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________________ मानसिक व्यसन पं. सनत कुमार, विनोद कुमार जैन वैचारिक अपंगता, दूषित चिन्तन, अपरिपक्व बौद्धिक क्षमता | ध्यान दें और व्यक्ति की सोच समीचीन बना सकें तो हम व्यसन सोच को परिवर्तित कर मन को व्यसनों की ओर जाने को प्रेरित | मुक्त समाज बनाने में सफल होंगे। करती है। अत: विकृत विचारधारा के उद्भव को समझ कर . जल्दबाजी का व्यसन हमें विचार करने का मौका ही समीचीन चिन्तन के बहाव को दिशा देनी होगी। व्यक्ति के अन्दर | | नहीं देता, और बिना विचार किया गया कोई भी कार्य सफल नहीं अनेक विपरीततायें ऐसी हैं जो मन को दूषित करती हैं और जब होता। जल्दबाज लोगों की झोली में असफलताओं का ढेर लग मन दूषित हो जाता है तब व्यक्ति तनाव में जो जाता है जो मन, तन | जाता है। वह सफलता के अभाव में अपनी बची-खुची सोच/समझ और धन को खराब करता है, अतः हमें सबसे पहले मानसिक को भी गवाँ देता है। जल्दबाजी में व्यक्ति उद्देश्यहीन कार्य भी व्यसनों से बचना होगा। उन्हें पहचानना होगा। कुछ बिन्दु दे रहा करता चला जाता है, जिसके दुष्परिणाम को भोगता हुआ कुंठित हूँ जो व्यसन से न लगते हुए भी व्यक्ति, समाज और देश को | हो जाता है। जल्दबाजी में व्यसनी व्यक्ति तम्बाकू, गुटखा आदि न विकृत बनाते हैं। खाने की प्रतिज्ञा ले लेता है, और उसका अन्त वहीं होता है, . निन्दा मानव मन की वह विकृति है जो व्यसन रूप | जिसके आगे उसे हारकर पुन: इन्हें ग्रहण करना पड़ते है। जल्दबाजी लेते ही व्यक्ति को छिद्रान्वेषी कृतघ्न एवं संकुचित विचार धारा | के व्यसन से एक सकारात्मक सोच वाले को बचना चाहिये। वाला बना देती है। निन्दक जीवन को प्रगतिशील नहीं बना पाता, . स्वार्थपरता आज मनुष्य की पर्याय बन गई है। उसकी दृष्टि निरन्तर दूसरों के अवगुणों की खोज में रहती है। स्वार्थी व्यक्ति निरन्तर अपनी सोच को अपने निहित स्वार्थों के निन्दा करने वाले को अपने उत्थान के लिए समय नहीं होता उसे | चारों ओर ही केन्द्रित रखता है। उसका चिन्तन विस्तृत एवं गंभीर निन्दा किये बगैर चैन नहीं मिलता। निन्दा व्यक्ति को पतन की | नहीं बन पाता है। वह निरन्तर संकीर्ण मानसिकता का ही अनुसरण ओर ले जाने वाला व्यसन है। करता है। जब व्यक्ति स्वकेन्द्रित होकर कार्य करता है, तो वह . अविश्वास की भावना मस्तिष्क को असमंजस में | अपनी और समाज की उज्ज्वल छवि को समाप्त कर अनेक रखती है जिससे विचारों में स्थिरता नहीं आ पाती। विश्वास एक विषमताओं को बढ़ावा देते हैं जो हमें घातक होती हैं। स्वार्थ ऐसा गुण है जो मनोबल को सुदृढ़ बनाता है, जो हमारी सोच/चिन्तन | व्यक्ति को अधिक संचय की प्रवृत्ति की ओर ले जाकर अपने को को सकारात्मक बनाता है। अविश्वास, नफरत, कटुता और मन | दूसरों से महान दिखने का दिखावा करने वाला बना देता हैं। मुटाव को पैदा करता है जिससे समाज में दूषित वातावरण निर्मित | स्वार्थ मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देता, उसमें अनेक विकृतियाँ होता है। प्रकट दिखाई देने लगती हैं जिससे वह समाज में अलग-थलग . . . द्वेष व्यक्ति के स्वभाव में कटुता लाता है जिससे | पड़ जाता है, लेकिन क्या करें, यह सब कुछ जानते हुये भी हम शिष्टाचार/सदाचार आदि उसका साथ छोड़ देते हैं। द्वेषी व्यक्ति | स्वार्थ के व्यसन में अंधे हैं। इससे बचने के लिये हमें सर्वोदयी निरन्तर दूसरों को घृणा की दृष्टि से देखता है उपकारों, भलाइयों | चिन्तन को बढ़ावा देना होगा। एवं सहृदयता को भूलकर वह बुराइयों में फँसता चला जाता है। |.... .."हम बड़े हैं" यह विकृत सोच का प्रतीक है। ऐसी आदत व्यक्ति को कभी ऊँचे नहीं उठने देती द्वेष विवेक का | सैद्धान्तिक दृष्टि से हम सब समान हैं। गुणों की अपेक्षा कोई भी घातक होता है जो व्यक्ति को अंधकार की ओर जाने की प्रेरणा | मनुष्य कम नहीं है। अपने को बड़ा मानकर यह अपना सामाजिक देता है, जिससे उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। कद बौना कर, गौरव नष्ट कर लेता है। बड़ेपन का अहसास जीवन . ईर्ष्या/जलन व्यक्ति का वह महाव्यसन है जो उसे | के वास्तविक स्वरूप से अपरिचित रहकर अस्तित्वहीन जीवन अन्दर ही अन्दर जलाकर खोखला कर देता है। ऐसा व्यक्ति दूसरों जीता है। और अपने को छोटा मानने वाला भी इसी तरह का का विकास सहन नहीं कर पाता। दूसरों के पतन के लिये वह व्यसनी है। जो अपने को हीन/छोटा/असहाय मान कर निराशा के अपने तन, मन, धन को नष्ट करते हुये भी नहीं हिचकता। अत: | गर्त में चला जाता है। वह विस्तृत चिन्तन करने की स्थिति में नहीं मानसिक और शारीरिक क्लेश भोगता रहता है, ऐसे व्यक्ति को | रहता। इस विचारधारा की आदत से उबर नहीं पाता ओर जीवन प्राप्त कुछ नहीं होता अपितु जो पास होता है वह भी समाप्त हो | भर हीनता/कुण्ठा/दीनता जैसी मानसिक बुराईयों को भोगता रहता जाता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति अपनी आँख फोड़कर दूसरों को अपशकुन | है। यह छोटे/बड़ेपने की क्षुद्र मानसिकता से उबरने के लिये हमें करना चाहता है। इस मानसिक व्यसन के प्रभाव से वह अपना | अपने आप का मिष्पक्ष मूल्यांकन करना होगा। अपने वास्तविक हिताहित भूल जाता है ऐसे खतरनाक व्यसनों की ओर यदि हम | स्वरूप के ज्ञान से यह व्यसन हमारे ऊपर असर नहीं कर पाता। 20 जनवरी 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524269
Book TitleJinabhashita 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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