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________________ उपवास मुनि श्री चन्द्रसागर जी al उपवास: उत्सव लाता वैसे ही पूर्वोचार्यों ने उपवास को कर्मों के दहन की क्रिया पाप मिटाता कहा है। यदि रोग से बचना है शरीर शुद्धि रखना, उपवास के द्वारा ही सम्भव हो सकती है। जैसे अग्नि द्वारा कचरे को जलाया जाता वा वासना से भगाता - है वैसे ही उपवास रुपी तपाग्नि के द्वारा शरीर और आत्मा के सम्यक् दिलाता विकारी भाव रूप कचरे को जला कर शरीर और आत्मा को पवित्र समीचीन उपयोग में लगाता बनाया जाता है। सिद्धान्त व्याख्या में उपवास को अनरान संज्ञा भी उपवास तेरे पास मेरा वास प्राप्त है, जो अन्य से शरीर को शून्य रखने के लिए कहता है। तू नहीं है इन्द्रियों का दास उपवास से देह का स्नान परिणामों की खोट को उजाड़ना ही तो देश में छोड़ ममता समता से समाजा आत्म साधक की साधना का प्रतिफल है, हमें यदि रहे कि अनशन से कभी भी शरीर नहीं टूटता मन ढीला हुआ धारणा शक्ति कमजोर आकुलता मिटा निराकुलता जगा पड़ी नहीं कि शरीर के टूटने और दुखने की अनुभूति होने लगती “जीवन्त उपवास" है। ये तो इन्द्रियों के संकोच का साधन है। उपवास (कहें या पाप से मुक्ति, दुख से सुख, बुरे से अच्छे की ओर आना अनशन कहें या निराहार ये) एक ऐसी गुफा है जहाँ एकांत है, देह से ममता का भाव छूट जायेगा तो समता मय परिणाम से सोता शांति है प्रकाश तो है किन्तु चकाचौंध नहीं है वहाँ विषयभोगों की की यात्रा प्रारंभ कर हम अपने धाम में स्थित हो सकते हैं हमें याद चकाचौंध नहीं है कि आत्मा का प्रकाश है। यहाँ आत्मा का निशप्रति रहे कि भोजन दुख का तेज है क्योंकि भोगने के अर्थ में प्रकाश पर्याप्त है बाह्य प्रकाश का आलम्बन दुख की यात्रा सुख के प्रयोग है जहाँ भोग की अवस्था मौजूद वहाँ कलह आपदा विपदा मार्ग में रोड़ा अटकाना है। अनशन करके अनाज की बचत करना है, वैसे भी भोजन का न शब्द नाश का सूचक है। और ज शब्द देश की अनाज समस्या का समाधान है। आरंभ में कमी करना जगत भ्रमण का वाचक है। हिंसा से बचना अहिंसा पर चलना उपवास का मार्ग है। बस अब हमें चाहिए कि हम उपवास की ओर चलें अविरल साधना (आवश्यकता) में वृद्धि का दिन होता है। परिणामों में जो चलते चलें तो उ शब्द उत्सव उमंग पैदा कर मन में शांति की विशुद्धि आती है, उसमें लब्धी स्थानों में नियम से वृद्धि होती है। स्थापना करता है और आगे बढ़ें तो प शब्द पाप मिटाता है, तो वा निकट से आत्मा के दर्शन मिलन का यह महोत्सव मनुष्य जीवन शब्द वासना से भगाता है अब क्या कहानी गहराई में डूबने पर स को सार्थक बनाता, संकल्प पूर्वक क्रिया या किसी मनुष्य जीवन शब्द सम्यक दिलाता समीचीन उपयोग में लगाता है। हम अनुभव में ही सही रूप से हो पाती है। जो अध्ययन किया है। उसे उपवास के आधार से कह सकते हैं तो कष्ट सुख का साधनाभूत तत्व है, के द्वारा आत्मसात किया जा सकता है यह जुगाली का समय रहता देह को सताओं आत्मा को पाओ, कर्म को जलाओ स्वकल्याण के है। अब ध्यान रहे कि शरीर में कितना भी कष्ट हो तत्काल मार्ग पर लग जाओ। मैंने देखा मैंने पाया भोजन रोग का कारण है समयसार याद आये कोई आत्मा को मार नहीं सकता, कोई छेद राग-द्वेष की जड़ है। भोजन शरीर में पहुँचा नहीं की बेदना प्रारंभ नहीं सकता, मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ ऐसी भेद भिन्नता पुद्गल आगे चलकर आरंभ बन आत्मा के उपवन से हटा कर विनाश अलग जीव उपवास के महातीर्थ में उपजती है यह आत्म गुणा की पतन की ओर ला देता है। पूजा का दिवस जब भी मुक्ति का सम्पादन होगा उपवास करते उपवास के पास आये नहीं कि विकल्प जाल से बच गये, हुये ही होगा प्रवृत्ति में नहीं निवृत्ति में भोजन करते हुये कभी सभी अवस्था में निराहार अवस्था श्रेष्ठ आत्मीय अवस्था ही निर्विकार किसी को मुक्ति का लाभ नहीं हुआ न हो सकता है। यहाँ प्रत्येक दशा जो हमारे मनोभावों में उज्जवलता आती है। साथ ही निद्रा जय | कार्य से छूटने की जो भाषा है वही उपवास की वास्तविक जीव विजय को पालती है। ये तो आत्मा के निकट आने रूप यात्रा जो उपासना के विम्ब में मन, वचन, काय तीनों की एकता के साथ हिंसा से अहिंसा की ओर चरण बढ़ना जो कि आचरण का मूलतः | लगना उपवास के प्रवर्तक तीर्थंकरों के प्रति समर्पण भाव रखना सूचक बिन्दु है। पापों से बचत का मार्ग शांति की पताका है। । ही उत्थान कि दिशा का बोध दर्शन हमारे बन्द नेत्रों को खोल 8 जनवरी 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524269
Book TitleJinabhashita 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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