणी का स्थान दिया जीने योग्य बनाने के लिये नारी के बिना पुरुष की बाल्यावस्था गया है। कभी उसे विषबेल कहकर धिक्कारा गया है, तो कभी असहाय है, युवावस्था सुखरहित और वृद्धावस्था सांत्वना देने पतिता कहकर दुतकारा गया है। आधुनिक युग,जो समाजवाद वाले सच्चे और वफादार साथी से रहित होती है, क्योंकि नारी ही। और गणतंत्र की दुहाई देता है, उसमें विज्ञान की उपलब्धि के रूप माँ रूप में जन्म देकर अंक से लगा पोषण और दुलार देती है, | में लाखों कन्याभ्रूणहत्या, बलात्कार और दहेज हत्या जैसे अपराधों स्नेहिल आंचल का संरक्षण दे पालन करती तथा मानवता का पाठ | के विषय में कहना ही व्यर्थ है, क्योंकि सब जानते हुए अनजान पढ़ाती है। यौवन काल में प्रेयसी का सुखद आलम्बन तथा गृह | हैं। नारी का लावण्य विज्ञापन और धनार्जन का माध्यम बन गया लक्ष्मी का सुख संवर्धन भी नारी पर ही निर्भर है, उसे धर्म, अर्थ, | है। आज नारी पिता, पति, पुत्र के हाथों में भी सुरक्षित नहीं है। काम त्रिवर्ग का प्रेरक ही नहीं निर्णायक भी माना गया है। वृद्धावस्था । ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि नारी शारीरिक और में भावात्मक एवं संवेदनशील साथी के अतिरिक्त परिचारिका के आर्थिक रूप से सबल और स्वावलम्बी होना चाहेगी। आज वह रूप में साथ निभाने वाली नारी ही होती है। पुरुष जब भी और जो भ्रमित है, दिशाबोध के लिये तड़फ रही है। एक तरफ वह पूर्व भी महान् बना है उसके आरम्भिक प्रेरणा का स्रोत नारी ही रही परम्पराओं और स्वसंस्कृति से जुड़ी रहकर नारीत्व की निधि है। नारी का अप्रत्यक्ष भावात्मक पुरुषार्थ कभी भी द्रव्य या अन्य सतीत्व और मातृत्व की रक्षा करना चाहती है तो दूसरी ओर प्रगति किसी वस्तु से तोला नहीं जा सकता। आज भी यदि भारतीय के नाम पर आर्थिकरूप से स्वावलम्बी बनने को प्रयत्नशील है। संस्कृति और नैतिकता जीवित है तो उसका श्रेय भी नारी की | यद्यपि स्वावलम्बी बनने के लिये उसे अंगारों पर चलकर एक सहनशीलता और त्याग बलिदान से परिपूर्ण जीवनशैली और चर्या | नयी दुनिया में कदम रखना होता है और उस नई दुनियाँ में और को ही दिया जायेगा।
भी अधिक खूखार भेड़िये हैं। आज स्थिति यह है कि इधर जाओ इतना सब कुछ होते हुये भी नारी की कोमल भावनाओं | तो कुँआ उधर जाओ तो खाई। आज समाज में बाल ब्रह्मचारिणियों और कमनीय काया के प्रति मानव समाज का वर्बरता पूर्ण व्यवहार | की संख्या में दिन पर दिन वृद्धि हो रही है। जिनमें कुछ तो वास्तव रहा है, कभी उसके सतीत्व से खिलवाड़ कर नगरबधू बनाया में वैराग्य भाव के कारण निवृत्ति का मार्ग चुनती हैं, परन्तु काफी गया है, तो कभी विषकन्या बना कर कूटनीति के कुचक्र की धार | कुछ विषम परिस्थितियों से मजबूर हो निवृत्तिमार्ग पकड़ना चाहती बनाया गया है, कभी उसे अग्नि परीक्षा देनी पड़ी है, तो कभी जौहर की ज्वाला में जलना पड़ा है और कभी पति के शव के | आज प्रबुद्ध वर्ग, समाजसेवी, राष्ट्र के कर्णधार तथा धर्म साथ सती कहकर जिन्दा जलाया गया है, यही नहीं देवदासी और | तथा नैतिकता के पथप्रदर्शकों को दूरदर्शिता तथा सहृदयता से इस दासी विक्रय कर विनमय की वस्तु समझा गया है। उसकी कोमल, | विषय पर चिन्तन करना होगा, मानवत्व की रक्षार्थ उन्हें न्याय के कमनीय काया को खिलौना बना कर खेला गया है। मादा शिशु झरोखे में झाँकना होगा। नारी यह दुहरी जिन्दगी बहुत दिन नहीं हत्या और कन्या भ्रूण हत्या प्राचीनतम भी है और अत्याधुनिक | जी सकती। यदि मानवता का संरक्षण करना है तो नारी के सतीत्व 22 जनवरी 2003 जिनभाषित
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