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________________ 4. पंचाध्यायी श्लोक नं. 1092 में कहा है - | युगपदौदारिकतैजसकार्मणाहारकाणि चत्वारि, वैक्रियिकं वा "कश्चिदापर्यन्यामात् क्रमादास्ति त्रिवेदवान् अर्थ-"कोई एक पर्याय | अस्तित्वमाश्रित्य पंचापि भवंति। में क्रमानुसार तीन वेद वाला होता है।" अर्थ- प्रमत्त संयत मुनि के, आहारक वैक्रियक शरीर का समीक्षा - उपर्युक्त कथन भी आगम सम्मत नही है। | उदय होने पर भी, उन दोनों शरीरों का एक काल में प्रवृत्ति का श्रीधवल पु. 1/346 में इस प्रकार कहा है “जैसे विवक्षित कषाय | अभाव होने से, एक के त्याग होने से एक साथ औदारिक, तैजस, केवल अंतर्मुहूर्त पर्यन्त रहती है, वैसे सभी वेद एक अंतर्मुहूर्त कार्मण तथा आहारक या वैक्रियक चार हो सकते हैं, अथवा पर्यन्त नही रहते हैं, क्योंकि जन्म से लेकर मरण तक किसी एक अस्तित्व का आश्रय लेकर पाँच भी होते हैं। वेद का उदय पाया जाता है (अर्थात् एक पर्याय में भाव वेद | जिज्ञासा - क्या सभी विमानों की उपपाद शय्याओं पर परिवर्तन नहीं होता)"। देव तथा देवी दोनों पैदा होते हैं या कुछ अन्य भी विशेषता है? 5. पंचाध्यायी - श्लोक नं. 680 में कहा है "संज्वलन समाधान - उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में श्री त्रिलोकसार कषाय के स्पर्धक सर्वघाती नहीं है" जबकि श्री कषाय पाहुड़ गाथा 525 में इस प्रकार कहा है5/4-22 के अनुसार संज्वलन कषाय के स्पर्धक सर्वघाति तथा | दक्खिण उत्तर देवी, सोहम्मीसाण एव जायते। तहिं सुद्ध देशघाति दोनों प्रकार के होते हैं। देवि सहिया, छच्चउलक्खं विमाणाणं । 5241 तद्देवी ओ पच्छा, 6. पंचाध्यायी श्लोक नं.690 के अनुसार चारित्र मोहनीय उवरिमदेवा णयंति सगठाणं । सेस विमाणा छच्चदुवीस लक्ख देवदेवि का कार्य, आत्मा के सम्यग्दर्शनगुण का घात करना नहीं हो सकता। सम्मिस्सा। 5251 यह कथन भी आगम सम्मत नहीं है। क्योंकि अनंतानुबंधी कषाय अर्थ- दक्षिण उत्तर कल्पों की देवांगनायें क्रम से सौधर्म के उदय से सम्यक्त्व का घात तथा सासादनगुणस्थान की प्राप्ति तथा ईशान स्वर्ग में ही उत्पन्न होती हैं । वहाँ शुद्ध (केवल) देवियों होती है। की उत्पत्ति से युक्त छह लाख और चार लाख विमान हैं। उन इस प्रकार पंचाध्यायी के बहुत सारे विषय आगमविरुद्ध होने से पं. मुख्तार साहब ने उसे 'अनार्ष' ठीक ही कहा है। पं. देवियों को उत्पत्ति के पश्चात् उपरिम कल्पों के देव अपने-अपने फूलचंदजी सिद्धांत शास्त्री ने भी इस ग्रंथ की प्रस्तावना में इसके स्थान पर ले जाते हैं। शेष 26 लाख तथा 24 लाख विमान, देव कतिपय वर्णनों को उचित नहीं माना है। देवियों (दोनों) की उत्पत्ति से संमिश्र है। 524-525 जिज्ञासा- क्या किसी मनुष्य के पाँचों शरीर भी संभव हैं? | अर्थात् दक्षिण कल्पों के देवों की सभी देवियाँ सौधर्म में समाधान- तत्त्वार्थ सूत्र अ.2/43 में इस प्रकार कहा गया है तथा उत्तर कल्पों के देवों की सभी देवियाँ ईशान स्वर्ग में उत्पन्न तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः। 43 ॥ । होती हैं। सौधर्म स्वर्ग में 32 लाख और ईशान स्वर्ग में 28 लाख अर्थ- एक साथ एक जीव के तैजस और कार्मण से | विमान हैं। इनमें से 6 लाख तथा 4 लाख उपपाद शय्याओं पर मात्र लेकर चार शरीर तक विकल्प से होते हैं। इस सूत्र की टीका में देवियाँ ही उत्पन्न होती हैं, शेष पर दोनों उत्पन्न होते हैं। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने चार शरीरों की व्याख्या में औदारिक, तिलोयपण्णत्ति, अधिकार 8, गाथा नं. 333 से 336 तक आहारक, तैजस व कार्मण ये चार शरीर कहे हैं। उन्होंने औदारिक, | भी उपर्युक्त प्रकार का ही कथन है। वैक्रियक, तैजस और कार्मण इन चार शरीरों को नहीं कहा। यह प्रश्नकर्ता- सुमतचन्द्र जी दिवाकर, सतना शायद इसलिये नहीं कहा कि अ.2 के सूत्र नं. 46"औपपादिकं जिज्ञासा-मरीचि ने दीक्षा से भ्रष्ट होने के बाद कौन सा वैक्रियकम्" में पू. आ. उमास्वामी ने, उपपाद जन्म से पैदा होने | मत चलाया था? क्या सांख्यमत उसने चलाया था? वाले शरीर को वैक्रियक माना है। तदनुसार ऋद्धिप्राप्त मुनियों के समाधान- श्री आदिपुराण पर्व 18 श्लोक 62 में इस विक्रिया द्वारा बनाये शरीर को वैक्रियक शरीर नहीं माना। परन्तु | प्रकार आचार्य जिनसेन ने कहा है - आचार्य उमास्वामी महाराज ने स्वयं "लब्धिप्रत्ययं च" (सूत्र नं. तदुपज्ञममूद् योगशास्त्रं तन्त्रं च कापिलम् । येनामं 47) द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि वैक्रियक शरीर लब्धि से भी | मोहितोलोक: सम्यग्ज्ञान परांगमुखः (62) पैदा होता है। अत: यह सिद्धान्त सामने आता है कि किसी मनुष्य अर्थ- (पं. पन्नालाल जी कृत) योगशास्त्र और सांख्यशास्त्र के औदारिक, वैक्रियक, तैजस, कार्मण ये चार शरीर भी हो सकते | प्रारंभ में उसी के (मरीचि के) द्वारा कहे गये थे, जिनसे मोहित हैं। साथ ही यदि उन मुनिराज को आहारक ऋद्धि भी प्राप्त है तो हुआ यह जीव सम्यग्ज्ञान से परांगमुख हो जाता है। ऐसा मानना चाहिए कि उनके योग्यता तो पाँचों शरीरों की है, पर श्री उत्तरपुराण 74 में मरीचि का चरित्र चित्रण बहुत विस्तार आहारक तथा वैक्रियक शरीर की एक साथ प्रवृत्ति न होने से एक से किया गया है। इसके अनुसार समस्त अन्यमतों का प्रवर्तन साथ पाँचों शरीर नहीं हो सकते। यही बात राजवार्तिक 2/43 की मरीचि द्वारा ही हुआ था। टिप्पणी में स्पष्ट कही गई है। " प्रमत्तसंयतस्य आहारकवैक्रियक 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी शरीरोदयत्वेऽपि तयोरेककाले प्रवृत्त्यभावात् एकतरत्यागेन । आगरा- 282002 (उ.प्र.) -जनवरी 2003 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524269
Book TitleJinabhashita 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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