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________________ भरतैरावत में वृद्धिह्रास किसका है? स्व.पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया श्री भगवदुमास्वामी कृत-तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे अध्याय में "इमौ वृद्धिह्रासौ कस्य भरतैरावतयोर्ननु क्षेत्रे एक सूत्र है कि 'भरतैरावतयोर्वृद्धिहासौ षट्समयाभ्या- | व्यवस्थितावधिके कथं तयोवृद्धिह्रासौ अत उत्तरं पठति ।" मुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्।' इसका शब्दार्थ ऐसा होता है कि | अर्थ- यह घटना बढ़ना भरत और ऐरावत क्षेत्रों का है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह कालों में भरत और ऐरावत का | यदि यहाँ पर यह शंका हो कि भरत और ऐरावत क्षेत्र तो अवधिवाले वृद्धिह्रास होता है। इस सामान्य वचन के दो अभिप्राय हो सकते | स्थित हैं कभी उनका बढ़ना घटना नहीं हो सकता, फिर यहाँ हैं। एक तो यह है कि 'भरत और ऐरावत का क्षेत्र घटता बढ़ता है | उनके वृद्धिह्रास का उल्लेख कैसा? वार्तिककार इसका उत्तर देते और दूसरा यह है कि 'भरतैरावत में प्राणियों के आयुकायादि घटते बढ़ते रहते हैं। भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासौ....' और 'ताभ्यामपरा "तात्त्थ्यात्ताच्छब्द्यसिद्धिर्भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासयोगः।।1।। भूमयोऽवस्थिताः' इन सूत्र वाक्यों से न मालूम सूत्रकार का असली | इहलो के तात्स्थ्यात्ताच्छब्द्यं भवति यथा गिरिस्थितेषु वनस्पतिषु अभिप्राय क्या था? तत्त्वार्थसूत्र पर जो राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, दह्यमानेषु गिरिदाह इत्युच्यते, तथा भरतैरावतस्थेषु मनुष्येषु सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थसार जैसी विशाल टीकायें हैं, वे भी एकमत वृद्धिह्रासावापद्यमानेषु भरतैरावतयोवृद्धिह्रासावुच्येते।'' नहीं हैं और इन टीकाओं के अतिरिक्त अन्य जैनग्रंथों का भी प्राय: | अर्थ- संसार में तात्स्थ्य-रूप से ताच्छब्ध का अर्थात् यही हाल है। इन सब में कोई ग्रंथकर्ता तो 'आयुकायादि की वृद्धि | आधेयभूत पदार्थों का कार्य आधारभूत पदार्थों का मान लिया जाता ह्रास का कथन करते हैं, किन्तु 'भूमि का वृद्धिह्रास नहीं हो है, जिस प्रकार पर्वत में विद्यमान वनस्पतियों के जलने से गिरिदाह सकता, या हो सकता' ऐसा कुछ नहीं कहते। कोई आयुकायादि | माना जाता है उसी प्रकार भरत और ऐरावत क्षेत्रों के मनुष्यों में की ही वृद्धि ह्रास बताते हैं और भूमि के वृद्धि हास का स्पष्ट | वृद्धिह्रास कह दिया जाता है। खंडन करते हैं। तथा कोई ऐसे भी हैं जो क्षेत्र की घटाबढ़ी का "अधिकरणनिर्देशो वा ॥2॥ मुख्य उल्लेख करते हैं व आयुकायादि की घटाबढ़ी गौणरूप से "अथवा भरतैरावतयोरित्यधिकरणनिर्देर्शोऽयं स चाधेयमाबताते हैं और कोई सूत्रकार की तरह केवल सामान्य ही विवेचन | कांक्षतीति भरते ऐरावते च मनुष्याणां वृद्धिह्रासौ वेदितव्यौ।" करते हैं। नीचे हम पाठकों की जानकारी के लिये इसी बात को अर्थ- अथवा 'भरतैरावतयोः' यह अधिकरणनिर्देश है। ग्रंथों के उद्धरण देकर स्पष्ट करते हैं। आचार्य नेमिचन्द्र त्रिलोकसार अधिकरण सापेक्ष पदार्थ है, वह अपने रहते अवश्य आधेय की में कहते हैं कि आकांक्षा रखता है। भरत और ऐरावत रूप आधार के आधेय "भरहेसुरेवदेसु ये ओसप्पुस्सप्पिणित्ति कालदुगा। मनुष्य आदि हैं, इसलिए यहाँ पर यह अर्थ समझ लेना चाहिए कि उस्सेधाउवलाणं हाणीवड्वी य होतित्ति ।।779॥ भरत और ऐरावत क्षेत्रों में मनुष्यों की वृद्धि और ह्रास होता है। अर्थ- भरत और ऐरावत क्षेत्र में जीवों के शरीर की ऊँचाई | इसी सूत्र का विवेचन करते हुए पूज्यपादाचार्य ने सर्वार्थसिद्धि में आयु, बल, इनकी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में क्रम से ऐसा कहा हैवृद्धि हानि होती है। "वृद्धिश्च ह्रासश्च वृद्धिह्रासौ। काभ्यां षट्समयाभ्याम् । कयो: सकलकीर्ति कृत मल्लिनाथपुराण के 7वें परिच्छेद में लिखा भरतैरावतयोः। न तयोः क्षेत्रयोवृद्धिहासौ स्तः। असम्भवात्। तत्स्थानां मनुष्याणां वृद्धिहासौ भवतः। अथवा अधिकरणनिर्देश: भरते ऐरावते उत्सर्पिण्सवसर्पिण्यो: षटकाला हानिवृद्धिजाः। च मनुष्याणां वृद्धिहासाविति। किंकृतौ वृद्धिहासौ? अनुभवायु: आयुःकायादिभेदेन सर्वे प्रोक्ता जिनेशिना ।। 88 । प्रमाणादिकृतौ।" भावार्थ- षट्कालों में जो वृद्धिह्रास होता है वह भरतैरावत अर्थ- उत्सर्पिणी ओर अवसर्पिणी के छह काल आयु के क्षेत्र का नहीं होता, क्योंकि यह असम्भव है; किन्तु भरतैरावत कायादि की हानि वृद्धि को लिये हुये हैं, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। में स्थित मनुष्यों के भोगोपभोग आयुकायादि का होता है। वही इन अवतरणा से इतना हा सिद्ध ह कि आयुकायादि का हानवृद्धि | अधिकरण निर्देश से भरतैरावत का कहा जाता है। होती है किन्तु इससे क्षेत्र का हानिवृद्धि विषयक कुछ भी विधिनिषेध इन उल्लेखों से साफ प्रकट है कि 'भरतैरावत क्षेत्र की हानि प्रकट नहीं होता। अस्तु आगे देखिये वृद्धि नहीं हो सकती। बल्कि सर्वार्थसिद्धि के कर्ता ने तो उसे तत्त्वार्थराजवार्तिक के तीसरे अध्याय में उक्त सूत्र की व्याख्या | बिल्कुल असम्भव बताया है। अब सामान्य कथन देखियेकरते हुए श्रीमद्भट्टाकलंकदेव कहते हैं कि महाकवि वीरनन्दि ने चन्द्रप्रभचरित काव्य के 18 वें सर्ग 10 जनवरी 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524269
Book TitleJinabhashita 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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