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________________ में लायी जानी चाहिए। प्रतिनिधि-पुरुष मामले की गंभीरता से जाँच-पड़ताल करें और यदि पायें कि शिकायत सही है, तो वे समाज को यथार्थ से अवगत करायें और निर्देश परामर्श दें कि दोषी साधु को साधु मानना बन्द कर दिया जाय। यथार्थ से अवगत हो जाने पर और प्रतिनिधि-पुरुषों से दिशा-निर्देश मिल जाने पर श्रावक अवश्य ही ऐसे साधु की उपेक्षा करेंगे। उपेक्षा में वह शक्ति है कि या तो वह साधु सुधर जायेगा या उसे पाखण्ड छोड़कर गृहस्थ बनने पर मजबूर होना पड़ेगा। मायाचारी, भ्रष्ट साधुओं का अस्तित्व तभी तक कायम रहता है, जब तक समाज उन्हें मान्यता एवं महत्त्व देता रहता है। यही एकमात्र रास्ता है जिनशासन को अपकीर्ति से बचाते हुए भ्रष्ट और पाखंडी साधुओं से छुटकारा पाने का। किन्तु कथित ब्रह्मचारी ने अपने गुरु को सुधारने के नाम पर उन्हें पोस्टरों और पैम्फलेटों के द्वारा सार्वजनिकरूप से बदनाम करने का जो मार्ग अपनाया है, वह गुरु के लिए उतना हानिकारक सिद्ध नहीं हो रहा है, जितना जैनशासन के लिए हो| रहा है। उससे गुरु तो केवल जैनों में ही कलंकित हो रहे हैं, किन्तु जैनशासन की अपकीर्ति सारी जैनेतर दुनिया में हो रही है। ज्ञात हुआ है कि अपने उक्त शिष्य के द्वारा बदनाम किये गये आचार्यवर के सान्निध्य में अक्टूबर 2002 में एकधर्मसभा आयोजित हुई थी, जिसमें उन सभी ने,जिनके साथ आचार्यवर द्वारा अश्लील आचरण किये जाने के आरोप उक्त ब्रह्मचारी ने लगाये थे,मंच पर आकर सबके सामने घोषणा की, कि आचार्यवर पर लगाये गये सारे आरोप मिथ्या हैं। इससे सन्तोष हुआ है। किन्तु एक बात विचारणीय है कि कथित ब्रह्मचारी को ऐसे आरोपों की कल्पना करने का अवसर किस स्थिति से प्राप्त हुआ? वह स्थिति है मुनिसंघ में आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों का रहना । मुझे विश्वास है कि उक्त आरोपों के योग्य घटना इस संघ में नहीं घटी है, तथापि घट सकने के कारण मौजूद हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। और इसीलिए कोई झूठा आरोप भी लगा देता है, तो वह सन्देह का कारण बन जाता है। संघ में आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों के रहने से उनके साथ सम्पर्क के अनेक अवसर मिलते हैं, जिससे मानवसुलभ विकारोत्यत्ति एवं अवांछनीय घटना घटित होना बहुत संभव हैं। अतः इसे टालने के लिए आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों का मुनिसंघ से पृथक रहना ही उचित है। वर्तमान में परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी का संघ इस दृष्टि से आदर्शसंघ है। इसमें आर्यिकाएँ और ब्रह्मचारिणियाँ साथ नहीं रहतीं। आचार्यश्री ने आर्यिकाओं के अलग-अलग संघ बनाए हैं और प्रत्येक संघ को एक ज्येष्ठ आर्यिका के अनुशासन में रखा है। वे अलग-अलग विहार करती हैं, मुनिसंघ के साथ उनका विहार नहीं होता। किसी विशिष्ट अवसर पर आचार्यश्री की अनुमति से वे उनके दर्शनार्थ और मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए आती हैं। उस समय उनकी वसतिका पर्याप्त दूरी पर होती है। दर्शन-मार्गदर्शन प्राप्त कर वे वहाँ से चली जाती हैं। आचार्यश्री मुनियों को एक महत्त्वपूर्ण उपदेश देते हैं कि श्री और स्त्री से सदा दूर रहो। सभी मुनिसंघों को इसका अनुकरण करना आवश्यक है। ऐसा होने पर उपर्युक्त प्रकार के किसी भी ब्रह्मचारी या व्यभिचारी को मुनियों पर उक्त प्रकार के आरोप लगाना आसान बात नहीं होगी। यह प्रकरण बहुत लम्बा खिंच गया है। इससे गली-गली चौराहों-चौराहों पर जैनमुनि शंका-कुंशकापूर्ण चर्चा का विषय बना हुआ है। इसका निराकरण शीघ्र किया जाना चाहिए। समाज की जितनी भी प्रतिनिधि संस्थाएँ हैं: विद्वत्परिषद्, शास्त्रिपरिषद्, महासभा, महासमिति आदि, सभी से मेरा निवेदन है कि वे इस प्रकरण की शीघ्रातिशीघ्र जाँच-पड़ताल कर तथ्य को समाज के सामने लाने की कृपा करें, ताकि समाज निर्दोष सदोष व्यक्तियों के साथ यथायोग्य व्यवहार कर सके और निर्मल जिनशासन के मलिनीकरण पर रोक लगे। रतनचन्द्र जैन सूचना संपादक- कार्यालय का नया पता 1 जनवरी, 2003 से संपादक-कार्यालय का स्थान परिवर्तित हो गया है। अब कृपया निम्नलिखित पते पर पत्रव्यवहार करेंए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462016 दूरभाष 0755-2424666 4 जनवरी 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524269
Book TitleJinabhashita 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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