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________________ प्रतिमा विज्ञान और उसके लाभ मुनि श्री निर्णय सागरजी जैन धर्म में मुनि और श्रावक दोनों को मोक्षपथ का पथिक | आते हैं। प्रतिमा विज्ञान के संदर्भ में चर्चा करते रहते हैं। उसी कहा है। मुनिराज पूर्ण रूप से मोक्ष की ओर बढ़ते हैं। तो श्रावक | संदर्भ में नीचे एक मुनि और श्रावक का संवाद प्रस्तुत है। उनके पीछे-पीछे मोक्ष की ओर अपने कदम बढ़ाते चलता है। श्रावक- हे स्वामिन् ! नामेस्तु श्रावक घर में रहकर प्रतिपल यही भावना करता है कि वह धन्य मुनि- धर्म वृद्धिरस्तु (हाथ से आशीर्वाद देते हुए) भाग्य, धन्य घड़ी कब आवेगी जब मैं घर त्याग कर मुनिपद श्रावक- धन्य है आप, महान् मुनिपद को प्राप्त किया है। अंगीकार करूँगा। किन्तु अपनी शक्ति की कमी के कारण मुनिव्रत हम तो गृहस्थी की कीचड़ में लिप्त हैं, पापी हैं, हमको कहाँ धर्म का संकल्प नहीं ले पाता है। किन्तु घर में ही पंचेन्द्रियों के विषयों का सौभाग्य। से उदासीन रहता हुआ, धर्माराधना करता है। किसी किसी में मुनि - ऐसा नहीं, आप भी गृहस्थी में रहकर धर्म कर मुनिव्रत धारण की कमी देखकर सर्वज्ञ भगवान्, मुनि धर्म के बाद | सकते हैं। आचार्यों ने चांडाल (शूद्र) को भी धर्मात्मा बना दिया है। श्रावक धर्म का उपदेश देते हैं। उन्हीं सर्वज्ञ भगवान् की वाणी को श्रावक- तो हम भी धर्मात्मा हो सकते हैं। सुनकर गणधर परमेष्ठियों ने, आचार्यों ने शास्त्रों में प्रतिमा विज्ञान मुनि- क्यों नहीं, अवश्य हो सकते हैं। श्रावक घर में के रूप में श्रावक धर्म का वर्णन किया है। वास्तव में श्रावक धर्म रहकर भी 10वीं प्रतिमा का अच्छे से पालन कर सकता है। के कर्ता महान मेधा (बुद्धि) के धारक थे। जिन्होंने कम से कम श्रावक- यह प्रतिमाएँ क्या होती हैं? शक्तिमान श्रावकों को महान् मुनि पद की ऊँचाईयों को सरलता से मुनि- एक देश पापों को त्याग कर जो संयम धारण किया प्राप्त कराने के लिए प्रतिमाओं की व्यवस्था बनाई है, शास्त्रों में जाता है, वह प्रतिमा या श्रावक की कक्षा कहलाती है। इनकी श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ कही हैं संख्या ग्यारह हैं। दसणवय समाइच पोसह सचित्त रायभत्तेय। कहा भी हैबभारंभपरिग्गह अणुमणुमुद्दिट्ट देसविरदेदे॥ संयम अंश जगो जहाँ, भोग अरुचि परिणाम। अर्थात्-दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित त्याग, रात्रि उदय प्रतिज्ञा का भयो, प्रतिमा ताको नाम । भोजन त्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग, अर्थात्- जिसकी भोगों में रुचि नहीं है, आंशिक रूप से उद्दिष्ट त्याग यह श्रावक के ग्यारह स्थान (प्रतिमा) कहे गये हैं। पापों के त्याग की प्रतिज्ञा ले लेता है, उस प्रतिज्ञा को प्रतिमा कहते हैं। जैसे लौकिक जगत में बच्चों की बारह कक्षायें होती हैं फिर श्रावक- क्या एक साथ ग्यारह प्रतिमा धारण कर सकते हैं? कॉलेज और फिर कॉलेज से छुट्टी हो जाती है। वैसे ही मोक्ष मार्ग मुनि- एक साथ ग्यारह प्रतिमा अर्थात् क्षुल्लक, ऐलक पद में ग्यारह प्रतिमाएँ और ग्यारहवीं प्रतिमा के दो भेद ऐलक, क्षुल्लक | भी ले सकते हैं। किन्तु शक्ति हमारे पास उससे कम है तो एक से इस प्रकार बारह यह कक्षायें होती हैं। इनके ऊपर मुनि, जब मुनि | लेकर जितनी प्रतिमाएँ लेना हो, ले सकते हैं। आगे-आगे की केवल ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तब कुछ समय बाद मुनि मोक्ष चले | प्रतिमाओं में पूर्व की प्रतिमा का पालन करना आवश्यक है। जाते हैं । मुनिपद से भी छुट्टी हो जाती है। श्रावक- आर्यिका माताजी की कितनी प्रतिमा होती है? हमारे यहाँ कुछ श्रावक तो प्रतिमा के अनुरूप आचरण भी | मुनि- आर्यिका, आर्यिका होती है। उनके प्रतिमा रूप व्रत करते हैं पर प्रतिमा रूप संकल्प लेने से डरते हैं। उन्हें सही ज्ञान न नहीं होते हैं। होने के कारण भय रहता है कि प्रतिमा बहुत भारी कार्य होगा। श्रावक- महाराज जी कितनी प्रतिमा से शुद्ध आहार दूसरी तरफ कुछ श्रावक भोले होते हैं वह किसी के भी पास करना होता है। जाकर प्रतिमा धारण कर लेते हैं। पर वह यह नहीं जानते हैं कि मुनि- शुद्ध आहार तो सामान्य प्रत्येक जैनी व्यक्ति को प्रतिमा का स्वरूप क्या है, प्रतिमाओं का किस प्रकार पालन किया | करना चाहिए क्योंकि अशुद्ध अर्थात् अमर्यादित आहार करने से जाता है। ऐसी स्थिति में दोनों ही प्रकार के श्रावक सही लाभ से त्रस जीवों की हिंसा होती है। मर्यादा के बाहर के पदार्थों में सूक्ष्म वंचित रहते हैं। किन्तु कुछ विवेकी श्रावक प्रतिमा ग्रहण करने के सम्मूर्च्छन त्रस जीवों की हिंसा होती है। मर्यादा के बाहर के पूर्व ही अनुभवी लोगों से सलाह लेते हैं। प्रतिमाओं का स्वरूप, व पदार्थों में सूक्ष्म सम्मूर्च्छन त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। फिर भी उनके पालन की विधि का ज्ञान करते हैं। यदि उनकी शक्ति होती | कम से कम प्रतिमाधारियों को तो शुद्धि का आहार करना ही है, तो शक्ति अनुसार प्रतिमाएँ ग्रहण कर लेते हैं। यदि शक्ति नहीं | चाहिए। होती तो प्रतिमा के व्रत नहीं लेते हैं। बहुत लोग हमारे पास भी श्रावक- हेंडपंप का पानी ले सकते हैं? -जनवरी 2003 जिनभाषित 5 श्रा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524269
Book TitleJinabhashita 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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