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________________ जीवन में गुरु चुनना पर हाँ सोच समझ के । 1 गुरु किन्तु चुनना और जिसे चुनो उसे ही गुनना संकट और संपत में सुख और दुख में सत्कार और तिरस्कार में न भूलना न झूलना फिर किसी अन्य में । क्योंकि गुरु अनेक नहीं एक होते है तभी हम नेक होते हैं। समर्पण जीवन फिर वह हमारा नहीं उनका होता है क्योंकि शिष्य हम उनके होते हैं गुरु की राह होते है चलने के लिए लाठी अंगुली प्रकाश और आँख होते हैं. जिनके सहारे हम चलते हैं। अपनी यात्रा करते हैं, अपनी सारी उलझनें उन पर उड़ेलकर हलके होते हैं उनकी राह पर चल प्रसन्न होते हैं वे उन्नायक हमारे जीवन के सहारे होते Jain Education International डॉ. सन्मति ठोले जैन मंदिर के सामने, राजा बाजार औरंगाबाद- 431001 ( महाराष्ट्र ) "तीर्थ अंकुर सिंधु-विद्या" ज्ञानमाला जैन, भोपाल सुयुग स्रष्टा तपोनिधिको नमन मैं संप्रेषती हूँ । चित्र अपलक देखती हूँ ॥ सरल, निश्छल, मधुर- स्मित, नयन द्वय वात्सल्य पूरित । साक्षात् छवि वैराग्य की, वरद कर मुद्रा सुहासित। 1 चरित तेरा पंथ मेरा, स्वप्न ऐसा देखती हूँ । चित्र तेरा देखती है ॥ चरण तेरे पड़ें जिस पथ, सम शरण पाते सभी जन । ज्ञान रत्न बटोरते हैं, चिरप्रतीक्षित भव्य जन-मन । आज पंचम काल में भी, काल- चौथा देखती हूँ। चित्र तेरा देखती हूँ | आत्मखोजी ! आत्म साधक ! आत्मा को शत वंदनायें । तीर्थ अंकुर "सिन्धु-विद्या" साध्वियों में चन्दनायें । तपोनिधि के संघ में ही, गणधरागत देखती हूँ । चित्र अपलक देखती हूँ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524269
Book TitleJinabhashita 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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