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________________ में कहा है कि के वचनों से क्षेत्रस्थित मनुष्यों के आयुकायादि का वृद्धिह्रास "भरतैरावते वृद्धिहासिनी कालभेदतः। प्रतिपादन किया है, न कि पौद्गलिक भूमिका । प्रतिवादी का ऐसा उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यौ कालभेदावुदाहृतौ ॥35॥" कहना ठीक नहीं है, क्योंकि गौण शब्द के प्रयोग से मुख्य अर्थ तथा अमृतचन्द्राचार्य विरचित तत्त्वार्थसार में लिखा है। घटित होता है वर्ना निष्प्रयोजन मुख्य शब्द का अर्थ क्यों छोड़ा "उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यौ षट्समे वृद्धिहानिदे। जावे। अत: भरतैरावत के क्षेत्र का वृद्धिहास मानना ही मुख्य है भरतैरावतौ मुक्त्वा नान्यत्र भवतः क्वचित्।। 208॥" और उन क्षेत्रस्थ मनुष्यों का वृद्धिह्रास मानना गौण है, इस प्रकार इन श्लोकों में वही सामान्य कथन किया है जैसा कि कहना ही ठीक है और यही प्रतीति में आता है। तत्त्वार्थसूत्र में है। इसी ढंग को लिये हुए ऐसा ही अस्पष्ट कथन श्लोकवार्तिक के इस कथन से साफ है कि विद्यानंदस्वामी हरिवंशपुराण में है जिसमें कि तीन लोकका खूब विस्तृत वर्णन है, भूमि की घटी-बढ़ी को मुख्य रूप से मानते हैं, साथ ही उनकी जिनसेन ने लिखा है। यथा उक्त कारिका से यह भी प्रकट होता है कि उस समय क्षेत्र की कल्पस्ते द्वे तथार्थानां वृद्धिहानिमती स्थितिः। हानि-वृद्धि को मानने वाले और न मानने वाले दोनों प्रकार के भरतैरावत क्षेत्रेष्वन्येष्वपि ततोऽन्यथा ॥ आगम मौजूद थे, जिसे उन्होंने 'प्रवचनैकदेशस्य च सातवें सर्ग के 63वें श्लोक का हिन्दी अनुवाद ऐसा है तद्बाधकस्याभावात् आगमान्तरस्य च तद्बाधकस्याप्रमाणत्वात्' शब्दों 'उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी में भरतैरावत के पदार्थों का वृद्धि ह्रास से प्रकट किया है और क्षेत्र की हानिवृद्धि के बाधक आगम को होता है।' अप्रमाण कोटि में डाल दिया है। न केवल यही, बल्कि श्लोकवार्तिक अब क्षेत्र की हानि वृद्धि मानने वालों की सुनिये । विद्यानंद | में कालभेद से भमि को समतल मानने से भी इन्कार किया है. महोदय अपने श्लोकवार्तिक में 'ताभ्यामपराभूमयोऽवस्थिताः' सूत्र | जैसा कि उसकी निम्न पंक्तियों से जाहिर किया हैकी व्याख्या करते हुए कहते हैं 'न च वयं दर्पणसमतलामेव भूमिं भाषामहे प्रतीतिविरोधात् "न हि भरतादिवर्षाणां हिमवदादिवर्षधराणां च सूत्रत्रयेण तस्याः कालादिवशादुपचयापचयसिद्धेर्निम्नोन्नताकाररसद्भावात.' विष्कंभस्य कथनं बाध्यते प्रत्यक्षानुमानयोस्तदविषयत्वेन (पृष्ठ 377) तबाधकत्वायोगत्। प्रवचनैकदेशस्य च तद्बाधकस्याभावात् पुन: आगमांतरस्य च तद्बाधकस्याप्रमाणत्वात्। तत एव सूत्रद्वयेन 'तदापि भूमिनिम्नत्वोन्नतत्वविशेषमात्रस्यैव गते: तस्य च भरतैरावतयोस्तदपरभूमिषु च स्थिततेर्भदस्य वृद्धिहासयोगायोगाभ्यां | भरतैरावतयोर्दष्यत्वात.' (पष्ठ 378) विहितस्य प्रकथनं न बाध्यते।" (पृ. 354) ऐसे ही गुणभद्राचार्यकृत उत्तरपुराण के इस श्लोक से इसका भाव ऐसा है कि भरतैरावत क्षेत्र का वृद्धिहास मानने ध्वनित होता है। यथापर ऊपर तीन सूत्रों में जो भरतादिक्षेत्र और हिमवदादि वर्षधर पर्वतों ततो धरण्या वैषम्यविगमे सति सर्वतः। का विस्तार वर्णन किया है, उसमें बाधा आएगी। शंकाकार की इस भवेच्चित्रा समाभूमिः समाप्तात्रावसर्पिणी 353 पर्व 76 शंका का उत्तर देते हुए विद्यानंदि लिखते है कि उसमें कोई बाधा अर्थ- इसके बाद पृथ्वी का विषमपना सब नष्ट हो जायेगा नहीं आ सकती क्योंकि वह प्रत्यक्ष अनुमान का विषय नहीं है। रही और चित्रा पृथ्वी निकल आवेगी तथा यहाँ ही पर अवसर्पिणी आगमप्रमाण की बात तो प्रवचन का एक देश तो उसमें कोई बाधा काल समाप्त हो जायेगा। नहीं देता और जो उसके बाधक आगमान्तर हैं, वे अप्रमाण हैं श्लोकवार्तिक में अन्य भी कई ऐसी बातें है जो ग्रन्थान्तरों इसलिए सूत्रद्वय से जो भरतैरावत और अपर भूमि के वृद्धिह्रासके योग-अयोग का किया कथन है वह अबाधित है।' से एकमत नहीं रखतीं, उनका विशेष विवेचन अन्य स्वतन्त्र लेख जो लोग इसका विपरीत भाव निकालते हैं उन्हें द्वारा बताया जा सकता है। श्लोकवार्तिक में एक खास उल्लेख श्लोकवार्तिक के पृष्ठ 378 की निम्नस्थ पंक्तियों पर ध्यान देना योग्य विषय यह है कि 'मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयोर्नुलोके' सूत्र का चाहिए निरूपण करते हुए भूगोल भ्रमण पर अच्छा विचार किया गया है "भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासौ षट् समयाभ्यामुत्सर्पिण्य- | इस प्रकार का वर्णन अन्य संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थों में नहीं मिलता वसर्पिणीभ्यां इति वचनात् तन्मनुष्याणामुत्सेधानुभवायुरा- | है। यह खूबी श्लोकवार्तिक में ही है। दिभिर्वृद्विहासौ प्रतिपादितौ न भूमेरपरपुद्गलैरिति न मन्तव्यं, इस विषय में श्वेताम्बरों का आगम निम्न प्रकार हैगौणशब्दप्रयोगान्मुख्यस्य घटनादन्यथा मुख्यशब्दार्थातिक्रमे आत्मारामजी-कृत 'सम्यक्त्व-शल्योद्वार' पुस्तक के पृष्ठ प्रयोजनाभावात्। तेन भरतैरावतयो: क्षेत्रयोवृद्धिह्रासौ मुख्यत: | 45 में लिखा है - प्रतिपत्तव्यौ, गुणभावतस्तु तत्स्थमनुष्याणामिति तथा वचनं 'शाश्वती वस्तु घटती बढ़ती नहीं है सो भी झूठ है क्योंकि सफलतामस्तु ते प्रतीतिश्चानुल्लंघिता स्यात्"। गंगा-सिंधु का पाट, भरतखण्ड की भूमिका, गंगासिन्धु की वेदिका, भावार्थ- "भरतैरावतयोर्वृद्धि हासौ.....'' इत्यादि सूत्रकार | लवण समुद्र का जल वगैरह बढ़ते-घटते हैं।' -जनवरी 2003 जिनभाषित 11 'शा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524269
Book TitleJinabhashita 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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