SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिज्ञासा क्या श्री कृष्ण को नरकायु का बंध पहले हो चुका था ? यदि हाँ, तो उसका कारण क्या था ? समाधान- श्री कृष्ण को नरकायु का बंध मरण समय से पूर्व ही हो चुका था । उत्तर पुराण 72 / 186-187 में इस प्रकार कहा है जिज्ञासा समाधान तथा जरत्कुमारश्च, कौशाम्ब्यारण्यमाश्रयत् । प्राग्यबद्ध नरकायुस्यो, हरिरन्वास दर्शन 1186 भाव्यमानात्यनामासौ नाहं शक्नोमि दीक्षितुम् । शक्तान्न प्रतिवघ्नामीत्यास्त्री बाल मद्योषयत् ॥187 अर्थ- जरत्कुमार कौशाम्बी के वन में जा पहुँचा। जिसने पहले ही नरकायु का बंध कर लिया था ऐसे श्री कृष्ण ने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर तीर्थकर प्रकृति के बंध में कारणभूत सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन किया तथा स्त्री, बालक आदि सबके लिए घोषणा कर दी कि मैं तो दीक्षा लेने में समर्थ नहीं हूँ, परन्तु जो समर्थ हों, उन्हें मैं रोकता नही हूँ । " 2. उत्तर पुराण 72/286 में इस प्रकार कहा है : बायुरपि दृशमय्यमञ्चान्त्यनाम चास्मादद्योड गमदसौ धृतरायाः । तद्धीधनाः कुरूत दान मखंडमायुर्वधं प्रति प्रतिपदं सुख लिप्सवश्चेत् । अर्थ- देखो, श्री कृष्ण ने पहले नरक आयु का बंध कर लिया था, और उसके बाद सम्यग्दर्शन तथा तीर्थंकर नाम कर्म प्राप्त किया था । इसीलिए उन्हें राज्य का भार धारण करने के बाद नरक जाना पड़ा। 3. हरिवंशपुराण पृष्ठ 768, सर्ग 62/63 में इस प्रकार कहा 秉 इत्यादिशुभचिन्तात्मा, भविष्यत्तीर्थकृद्धरिः । बद्धायुष्कतयामृत्वा तृतीयां पृथ्वीमितः ॥ (631) अर्थ- इत्यादि शुभविचार जिनकी आत्मा में उत्पन्न हो रहे थे, और जो भविष्यत् काल में तीर्थंकर होने वाले थे, ऐसे श्रीकृष्ण पहले से ही वद्धायुष्क होने के कारण मरकर तीसरी पृथ्वी में गये । उपर्युक्त प्रमाणों से नरकायु के, पूर्व में ही बंध प्रसंग स्पष्ट हो जाता है। इसके कारण का स्पष्ट कथन नहीं मिलता, परन्तु उत्तर पुराण पृष्ठ 385 में इस प्रकार कहा है- "दूसरे दिन वर के हाथ में जलधारा देने का समय था । उस दिन मायाचारियों में श्रेष्ठ तथा दुर्गति को जाने की इच्छा करने वाले श्री कृष्ण का अभिप्राय लोभ कषाय के तीव्र उदय से कुत्सित हो गया । उन्हें इस बात की आशंका उत्पन्न हुई कि कहीं इन्द्रों के द्वारा पूजनीय भगवान् नेमिनाथ हमारा राज्य न ले लें। . महापाप का बंध करने वाले श्री कृष्ण ने ऐसा उन लोगों को आदेश दिया। (152-157) उपर्युक्त प्रमाण से ऐसा ध्वनित होता है कि भगवान् नेमिनाथ के साथ महान् मायाचारी रूप पाप करने के कारण श्री को कृष्ण 26 जनवरी 2003 जिनभाषित Jain Education International - ****** + पं. रतनलाल बैनाड़ा नरकायु का बंध हुआ हो। यदि किसी शास्त्र में, नरकायु स्पष्ट प्रमाण हो तो विद्वत्गण लिखने का कष्ट करें। जिज्ञासा पंचाध्यायी को पं. रतनचन्द जी 'अनार्ष ग्रंथ' क्यों कहा है? बंध का मुख्तार ने समाधान- पंचाध्यायी ग्रंथ, श्री अमृतचन्द्राचार्य द्वारा रचित नहीं है। इसके लेखक पं. राजमल जी थे। यह ग्रंथ 16 वीं शताब्दी का है। पं. रतनचंद जी मुख्तार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व ग्रंथ के पृष्ठ 271 पर मुख्तार साहब ने लिखा है " श्रीषट्खंडागम सूत्र के सामने पं. राजमलजी के वाक्य कैसे प्रमाणभूत माने जा सकते हैं? जिनको गुरु परम्परा से उपदेश प्राप्त नहीं हुआ है, वे ग्रंथ रचने में प्रायः स्खलित हुये हैं। उनके बनाये हुये ग्रंथ स्वयं प्रमाणरूप नहीं हैं। किन्तु उनकी प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिये आचार्य वाक्यों की अपेक्षा करनी पड़ती है। पृष्ठ 118 पर लिखा है- पंचाध्यायी अनार्ष ग्रंथ है। वास्तव में पंचाध्यायी के बहुत से प्रसंग आगम सम्मत नहीं है। कुछ प्रमाण यहाँ प्रस्तुत हैं 1. पं. राजमलजी ने स्वरूपाचरण नामक चारित्र का उल्लेख इस ग्रंथ में किया है। जबकि इनसे पहले किसी भी ग्रंथ में, किसी भी आचार्य ने 'स्वरूपाचरण चारित्र' का उल्लेख नहीं किया है। यह परम्परा इन्होंने ही चलाई जो आगम सम्मत नहीं है। 2. इस ग्रंथ में चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि के प्रतिसमय नित्य असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा कही है, जबकि जयधवल पु. 12, पृ. 284-285 में स्पष्ट लिखा है कि अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण में प्रारंभ किये गये वृद्धिरूप परिणाम सम्यक्त्व प्राप्त होने पर जब तक रहते हैं, तब तक दर्शन मोहनीय के अतिरिक्त अन्य कर्मों की असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा होती है। उसके पश्चात् विघातरूप (मंद) परिणाम हो जाते हैं तब असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा, स्थिति कांडकघात, अनुभाग कांडकघात आदि सब कार्य बंद हो जाते हैं । अतः पंचाध्यायी का मत आगम सम्मत नहीं है । 3. पंचाध्यायी श्लोक नं. 1088 में कहा है For Private & Personal Use Only पंचाक्षासंज्ञिनां चापि, तिरश्चां स्यान्नपुंसकः । द्रव्यतो भावतश्चापि वेदो नान्यः कदाचनः ॥1088 ॥ अर्थ- असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचों के भी नपुंसक वेद होता है। इन सब में द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से नपुंसक वेद ही होता है, अन्य नहीं । समीक्षा- उपर्युक्त कथन भी आगम सम्मत नहीं है। श्री पुष्पदंताचार्य ने षटखंडागम सत्प्ररूपणा सूत्र 107 में कहा है कि तिर्यंच असैनी पंचेन्द्रिय से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तीनों वेदों से युक्त होते हैं । अतः पंचाध्यायी का कथन ठीक नहीं है। www.jainelibrary.org
SR No.524269
Book TitleJinabhashita 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy