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________________ जीव का अकाल मरण : एक व्या डॉ. श्रेयांसकुमार जैन जीव का अकाल मरण भी होता है, ऐसा प्राक्तन आचार्यों । वे लोग महात्मा/सत्पुरुष कहलायें ऐसे लोगों के मन्तव्य को पुष्ट ने कहा है। भुज्यमान आयु के अपकर्षण का कथन बहुलता से | करने हेतु डॉ. हुकुमचन्द्र भारिल्ल द्वारा लिखित "क्रमबद्ध पर्याय" किया गया है। अधिकांशरूप से यह कहा गया है कि कर्मभूमिया नामक पुस्तक जब से प्रकाशित हुई तभी से विशेषरूप से लोगों तिर्यञ्च और मनुष्य अपवर्त्य आयु वाले होते हैं क्योंकि इनकी को "अकालमरण" नहीं होता है, यह मतिभ्रम हुआ है, क्योंकि भुज्यमान आयु की उदीरणा संभव है। इस पुस्तक में आचार्य प्रणीत ग्रन्थों की उपेक्षा कर क्रमबद्धपर्याय मुख्यत: आध्यात्मिक विषय के प्रतिपादक तत्त्वार्थसूत्र की सिद्धि हेतु अकालमरण का निषेध किया गया है, केवल काल नामक ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय के अन्तिम सूत्र "औपपादिक मरण को ही माना है, जो व्यवहारनय के विपरीत है। चरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः" से स्पष्ट है कि आचार्यों ने निश्चय-व्यवहार का आश्रय लेकर ही सर्वत्र उपपाद जन्म वाले देव और नारकी, चरमोत्तम देहधारी और व्याख्यान किया है, उन्होंने "अकालमरण" के विषय में जो कहा असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीव अनपवर्त्य (परिपूर्ण) आयु है, वही यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। प्राय: सभी आर्षग्रन्थों में वाले होते हैं। जो इनसे भिन्न संख्यात वर्षायुष्क कर्मभूमिया मनुष्य अकालमरण को माना गया है। और तिर्यञ्च हैं वे अपूर्ण आयु वाले भी होते हैं, उनकी आयु पूर्ण पञ्चसमवाय ही कार्यसाधक हैं, अकेले नियति से सिद्धि होने से पहिले भी क्षय हो सकती है। नहीं होने वाली है। कार्य की सिद्धि के लिए निमित्त और पुरुषार्थ सूत्र में आये हुए अनपवर्त्य शब्द के आधार पर ही आचार्य | की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। कुछ ऐसे निमित्त जीव को अकलंक देव ने लिखा है "बह्यस्योपघातनिमित्तस्य विषशस्त्रादेः | मिलते हैं, जिनके कारण भुज्यमान आयु की उदीरणा हो जाती है सति सन्निधाने ह्रासोऽपवर्त इत्युच्यते। अपवर्त्यमायुः येषां त इमे और जीव का समय से पूर्व अकाल में ही मरण हो जाता है। इसी अपवायुषः नापवायुषोऽनपवायुषः। एते औपपादिकादय को शास्त्रीय प्रमाणों सहित प्रस्तुत किया जा रहा हैउक्ता अनपवायुषाः, न हि तेषामायुषो बाह्यनिमित्तवशाद आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने अकालमरण के निम्न कारण पवर्तोऽस्ति ।" अर्थात् बाह्य कारणों के कारण आयु का ह्रास होना | बतलाये हैंअपवर्त है। बाह्य उपघात के निमित्त विष शस्त्रादि के कारण आयु विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणं संकिलेसाणं। का ह्रास होता है, वह अपवर्त है। अपवर्त आयु जिनके है, वह आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिजदे आऊ ॥25॥ अपवर्त आयु वाले हैं और जिनकी आयु का अपवर्तन नहीं होता, वे हिम अणलसलिलगुरुयर पव्वतरुरुहण पडयणमंगेहिं। देव,नारकी,चरम शरीरी और भोगभूमिया जीव अनपवर्त आयु रसविज्जोयधराणं अणयपसंगेहिं विविहेहिं ।।26।। - . वाले हैं, क्योंकि बाह्यकारणों से इनकी आयु का अपवर्तन नहीं . भावपाहुड़ होता है। - - अर्थात्- विषभक्षण से, वेदना की पीड़ा के निमित्त से, अपवर्तन शब्द का अर्थ घटना/कम होना है और अनपवर्तन | साधर क क्षय हा जान स, भय स, शस्त्रघात स, सक्लश पारणाम का अर्थ कम न होना है। आयु कर्म का अपवर्तन ही अकालमरण | से आहार तथा श्वास के निरोध से, आयु का क्षय हो जाता है और है। अर्थात् पूर्वबन्ध अनन्तर होने वाले आयकर्म का उदय होकर हिमपात से अग्नि से जलने के कारण, जल में डूबने से. बडे पर्वत उसके क्षय के कारण जो मरण होता है, उसको अकालमरण या पर चढ़कर गिरने से, बड़े वृक्ष पर चढ़कर गिरने से, शरीर का भंग अपमृत्यु कहते हैं। जो मरण आयुकर्म के पूर्वबन्ध के अनुसार | हान स, पारा आद रस क सयाग (भक्षण.) स आयु का व्युच्छद अपवर्तन के अभाव में होता है, वही स्वकाल मरण है। हो जाता है। .. शास्त्रों में स्वकालमरण और अकालमरण दोनों का व्याख्यान आचार्य शिवार्य सल्लेखना लेने वाले भव्यात्मा को संबोधन है, किन्तु नियतिवाद के पोषक एकान्तवादी विद्वानों ने पर्यायों की | करते हुए कहते है.......... नियतता को सिद्ध करने के लिए शास्त्रों में वर्णित अकालमरण [...........इय तिरिय मणुय जम्मै सुइदं उववज्झि ऊण बहुबार। जैसे विषय का निषेध करना शुरु किया। ऐसा करना मुझे सोद्देश्य अवमिच्चु महादुक्खं तिव्वं पत्तोसि तं मित्तं ।।27 ।। भग.आ. लगता है, क्योंकि लोगों को संसार, शरीर, भोगों से भयभीत न हे मित्र इस प्रकार तिर्यञ्च और मनुष्य जन्म में चिरकाल रहने की प्रेरणा और पुरुषार्थहीन बनाना उनका उद्देश्य रहा है, | तक अनेक बार उत्पन्न होकर तू अपमृत्यु के महादुःख को प्राप्त जिससे भोग विलासितां में लिस रहने वाले उन्हें बिना त्याग और हआ है। RANDITREENAME . तप के धर्मात्मा माना/जाना जाय। संसार शरीर से राग करने वाले उक्त कथन अकालमरण की मान्यता में साधक ही हैं, -जनवरी 2003 जिनभाषितः : 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524269
Book TitleJinabhashita 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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