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सम्पादकीय
जिनशासन-भक्तों के लिए गम्भीरता से चिन्तनीय
प्रसिद्ध साप्ताहिक 'जैन गजट' (19 दिसम्बर, 2002) के सम्पादकीय में माननीय प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी जैन ने कुछ जैन साधुओं और ब्रह्मचारियों की जिनशासन को सार्वजनिकरूप से बदनाम करनेवाली अविचारित कुचेष्टाओं पर गहन खेद व्यक्त किया है। वे लिखते हैं
"एक आचार्य महाराज के विरुद्ध एक बहुरंगी पोस्टर हजारों की संख्या में छपाया गया है और उन्हें उत्तर भारत के जैन मन्दिरों,धर्मशालाओं तथा गली-चौराहों पर चिपकाया जा रहा है। पोस्टर की भाषा को पढ़कर शर्म को भी शर्म आने लगती है। पोस्टर पर नाम तो केवल एक ब्रह्मचारी का है, किन्तु यथार्थ में उसके पीछे असन्तुष्टों का एक पूरा ग्रूप काम कर रहा है। जो भी इसके पीछे हैं, वे कहने को तो विरक्त या विरागी हैं, किन्तु उनके भीतर का राग-द्वेष अभी गया नहीं है। अपने प्रति विगत में हुए व्यवहार का बदला लेने पर वे उतारू हैं और इसके लिए यह भद्दा तरीका अपना रहे हैं। संघ के शुद्धीकरण के नाम पर समाज में अशुद्धि फैलाने का हक किसी को नहीं है। अपनी साख जमाने के लिए किसी दूसरे की साख को उजाड़ने का यह तरीका सम्यक् मार्ग से उनके स्वयं के भटकाव का परिचायक है। हमारा और सभी धर्मानुरागियों का मन इससे क्षुभित हुआ है।"
"पोस्टर में लगाए गये आरोपों के बारे में न तो हम कुछ जानते हैं और न जानना ही चाहते हैं। जिन बातों को बन्द कमरे में बैठकर करने में भी संकोच होता है, उन्हें चौराहों की चर्चा का विषय बनाना तो बेहयापन है। धर्म-साधना करने वालों को धर्म की विराधना का कार्य नहीं करना चाहिए। आरोप लगानेवाले भी कभी उसी संघ के अंग थे। संघ में रहकर प्रतिकार करने का साहस क्यों नहीं जुटा सके? अब संघ से बाहर आकर तीर चलाना तो हमारी दृष्टि में कायरता ही है। अपने भीतर की भड़ास निकालने का जो तरीका उन्होंने अपनाया है, वह बेहद कुत्सित है और हम उसकी निन्दा करते
"हम आचार्य महाराज को भी कोई क्लीन चिट देने नहीं जा रहे हैं। उनके व्यक्तित्व में भी कुछ कमियाँ तो हैं, जिनकी वजह से उनके ही द्वारा दीक्षित शिष्य उनसे असन्तुष्ट होते रहते हैं। संघ में अनुशासन रखने का उनका तरीका कुछ ज्यादा ही कठोर और अव्यावहारिक है। आचार्य की एक आँख से यदि कठोरता टपकती हो तो दूसरी आँख में वात्सल्य भी झलकना चाहिए। अनुशासन और प्रताड़ना दो अलग-अलग वस्तुयें हैं। अनुशासन के नाम पर शिष्यों को प्रताड़ित करने से ही कभी-कभी इस तरह के विस्फोट सामने आते हैं। इसमें सुधार अपेक्षित है।"
प्राचार्य जी के विचारों से मैं पूर्णतः सहमत हूँ और उक्त कुकृत्य से उनके मर्म को जो पीड़ा पहुँची है, निश्चय ही वह प्रत्येक जिनशासनभक्त को पहुँची होगी। मेरा हृदय भी उससे आहत है और मैं भी उक्त कुत्सित कृत्य की निन्दा करता
गुरुओं के किसी व्यवहार से किन्हीं शिष्यों का असन्तुष्ट हो जाना स्वाभाविक है, किन्तु गुरु से बदलना लेने का विचार भी मन में आना किसी मोक्षाभिलाषी का लक्षण नहीं हो सकता। किन्तु जब कोई शिष्य ऐसा करने लगे और वह भी गुरु के चरित्र पर अश्लील आरोपों की बौछार करनेवाले बहुरंगी पोस्टरों को मन्दिरों, धर्मशालाओं, बाजारों और गली-चौराहों पर चिपकाकर, तब उस शिष्य का मोक्षाभिलाषी होना तो दूर, वह जिनशासन का अनुयायी भी नहीं हो सकता, प्रत्युत वह उसका शत्रु ही है। क्योंकि उसका ऐसा कुकृत्य अन्ततः जिनशासन को सरेआम कलंकित करने का हेतु बनता है।
उक्त ब्रह्मचारी ने अपने गुरु पर अश्लील आरोपों की बौछार करनेवाले पोस्टरों को सार्वजनिक स्थानों पर चिपका कर जैनेतर समुदाय में एक दिगम्बर जैन मुनि की क्या छवि बनाई होगी, यह कल्पना कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं, हृदय उसकी विमूढ़ता, अदूरदर्शिता और तीव्रकषायान्धता से सन्ताप के आँसू बहाने लगता है।
यदि कोई साधु वास्तव में मार्गच्युत हो जाता है, तो उसे मार्गस्थित करना प्रत्येक साधु एवं श्रावक का कर्तव्य है। इस पर भी यदि वह मार्गस्थित होने में रुचि नहीं दर्शाता, तो यह बात गोपनीयतापूर्वक समाज के प्रतिनिधि-पुरुषों की दृष्टि
-जनवरी 2003 जिनभाषित 3
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