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संरक्षिका अनन्तमती आगम का सुनहरा पृष्ठ है। इन पौराणिक | भी वह न टूटी, न हारी बल्कि अग्नि में तपे कुन्दन की तरह नारी ने संघर्ष मूल्यों के लिए स्वयं को प्राणांत तैयारी के साथ निखरी ओर इन कामुम भेड़ियों के लिए सिंहनी बनकर गरजी। जोखिम में डाला है। वह उन तत्त्वों को संवारती है वे स्थापित वरना जितनी चुनौतियां, विकृतियों का सामना उसे करना पड़ा
और समर्थ है जिन्होंने स्थापित होने में सदियां खपायी है। | क्या वे उसे बहा न ले जाती। शुद्ध तात्त्विक, वास्तविक और अंतः इनके व्यक्तित्व में प्रतिपल विराटता का दर्शन रहा है। जेठ का | सारी चेतना से हम जब इसका शोध करते हैं कि उसके चरित्र में घाम स्वयं सिर पर झेलते अडिग वृक्ष की भांति अपने आश्रय वे कौन से बीजाणु थे जो तमाम विपरीत और लगभग परस्त करने दाताओं को छाया और फल ही दिये हैं। आज भी हमें इनके वाली स्थितियों के बीच भी उसे, उसके सामूहिक मन को चरित्र में यही प्रतिफलित होते देखते हैं।
आत्मविजय की दूरगामी दृष्टि देते हैं- सच यह चेतना, अंतबेधि अनन्तमती ने अपने शील कवच के सम्मुख कभी स्वयं ब्रह्मचर्य की शक्ति थी जो सच्ची जैन नारी की मूर्त परिभाषा है। को साधन हीन, शस्त्रविहीन नहीं समझा अपनी लम्बी त्रासदी, | अनन्तमती विलक्षण अनन्तशक्तिरूपा है जैसे पीड़ा, जकड़न के विरूद्ध उसके मन में निश्चयत: कितना क्षोभ | अग्रवाहिनी सरिता अचल पाषाण खंडों में टकराकर प्रबल उत्पन्न हुआ होगा, किन्तु पूरे संयम व धैर्य से उसने अभिव्यक्ति को वेग से बढ़ती है इसी प्रकार सांसारिक बाधाएँ उसके कर्मठ शक्ति दी। श्रमण संस्कृति में उससे पूर्व की सन्नारियों ने जो उपसर्गों जीवन में द्विगुणित उत्साह भरने वाली प्रेरणा शक्ति बन गई के मध्य भी अडिगता रखी उसके भीतर वह भी रक्त की भाँति | थी। प्रवाहित रहा है। इसीलिए भंयकर यातनाओं आत्याचारों के मध्य ।
के.एच. - 216, कविनगर
गाजियाबाद बालवार्ता
बेईमान नहीं हैं सब
डॉ.सुरेन्द्र जैन 'भारती' एक बार एक युवक बड़े उत्तेजित स्वर में बड़बड़ाता । झुठी कसम खाई तथा न्यायालय में भी गवाहों के मुकर जाने हुआ चला जा रहा था कि "संसार में कहीं भी न्याय नहीं है, के कारण मेरा विश्वास ईमानदारी से डगमगाया तो मुझे लगा सबके सब बेईमान हैं, कोई किसी का भला नहीं चाहता।" कि संसार में कहीं न्याय नहीं है जबकि वास्तविकता तो यह
यह सुनकर एक सज्जन जैसे दिखने वाले व्यक्ति ने उसे | है कि यदि न्याय नहीं होता तो मैं न्यायालय जाता ही क्यों?" रोका और पूछा कि- "जो तुम कह रहे हो क्या वह सत्य है?" | युवक के उक्त विचार सुनकर वे सजन मुस्कुरा दिये उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- हाँ, बिल्कुल।
और बोले कि "जीवन का सत्य मात्र इतना नहीं है कि अपेक्षित तब उन सज्जन ने पूछा कि-तुम्हारा न्याय पर विश्वास परिणाम मिलें, बल्कि जीवन का सत्य तो यह है कि तुम
परिणाम के लिए अपने पथ पर, अपने कर्त्तव्य पर दृढ़ रहो। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- हाँ है।
यदि संसार में न्याय, ईमानदारी और भलमनसाहत नहीं होती तब उन सज्जन ने फिर पूछा- "क्या तुम ईमानदार नहीं | तो लोगों का जीना मुश्किल हो जाता।" हो?"
उक्त युवक ने उन सज्जन को प्रणाम किया और कहा तब वह व्यक्ति बोला-"मैं तो ईमानदार हूँ, मैंने कभी कि "अब मेरी आस्था स्पष्ट है कि संसार में अच्छाईयाँ सदैव कोई बेईमानी नहीं की।"
रहती हैं, किन्तु जब बुराइयाँ और बुरे लोग समाज में अधिक तब वे सज्जन बोले- "यदि तुमने कभी बेईमानी नहीं आदर-सम्मान पाने लगते हैं तो अच्छाइयाँ और अच्छे लोग की और तुम ईमानदार हो तो फिर तुम कैसे कह सकते हो कि समाज के परिदृश्य से गायब होने लगते हैं। अत: जरूरी है कि सबके सब बेईमान है?" अरे भाई, जब तुम बेईमान नहीं हो, हम सदैव सक्रिय रहें ताकि अन्याय, बेईमानी और बुराई तुम न्याय की उम्मीद करते हो, किसी का बुरा नहीं चाहते तो अपना कुचक नहीं फैला सकें।' इसका मतलब स्पष्ट है कि संसार में न्याय, ईमानदारी, भलाई बच्चो! यह कहानी हमें बताती है कि हमें सक्रिय अभी भी है।"
रहकर सच्चाई, न्याय, ईमानदारी, भलाई के कामों और इनके यह सुनकर वह युवक अवाक् रहा गया। कुछ क्षण काम करने वालों को सदैव प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि रूककर उसने कहा कि "मैं स्वयं बड़े भ्रम में था, तुमने मुझे । हम और हमारा समाज अन्याय से मुक्त रह सके। वास्तविकता बतादी। जब महाजन ने मेरे रुपये हड़प लिये और |
___एल-65, न्यू इन्दिरा नगर ए, बुरहानपुर (म.प्र.)
-जनवरी 2003 जिनभाषित 17
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