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________________ 1. 12. पथ्य आहार आदि के विच्छेद रूप बहिरङ्ग कारण मिल जाने से । क्योंकि जहाँ काल के आधार पर कार्यसिद्धि बतायी है, वहीं जीवन के अभाव का प्रसंग आ जाता है। ऐसा प्रसंग आने पर जीवन | अकाल में भी कार्य होता है ऐसा सर्वज्ञकथन है। यही प्रामाणिक है। के आधारभूत आहारादिक अकालमृत्यु के प्रतीकार हैं। हाँ, | अनेक पौराणिक कथनों के आधार पर आयु के अपकर्षकरण अकालमरण का मृत्युकाल निश्चित होता तो अकाल मृत्यु का | | का स्पष्टीकरण हो जाता है। लौकिक उदाहरण से भी समझा जा प्रतिकार नहीं हो सकता था जैसे काल मरण का मृत्युकाल व्यवस्थित सकता है। जैसे मोटरगाड़ी की तेल की टंकी पूरी भरी हुई है, है, उसका प्रतिकार नहीं हो सकता किन्तु अकाल मृत्यु का प्रतीकार | उसके द्वारा हजार मील की यात्रा पूरी हो सकती है किन्तु गाड़ी हो सकता है, अतः अकाल मृत्यु का मृत्यु काल अव्यवस्थित | चार सौ मील चलकर रुक गयी। जब कारण पर विचार किया (अनियत) है, वह मृत्यु काल बहिरंग विशेष कारणों से उत्पन्न | गया, तब पता चला कि टंकी में सूराख हो जाने से तेल क्षय को होता है। प्राप्त हो गया अत: गाड़ी समय से पूर्व बन्द हो गई, यात्रा भी पूरी बाह्यकारणों से आयु का क्षय होता है, यही बात | न करा सकी इसी प्रकार आयु कर्म भी किसी बाह्य या अन्तरंग नेमिचन्द्राचार्य ने कही है। भगवती-आराधना में असत्य के प्रसंग निमित्त को पाकर समय से पूर्व क्षय को प्राप्त हो जाता है। में कहा गया है "विद्यमान पदार्थ का प्रतिषेध करना सो प्रथम | संदर्भअसत्य है, जैसे कर्मभूमि के मनुष्य की अकाल में मृत्यु का निषेध अण्णत्थठियस्सुदये संथुहणमुदीरणा हु अत्थि तं ॥ गो. कर्म. करना। यह प्रथम असत्य मानना निश्चित ही काल मरण के समान गा, 439 उदयावलि बाह्यस्थितस्थिति द्रव्यस्यापकर्षण अकाल मरण की सत्ता सिद्ध करता है।" कर्मभूमिया मनुष्य और वशादुदयावल्यां निक्षेपणमुदीरणा खलु। अपक्वपाचनतिर्यञ्च बध्यमान और भुज्यमान आयु में अपवर्तन होता है इसका मुदीरणा। प्रमाण तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक से निम्नरूप में देखिए- "आयुर्बन्धं कुर्वतां जीवानां परिणामवशेन बध्यमानस्य आयुष: अपवर्तनमपि परभवायुषो नियमेनोदीरणा नास्ति उदयगतस्यैवोपपादिक भवति। तदेवापश्वर्तनं घात इत्युच्यते। उदीयमानायुरपवर्तस्य चरमोत्तम देहा-संख्येयवर्षायुभ्योऽन्यत्र तत्संभवात् ॥ गो. कदलीघाताभिधानात्।" आयु कर्म का बन्ध करने वाले जीवों के कर्म. सं.टीका गा. 918 परिणाम के कारण से बध्यमान आयु का अपवर्तन भी होता है, | 3. तत्त्वार्थवार्तिक प्रथम भाग पृष्ठ 427, 28 (आर्यिका वही अपवर्तन घात कहा जाता है, क्योंकि उदीयमान आयु के सुपार्श्वमतीकृत टीका) अपवर्तन का नाम कदलीघात है। 4. न ह्यप्राप्तकालस्य मरणाभावः खङ्गप्रहारादिभिर्मरणस्य यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि बध्यमान आयु की स्थिति दर्शनात् । प्राप्त कालस्यैव तस्य तथा दर्शनमिति चेत् कः में और अनुभाग में जिस प्रकार अपवर्तन होता है, उसी प्रकार पुनरसौ कालं प्राप्तोऽपमृत्युकालंवारे प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता, भुज्यमान आयु की स्थिति और अनुभाग में भी अपवर्तन होता है द्वितीय पक्षे खड्गप्रहारादिनिरपेक्षत्व प्रसंगः। सकलबहि: किन्तु बध्यमान आयु की उदीरणा नहीं होती और भुज्यमान आयु कारण विशेषनिरपेक्षस्य मृत्युकारणस्य मृत्युकालव्यवस्थिते: की उदीरणा होती है, जिससे अकालमरण भी होता है, यह उक्त शस्त्रसंयातादि बहिरंग कारणान्वयव्यतिरे कानुअनेकों प्रमाणों से सिद्ध होता है। विद्यायिनस्तस्यापमृत्यु कालत्वोवपत्तेः। तद्भावे पुनरायुर्वेद आचार्यों ने ऐसे महापुरुषों का उल्लेख किया है जिनका प्रामाण्यचिकित्सादीनां व सामोपयोगः। अकाल में आयु का क्षय हुआ है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक2/53 की टीका जैनागम में नयविवक्षा के कथन को ही प्रामाणिक माना 5. विसवेयणरत्तक्खय भयसत्थग्गहणं सं किले सेहिं । गया है। आचार्य अमृतचन्द्र काल के साथ अकाल का उल्लेख करते हुए लिखते है- "कालनयेन निदाघदिवसानुसारिपच्यमानसहकार उस्सासाहाराणं णिरोहणो छिज्जदे अऊ॥ कर्मकाण्ड 57 फलवत्समयायत्तसिद्धिः अकालनयेन कृत्रिमोष्मपञ्यमान सहकार पढमं असंतवयणं सभूदत्यस्स होदि पडिसेहो। . फलत्समयानायत्तसिद्धिः" (प्रवचनसार) अर्थात्- काल ने कार्य णस्थि णरस्स अकाले मच्चुत्ति जधेय भादीयं ॥ भग. 830 की सिद्धि समय के अधीन होती है, जैसे आम्रफल गर्मी के दिनों में अन्तस्स चक्रधरस्य ब्रह्मदत्तस्य बासुदेवस्य च कृष्णस्य पकता है । अर्थात् कालनय से कार्य अपने व्यवस्थित समय पर होता है। अकालनय से कार्य की सिद्धि समय के आधीन नहीं होती है, अन्येषां च तादृशीनां बाह्य निमित्त वशादायुरपवर्तदर्शनात्जैसे आम्रफल को कृत्रिम गर्मी से पका लिया जाता है। इससे यह - (तत्त्वार्थवार्तिक 2/53/6) स्पष्ट है कि सर्वकार्यकाल के अनुसार ही होते हैं ऐसा नहीं है 24/32, गाँधी रोड, बड़ौत (उ.प्र.) -जनवरी 2003 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524269
Book TitleJinabhashita 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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