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विध
हक दृश्य पणश्य
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________________ * नमो श्रीजैनागमाय * हर्षहृदय दपेणस्य / द्वितीय भागः। नित लेखक I शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीमज्जिनयशः सृरिजी महाराज की आज्ञा के अनुसार पन्यास श्रीकेशरमुनिजी गणि / प्रकाशक बुद्धिसागरमुनि मुर्शिदाबाद निवासी रायबहादुर मायसिंह मेघराज पुत्रवधू के तरफ से द्रव्य की सहायता से / बाबू चन्द्रमोहनदयाल मैनेजर के प्रबन्ध से ऐंग्लो-अरबिक प्रेस, नौवस्ता, लखनऊ में मुद्रित / Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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भूमिका ।
प्रिय वाचकवृन्द ! शांतमूर्ति, महातपस्वी श्रीमजिन यशः सूरिजी महाराज का जन्म संवत् १६१२ में जोधपुर नगर में हुआ था । आपका गृहस्थपने का नाम जेठमल था । आपका बाल्यावस्था से ही पूजा प्रतिक्रमण ज्ञानाभ्यास द्वारा श्रीजिनधर्म में बहुत उद्यम था और आपने अढाई, पन्द्रह, पैंतीस, इक्कावन उपास इत्यादि उग्र तपस्यायें गृहस्थावस्था में की थीं। पूज्यपाद, धर्मधुरंधर, परोपकारतत्पर, शासनरक्षक, सदुपदेशदाता, प्रातःस्मरणीय, सुसंयमी, बहुप्रसिद्ध महात्मा श्रीमन्मोहनलालजी महाराज के पास आपने अपनी २८ वर्ष की युवावस्था में, निज जन्मभूमि जोधपुर में सं० १६४० में, बड़े धूमधाम से दीक्षा ग्रहण की। तब से आपका नाम श्रीमद्यशोमुनिजी हुआ । दीक्षाग्रहण के अनंतर भी आपने अट्ठाई, पन्द्रह, मासक्षमणादि अनेक तपस्यायें, साधु अवस्था में कीं और अंग उपांग सूत्रादि श्रीजैनागम का सम्यक् प्रकार योगोद्वहन भी किया । अतएव अमदावाद नगर में श्रीदयाविमलजी महाराज प्रमुख श्रीसंघ ने आपको “पन्यास श्रीयशोमुनिजी गणि" की पदवी प्रदान की और मकसूदाबाद निवासी श्रीसंघ ने "श्रीम जिनयशः सूरिजी महाराज" यह आचार्य पद का नाम दिया । श्रीपावापुरी में जोकि श्रीमहावीर तीर्थंकर के निर्वाण -प्राप्ति के कारण अति पवित्र तीर्थभूमि है वहाँ ५३ उपवास की तपस्या पूर्वक श्रीवीरप्रभु का स्मरण करते हुए उन्हीं के ध्यान में सं० १६७० में काल करके आप देवलोक को प्राप्त हुए ।
यह हर्षहृदयदर्पण ग्रंथ मकसूदाबाद में आपकी ही आज्ञा के अनुसार लिखा गया था । इसमें श्रीहर्षमुनिजी के अनुचित लेखों के उचित उत्तर के साथ श्रीपर्युषणादि समाचारी की मीमांसा शास्त्रपाठों से दिखलाई गई है । इस ग्रंथ को मुद्रित कराके आप सज्जनवृन्दों की सेवा में समर्पण करता हूँ । इसके पाठ से सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करने में आप लोगों को सहायता मिलेगी, ऐसी आशा है । इत्यलं विद्वत्सु बुद्धिसागर मुनिः ।
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ॐ नमःपरमात्मने । श्रीपर्युषणमीमांसा गर्भित
हर्षहृदय दर्पणस्य
द्वितीय भागः।
अहं नत्वा जिन पार्श्व, पार्श्वयक्ष विभूषितम् । श्रेष्ठ वाणीप्रदां वाणी, स्मरामि हृदये निजे ॥१॥ __ अर्थ-श्री पार्श्व नामक यक्ष से विभूषित और इन्द्रादि देवताओं के पूज्य श्रीपार्श्वप्रभु तीर्थकर को नमस्कार करके उत्तम वाणी प्रदान करनेवाली सरस्वती देवी को अपने हृदय में स्मरण करता हूँ ॥१॥
श्री मोहन चरित्रेथ गच्छ निन्दादि मुदितम् । समीक्षां तस्य कुर्वे शास्त्रपाठ प्रमाणतः ॥२॥ ___ अर्थ-उत्तरार्द्ध श्रीमोहनचरित्र में हर्षमुनि जी ने गच्छ सम्बन्धी अनेक प्रकार की आक्षेप रचना से अर्थतः अपनी झूठी प्रशंसा और दूसरे की व्यर्थं निंदा रमापति पंडित द्वारा लिखवाई है, उसकी समीक्षा शास्त्रप्रमाण द्वारा मैं करता हूँ ॥२॥ __ देखिये उत्तरार्द्ध श्रीमोहनचरित्र के पृष्ठ ४१३ में लिखा है कि
गच्छदुराग्रह रहितं सहितं सत्पक्षपातेन । महितं जनता मनुते तं यान्धा नैव रागेण ॥४॥
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( २ )
अर्थ - जो लोग एक दूसरे के पक्षपात राग से अन्ध नहीं हैं वे लोग गच्छ दुराग्रह रहित और सत्पक्षपात सहित सत्पुरुषों को मान्य उसीको मानते हैं, पं० रमापति जी ! आपकी रचना से सिद्ध होता है कि हर्षमुनि जी महाराज ने उपर्युक्त श्लोक द्वारा मध्यस्थ भाव से जो अपनी मंतव्यता उपदेश द्वारा सज्जनों को बतलाई है सो तो उचित है परन्तु हर्षमुनि जी का यह उपदेश दीपक की तरह पर प्रकाश मात्र है याने दीपक पर को प्रकाश करता है किंतु उसके नीचे अँधेरा रहता है, इसी तरह देखिये यदि महात्मा हर्षमुनि जी की तपगच्छीय भक्तों में पक्षपात पूर्वक रागान्धता नहीं होती और तपगच्छ संबंधी दुराग्रह न होता तो सत्पक्षपात सहित अपने महान् पूर्वाचार्यों को पूज्य मान कर उनकी ५० दिने पर्युषण आदि शुद्ध समाचारी कराने के लिये गुरुवर्य श्री मोहनलाल जी महाराज ने हर्षमुनि जी आदि शिष्य प्रशिष्यों को जो आज्ञा दी थी उसको सहर्ष स्वीकार करते तभी उनकी गच्छनिराग्रहता तथा सत्पक्षपातसहितता और रागांध रहितता सिद्ध होती अन्यथा नहीं ।
[प्रश्न ] श्रीमोहनलाल जी महाराज का स्वर्गवास होने के अनंतर हर्षमुनि जी ने उत्तरार्द्ध श्रीमोहनचरित्र के पृष्ठ ४१६ तथा ४२० में छपवाया है कि
श्रथैवमुपदेशानंतरमुपस्थितांस्तान्सर्वानेवापृच्छत् कस्को कां कां समाचारीं संप्रतिकरोतीति — अथातः पन्यास श्रीयशोमुनि कमलमुनिभ्यां शिष्याभ्यां क्षेत्रोपरोधात्संप्रति खरतरगच्छीयां समाचारों कुर्व इतिव्याज ॥
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अर्थ-अथ ऐसे उपदेश देने के अनंतर श्री मोहनलाल जी महाराज ने अपने पास आये हुए सब शिष्यों को पूछा कि इस समय में कौन कौन शिष्य किस किम गच्छ की समाचारी करता है-पन्यास श्रीयशोमुनि जी तथा कमलमुनि जी ने कहा कि हम क्षेत्र के अनुरोध से खरतरगच्छ की समाचारी करते हैं, तो यह उक्त लेख हर्षमुनि जी ने सत्य छपवाया है कि मिथ्या ?
[उत्तर] हर्षमुनि जी ने यह उपर्युक्त लेख अपने मनः कल्पना से असत्य छपवाया है क्योंकि श्रीमोहनलाल जी महाराज ने अपने पास आये हुए १७ शिष्य प्रशिष्यों को यह उपदेश दिया था कि मेरी आज्ञा से पन्याम यशोमुनि आदि खरतरगच्छ की समाचारी करते हैं मैंने हर्षमुनि आदि को खरतरगच्छ की समाचारो करने के लिये दो तीन बेर बहुत कहा तथापि मेरी आज्ञा स्वीकार नहीं की अतएव सके समक्ष तुम लोगों से यह कहता हूँ कि मेरी आज्ञा पालन करने के लिये तुम लोग ५० दिने पर्युषण आदि शास्त्रमम्मत खरतरगच्छ की शुद्ध समाचारी करना कबूल करा इत्यादि उपदेश देने पर जिन शिष्य पशिष्यों ने श्री गुरु महाराज की उक्त आज्ञा का पालन और उत्थापन (उल्लंघन) किया मो इर्षमुनि जी ने उत्तरार्द्ध श्रीमोहनचरित्र के पृष्ठ ४२० में इस तरह छपवाया है कि
ऋद्धिमुनिप्रभृतिभिस्त्रिभिर्यशोमुनिमनुकर्तुमिच्छाम इतिकथितम् । ___ अर्थ-ऋद्धिमुनि जी आदि तीन मुनियों ने याने ऋद्धिमुनि जी, रनमुनि जी, भावमुनि जी तथा उपर्युक्त कमलमुनि जी और चीमनमुनि जी ने कहा कि हम लोग आपकी आज्ञा
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पालनी स्वीकार करते हैं याने श्री यशोमुनि जी का अनुकरण द्वारा खरतरगच्छ की क्रिया करने की इच्छा रखते हैं ।
पन्यास श्री हर्षमुनि कान्तिमुनि देवमुनिभिः शिष्यैरादितोंगीकृतया तपागच्छीय समाचार्या भवन्त मनुकुम इत्युदितम् ॥ ___ भावार्थ-पन्यास श्री हर्षमुनि, कान्तिमुनि, देवमुनि शिष्यों ने गुरु महाराज को उत्तर दिया कि हम लोग प्रथम से अंगीकार की हुई तपगच्छ की समाचारी द्वारा आपका अनुकरण करते हैं याने आप हम लोगों को खरतरगच्छ की समाचारी करने के लिये आग्रह करते हैं परन्तु हम लोग आपकी आज्ञा का अनुकरण (पालन) नहीं करेंगे अर्थात् ५० दिने पर्युषण आदि शास्त्र सम्मत खरतरगच्छ की समाचारी नहीं करेंगे किंतु सिद्धांत विरुद्ध ८० दिने वा दूसरे भाद्रपद अधिक मास में ८० दिने पर्युषण आदि तपगच्छ की समाचारी करेंगे और ७० दिने प्रथम कार्तिक मास में कार्तिक चातुर्मासिक प्रतिक्रमण नहीं करेंगे किंतु दूसरे कार्तिक अधिक मास में १०० दिने करेंगे इत्यादि तपगच्छ की समाचारी करने का दुराग्रह प्रकाश किया है और करते हैं अस्तु___कल्याणमुनि पद्ममुनि क्षमामुनि शुभमुनि प्रभृतिभिर्बहुभिर्हर्षमुनिरस्माकं शरण मित्युक्तं ॥ ___ भावार्थ-कल्याणमुनि, पद्ममुनि, नमामुनि, शुभमुनि आदि कई एक प्रशिष्यों ने उत्तर में कहा कि हम लोगों को तो हर्षमुनि का ही शरण है याने हर्षमुनि जी की तरह तपगच्छ की समाचारी करेंगे यह उत्तर दिया अतएव इन लोगों ने भी शास्त्रसम्मत
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श्री
जनत्वा वालिमोरजोपाजावादास पत्र नातधारणतर्गबमेऽपागाइकाको समावारिकोनाला नसोचमकरो तो चाहेमरनिह श्रीहमारीखुसि सेकानिारवाहजादारकलपनर नासा 15 मिाकाबाड़ा
( वं ) वम्बद से (लि ) लिस्वी (मो ) मोहन (जो ) जोधपुरमे (प) पन्यास ( ज ) जश मुनि ( 5 ) अनु (वं ) वंदना ( वं ) वंचना ।
PRINTED BY U. RAY & SONS.
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खरतरगच्छ की समाचारी करने के लिये उक्त गुरु महाराज की आज्ञा को उत्थापन (उलंघन) किया लीजिये पं० रमापति जी ! आप ही के लेख द्वारा स्पष्ट सिद्ध हो गया कि हर्षमुनि जी तपागच्छीय श्रावक समुदाय के पक्षपात से अवश्य ही रागान्ध हैं अतएव खरतरगच्छ सम्बन्धी शुद्ध समाचारी करने के लिये गुरु महाराज की आज्ञा का उत्थापन (उल्लंघन) किया । और भी देखिये कि श्री मोहनलाल जी महाराज ने प्रथम बंबई में हर्षमुनि जी आदि को खरतरगच्छ की समाचारी करने के वास्ते आज्ञा दी उसको प्रमाण नहीं किया । इसीलिये पन्यास श्री यशोमुनि जी को उक्त गुरु महाराज ने पत्र भेजा उसमें लिखा कि खरतरगच्छ में अपने यहाँ कोई समाचारी करनेवाला है नहीं सो तुम करो तो अच्छा है हम राजी हैं हमारी खुसी से प्राज्ञा लिखी है इत्यादि, उस पत्र संबंधी (फोटो) ब्लोक पत्र यह है। म
इस पत्र को बाँचकर बुद्धिमान् स्वयं समझ सकते है कि महात्मा श्री मोहनलाल जी के अंतःकरण में श्रद्धा खरतरगच्छ समाचारी की थी इसीलिये पन्यारा श्री यशोमुनि जी आदि ने अपने गुरु महाराज की पत्र आज्ञा को स्वीकार करके शास्त्रसम्मत खरतरगच्छ की समाचारी अंगीकार की है और गुरु महाराज के पास में रहे हुए हर्षमुनि जी आदि शिष्यों ने गुरु श्री मोहनलाल जी महाराज की आज्ञा का उल्लंघन करके उनकी संमति विना अपनी इच्छानुसार तथा सूरत बंबई आदि क्षेत्रानुरोधमान प्रतिष्ठा शिष्यादि लाभ इत्यादि विचार द्वारा सिद्धांत विरुद्ध ८० दिने पर्युषण आदि तपगच्छ की समाचारी करनी रक्खी है परंतु यह शास्त्र तथा गुरु आज्ञा विरुद्ध समाचारी करनी हर्षमुनि जी आदि को सर्वथा अनुचित है क्योंकि गुरु महाराज की समाचारी का ख्याल न करके उनकी आज्ञा से उनके महान् पूर्वज गुरु महाराजों की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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शास्त्रसंमत ५० दिने पर्युषण आदि शुद्ध समाचारी विनीत शिष्यों को धारण करना सर्वथा उचित है । दृष्टान्त, जैसे महात्मा श्रीबुटेराय जी महाराज के पूर्वजों की समाचारी दोनों कानों में मुखवस्त्रिका धारण करके व्याख्यान देने की थी उसको उक्त महात्मा जी ने केवल पंजाब आदि क्षेत्रों में अपनी प्रतिष्ठा सत्कार आदि न होने के कारण से भद्रीकभाव तथा सरलचित्त की अपेक्षा से उक्त समाचारी को त्याग कर दिया परंतु उनके विनीत शिष्य श्रीनीतिविजय जी आदि ने गुरु महाराज की नूतन आचरणा को कदाग्रह से नहीं ग्रहण किया किन्तु अपने गुरु महाराज के महान् पूर्वजों की शुद्ध समाचारी जो मुखवस्त्रिका बाँध के व्याख्यान देने की थी उसीको धारण किया
[प्रश्न] इस पुस्तक में श्रीमोहनलाल जी महाराज के दो हस्ताक्षर पत्रों से स्पष्ट मालूम होता है कि-श्री मोहनलाल जी महाराज को अपना खरतरगच्छ में आग्रह था इसीलिये शास्त्रसंमत अपने खरतरगच्छ की समानारी पन्यास श्री यशोमुनि जी
आदि शिष्य प्रशिष्यों को करवा कर श्री मोहनलाल जी महाराज ने संघ में वा अपने संघाड़े में यह भेद पाड़ा है परंतु इसमें उक्त गुरु महाराज का किंचित् भी दोष नहीं है किंतु हर्षमुनि जी आदि शिष्यों ने शास्त्रसंमत खरतरगच्छ की समाचारी करने की गुरु आज्ञा को नहीं माना वही गुरुआज्ञा उल्लंघन करने रूप हर्षमुनि जी आदि का महादोष है तथापि हर्षमुनि जी ने श्रीमोहनचारित्र के पृष्ठ ४१४ में छपवाया है किगच्छोऽयकंमदीयो, वर्दयितव्यः कथंचिदयमेव । इत्याग्रहवशतोयो, भिनत्तिसंघसनोसाधुः॥४१॥ __अर्थ-आमारो गच्छ छे एने गमे ते रीते पण वधारवोज
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जोइए एवा आग्रह थी जे संघमां भेद पाड़छे ते साधु नहीं ॥४१॥ इस लेख में “संघमां भेद पाड़े छे ते साधु नहीं" यह आक्षेप लेख जो लिखा है सो उचित है या अनुचित ?
[उत्तर] हर्षमुनिजी ने श्रीमोहनचरित्र में यह उपर्युक्त आक्षेप लेख बहुत ही अनुचित छपवाया है क्योंकि श्रीगुरु महाराज की आज्ञा थी इसीलिये शास्त्रसंमत स्वगच्छ समाचारी करने में गुरु और शिष्य प्रशिष्यों को किंचित् भी दोषापत्ति नहीं आ सकती है, किंतु शास्त्रसंमत गुरु महाराज की आज्ञा जो नहीं माने वही दोष का भागी होता है।
[प्रश्न हर्षमुनिजी ने प्रथम पायचंदगच्छ में श्रीभाईचंदजी के पास दीक्षा ग्रहण की थी कितनेक दिनों के बाद उस गच्छ को और उन गुरू को त्याग कर विशेष सत्कार के लिये श्रीमोहनलाल जी महाराज के शिष्य बन कर खरतरगच्छ में हर्षमुनि जी आए और कितनेक दिन खरतरगच्छ की समानारी की थी तथापि हर्षमुनिजी ने श्रीमोहनचरित्र के उक्त पृष्ठ में छपवाया है किएतस्य च परिहाणे ग्रहणे चैतस्य भाविनी पूजा । इतिबुद्ध्यागच्छांतर, मंगीकुरुते स नो साधुः ॥४२॥
अर्थ-आगच्छनो हूँ त्याग करूँ अने बीजा गच्छनो स्वीकार करूँ तो मारो सत्कार सारो थशे एम धारी जे बीजा गच्छमां जागळे ते साधु नहिं ॥ ४२ ॥ यह लेख उचित छपवाया है कि अनुचित ?
उत्तर] हमारी समझ मूजिव तो हर्षमुनिजी ने यह उक्त लेख भी बहुत ही अनुचित छपवाया है तथापि हर्षमुनि जी को पूछना चाहिये कि आप पायचंदगच्छ को त्याग कर खरतरगच्छ
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( ८ )
में आए और अच्छे सत्कार के लिये तपगच्छ की समाचारी गुरु आज्ञा को लोप करके करते हैं तो आपके ही उक्त लेख से संशय होता है कि तुम साधु हो या नहीं ।
[प्रश्न ] हर्षमुनिजी ने श्री मोहनचरित्र के पृष्ठ ४१४ मेंगच्छोsयकं मदीयो इत्यादि भिनत्ति संघ स नो साधुः । ४१ ।
मारो गच्छ इत्यादि आग्रह थी जे संघमां भेद पाड़ेळे ते साधु नहिं ॥ ४१ ॥ गच्छांतर मंगीकुरुते स नो साधुः ॥ ४२ ॥ मारो सत्कार सारो थशे एम धारी जे बीजा गच्छमां जायछे ते साधु नहिं । यह सर्वथा अनुचित निंदा छपवा कर फिर नीचे उसी पृष्ठ में छपवाया है कि
परकीयगच्छकुत्सा करणेनात्मीयगच्छपरिपुष्टिः । श्रद्धाश्चयेऽत्रतेषां मय्यनुरक्तिर्भवेत्सदास्थाम्नी ४३ ॥ इत्यांतर कौटिल्या, दभिभूतो निरयसेवको भवति । पूज्योऽपि दुर्जनानां, निंद्यः सज्ज्ञानगोष्ठीषु ॥ ४४ ॥
"
अर्थ - बीजाना गच्छनी निंदाकरवाथी मारा गच्छनी पुष्टि थशे अने आगच्छना श्रावकोनो पण मारा ऊपर स्थिर प्रेम थशे एव अंत:करणानी कुटिलता वालो नरकने सेवनास्थाय छे अर्थात् नरकमां जायछे अने जो के दुर्जनो ते ने पूजे छे तो पण सत्पुरुषोनी ज्ञानगोष्टीमां तो ते निंदाने पात्र थायछे – ४३ । ४४ । हर्षमुनिजी ने अपना यह उक्त मंतव्य उचित छपवाया है कि अनुचित ?
[उत्तर] अनुचित, क्योंकि श्रीमोहनलाल जी महाराज अपने हस्ताक्षर के प्रथम पत्र तथा दूसरे पत्र में सिद्धांत संमत स्वखरतरगच्छ समाचारी मंतव्य में अपना पक्षपात दिखला कर ८० दिने सिद्धांत - विरुद्ध तपगच्छ की पर्युषण समाचारी और तिथि
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मंतव्य में पक्षपात नहीं है यह उचित मंतव्य लिख बतलाया है
और हर्षमुनि जी ने तो श्रीगुरु महाराज की आज्ञा से शास्त्रानुकूल समाचारी करने कराने वालों की साधु नहिं इत्यादि झूठी निंदा और शास्त्र तथा गुरु आज्ञा प्रतिकूल समाचारी करने वालों की दोष लागतो नथी इत्यादि असत्य प्रशंसा और इस प्रकार की निंदादि अंतःकरण की कुटिलता से नरक के सेवक
और भक्तों को दुर्जन तथा आप निंदा के पात्र यह सर्व अनुचित मंतव्य छपवाया है । अस्तु, परंतु स्वपरहित के लिये शास्त्र पाठों के अनुसार तथा श्रीगुरु महाराज के पत्रों के अनुसार सत्यासत्य मंतव्य दिखलाने वालों को निंदा आदि दोषापत्ति नहीं आ सकती है किंतु शास्त्रसंमत स्वगच्छ समाचारी श्री गुरु महाराज की आज्ञा से नहीं करें याने श्री गुरु महाराज का
आज्ञा (वचन) को लोपे वह दोष का भागी होता है-प्रमाण भीमसिंह मांणक ने छपाये हुए तीसरे भाग में यथाछट्टम दसम दुवालसेहि, मासद्धमासखमणेहिं ॥ अकरंतो गुरुवयणं, अणंत संसारियो भणियो ॥१॥
अर्थ छठ अठम दशम द्वादशम मास अर्द्धमास खमण करके उग्र तपस्या शिष्य करता है परंतु श्री गुरु महाराज के वचन (आज्ञा) को नहीं करें याने गुरु की आज्ञा लोपे वह अनंत संसारी होता है इसीलिये श्रीगुरु महाराज की आज्ञा तथा शास्त्र की
आज्ञा के अनुसार स्वगच्छ समाचारी करने कराने और बताने वाले गुरु शिष्य प्रशिष्यादि को कुछ भी दोषापत्ति नहीं
आती हैं तथापि हर्षमुनि जी ने श्रीमोहनचरित्र के उक्त पृष्ठ में द्वेषभाव के अत्यंत निंदा के आक्षेप वचन जो छपवाये हैं सो अनुचित हैं।
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( १० )
[प्रश्न ] श्रीमोहनचरित्र के पृष्ठ ४१४ में हर्षमुनि जी ने छपवाया है कि
" गच्छांतरमप्यंगी कुर्वन्नो लिप्यतेदोषैः ॥ ४५ ॥
अन्य गच्छनी समाचारी [ याने १३ त्रयोदशी तिथि में पाक्षिक या चातुर्मासिक प्रतिक्रमण और ८० दिने वा दूसरे भाद्रपद अधिक मास में ८० दिने पर्युषण पर्व इत्यादि तपगच्छ की समाचारी ] अंगीकार करवी पड़े परंतु जे मध्यस्थ रहे अर्थात् पक्षपात करे नहीं तो तेने दोष लागतो नथी । ४५ । यह कथन सत्य लिखा है कि असत्य ?
[उत्तर] दोष लागतो नथी यह कथन सिद्धांत विरुद्ध पक्षपात के कदाग्रह से असत्य लिखा है क्योंकि हर्षमुनि जी ने [गच्छांतर मंगीकुरुते स नो साधुः । ४२ ।] इस वाक्य से साधु नहीं यह प्रथम ही बड़ा दोष लिख दिखलाया है और [ पक्षपात करे नहीं तो तेने दोष लागतो नथी ] इस वाक्य से हर्षमुनि जी आदि पक्षपात करे तो दोष अवश्य लगे यह बात भी सिद्ध होती है— देखिये कि - हर्षमुनि जी आदि को सिद्धांत विरुद्ध ८० दिने पर्युषण यदि तपगच्छ की समाचारी करने में किसी प्रकार से पक्षपात नहीं होता तो सिद्धांत संमत ५० दिने पर्युषण आदि खरतरगच्छ की समाचारी अंगीकार करने में गुरु श्री मोहनलाल जी महाराज की आज्ञा का भंग या लोप नहीं करते इसी लिये श्री गुरु आज्ञा तथा शास्त्र आज्ञा के प्रतिकूल ८० दिने पर्युषण आदि पगच्छ की समाचारी के पक्षपात से हर्षमुनि जी आदि दोष के भागी अवश्य होते हैं वास्ते उस पक्षपात को त्याग कर शास्त्र संमत खरतरगच्छ की समाचारी अंगीकार करना उचित है क्योंकि -
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( ११ ) वासाणं सवीसए राय मासे वइकंते वासावासं पज्जोसवेमो अंतराविय से कप्पइ नो से कप्पइ तं रयणिं उवायणावित्तए ।
इत्यादि जैन सिद्धांतों के पाठानुसार आषाढ़ सुदि १४ या १५ को चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करने के बाद वर्षा काल के २० रात्रि सहित ? मास अर्थात् ५० दिन बीतने पर वर्षा वाप्त के श्रीपर्युषण पर्व श्री पूर्वाचार्य महाराज करते थे और ५० दिन के अंदर भी पर्युषण करने कल्पते है किंतु ५० में दिन की रात्रि को पर्युषण किये विना उल्लंघनी कल्पती नहीं है इसी लिये इस शास्त्र आज्ञा का भंग नहीं करने के वास्ते श्रीकालकाचार्य महाराज ने मध्यस्थ भाव से और शालीवाहन राजा के कहने से ५१ दिने या ८० दिने सिद्धांत विरुद्ध पर्युषण नहीं किये किंतु ४६ दिने किये हैं और भी देखिये कि मास वृद्धि नहीं होने से चंद्रवर्ष संबंधी ५० दिने पर्युषण और ७० दिन शेष रहने का समवायांग सूत्र वाक्य के ज्ञाता तथा पुस्तक पर कल्पसूत्रादि आगम उद्धार कर्ता श्री देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण जी महाराज ने उपर्युक्त श्री पर्युषण कल्पसूत्र के पाठ में नोसे कप्पद इत्यादि वचनों से तथा टीकाकारों ने न कल्पते इस वचन से और अभिवर्द्धितवर्षे इत्यादि पंचाशतैवदिनैः पर्युषण युक्ते तिवृद्धाः । इन वाक्यों से अभिवर्द्धित वर्ष में ५० दिने श्री पर्युषण पर्व करने युक्त हैं ऐमा श्री वृद्ध पूर्वाचार्य महाराजों के वचन है और ५० में दिन की पंचमी या चौथ की रात्रि को सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि श्री पर्युषण कृत्य किये विना उलंघनी कल्पती नहीं हैं यह साफ लिखा है वास्ते शास्त्र आज्ञा भंग दोष के कारण १३ तिथि में पाक्षिक या चातुर्मासिक प्रतिक्रमण
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( १२ )
तथा ८० दिने या दूसरे भाद्रपद अधिक मास में ८० दिने उक्त सिद्धांत पाठ विरुद्ध पर्युषण पर्व और १०० दिने दूसरे कार्त्तिक अधिक मास में कार्त्तिक चातुर्मासिक प्रतिक्रमण कृत्यादि तपगच्छ की समाचारी का श्री मोहनलाल जी महाराज को पक्षपात नहीं था । इसी लिये उन महात्मा ने पन्याम श्री यशोमुनि जी आदि शिष्य प्रशिष्यादि को शास्त्र संमत ५० दिने पर्युषण आदि खरतरगच्छ की समाचारी करादी और हर्षमुनि जी आदि को भी खरतरगच्छ की समाचारी करने की आज्ञा दी परंतु उपर्युक्त तपगच्छ की समाचारी के पक्षपात कदाग्रह से हर्षमुनि जी आदि शिष्य प्रशिष्यों ने खरतरगच्छ की समाचारी करने संबंधी श्रीगुरु महाराज के वचन नहीं अंगीकार किये तएव श्रीगुरु महाराज की आज्ञा भंग दोष के भागी तथा उपर्युक्त शास्त्र पठों की आज्ञा भंग दोष के भागी हर्षमुनि जी आदि हैं, यदि शास्त्रसंमत इस सत्य कथन से अमिति हो तो आगमपाठों से तपगच्छ की उपर्युक्त समाचारी सत्य बतलावें अन्यथा श्रीमोहनचरित्र में आगे पृष्ठ ४१५ से ४१६ तक हर्ष मुनि जी ने तपगच्छ की समाचारी करने से अपना मान प्रतिष्ठादि स्वार्थ कदाग्रह को छुपाने के लिये पंडित रमापति की रचना द्वारा विचारांध की भाँति छपवाया है कि
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संघ में नाना भेद जो देखा जाता है वह स्वार्थ कदाग्रही लोगों का बनाया है १ " तथा तीर्थकरों के शरीर तुल्य संघ में भेद पाड़े वो जैन किस तरह हो २ " और " संघ में भेद गधे के सिंग समान हैं ३ " इत्यादि पूर्वापर उचित अनुचित छपवाकर अपना अध्यात्मिक पणा जो दिखलाया है इससे कौन बुद्धिमान् हर्षमुनिजी आदि को तपगच्छ की समाचारी करने से सत्कार मान प्रतिष्ठादि स्वार्थ कदाग्रह भेदरहित कहेगा ? क्योंकि सत्कार मान प्रतिष्ठादि स्वार्थ कदाग्रह हर्षमुनिजी आदि के अंतःकरण में नहीं
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( १३ ) होता तो गुरु श्रीमोहनलाल जी महाराज की शास्त्र संमत. ५० दिने पर्युषण आदि खरतरगच्छ की समाचारी करने संबंधी
आज्ञा का उल्लंघन कदापि नहीं करते किंतु श्रीतीर्थकर गणधर पूर्वाचार्य महाराज प्रणीत सूत्र नियुक्ति चूर्णि भाष्य टीकादि शास्त्र संमत ५० दिने पर्युषण आदि खरतरगच्छ की समाचारी करने की उक्त गुरु महाराज की आज्ञा को अंगीकार करते
और गुरु महाराज के नाम से चरित्र में उक्त अनुचित उपदेश भी नहीं छपवाते क्या लोगों को मालूम नहीं थी कि श्रीमोहनलाल जी महाराज ने अपने खरतरगच्छ की समाचारी आज्ञानुवर्ति पन्यास श्री यशोमुनि जी आदि शिष्य प्रशिष्यों को करवाई है, यह तो सभी को मालूम होगई थी तो गुरु की आज्ञा से विरुद्ध हर्षमुनि जी ने बाल जीवों को भरमाने के लिये क्यों छपवाया कि यह मेरा गच्छ है इसको बढाना ऐसे आग्रह से जो संघ में भेद पाड़े वो साधु नहीं इत्यादि स्वकपोल कल्पित महा-मिथ्या लेख से क्या लाभ उठाया ? कुछ भी नहीं ।
[प्रश्न] लोकों को हर्षमुनिजी आदि कहते हैं किचंद्रवर्ष में मास वृद्धि नहीं होती हैं इसी लिये कार्तिक पूर्णिमा पर्यंत ७० दिन शेष रहते ५० दिने पर्युषण करते हैं और ५०. दिन के अंदर भी पर्युषण करने कल्पते हैं किंतु ५०वें दिन की रात्रि को पर्युषण किये विना उल्लंघनी कल्पती नहीं हैं इस प्राज्ञानुसार आषाढ़ चतुर्मासी से ८० दिने वा दूसरे भाद्रपद अधिक मास में ८० दिने पर्युषण करने युक्त नहीं है किंतु ५० दिने प्रथम भाद्र सुदि ४ को वा ५० दिने दूसरे श्रावण सुदि ४ को पर्युषण करने संगत हैं और तपगच्छ के साधु ५० दिने दूसरे श्रावण में अंचल तथा खरतरगच्छ वालों को पर्युषण कराते हैं तथापि इस विषय में तपगच्छीय श्री आत्मारामजी के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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संप्रदाय के वल्लभविजय जी ने आज्ञाभंग दोष लागे इत्यादि सिद्धांत विरुद्ध महामिथ्या अनुचित लेख जैनपत्र में छपवाया था तथा श्रीकालकाचार्य महाराज ने शास्त्र आज्ञाभंग दोष के भय से ५१ या ८० दिने पर्युषण नहीं किये किंतु ४६ दिने पर्युषण किये हैं यह दृष्टांत शास्त्रोंमें और लोक में प्रसिद्ध होने पर भी श्री मोहनलाल जी महाराज का दृष्टांत द्वारा ८० दिने पर्युषण आदि तपगच्छ की समाचारी को सत्य सिद्ध करने के लिये वल्लभविजय ने जैनपत्र में छपवा कर लेख प्रसिद्ध किया था उसका उत्तर तुमने क्या छपवाया सो दिखलाइये।
[ उत्तर] श्री मोहनलाल जी महाराज ने ही अपने दूसरे हस्ताक्षर पत्र में खरतरगच्छ तथा तपगच्छ की पर्युषण आदि समाचारी विषे जो उत्तर लिखा है उस पत्रका (फोटो) ब्लोकपत्र यह दीया है बाँच लीजिये । म
इस ब्लोकपत्र से साफ मालूम होती हैं कि श्री मोहनलाल जी महाराज को शास्त्र संमत ५० दिने पर्युषण आदि खरतरगच्छ की समाचारी में सत्पक्षपात था किंतु सिद्धांत पाठ विरुद्ध ८० दिने पर्युषण आदि तपगच्छ की असत्समाचारी में पक्षपात नहीं था इससे ८० दिने पर्युषण आदि तपगच्छ की समाचारी सत्य सिद्ध नहीं हो सकती है इसी लिये प्रथम भाद्रपद में वा दूसरे श्रावण में याने ५० दिने पर्युषण करनेवालों को आज्ञाभंग दोपलागे इत्यादि वल्लभविजय जी के उत्सूत्र लेखों की मीमांसा शास्त्रीय पाठ प्रमाणों से करता हूँ और आशा है कि-वल्लभ विजयजी आदि तथा हर्षमुनि जी आदि और अन्य पाठकवर्ग सदा शास्त्रानुकूल सत्य पक्ष को अंगीकार करके कदाग्रह पत्त को त्याग देंगे।
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( १५ )
॥ श्रीपर्युषण मीमांसा॥ इष्टसिद्धिप्रदं पार्वं ध्यात्वा देवी सरस्वतीम् । श्रीपर्युषण मीमांसा क्रियते सद्धिया मया ॥१॥
अर्थ-इष्टसिद्धि को देनेवाले श्रीपार्श्व तीर्थंकर का और श्रीसरस्वती देवी का ध्यान करके समीचीन बुद्धि याने निष्पक्ष भाव से श्रीपर्युषण पर्व की मीमांसा करता हूँ ॥ १ ॥ पक्षपातो न मे गच्छे न द्वेषो वल्लभादिषु । किन्तु बालोपकाराय शास्त्रवाक्यम्प्रदर्श्यते ॥२॥
अर्थ-विचारवान् सज्जन वृन्द ! इस ग्रंथ की रचना से गच्छ संबंधी मेरा किसी प्रकार का पक्षपात नहीं है और श्रीबल्लभ विजयजी आदि में द्वेषभाव भी नहीं है किन्तु उक्त महात्मा ने अभिवति वर्ष में शास्त्रसंमत ५० दिने पर्युषण पर्व करनेवालों के प्रति आज्ञाभंग दोष आरोप करके पश्चात् जो कटु वाक्य जैनपत्र में प्रकाशित किये है उसका यथार्थ उत्तर रूप सर्वसंमत शास्त्रवाक्यों को बालजीवों के उपकारार्थ बताता हूँ ॥२॥ यथा सूत्रकृदंगादौ उत्सूत्र मत खंडनम् । तथाऽत्रापि यदुत्सूत्रं खंडयते तन्न दोषकृत् ॥३॥
अर्थ-जैसे श्रीसूयगडांग सूत्रादि ग्रंथों में अद्विाक्य विरुद्ध उत्सूत्र मत का खंडन स्वपरोपकार के लिये श्रीगणधरादि महाराजों ने किया है उसी तरह इस ग्रंथ में महात्मा श्रीवल्लभविजय जी का उपर्युक्त शास्त्रविरुद्ध उत्सूत्र कथन का आगम पाठ प्रमाणों से सूत्रादि पाठ रुचि सम्यग् दृष्टि जीवों के उपकारार्थ खंडन करता हूँ अतएव पाठकबग दोषावह न समझें ॥३॥
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( १६ ) अतः श्रीजिनवाक्येषु वः श्रद्धा चेद्यदिस्फुटा। गच्छे कदाग्रहं त्यक्त्वा गृह्यतां भगवद्वचः॥४॥
अर्थ-इस लिये आप लोगों की यदि श्रीजिनेश्वर महाराज के वचनों में स्फुट श्रद्धा हो तो गच्छ संबंधी सिद्धान्त विरुद्ध कदाग्रह को त्याग कर युक्ति युक्त श्री आगमोक्त भगवद्वचन को ग्रहण कीजिये ॥ ४॥
॥ तथाचोक्तं श्रीहरिभद्रसूरिभिः ॥ पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्ति मद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥५॥ ___ अर्थ-श्रीवीरप्रभु में मेरा पक्षपात नहीं है और कपिलादिकों में द्वेषभाव भी नहीं है किंतु जिसका वचन शास्त्रयुक्ति से संमत हो उसी का वचन ग्रहण करना उचित है ॥५॥
पाठकवर्ग ! जैनपत्र में प्रथम श्री बल्लभविजयजी का लेख इस आशय वाला था कि-बीज़ा श्रावण मासमां सुदी चौथे ५० दिने पर्युषण पर्व थायज नहीं-आज्ञाभंग दोष लागे ॥ (अर्थात गुजराती वीजा श्रावण मासमा ७३ दिने वदी १२ थी पर्युपण पर्वथाय आज्ञाभंग दोष लागे नहीं) इस झूठे मंतव्य के उत्तर में श्री वल्लभविजयजी को पत्र में लिख कर भेजे हुए शास्त्रों के ३ प्रमाण यथा
श्रीबृहत्कल्पसूत्र चूर्णिका पाठ ।
आसाढ़चउम्मासे पडिक्वन्ते पंचेहिं पंचेहिं दिवसेहिं गएहिं जत्थ जत्थ वासजोगं खेत्तं पड़िपुन्नं तत्थ तत्थ पज्जोसवेयव्वं जाव सबीसइराइ मासो ॥ १॥
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(१७) अर्थ-आषाढ़ चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किये बाद पाँच पाँच दिन व्यतीत करते जहाँ वर्षावास के योग्य क्षेत्र प्राप्त हो वहाँ पर्युषण करे यावत् एकमास और वीसदिने याने ५० दिने पर्युषण पर्व अवश्य करे ॥
श्रीपर्युषणकल्पसूत्र का पाठ । वासाणं सवीसइराए मासे विइकंते वासा वासं पज्जोसवेमो अंतराविय से कप्पइ नो से कप्पइ तं रयणी उवायणावित्तए ॥ २ ॥
अर्थ-आषाढ़चतुर्मासी से २० रात्रि सहित १ मास अर्थात् ५० दिन व्यतीत होने पर वर्षावास के निमित्त पर्युषण पर्व हम करते हैं और ५० दिन के भीतर भी पर्युषण पर्व करने कल्पते हैं परंतु पर्युषण पर्व किये विना ५० वें दिन की रात्रि को उल्लंघन करना नहीं कल्पता है । वास्ते श्रावणमास की वृद्धि होने से भाद्रपद में ८० दिने अथवा भाद्रपद मास की वृद्धि होने से अधिक दूसरे भाद्रपद में ८० दिने पर्युषण होय नहीं अाज्ञाभंग दोष अवश्य लगे इस में फरक नहीं ।
श्रीजिनपतिसूरिजीकृत समाचारी का पाठ ।
साबणे भदवए वा अहिगमासे चाउमासीयो पणासइमे दिणे पज्जोसवणा कायव्वा न असीमे ॥३॥
अर्थ-श्रावण वा भाद्रपद मास अधिक होने पर आषाढ़चतुर्मासी से ५० दिने पर्युषण पर्व करना ८० दिने नहीं ।
श्रीवल्लभविजयजी का जैनपत्र में उत्तरलेख यथा खबरदार! होओ होशियार !! करो विचार ! निकालो सार !! लेखक
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(१८) मुनिवल्लभविजय-पालणपुर, इसमें शक नहीं कि अंग्रेज सरकार के राज्य में कला कौशल्य की अधिकता हो चुकी है, हो रही है और होती रहेगी । परंतु गाम वसे वहाँ भंगी चमारादि अवश्य होते हैं तद्वत् अच्छी अच्छी बातों की होशियारी के साथ में बुरी बुरी बातों की होशियारी भी आगे ही आगे बढ़ती हुई नज़र आती है । इत्यादि अपनी होशियारी के निःसार दो लेख लिखे उसमें उत्तर लेख, बुद्धिसागरजी ! याद रखना वो प्रमाण माना जावेगा जो कि तुम्हारे गच्छ के आचार्यों से पहिले का होगा मगर तुमारे ही गच्छ के आचार्य का लेख प्रमाण न किया जावैगा जैसा कि तुमने श्रीजिनपति सूरिजी की समाचारी का पाठ लिखा है कि दो श्रावण होवे तो पिछले श्रावण मे ५० दिने और दो भाद्रपद होवे तो पहिले भाद्रपद में ५० दिने पर्युषण पर्व साम्वत्सरिक कृत्य करना क्योंकि यही तो विवादास्पद है कि श्रीजिनपतिसूरिजी ने समाचारी में जो यह पूर्वोक्त हुकुम जारी किया है कौन से सूत्र के कौनसी दफा के अनुसार किया है । हाँ यदि ऐसा खुलासा पाठ पंचांगी में आप कहीं भी दिखा देवै कि दो श्रावण होवे तो पिछले श्रावण में ५० दिने और दो भाद्रपद होवे तो पहिले भाद्रपद में ५० दिने साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण केशलुंचन अष्ठमतप चैत्यपरिपाटी और सर्वसंघ के साथ खामणाख्यपर्युषणा वार्षिक पर्व करना तो हम मानने को तैयार हैं।
प्रिय पाठक गण ! श्रीवल्लभविजयजी ने हमारे भेजे हुए श्री बृहत्कल्पसूत्रचूर्णि के पाठकों और श्रीपर्युषणकल्पसूत्र संबंधी पाठ को माया से छुपाकर भोले भद्रीक जीवों को भरमाने के लिये उपर्युक्त उत्तर लेख में श्रीजिनपतिसूरिजीमहाराज की समाचारी के पाठ को भी नहीं मानना जो लिखा है सो आपकी
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विलक्षण अविचार सीमा का पार नहीं हैं क्योंकि अल्प बुद्धि बालक भी जान सकता है कि उपर्युक्त श्रीबृहत्कल्पसूत्र चूर्णि पाठ और श्रीपर्युषणकल्पसूत्र पाठ इन दोनों पाठों में श्री पर्युषण पर्व आषाढ़ चतुर्मासी से यावत् ५० दिन की मर्यादा में करने शास्त्रकारों ने प्रतिबद्ध माने हैं वह ५० दिन के भीतर भी श्रीपर्युषण पर्व करना कल्पता है किंतु ५० वें दिन की रात्रि को पर्युषण पर्व किये विना उल्लंघनी नहीं कल्पती हैं, यह साफ मना लिखी हैं इसीलिये पूर्वोक्त सूत्र तथा चूर्णिपाठों के अनुसार (संमत) पूज्यपाद श्रीजिनपतिसूरिजीमहाराज ने भी अपनी समाचारी में श्रावण वा भाद्रपद मास की अधिकता होने पर आषाढ़ चतुर्मासी से ५० दिने श्रीपर्युषणपर्व करने की आज्ञा लिखी हैं और ८० दिने पर्युषण पर्व करने की मना लिखी हैं क्योंकि उपर्युक्त श्रीपर्युषण कल्पसूत्र पाठ में ५०वें दिन की रात्रि को पर्युषण किये विना उल्लंघनी ( नोसे कप्पा ) नहीं कल्पती हैं यह साफ मना लिखी हैं तथापि इस शास्त्राज्ञा का भंग करके केवल अपनी कपोल कल्पना से महात्मा श्रीवल्लभविजयजी जो अभिवर्द्धितवर्ष में ८० दिने पर्युषण पर्व करते हैं सो पंचांगी पाठों से सर्वथा प्रतिकूल होने से प्रमाण नहीं हैं । देखिये श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामि प्रणीत श्रीबृहत्कल्पसूत्रनिर्युक्त का पाठ । यथा
अभिवडियंमि वीसा, इयरेसु सवीसइमासो।
भावार्थ-प्राचीनकाल की यह रीति थी कि अभिवद्धित. वर्ष में जैनटिप्पने के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा से २० रात्रि बीतने पर श्रावण सुदी ५ को श्रीपर्युषणपर्व करे और चन्द्रसम्बत्सर में २० रात्रि सहित ? मास याने ५० दिन बीतने पर भाद्र सुदी ५ को पर्युषण पर्व करे ।
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( २० ) चंद्रवर्ष में मास वृद्धि नहीं होने के कारण से केवल चंद्रवर्ष संबंधी पर्युषण का पाठ श्री समवायांग सूत्र में यथा
समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराइ मासे वइकंते सत्तरिएहिं राइंदिएहिं सेसेहिं वासावासं पज्जोसवेइ ।
भावार्थ-चंद्रवर्ष में मास वृद्धि नहीं होने के कारण से ७० रात्रिदिन शेष रहते और वर्षाकाल के २० रात्रि सहित १ मास वीतने पर याने ५० वें दिन की भाद्र सुदी ५ को स्थान के अभाव से वृक्षमूलादि के नीचे भी श्रमण भगवान् श्रीमहावीर प्रभु वर्षावास के पर्युषण ५० दिने अवश्य करते हैं ( यह गणधर महाराज का अभिप्राय टीका में साफ लिखा है )
और ( अभिवद्वियवरिसे गिर्दे चेव सो मासो अतिकंतो तह्मा वीस दिना) इत्यादि श्रीनिशीथचूर्णि के पाठ से जैनटिप्पने के अनुसार अभिवद्धितवर्ष में ग्रीष्म ऋतु में निश्चय वह अधिक एक मास अतिक्रांत हो गया वास्ते १०० दिन शेष रहते अभिवर्द्धितवर्ष में आषाढ पूर्णिमा से २० दिने श्रावण सुदी ५ को पर्युषण करें।
लीजिये तीसरा प्रमाण आपही के श्रीतपगच्छाधिपति धुरंधर आचार्य श्रीमान् क्षेमकीर्तिसूरिजी महाराज विरचित श्रीबृहत्कल्पसूत्र नियुक्ति के उक्त पाठ की टीका संबंधी पाठ यथा
अभिवतिवर्षे विंशतिराने गते इतरेषु च त्रिषु चन्द्रसम्वत्सरेषु सविंशतिरात्रे मासे गते गृहिज्ञातं कुर्वन्ति ।
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( २१ ) और तपगच्छ के श्रीकुलमंडनसूरिजी ने अपनी रची हुई श्रीकल्पावचूरि में लिखा है कि___ गृहिज्ञाता यस्यां तु सांवत्सरिकाऽतिचारालोचनं १ लुंचनं २ पर्युषणायां कल्पसूत्रकथनं ३ चैत्यपरिपाटी ४ अष्टमं ५ सांवत्सरिक प्रतिक्रमण च क्रियते ६ यया च व्रतपर्यायवर्षाणि ७ गण्यते ।
भावार्थ-अभिवर्द्धितवर्ष में जैनटिप्पने के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा से २० रात्रि वीत जाने पर श्रावण शुक्ल ५ मी को गृहिज्ञात पर्युषण करें जिसमें सांवत्सरिक अतिचार का आलोचन १ केशलुंचन २ कल्पसूत्र कथन ३ चैत्यपरिपाटी ४ अष्टमतप ५ सांवत्सरिक प्रतिक्रमण ६ किया जाता है तथा (यया) जीस गृहिज्ञात पर्युषण से दीक्षापर्यायवर्षों को गिनते हैं ७ और तीन चंद्रसंवत्सरों में २० रात्रि सहित १ मास वीतजाने पर भाद्रपद शुक्ल ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्ययुक्त पर्युषण करें उपर्युक्त पर्युषणपर्व करने की रीति वर्तमान काल में जैनटिप्पने के प्रभाव से लौकिक टिप्पने के अनुसार अभिवाद्धतवर्ष में ५० दिने करने की हैं और चंद्रसंवत्सर में भी ५० दिने करने की हैं ८० दिने नहीं
लीजिये श्रीतपगच्छ के श्रीकुलमंडनसूरिजी महाराज विरचित श्रीकल्पावचूरि का पाठ । यथा
सा चंद्रवर्षे नभस्य शुक्लपंचम्यां कालकसूर्यादे शाच्चतुर्थ्यामपि जनप्रकटा कार्या यत्पुनरभिवद्धित वर्षेदिनविंशत्या पर्युषितव्य मित्युच्यते तत्सिद्धान्त
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( २२ ) टिप्पनानुसारेण तत्रहि युगमध्ये पौषो युगान्ते चाषाढ़ एव वर्द्धते नान्ये मासास्तानि च टिप्पनानि अधुना न सम्यग् ज्ञायन्तेऽतो दिनपंचाशतैव पर्युषणा संगतेति वृद्धाः ।
भावार्थ-यह गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्ययुक्त पर्युषणा चंद्रसंवत्सर में ५० दिने भाद्र शुक्ल ५ मी को पूर्वकाल में की जाती थी सो श्रीकालकाचार्य महाराज की आज्ञा से ४६ दिने चौथ अपर्वतिथि में भी लोक-प्रसिद्ध की जाती हैं और जो अभिवर्द्धित वर्ष में आषाढ़ पूर्णिमा से २० दिन बीतने से श्रावण शुक्ल ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्ययुक्त पर्युषण पर्व करने की शास्त्र की आज्ञा हैं सो जैन-सिद्धांत टिप्पने के अनुसार हैं क्योंकि जैन टिप्पने में पाँच वर्ष का एक युग के मध्यभाग में निश्चय पौष मास बढ़ता है और युग के अंत में आपढ़ मास ही बढ़ता है अन्य श्रावणादि मास नहीं बढ़ते । उन जैन टिप्पनों का इस समय में सम्यग् ज्ञान नहीं है याने जैन टिप्पने के अनुसार वर्षा चतुर्मासी के बहार पौष और आषाढ़ मास की वृद्धि होती थी वास्ते २० दिने श्रावण सुदी ४ को पर्युषण करते थे उस जैन टिप्पने का ज्ञान के प्रभाव से लौकिक टिप्पने के अनुसार वर्षा चतुर्मासी के अंदर श्रावण आदि मासों की वृद्धि होती है इसीलिये दूसरे श्रावण सुदी ४ को वा प्रथम भाद्र सुदी ४ को ५० दिने पर्युषण करने निश्चय संगत ( संमत ) है । इस प्रकार श्रीद्ध प्राचीन आचार्यों का कथन है, इसको श्रीवल्लभविजयजी महात्मा अपने उक्त लेख में लिखी हुई प्रतिज्ञा के अनुकूल मानना स्वीकार करें और अभिवर्द्धित वर्ष में ८० दिने वा दूसरे भाद्रपद अधिक मास की सुदी ४ को ८० दिने सिद्धांत-विरुद्ध पर्युषण
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(२३ ) करनेवालों को शास्त्र-ग्राज्ञा-भंग दोष लगता है ५० दिने पर्यषणा करनेवालों को नहीं । यह भी सत्य मान कर अपनी आत्मा को उत्सूत्र पाप से बचावें क्योंकि आपके गच्छनायक श्रीनेमकीर्तिसूरिजी महाराज ने श्रीवृहत्कल्पसूत्र की टीका में और श्रीभद्रबाहु स्वामि ने नियुक्ति में पर्युषणा को पाँच पाँच दिनों के पंचकद्वारा करने की आज्ञा लिखी है । तत्संबंधी पाठ यथा
___ एत्थउ पणगं पणगं, कारणीय जाव सवीसइ मासो । सुद्ध दसमी ठियाण, आसाढ़ी पुणिमो सरणं ।१। अत्रेति आषाढ़ पुर्णिमायां स्थिताः पञ्चाहं यावदेव संस्तारकं डगलादि गृह्णन्ति रात्रौ च पर्युषणाकल्प कथयन्ति ततः श्रावण बहुल पञ्चम्यां पर्युषणां कुर्वन्ति अथाषाढ़ पूर्णिमायां क्षेत्रं न प्राप्तं तत एवमेव पंञ्चरात्रं वर्षावासयोग्य मुपधिं गृहीत्वा पर्युषणाकल्पं च कथयित्वा श्रावणबहुल दशम्यां पर्युषणयन्ति एवं कारणेन रात्रिदिवानां पंचकं पंचकं वईयता तावत्स्थेयं यावत् सविंशतिरात्रो मासः पूर्णः । अथवा ते आषाढ़ शुद्ध दशम्यामेव वर्षाक्षेत्रे स्थितास्ततस्तेषां पंचरात्रेण डगलादौ गृहीते पर्युषणाकल्पे च कथिते अाषाढ़ पूर्णिमायां . समवसरणं पर्युषणं भवति एष उत्सर्गः । अत उर्दकालं पर्युषण मनुतिष्ठतां सर्वोऽप्यपवादः । अपवादोऽपि सविंशतिरात्रात्
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( २४ ) मासात् परतो नाऽतिक्रमयितुं कल्पते यद्येतावत्कालेऽपि गते वर्षायोग्यक्षेत्रं न लभ्यते ततो वृक्षमूलेऽपि पर्युषितव्यं ।
भावार्थ- आषाढ़ पूर्णिमा को स्थित हुए साधु पाँच दिन में चतुर्मासी के योग्य संस्तारक डगल आदि वस्तुओं को ग्रहण करे रात्रि में श्रीकल्पसूत्र को कथन करे तो श्रावण बदी ५ को गृहिअज्ञात पर्युषण करे अथ आषाढ़ पूर्णिमा को योग्य क्षेत्र न मिला तो उपर्युक्त रीति से पाँच रात्रियों में वर्षावास के योग्य उपधी को ग्रहण करके और श्रीकल्पसूत्र को बाँच कर श्रावण वदी १० दशमी को गृहिअज्ञात पर्युषण करे इस तरह कारण योगे पाँच पाँच रात्रि दिनों के पंचक पंचक वृद्धि से यावत् २० रात्रि महित एक मास पूर्ण हो वहाँ रहना अथवा वह साधु आषाढ़ शुक्ल १० मी को चतुर्मासी योग्यक्षेत्र में स्थित हुए हो तो उनको पाँच रात्रि करके डगलादि ग्रहण करने पर और श्रीकल्पमूत्र कथन करने पर आषाढ़ पूर्णिमा को गृहिअज्ञात पर्युषण होता है यह उत्सर्ग मार्ग है । इसके उपरांत काल में पर्युषण के निमित्त स्थित हुए साधुओं का सभी अपवाद मार्ग है। अपवाद. मार्ग में भी २० वीस रात्रि सहित एक माम अर्थात् ५० वें दिन की रात्रि को पर्युषण किये बिना उल्लंघन करना नहीं कल्पता है यदि उपर्युक्त काल भी वीत गया हो और वर्षा योग्य क्षेत्र न मिला तो वृक्ष के मूल में भी रह कर चन्द्रसम्वत्सर में २० रात्रि सहित एक मास याने ५० दिने गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्ययुक्त पर्युपण करें और जैनटिप्पने के अनुसार अभिवर्द्धित वर्ष में २० दिने श्रावण सुदी ५ को गृहिज्ञात याने सांवत्सरिक कृत्ययुक्त पर्युषण करें परंतु इस
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( २५ ) समय में जैन-सिद्धांत टिप्पने का सम्यग् ज्ञान नहीं है इसी लिये लौकिक टिप्पने के अनुसार ५० दिने दूसरे श्रावण सुदी ४ को वा प्रथम भाद्र सुदी ४ को पर्युषण करने संगत हैं इसी लिये वृद्ध पूर्वाचार्य कल्पसूत्रादि आगम उद्धारकर्ता श्रीदेवर्दिगणितमाश्रमणजी महाराज ने श्रीकल्पसूत्र में ५० वें दिन की रात्रि को पर्युषण किये विना उल्लंघनी कल्पे नहीं यह साफ मना लिखा है
तपगच्छ के श्रीधर्मसागरजी, जयविजयजी, विनयविजयजी कृत कल्पसूत्र की टीकाओं में लिखा है कि___इह हि पर्युषणा द्विविधा गृहिज्ञाता गृह्यऽज्ञात भेदात् तत्र गृहिणामऽज्ञाता यस्यां वर्षायोग्य पीठ फलकादौ प्राप्ते कल्पोक्त द्रव्य क्षेत्र काल भाव स्थापना क्रियते सा चाषाढ़पूर्णिमायां योग्य क्षेत्राभावे तु पंच पंच दिन वृद्धया दशपर्वतिथि क्रमेण यावत् भाद्रपद सितपंचमी मेवेति गृहिज्ञाता तु द्विधा सांवत्सरिक कृत्य विशिष्टा गृहिज्ञातमात्रा च तत्र सांवत्सरिक कृत्यानि—सांवत्सरप्रतिक्रांति १ लुचनं २ चाष्टमं तपः ३ सर्हिद्भक्तिपूजा च ४ संघस्य क्षामणं मिथः ५॥
भावाथ-इहां पर्युषणा दो प्रकार की हैं १ गृहिज्ञाता और २ गृहिअज्ञाता । इनमें गृहिअज्ञाता पर्युषणा वह है कि जिसमें वर्षा काल के योग्य पीठ फलकादि वस्तु प्राप्त हुए कल्प में कही हुई द्रव्य से क्षेत्र से काल से भाव से स्थापना की जाती है
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(२६) सो भाषाढ़ पूर्णिमा को करे । यदि रहने योग्य क्षेत्र का प्रभाव हो तो आगे पाँच पाँच दिनों के पर्व की वृद्धि से दश पर्व तिथियों में करे । इस तरह चंद्रसंवत्सर में ५० दिने भाद्रपद सुदी ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्यविशिष्ट पयुर्षण करे और दूसरी गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्य विशिष्ट पर्युषण जैनटिप्पने के अनुसार अभिवति वर्ष में २० दिने श्रावण सुदी ५ को करे । उस गृहिज्ञात पर्युषण में सांवत्सरिक कृत्य यह करने के हैं कि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण १, केशलुंचन २, अष्टमतप ३, चैत्यपरिपाटी ४, संघ को परस्पर तामणा ५। इन सांवत्सरिक कृत्यों से युक्त श्रीपर्युषण पर्व जैनटिप्पने के प्रभाव से लौकिक टिप्पने के अनुसार • अभिवर्द्धित वर्ष में ५० दिने करना संगत है ।
देखिये तपगच्छ के उपाध्यायजी श्रीधर्मसागरजी जयविजयजी विनयविजयजी इन तीनों ने अपनी रची हुई कल्पसूत्र की टीकाओं में लिखा है कि
एतत्कृत्यविशिष्टा भाद्रपदसितपंचम्यां कालकाचार्यादेशाच्चतुर्थ्यामपि जनप्रकटा कार्या द्वितीया तु अभिवर्धितवर्षे चातुर्मासिकदिनादारभ्य विंशत्या दिनैः वयमत्र स्थितास्म इति पृच्छता गृहस्थानां पुरोवदंति सा तु गृहिज्ञातमात्रैव तदपि जैनटिप्पनकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्ते चाषाढ़ एव वर्दते नान्ये मासास्तट्टिप्पनकं चाधुना सम्यग् न ज्ञायतेऽतः पंचाशतव दिनैः पर्युषणा संगतेति वृद्धाः ।
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(२७) भावार्थ-उपर्युक्त सांवत्सरिक कृत्ययुक्त गृहिज्ञातपयुषण चंद्रसंवत्सर में ५० दिने भाद्र सुदी पंचमी पर्व तिथि में थी सो श्रीकालकाचार्य महाराज की आज्ञा से चौथ अपर्व तिथि में भी लोक प्रसिद्ध करनी और दूसरी सांवत्सरिक कृत्ययुक्त गृहिज्ञात पर्युषण अभिवर्द्धित वर्ष में २० दिने श्रावण सुदी ५ को करें १०० दिन शेष स्थित हुए कहे वह पर्युषण जैन-टिप्पने के अनुसार है क्योंकि जैनटिप्पने में पांच वर्ष का एक युग के मध्य भाग में पौष मास और युग के अंत में आषाढ़ मास ही बढ़ता है अन्य श्रावणादि मास नहीं बढ़ते । उन जैनटिप्पनों का इस समय में सम्यग् ज्ञान नहीं है याने जैनटिप्पने के अनुसार वर्षाचतुर्मासी के बाहर पौष और आषाढ़ मास की वृद्धि होती थी, वास्ते २० दिने श्रावण सुदी ५-४ को पर्युषण करते थे उस जैन-टिप्पने का ज्ञान के प्रभाव से लौकिक टिप्पने के अनुसार वर्षाचतुर्मासी के अंदर श्रावण आदि मासों की वृद्धि होती है इसीलिये दूसरे श्रावण सुदी ४ को वा प्रथम भाद्र सुदी ४ को ५० दिने पर्युषण करने निश्चय संगत हैं ऐसा श्रीवृद्ध प्राचीन आचार्य महाराजों का कथन है
महाशय वल्लभविजयजी से सादर निवेदन यह है कि सूत्र नियुक्ति टीका भाष्य चूर्णिरूप पंचांगी में कहीं भी ऐसा खुलासा पाठ आप बता देवें कि-अभिवर्द्धित वर्ष में दो श्रावण होने से ८० दिने भाद्र सुदी ४ को और दो भाद्रपद होने से २ मास २० दिने याने दूसरे भाद्रपद अधिक मास की सुदी ४ को ८० दिने सांवत्सरिक प्रतिक्रमण १, केशलुंचन २, अष्टमतप ३, चैत्यपरिपाटी ४,
और सर्वसंघ के साथ ५ क्षामणाख्य वार्षिक पर्युषण पर्व करना संगत है तो आपका उपकार मानेंगे, लेकिन महात्माजी ! आप स्मरमा रखियेगा कि अन्य गछ के तथा तुमारे गच्छ के पहिले
स
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( २८ ) और पीछे के प्राचार्य उपाध्यायों का लेख सूत्र नियुक्ति टीका चूर्गि आदि इस ग्रंथ में लिखे हुए सिद्धांतों के पाठों से जो विरुद्ध होगा सो प्रमाण नहीं किया जायगा जैसा कि तुमारे गच्छ के उपाध्याय श्रीधर्म-सागरजी जयविजयजी विनयविजयजी ने अभिवर्द्धित वर्ष में विवादरूप ८० दिने वा दूसरे भाद्रपद अधिक मास की सुदी ४ को ८० दिने सांवत्सरिकप्रतिक्रमण, केशलुंचन इत्यादि सांवत्सरिक कृत्य स्थापन करने के लिये जैनसिद्धान्त टिप्पने के अनुसार अभिवर्द्धित वर्ष में २० दिने श्रावण सुदी ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्य युक्त पर्युषणा को गृहिज्ञातमात्रा लिखी हैं सो सिद्धांत विरुद्ध हैं
- देखिये श्रीजिनदासमहत्तराचार्य महाराज ने श्रीनिशीथचूर्णि में ऐसा लिखा है कि
अभिवढिय वरिसे २० वीसतिराते गते गिहिणातं करेंति तिसु चंदवरिसेसु २० सवीसतिराते मासे गते गिहिणातं करेंत जत्थ अधिमासगो पड़ति वरिसे तं अभिवढियवरिसं भण्णति जत्थ ण पड़ति तं चंदवरिसं सोय अधिमासगो जुगस्सगंते मज्जेवा भवति जइ अंते नियमा दो आसाढ़ा भवन्ति अह मज्जे दो पोसा सिसो पुच्छति कम्हा अभिवढ्ढिय वरिसे वीसतिरातं चंदवरिसे सवीसतिमासो उच्यते जम्हा अभिवढिय वरिसे गिम्हे चेव लोमासो अतिकतो तम्हा वीसदिना अणभिग्गहियं
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( २६ ) तं करोंत इयरेसु तीसु चंदवरिसेसु सवीसति मास इत्यर्थः ॥ .
भावार्थ-अभिवर्द्धित वर्ष में आषाढ़ पूर्णिमा से २० रात्रि व्यतीत होने पर श्रावण सुदी ५ को गृहिज्ञात पर्युषण करे और तीन चन्द्रसंवत्सरों में २० रात्रि सहित १ मास व्यतीत होने पर भाद्र सुदी ५ को गृहिज्ञात पर्युषण पर्व करे जिस वर्ष में अधिक मास आ पड़ा हो उसको अभिवर्द्धित वर्ष कहते हैं और जिस वर्ष में अधिक मास न आ पड़ा हो उसको चन्द्रवर्ष कहते हैं। वह अधिक मास युग के अंत में और युग के मध्य भाग में होता है यदि युग के अंत में हो तो निश्चय दो आषाढ़ मास होते हैं और युग के मध्य भाग में हो तो निश्चय दो पौष मास होते हैं । शिष्य पूछता है किस कारण से अभिवर्द्धित वर्ष में २० वें दिन की श्रावण सुदी ५ की रात्रि को गृहिज्ञात पर्युषण है और चन्द्र संवत्सर में २० रात्रि सहित १ मास याने ५० वें दिन की भाद्रसुदी ५ की रात्रि को गृहिज्ञात पर्युषण है ? उत्तर-यत अभिवर्द्धित वर्ष में ग्रीष्म ऋतु में वह एक अधिक मास अतिक्रांत हो जाता है इसीलिये वीस दिन पर्यंत अनिश्चित याने गृहिअज्ञात पर्युषण है और वीसवें दिन श्रावण सुदी पंचमी को गृहिज्ञात पर्युषण करे और तीन चंद्रवर्षों में वीस रात्रि सहित एक मास पर्यंत अनिश्चित याने गृहिअज्ञात पर्युषण है और पचासवें दिन भाद्र सुदी पंचमी को गृहिज्ञात पर्युषण करे । इससे उक्त उपाध्यायों ने अभिवर्द्धित वर्ष में जैनटिप्पने के अनुसार वीस दिने श्रावण सुदी पंचमी की गृहिज्ञात पर्युषणा को गृहिज्ञातमात्रा लिखी है सो मान्य नहीं किंतु गृहिज्ञात पर्युषण मान्य है उस गृहिज्ञात पर्युषण में सांवत्सरिक पंच कृत्य करने के उक्त उपाध्यायों ने लिखे हैं सो गक है
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(३०) क्योंकि श्रीकल्पसूत्र की संदेहविषौषधी टीका में श्रीजिनप्रभसूरिजी ने लिखा है कि· गृहिज्ञाता तु यस्यां सांवत्सरिकाऽतिचारालोचनं १ लंचनं २ पर्यषणाकल्पसत्रकर्षणं ३ चैत्यपरिपाटी ४ अष्टमंतपः ५ सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं च क्रियते ६ यया च व्रतपर्यायवर्षाणि गण्यन्ते ७ सा (चंद्रवर्षे ) नभस्य शुक्ल पंचम्यां कालिक सूर्यादेशाच्चतुर्थ्यामपि जनप्रकटा कार्या यत्पुनरभिवर्द्धितवर्षे दिन विंशत्या पर्युषितव्यमित्युच्यते तत्सिद्धान्त टिप्पणानामनुसारेण तत्र हि युगमध्ये पौषो युगान्तेचाषाढ़ एव वर्द्धते नान्ये मासास्तानि चाधुना सम्यक् न ज्ञायन्ते ततो दिनपंचाशतैव पर्युषणा संगतेतिवृद्धाः ततश्च कालावग्रहश्चात्र जघन्यतो नभस्यशित पञ्चम्या प्रारभ्य कार्तिक चतुर्मासान्तः सप्तति दिनमानः उत्कर्षतो वर्षायोग्य क्षेत्रान्तराभावादापाड़ मासकल्पेन सह वृष्टिसद्भावात् मार्गशीर्षेणापिसह षण्मासा इति ॥ __ भावार्थ-गृहिज्ञात पर्युषण वह है कि जिसमें सांवत्सरिक अतिचार का आलोचन १ केशलुंचन २ पर्युषण कल्पसूत्र वांचना ३ चैत्यपरिपाटी ४ अष्टमतप ५ सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने में आता है ६ और (यया)जिस गृहिज्ञात पर्युषण से दीक्षा पर्याय वर्षों को गिनते हैं ७ वह महिलात पर्युषण चंद्र वर्ष में वीस राषि
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( ३१ )
सहित एक मास याने पचासवें दिन भाद्र सुदी ५मी पर्व तिथि को थी सो श्रीकालिकाचार्य महाराज के आदेश से चौथ अपर्वतिथि में भी लोक प्रसिद्ध करना और जो अभिवर्द्धित वर्ष में भाषाढ़ पूर्णिमा से वीस दिन वीतने से श्रावण सुदी ५ को गृहिज्ञात याने सांवत्सरिक कृत्ययुक्त पर्युषण पर्व करने की शास्त्र की आज्ञा है सो जैन सिद्धांत टिप्पने के अनुसार है क्योंकि जैनटिप्पने में पाँच वर्ष का एक युग के मध्य भाग में पौष मास और युग के अंत में आषाढ़ मास ही बढ़ता है अन्य श्रावगादि मास नहीं बढ़ते । उन जैन टिप्पनों का इस समय में सम्यग् ज्ञान नहीं है याने जैन टिप्पने के अनुसार वर्षाचतुर्मासी के बाहर पौष और आषाढ़ मास की वृद्धि होती थी वास्ते २० दिने श्रावण सुदी ४ को पर्युषण करते थे । उस जैन टिप्पने का सम्यग् ज्ञान इस समय नहीं होने से लौकिक टिप्पने के अनुसार वर्षाचतुर्मासी के अंदर श्रावण आदि मासों की वृद्धि होती है इसी लिये दूसरे श्रावण सुदी ४ को वा प्रथम भाद्र सुदी ४ को २० दिन सहित १ मास याने ५० दिने पर्युषण करने निश्चय संगत ( आगम संमत ) है यह श्रीवृद्ध प्राचीन प्राचार्यों का वचन ( उपर्युक्त पाठ ) लिखा हुआ है - पर्युषण के अनन्तर कालावग्रह याने रहने की स्थिति जघन्य से चंद्रसम्वत्सर में भाद्र शित पंचमी से यावत् कार्त्तिक चतुर्मासी पर्यंत ७० दिन प्रमाण है | उत्कर्ष से वर्षा योग्य क्षेत्र के प्रभाव से आषाढ़ मास कल्प के साथ वृष्टि के सद्भाव से मार्गशीर्ष मास के साथ ६ मास का है । अभिवर्द्धित वर्ष में प्राचीन काल की २० दिन की पर्युषणा से १०० दिन शेष रहते थे और अभी भी जैनटिप्पने के अभाव से लौकिक टिप्पने के अनुसार दूसरे श्रावमा में बा प्रथम भाद्रपद में ५० दिने पर्युषण करने से चतुर्मासी के १०० दिन पूर्व काल की तरह शेष रहते हैं वह मध्यम
काला ग्रह है ।
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( ३२ )
श्रीजिनबल्लभसूरिजी महाराजकृत श्रीसंघपट्टक नामक ग्रंथ की श्रीजिनपतिसूरिजी महाराजकृत बृहत्टीका में श्लोक का प्रमाण है कि—
वृद्धौ लोकदिशा नभस्य नभसोः सत्यां तोक्तं दिनं पञ्चाशं परिहृत्य ही शुचिभवात् पश्चाच्चर्तुमासकात् । तत्राशीतितमे कथं विदधते मूढ़ा महं वार्षिकं कुग्राहाद् विगणय्य जैनवचसो बाधां मुनिव्यंसकाः ॥ १ ॥
भावार्थ - लौकिक टिप्पने के अनुसार श्रावण अथवा भाद्र पद की वृद्धि होने पर सिद्धांतों में कही हुई आषाढ़ चतुर्मासी से आरम्भ करके पचास दिने पर्युषण पर्व की मर्यादा को त्याग के अपने कदाग्रह से जैन वचनों में बाधा न विचार कर मुनियों में धूर्त लिंगधारी चैत्यवासी मूढ़ लोग ८० दिने वार्षिक पर्युषण पर्व क्यों करते हैं ?
श्रीपर्युषण कल्पसूत्र समाचारी में वृद्ध श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणजी महाराज ने लिखा है कि
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे वासाणं सविसईराए मासे विइकंते वासावासं पज्जोसवेइ ॥ १ ॥ से केणणं भंते एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे वासाणं सविसईराए मासे विइक्कंते वासावासं पज्जोसवेइ जउणं पाएणं आगारीणं आगाराई, कुड़ियाई, उक्कंपियाई, छन्नाई, लित्ताइं, घट्टाई, मट्ठाई, संधूपियाई, खाउदगाई, खायनिद्धमणाई, अप्पणो अट्टाए, कड़ाई, परिभु
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( ३३ ) त्ताइं, परिणामियाइं, भवंति से तेणठेणं एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे वासाणं सविसइराए मासे, विइकंते वासावासं पज्जोसवेइ ॥ २ ॥ जहाणं समणे भगवं महावीरे वासाणं सविसइराए मासे विइकंते वासावासं पज्जोसवेइ तहाणं गणहरावि वासाणं सवीसइराए मासे वइकंते वासावासं पज्जोसर्विति ॥३॥जहाणं गणहरा विवासाणं सवीसइराए मासेजावपज्जोसविति तहाणं गणहरसीसा वि वासाणं जाव पज्जोसविति ॥ ४ ॥ जहाणं गणहरसीसा वासाणं जाव पज्जोसविंति तहाणं थेरा वि वासावासं जाव पज्जोसर्विति ॥ ५ ॥ जहाणं थेरा वासाणं जाव पज्जोसर्विति तहाणं जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंत एए-विश्रणं वासाणं जाव पज्जोसर्विति ॥ ६ ॥ जहाणं जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथावि वासाणं सवीसइराए मासे विइकते वासावासं पज्जोसविति तहाणं अज्ञपि आयरिया उवझाया वासाणं जाव पज्जोसविति ॥ ७ ॥ जहाणं अह्म आयरिया उवज्झाया वासाणं जाव पज्जोसर्विति, तहाणं अमेवि वासाणं सवीसइराएमासे विइकते वासावासं पज्जोप्तवेमो अंतराविय से कप्पइनोसे कप्पइ तं रयणिं उवायणावित्तए. ॥८॥
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( ३४ ) भावार्थ--उस काल उस समय में श्रमणभगवान् श्रीमहावीर प्रभु भाषाढ़ चतुर्मासी से २० रात्रि सहित ? मास वीतने पर वर्षावास के पर्युषण करते थे शिष्य गुरु से प्रश्न करता है हे भगवन् किस कारण से श्रीवीरमभु २० रात्रियुक्त १ मास होने पर वर्षाकाल के पर्युषण करते थे ? उत्तर-यतः प्रायः गृहस्थ लोगों के मकान कटयुक्त होते हैं और खड़ी से धवलित किये होते हैं, तृणादि से आच्छादित किये और गोमय [छान] से लिपे हुए होते हैं बाड़ करके गुप्त किये और विसम भूमि को तोड़ कर समभाग किये होते हैं और पाषाणसे घिसके कोमल किये और सुगंध के लिये धूप से वासित किये होते हैं। फिर किया है प्रणाली रूपजलमार्ग जिन्हों के वैसे होते हैं तद्वत् खोदा है खाल जिनका एवं उपर्युक्त प्रकार वाले मकान गृहस्थ लोगों ने अपने लिये अचित्त किये होते हैं (तिस कारण से साधु को अधिकरण दोष लगे) वास्ते हे शिष्य ! लौकिक टिप्पने की अपेतासे उप्त काल में श्रमण भगवान् श्रीमहावीरतीर्थकर वर्णकाल के २०दिनयुक्त ?मास व्यतिक्रान्त होनेपर पर्युषण करते यथा श्रमण भगवान् श्रीमहावीर प्रभु वर्षाकाल के २० रात्रि सहित १ मास वीतने पर वर्षावास के पर्युषण किये तथा गणधर भी वर्षाकाल के २० रात्रि सहित १ मास व्यतिक्रांत होने पर वर्षावाप्त के पर्युषण किये यथा गणधर भी वर्षा काल के २० रात्रि सहित ? मास होने पर यावत् पर्युषण किये तथा गणधर शिष्य भी वर्षाकाल के यावत् ५० दिने पर्युषण किये यथा गणधर शिष्य वर्षा काल के यावत् ५० दिने पर्युषण किये तथा स्थविर साधु भी वर्षावास के यावत् ५० दिने पर्युषण किये यथा स्थविर साधु वर्षाकाल के यावत् ५० दिने पर्युषण किये तथा जो यह अभी के काल के व्रत स्थविर श्रमण निग्रंथ विचर रहे हैं यह भी वर्षाकाल के यावत् ५० दिने श्रीपर्युषण पर्ष करते हैं
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(३५) यथा जो यह अभी के काल के श्रमण निग्रंथ भी २० रात्रियुक्त १ मास वीतने पर वर्षावास के पर्युषण करते हैं तथा हमारे भी प्राचार्य उपाध्याय वर्षाकाल के यावत् ५० दिने पर्युषण करते हैं यथा हमारे प्राचार्य उपाध्याय वर्षाकाल के यावत् ५० दिने पर्युषण करते हैं तथा हम लोग भी वर्षा काल के २० रात्रिसहित १ मास (५० दिन ) वीतने पर वर्षावास के श्रीपर्युषणपर्व करते हैं और ५० दिन के भीतर भी पर्युषण करना कल्पता है, लेकिन ५० वें दिन की रात्रि को श्रीपर्युषण पर्व किये विना उल्लंघन करना नहीं कल्पता है । तपगच्छ के श्रीविनयविजयजी ने अपनी रची हुई कल्पमूत्र की सुबोधिका टीका में लिखा है कि
गृहिज्ञाता तु द्विधा सांवत्सरिक कृत्य विशिष्टा गहिज्ञातमात्रा च तत्र सांवत्सरिक कृत्यानि सांवसरप्रतिक्रांति, १ लुंचनं २ चाष्टमंतपः ३ ॥ सर्वार्हद्भक्तिपूजा च ४ संघस्य क्षामणं मिथः ५ ॥ १ ॥ ____ भावार्थ नियुक्ति तथा चूर्णि और टीका इनों के उक्त पाठों के अनुप्तार चंद्रवर्षों में १ मास २० दिने भाद्र सुदी ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्य विशिष्ट पर्युषणा और दूसरी अभिवड़ितवर्ष में २० दिने श्रावण सुदी ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्ये विशिष्ट पर्युषणा करने की है (तत्र ) उस गृहिज्ञात पर्युषण में सांवत्सरिक प्रतिक्रमण १ केशलुंचन २ अष्टमतप ३ चैत्यपरिपाटी ४ और संघ के साथ क्षामणा ५ यह सांवत्सरिक कृत्य करने के हैं इसी लिये पौष आषाढ़ मास की वृद्धिवाले जैन टिप्पने के अनुसार अभिवर्द्धितवर्ष में २० दिने श्रावण सुदी ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्य विशिष्ट पर्युषणा के स्थान में जैनटिप्पने का इस काल में सम्यग् ज्ञान नहीं है इसीलिये श्रावण आदि मासों की
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वृद्धिवाले लौकिक टिप्पने के अनुसार २० दिन सहित १ मास अर्थात् दूसरे श्रावण सुदी ४ को वा प्रथम भाद्रपद सुदी४ को ५० दिने पर्युषणा करना युक्त है__ श्रीविनयविजयजी ने यही अधिकार श्रीकल्पसूत्र सुबोधिका टीका में लिखा है कि__केवलं गृहिज्ञाता तु सा यत् अभिवड़ितवर्षे चातुमासिकदिनादारभ्य विंशत्या दिनै यमत्र स्थितास्म इति पृच्छतां गृहस्थानां पुरोवदन्ति तदपि जैनटिप्पन काऽनुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्ते चाषाढ़ एव वर्दते नान्ये मासास्तट्टिप्पनकं तु अधुना सम्यग् न ज्ञायते अतः पंचाशतैव दिनैः पर्युषणा युक्तेति वृद्धाः।
भावार्थ-अभिवर्द्धितवर्ष में आषाढ़ चातुर्मासिक दिन से २० दिने श्रावण सुदी ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्य विशिष्ट पर्युषण करें और पूछते हुए गृहस्थों के समक्ष साधु कहे कि हम यहाँ पर १०० दिन शेष स्थित हुए हैं वह पर्युषण जैनटिप्पने के अनुसार है क्योंकि जैनटिप्पने में युगके मध्यभाग में पौष मास बढ़ता है और युग के अंतमें आषाढ़ मास ही बढ़ता है अन्य श्रावणादि दूसरे मास नहीं बढ़ते हैं वह जैनटिप्पना वर्तमान काल में सम्यक् प्रकार से जानने में नहीं आता है इसी लिये लौकिक टिप्पने के अनुसार दूसरे श्रावण सुदी ४ को वा प्रथम भाद्रसुदी ४ को ५० दिने श्रीपर्युषण करना युक्त है । इस प्रकार श्रीप्राचीन वृद्धाचार्यों का कथन है।
महाशय ! बल्लभविजयजी ! श्रावण या भाद्रपद मासकी वृद्धि
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( ३७ ) होने से उपर्युक्त पाठों से सर्वथा विरुद्ध ८० दिने वा दूसरे भाद्रपद अधिक मास की सुदी ४ को ८० दिने आप अयुक्त पर्युषण करते हैं क्योंकि लौकिक टिप्पने के अनुसार आश्विन मास की वृद्धि होती है तो आप लोग भी भाद्रसुदी ४ को ५० वें दिन सांवत्सरिक कृत्य युक्त पर्युषण करते हैं उसके बाद १०० दिन शेष उसी क्षेत्र में आप रहकर कार्तिकसुदी १४ को प्रतिक्रमणादि कृत्य करके पूनम या एक्कम को विहार करते हैं तथापि आप के उक्त उपाध्यायों ने-- ___ आश्विनवृद्धौ चातुर्मासिककृत्यमाश्विनसितचतुदश्यां कर्त्तव्यं स्यात् । ___ अर्थात् आश्विनमास की वृद्धि होने पर चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि कृत्य आश्विन सुदी १४ को करना होगा यह किस पंचांगीपाठ के आधार से लिखा है ? देखिये श्रीनिशीथचूर्णि आदि ग्रंथों में लिखा है कि
वरिसारत्तं एग्गखेत्ते अत्थिता कत्तियचाउम्मासिय पडिक्कमिय पड़िवयाए अवस्स णिग्गंतव्वं ।
याने वर्षाकाल में साधु एक क्षेत्र में रहकर कार्तिक चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करके (पडिक्या) एक्कम को अवश्य विहार करना । आपके उक्त उपाध्यायों ने
कार्तिकसितचतुर्दश्यां करणे तु दिनानां शतापत्या समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराएमासे वइकंते सरारिराइदिएहिं सेसेहिं वासावासं पज्जोसवेइ इति समवायांगवचनबाधा स्यात् ।
अर्थात् कार्तिक सुदी १४ को चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि
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( ३८ ) कृत्य करने में १०० दिन हो जाने से थीवीर प्रभु ५० दिने पर्युषण करने के बाद ७० दिन शेष रहते थे इस समवायांग वचन को बाधा होगी यह व्यर्थ प्रलाप लिखा है क्योंकि यदि ऐसाही एकांत से मानते हो तो १०० दिने दूसरे कार्तिक अधिक मास की सुदी १४ को कार्तिक चतुर्मासी प्रतिक्रमणादि कृत्य करने का मिथ्या कदाग्रह त्यागकर ७० दिने स्वाभाविक प्रथम कार्तिक सुदी १४ को कार्तिक चतुर्मासिक प्रतिक्रमणादि कृत्य करके दूसरे दिन विहार करना, यह मंतव्य आप लोग क्यों नहीं मानते हो ? प्रिय मित्र ! वलभ विजय जी ! याद रखना ८० दिने पर्युषण करने से उपर्युक्त शास्त्रवचनों को बाधा होती है इसीलिये पर्युषण किये बिना ५०वें दिन की रात्री उल्लंघनी कल्पती नहीं है, यह श्रीपर्युषणकलसूत्रादि में साफ मना लिखी है । वास्ते इस आज्ञा का भंग क्यों करते हो ? और किस वचन को वाधा आती थी सो श्रीकालिकानार्य महाराज ने मास वृद्धि के प्रभाव से चंद्रवर्ष में ७१ दिन शेष रहते ४६ दिने चौथ को पर्युषण किये ?
देखिये जैनटिप्पने के अभाव से लौकिक टिप्पने के अनुसार श्रावण या भाद्रपद वा आश्विन मास की वृद्धि होने से ५० दिने पर्युषण करने के बाद १०० दिन शेष रहते हैं तथा कार्तिक
आदि अन्यमासों की वृद्धि होती है तो ५० दिने पर्युषण करने के बाद ७० दिन शेष रहते हैं इससे ७० दिन शेष रहने संबंधी श्रीसमवायांगवाक्य को बाधा नहीं होती है क्योंकि प्रथम जैनटिप्पने के अनुसार पर्युपण तथा उस क्षेत्र में साधु को शेष दिन रहने संबंधी कालावग्रह श्रीनियुक्तिकार और श्रीबृहत्कल्पसूत्र चूर्णिकार आदि महाराजों ने लिखा है कि-- __ इय सत्तरिजहण्णा। असीइणउइंदसुत्तरसयं च॥
जइ वासमग्गसिरे । दसराया तिगिण उक्कोसा ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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इय सत्तरी गाथा एवं सत्तरि भवति सी तिराते मासे पज्जोसवेत्ता कत्तियपुण्णिमाए पडिक्कमित्ता बितियदिवसे णिग्गयाणं, पंचसत्तरी भद्दवयअमावसाए पज्जोसवेत्ताणं, भदवयबहुलदसमीए असीत्ति, भदवयबहुलपंचमीए पंचासीति, सावणपुण्णिमाए णउत्ति, सावणसुद्धदसमीए पंचणउत्ति, सावणसुद्धपंचमीए सयं, सावणअमावसाए पंचुत्तरंसयं, सावणबहुलदसमीए दसुत्तरंसतं, सावणबहुलपंचमीए पणरसुत्तरंसतं, श्राषाढ़पुरिणमाए विसुत्तरंसतं, कारणे पुण छम्मासिओ जेठोत्ति उक्कोसो उग्गहो भवति । ___ अर्थ-इस पाठ में चूर्णिकार महाराज लिखते हैं कि इय सत्तरी इत्यादि नियुक्ति की गाथा है तदनुमार चंद्रवर्ष में २० रात्रि सहित १ मास अर्थात् ५० दिने भाद्र शुक्ल पंचमी को गृहि ज्ञात (मांवत्सरिक कृत्य विशिष्ट ) श्रीपर्युषण पर्व किये वाद कार्तिक पूर्णिमा को प्रतिक्रमण करके दूसरे दिन विहार करनेवाले साधुओं को ७० दिन उस क्षेत्र में रहने के होते हैं, ७५ दिन भाद्रपद अमावस्या को (गृहिअज्ञात) पर्युषणस्थापना करने वालों को होते हैं, इसी तरह भाद्रपद कृष्ण दशमी को ८० दिन, एवं भाद्रपद कृष्ण पंचमी को ८५ दिन, श्रावण पूर्णिमा को ६० दिन, एवं श्रावण शुक्ल दशमी को चंद्रवर्ष में (गृहिअज्ञात) पर्यषण पर्व की स्थापना करनेवाले साधुओं को कार्तिक पूर्णिमा
पर्यत १५ दिन रहने के लिये होते हैं। • एवं चन्द्रवर्ष में श्रावण शुक्ल ५ को गृहिअज्ञात उक्त स्थापना
पर्युषण और अभिवलित वर्ष में जैनटिप्पने के अनुसार २० दिने
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(४०) श्रावण शुक्ल पंचमी को गृहिज्ञात [सांवत्सरिक कृत्य विशिष्ट श्रीपर्युषण पर्व करने वाले साधुओं को कार्तिक पूर्णिमा पर्यंत १०० दिन उस क्षेत्र में शेष रहने के होते हैं, श्रावण अमावास्या को उक्त गृहिअज्ञात पर्युषणपर्व की स्थापना करनेवालों को १०५ दिन होते हैं, एवं श्रावण कृष्ण दशमी को ११० दिन, एवं श्रावण कृष्ण पंचमी को ११५ दिन, एवं आषाढ़ पूर्णिमा को गृहिअज्ञात पर्युषण पर्व की स्थापना करके रहे हुए साधुओं को कार्तिक पूर्णिमा पर्यंत १२० दिन रहने के होते हैं, कारणयोगे पुनः काउण मासकप्पं, तत्थेव ठियाण जइ वास । मग्गसिरे सालंबणाणं । छम्मासिनो जेट्टोग्गहो होइत्ति ॥२॥ इस नियुक्ति गाथा से दूसरा अधिक आषाढ़ मास कल्प के दिनों को गिनती में मान कर मगसिर मासकल्प पर्यंत ६ महीने अर्थात् १८० दिन उस क्षेत्र में स्थविरकल्पि साधुओं को रहने का [ज्येष्ठ ] उत्कृष्ट कालावग्रह है।
विसंवादी का प्रश्न-ग्रजी ! आपने उपर्युक्त शास्त्रों के जो प्रमाण बताए हैं वे तो सब सत्य हैं । परन्तु हम लोग तो श्रीसमवायांगसूत्र के वचन को प्रमाण मानकर सांवत्सरिक प्रतिक्रमण से ७० दिन शेष मानते हैं अतएव अभिवर्द्धित वर्ष में लौकिक टिप्पने के अनुसार आश्विन वा कार्तिक मास की वृद्धि होने पर कालचूलारूप अधिक मास को गिनती में स्वीकार न करके १०० दिन के स्थान में ७० दिन मान लेते हैं और इसी प्रकार श्रावण वा भाद्रपद मास की वृद्धि होने पर ८० दिन के स्थान में ५० दिन कर लेते हैं और श्रीपर्युषणपर्व दूसरे श्रावण में वा प्रथम भाद्रपद में ५० दिने न करके ८० दिने यावत् दूसरे भाद्रपद अधिक मास में करते हैं । इसलिये क्या हमारा यह उक्त मंतव्य शास्त्र-विरूद्ध है ? ... उत्तर-अहो देवानुप्रिय ! बालजीवों को भरमाने के लिये
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(४१) चंद्रसंवत्सर संबंधी श्रीसमवायांगसूत्र के पाठ को अभिवर्द्धित वष संबंधी पर्युषण के स्थान में योजना करके उपर्युक्त अपनी मनमानी कपोलकल्पना दिखाते हो सो तो श्रीसमवायांगसूत्रपाठ से प्रत्यक्ष विरुद्ध है । तथाहि तत्पाठ
समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराइ मासे वइकंते सत्तरिएहिं राइदिएहिं सेसेहिं वासावासं पज्जोसवेइ ।
देखिये, इस पाठ में उपर्युक्त आपकी कपोलकल्पना का गंध भी नहीं है, क्योंकि यह पाठ अधिकमास नहीं होने से चन्द्रसंवत्सर के लिये केवल इतना ही विदित करता है कि श्रमण भगवान् महावीर प्रभु वर्षाकाल के २० रात्रिसहित १ मास वीतने पर और ७० दिन रात्रि शेष रहते वर्षावास का पर्युषण करते थे । यह कथन अभिवर्द्धित वर्ष संबंधी नहीं है किन्तु चन्द्रसंवत्सर संबंधी है । सो उपर्युक्त श्रीनिशीथचूर्णि आदि आगमपाठों से स्पष्ट विदित होता है । यथा
अभिवढिय वरिसे वीसतिरातेगते गिहिणातं करेंति तिसु चंदवरिसेसु सवीसतिराते मासे गते गिहिणतं करेंति इत्यादि ।
अभिवति वर्ष में जैनटिप्पने के अनुसार २० दिने गृहिज्ञात पर्युषण है सो जैनटिप्पने के अभाव से लौकिक टिप्पनों के अनुसार पंचाशतैवदिनैः पर्युषणासंगतेति वृद्धाः ५० दिने पर्युषण करना प्राचीनकाल के वृद्ध आचार्यों ने संगत कहा है, शेष १०० दिन पूर्ववत् रहते हैं । और तीन चन्द्रवर्षों में २० रात्रिसहित १
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( ४२ )
मास बीतने पर गृहिज्ञात पर्युषण करे, शेष ७० दिन चन्द्रसंवत्सर की पर्युषणा से पूर्ववत् रहते हैं । परन्तु चन्द्रसंवत्सर संबंधी ७० दिन के समवायांग सूत्रवाक्य को अभिवर्द्धित वर्ष में बतला कर शास्त्रकारों की कही हुई अभिवर्द्धित वर्ष संबंधी ५० दिने पर्युषणा को उल्लंघन करने के लिये १०० दिन के स्थान में ७० दिन की झूठी कल्पना करनी तथा ८० दिन के स्थान में ५० दिन की असत्य कल्पना करके यावत् दूसरे भाद्रपद अधिक मास में ८० दिने पर्युषण प्रतिपादन करना यह शास्त्रविरुद्ध उत्सूत्रप्ररूपणा का कदाग्रहमार्ग सर्वथा अनुचित है ।
महाशय वल्लभविजयजी ! आपके उक्त उपाध्यायों ने लिखा है कि- “दिनगणनायां त्वऽधिकमासः कालचूलेत्यऽविवक्षणात् इत्यादि" - अर्थात् दिनों की गिनती में तो अधिक मास कालचुला याने काल पुरुष के शिर पर चूड़ामणि रत्न समान अधिक मास उसके दिनों को गिनती में नहीं लेने से १०० दिन के ७० दिन हो जाते हैं और ८० दिन के ५० दिन कर लेते हैं । १०० दिन की वा ८० दिनकी बात भी कहाँ रहती है । इत्यादि आपके उक्त उपाध्यायजी ने हुकम जारी किया है सो कौन से सूत्र के कौन से दफे मुजिब किया है ? और उक्त हुकम के अनुसार १०० दिने दूसरे कार्त्तिक अधिकमास में चतुर्मासी कृत्य गिनती में किस तरह मानते हो ? तथा ८० दिने दूसरे भाद्रपद अधिकमास में पर्युषणकृत्य भी गिनती में कैसे माने जायगे ? क्योंकि उक्त अधिक मासों के दिनों को तो आप गिनती में मानते नहीं है, फिर आपके उक्त उपाध्यायजी ने पर्युषणा भाद्रपद मास प्रतिबद्धा इत्यादि लिखकर (अज्ज कालगेण सालवाहणो भणियो भद्दवयंजुराण पंचमीए पज्जोसवणा इत्यादि) कल्पचूर्णि तथा निशीथचूर्णि का पाठ
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( ४३ )
आपके उपाध्यायजी ने अभिवर्द्धित वर्ष में ८० दिने भाद्रपद सुदी ४ को वा दूसरे भाद्रपद अधिकमास की सुदी ४ को ८० दिने पर्युषण करने के लिये लिखा है, परंतु इससे आपके उक्त मंतव्य की सिद्धि कदापि नहीं हो सकती है । क्योंकि मासवृद्धि नहीं होने से चंद्रवर्ष में श्रीकालकाचार्य महाराज ने शालवाहन राजा को ५० वें दिन भाद्रपद सुदी ५ को पर्युषण अवश्य करना कहा, सो कारण योगे उक्त राजा के कहने से ४६ वें दिन चौथ को पर्युषण किया क्योंकि ५० दिन के भीतर पर्युषण करने कल्पते हैं, ऐसी आज्ञा है किंतु ५० वें दिन पर्युषण किये विना ५० वें दिन की रात्रि को उल्लंघनी कल्पती नहीं है, यह उक्त शास्त्रपाठों की आज्ञा है । उस आज्ञा को भंग करके ८० दिने पर्युषण करना सर्वथा अनुचित है । आपके उक्त उपाध्यायों ने लिखा है कि
-
न तु क्वाऽप्याऽऽगमे भदवय सुद्ध पंचमीए पज्जोसविजइत्तिपाठवत् अभिवयि वरिसे सावण सुद्ध पंचमी पज्जोसविज्जइत्तिपाठ उपलभ्यते ।
अर्थात् चंद्रवर्ष में २० दिनसहित १ मास याने ५० वें दिन भाद्रपद सुदी ५ को पर्युषण करना, इस पाठ की तरह अभिवर्द्धित वर्ष में २० वें दिन श्रावण सुदी ५ को पर्युषण करना ऐसा पाठ कोई भी आगम में लिखा हुआ नहीं मिलता । इस मिथ्या लेख से आपके मंतव्य की सिद्धि नहीं हो सकती है क्योंकि अभिवर्द्धित वर्ष में ८० दिने भाद्र सुदी ५ को वा दूसरे भाद्रपद अधिकमास की सुदी ५ को ८० दिने पर्युषण करना आगम में लिखा नहीं है तो आागमविरुद्ध आपके उक्त उपाध्याय
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( ४४ ) जी के महामिथ्या वचन कौन सत्य मानेगा ? क्योंकि आगम में तो नियुक्तिकार श्रीभद्रबाहुस्खामि ने लिखा है कि
अभिवढियंमि २० वीसा, इसरेसु २० सवीसइ १ मासो।
और श्रीनिशीथचूर्णि में श्रीजिनदासमहत्तराचार्य महाराज ने लिखा है कि
अभिवढिय वरिसे २० वीसतिरात्ते गते गिहिणातं करेंत तिसु चंदवरिसेसु २० सवीसतिराने १ मासे गते गिहिणातं करेंति इत्यादि।
उपर्युक्त सिद्धांतपाठों से जैनटिप्पने के अनुसार अभिवर्द्धित वर्ष में २० वें दिन श्रावण सुदी ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्य विशिष्ठ पर्युषण करें और तीन चंद्रवर्षों में २० रात्रि-सहित १ मास याने ५० वें दिन भाद्र सुदी ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्य-विशिष्ट पर्युषण करें । इस काल में जैनटिप्पने का सम्यग् ज्ञान नहीं है, वास्ते अभिवर्द्धित वर्ष में जैनटिप्पने के अनुसार २० वें दिन श्रावण सुदी ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्ययुक्त पर्युषण के स्थान में लौकिक टिप्पने के अनुसार ५० वें दिन दूसरे श्रावण सुदी ४ को वा प्रथम भाद्र सुदी ४ को पर्युषण करना संगत (युक्त) है । अर्थात् ८० दिने भाद्र सुदी ४ को वा दूसरे भाद्रपद अधिक मास की सुदी ४ को ८० दिने पर्युषगा करना संगत नहीं हैं (युक्त नहीं हैं)। सो ऊपर में अनेक शास्त्रपाठों से बता चुके हैं।
महाशय वल्लभविजयजी ! आपके धर्मसागरजी आदि उक्त
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( ४५ ) उपाध्यायों ने अपनी रची हुई कल्पसूत्र की टीकाओं में उक्त लेख के अनंतर लिखा है कि
कार्तिकमास प्रतिबद्ध चतुर्मासिक कृत्यकरणे यथा नाऽधिकमासः प्रमाणं तथा भाद्रमास प्रतिबद्ध पर्युषणाकरणेऽपि नाऽधिकमासः प्रमाण मिति त्यजकदाग्रहं । __ याने कार्तिकमास प्रतिबद्ध चतुर्मासिक कृत्य करने में अधिकमास दूसरा कार्तिक जैसा प्रमाण नहीं है वैसा भाद्रपद मास प्रतिबद्ध पर्युषणा करने में भी अधिकमास दुसरा भाद्र प्रमाण नहीं है, इसलिये कदाग्रह को त्याग कर । तो आप लोग चतुर्मासिक कृत्य १०० दिने दूसरे कार्तिक अधिकमास में करने का दुराग्रह क्यों करते हैं ? अथवा ७० दिने प्रथम कार्तिकमास में चतुर्मासिक कृत्य क्यों नहीं करते हैं ? इसी तरह दूसरे भाद्रपद अधिक मास में ८० दिने पयुषण करने का कदाग्रह त्यागकर शास्त्रसंमत ५० वें दिन प्रथम भाद्रसुदी ४ को पर्युषण क्यों नहीं करते हो ? फिर आगे आपके उपाध्यायजी ने लिखा है कि
__ अधिकमास किं काकेन भक्षितः किंवा तस्मिन् मासे पापं न लगति उतबुभुक्षा न लगति इत्याधुपहसन् मा स्वकीयं ग्रहिलत्वं प्रकटय ।
अर्थात् अधिकमास को क्या काक (कौए) भक्षण कर गए अथवा उस अधिकमास में क्या पाप नहीं लगता, क्या पूँख नहीं लगती कि जिससे अधिकमास को उसके दो पक्षों को ३० दिनों को गिनती में नहीं मानते हो ? इत्यादि उपहास्य करता हुआ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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अपना ग्रथिलपणा प्रकट मत कर । इससे आपका मंतव्य शास्त्रसंमत कदापि नहीं हो सकता । क्योंकि दूसरे भाद्रपद अधिकमास को तुमलोग भी गिनती में स्वीकार करते हो तथा अधिकमास में पाप पुण्य का बंध और पूंख लगती है यह भी मानते हो तो ग्रथिल [पागल-मूर्ख ] की तरह अधिकमास गिनती में नहीं, गिनती में नहीं, ऐसा सर्वथा महामिथ्या उत्सूत्रवचन बोलते हुए अपना उपहास्य क्यों कराते हो ?
उत्सूत्रवादी का प्रश्न-अधिकमास को गिनती में नहीं मानकर अभिवर्द्धित वर्ष के १२ मास २४ पक्ष ३६० रात्रिदिन का ही अभ्युठिया खमाना उचित है, किंतु १३ मास २६ पक्ष ३६० रात्रिदिन युक्त अभ्युठिया खमाना उचित नहीं है ?
उत्तर-अहो देवानुप्रिय ! चन्द्रसंवत्सर के १२ मास २४ पक्ष हैं, उनको अभिवर्द्धित वर्ष में योजित करके झूठी कल्पना से शास्त्रविरुद्ध उत्सूत्रप्ररूपणा क्यों करते हो ? कारण कि शास्त्रों में तो अभिवर्द्धित वर्ष के, १३ मास २६ पत्न श्रीतीर्थकर तथा गणधर महाराजों ने कहे हैं। ___ श्रीगणधर महाराजप्रणीत चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र में मूलपाठ । यथा
गोयमा ता पढ़मस्सणं चंदसंवच्छरस्स चउवीसाइं पव्वाइं दोच्चस्सणं चंदसंवच्छरस्स चउवीसाइं पव्वाइं तच्चस्सणं अभिवढिय संवच्छरस्स छवीसाइं पव्वाइं चउत्थस्सणं चंदसंवच्छरस्स चउवी साइं पव्वाइं पंचमस्सणं अभिवढिय संवच्छरस्स छवीसाइं पव्वाइं सपुवावरेण जुगे चउवीसाई अधिगाइं पव्वसयं भवति ति माख्खायं ।
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( ४७ )
भावार्थ - हे गौतम ! प्रथम चन्द्रवर्ष के २४ पक्ष होते हैं, दूसरे चन्द्रवर्ष के २४ पक्ष होते हैं, तीसरे अभिवर्द्धित वर्ष के २६ पक्ष होते हैं, चतुर्थ चन्द्रवर्ष के २४ पक्ष होते हैं, पाँचवें अभिवर्द्धित वर्ष के २६ पक्ष होते हैं । पूर्वापर सब पक्षों की गिनती करने से १ युग में १२४ पक्ष होते हैं । यह सब तीर्थकरों ने कहा है और मैं भी कहता हूँ ।
आचार्य श्रीमलयगिरजी महाराज विरचित टीकापाठ । यथा
संप्रति युगे सर्वसंख्यया यावन्ति पर्वाणि भवंति तावंति निर्दिदिक्षुः प्रतिवर्षं पर्वसंख्यामाह तापढ़मस्सणमित्यादि ताइति तल युगे प्रथमस्य णमिति वाक्यालंकृतौ चन्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विंशति पर्वाणि प्रज्ञप्तानि द्वादशमासात्मको हि चान्द्रः संवत्सरः एकैकस्मिश्च मासे द्वे द्वे पर्वणी ततः सर्व संख्या चंद्रसंवत्सरे चतुर्विंशतिः पर्वाणि द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विंशति पर्वाणि भवंति तृतीयस्याऽभिवर्द्धित संवत्सरस्य षडूविंशतिः (पक्ष) पर्वाणि तस्य त्रयोदश मासात्मकत्वात् चतुर्थस्य चान्द्र संवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि पंचमस्याऽभिवर्द्धित संवत्सरस्य षडूविंशतिः पर्वाणि कारणमनन्तरमेवोक्तं तत एवमेवोक्तेनैव प्रकारेण सपुव्वावरेणत्ति पूर्वापर गणित मिलनेन पंच
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( ४८ ) सांवत्सरिके युगे चतुर्विंशत्यधिक पर्वशतं भवतीत्याख्यातं सर्वैरपि तीर्थकृद्भिर्मया चेति ।
भावार्थ-अब युग के विषे सर्व संख्या से जितने पक्ष होते हैं उनको बताने की इच्छा से सूत्रकार श्रीगणधर महाराज प्रतिवर्ष में पक्षों की संख्या बतलाते हैं । युग में प्रथम चन्द्रसंवत्सर के २४ पक्ष होते हैं, क्योंकि १२ मास का चन्द्रसंवत्सर होता है, एक एक मास में दो दो पत्त होते हैं । उस कारण से सर्व संख्या करके चन्द्रवर्ष में २४ पक्ष होते हैं । पुनः दूसरे चन्द्रसंवत्सर के २४ पक्ष होते हैं और तीसरे अभिवर्द्धित संवत्सर के २६ पक्ष होते हैं, क्योंकि उस अभिवर्द्धित वर्ष के १३ मास होते हैं । चतुर्थ चन्द्रसंवत्सर के २४ पन्न होते हैं, पाँचवें अभिवर्द्धित वर्ष के २६ पन्न होते हैं। इसका कारण हम ऊपर बता चुके हैं कि अभिवर्द्धित वर्ष के १३ मास होते हैं । इसी प्रकार उपर्युक्त पूर्वापर गणित मिलाने से पाँच वर्ष का एक युग होता है। उस युग में १२४ पक्ष होते हैं, ऐसा सब तीर्थकरों ने कहा है और मैं भी कहता हूँ।
प्रियबंधु ! उपर्युक्त पाठ के अनुसार चन्द्रवर्ष में १२ मास २४ पन्न संयुक्त और अभिवर्द्धित वर्ष में १३ माम २६ पन्न संयुक्त अभ्युठिया खमाना, यही पक्ष सर्वज्ञ वचनों से संमत है।
और भी टुक विचार से देखिये कि आप लोग अधिक मास के २ पानिक प्रतिक्रमण में तीन तीन वार अभ्युठिया एक एक पत्न पन्द्रह पन्द्रह रात्रिदिन का अपने मुख से उच्चारण पूर्वक खमाकर गुरु आदि ८४ लक्ष जीवायोनियों के जीवों को खमाते हैं और आशातना तथा पापादि का मिथ्या दुष्कृत देते हैं। अब
आप ही अपने मन से विचारिये कि आपने अधिकमास में : पातिक प्रतिक्रमण किये । उन दोनों पत्नों का ? मास हुआ और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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(४६) शेष १२ मासों को जोड़ दिया तो दोनों मिलकर १३ मास हुए । इसी तरह एक अधिकमास के २ पातिक प्रतिक्रमण में एक एक पत्न बोलते हैं तो उनके २ पन हुए और दूसरे १२ मासों के २४ पन हुए । इसलिये चौवीस पत्त और दो पन कुल २६ पन्न हुए । एवं अधिकमास के २ पन्नों का पन्द्रह पन्द्रह रात्रि दिन आपने उच्चारण किया है तो ३० रात्रिदिन हुए और शेष १२ मासों के ३६० रात्रिदिन, कुल ३६० रात्रिदिन हुए तो फिर अभिवर्द्धित वर्ष के सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में आप लोग १३ मास २६ पक्ष ३६० रात्रिदिन क्यों नहीं बोलते हैं ?
और भी सुनिये, श्रावणादि मासों की वृद्धि होती है तो आप लोगों ने आषाढ़ सुदी १४ से कार्तिक सुदी १४ पर्यंत १० पातिक प्रतिक्रमण किये, उसमें भी एक एक पत्त पन्द्रह पन्द्रह रात्रिदिन का अभ्युठिया आपने खमाया, उस हिसाब से भी आपके मुख से ५ मास १० पक्ष १५० रात्रिदिन का उच्चारण हो चुका, तो फिर कार्तिक सुदी १४ के प्रतिक्रमण में ४ मास ८ पक्ष १२० रात्रिदिन जो बोलते हैं, वह असत्य हैं । यह प्रत्यन महामिथ्या भाषण किस कारण से करते हो ?
आपके उक्त उपाध्यायों ने अधिकमास होने पर भी अभिवर्द्धित वर्ष के १२ मास २४ पक्ष इत्यादि बोलने इसी तरह अधिकमास होने पर भी ४ मास ८ पन इत्यादि बोलने लिखे हैं सो तो उपर्युक्त श्रीतीर्थकर गणधर टीकाकार प्रणीत श्रीचंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र टीकापाठ से प्रत्यक्ष विरुद्ध असत्य कथन है । उसको कौन बुद्धिमान् सत्य मानेगा ? और जैनटिप्पने में तो तिथि घटती है बढ़ती नहीं, वास्ते १५ या १४ दिनरात्रि का पक्ष होता है। किंतु लौकिक टिप्पने में १३-१४-१५-१६ यह कमती वेसी दिन
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(५०) रात्रि का पक्ष होता है तो भी १५ दिन रात्रि बोलते हैं सो तो"गोयमा ! एगमेगस्स पख्खस्स पन्नरस्स दिवसा पन्नता इत्यादि" श्रीजंबुद्वीपप्रज्ञप्ति सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्रवचन से संमत है तथा लौकिक टिप्पने में किसी पन में एक या दो तिथि घट जाने से १३ या १४ दिनरात्रि होती है और किसी पन में एक तिथि अधिक होने से १६ दिनरात्रि होती है । इससे अभिवर्द्धित वर्ष के १३ मास २६ पक्ष के १२ मास २४ पक्ष इत्यादि नहीं हो सकते हैं । इसी तरह १०० दिनके ७० दिन या ८० दिनके ५० दिन कदापि नहीं हो सकते हैं। देखिये, श्रावण वा भाद्रपदमास की वृद्धि होने पर आपने आषाढ़चतुर्मासी प्रतिक्रमण के बाद ५ पाक्षिक प्रतिक्रमण अवश्य किये । उनमें एक एक पक्ष के पन्द्रह पन्द्रह रात्रिदिन बोले हैं, तो इस हिसाब से पाँच पक्ष के ७५ दिन हुए। उसके अनंतर
आप पाँचवें दिन सांवत्सरिक प्रतिक्रमण पर्युषण करते हैं । इस लिये कुल ८० दिन आपही के मुख से सिद्ध हो चुके, तथापि अपने ही मुख से आप असत्य बोलते हैं कि हम तो ५० दिने पर्युषण करने की शास्त्र की आज्ञा पालन करते हैं । छिःछिः छिः ! इस प्रकार कपटयुक्त मिथ्याभाषण साधु अथवा श्रावकों के लिये इस भव तथा परभव में सर्वथा हानिकारक है । और भी देखिये कि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के अनन्तर आप लोगों ने १० वें दिन भाद्रपद सुदी चतुर्दशी को पाक्षिक प्रतिक्रमण किया, उसके अनंतर आश्विन वा कार्तिक मास की वृद्धि होने पर ६ पाक्षिक प्रतिक्रमण आप लोगों ने किये, उसमें एक एक पत्न के पन्द्रह पन्द्रह रात्रिदिन का अभ्युठिया आपने खमाया। इस हिसाब से आपही के मुख से १०० दिन स्पष्ट सिद्ध हो चुके । याने १०० दिने कार्तिक चतुर्मासी कृत्य करते हो तथापि ७० दिने चतुर्मासी प्रतिक्रमण विहार श्रादि कृत्य करते हैं। यह आप लोगों का कथन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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शास्त्रविरुद्ध अपने गच्छकदाग्रह से प्रत्यक्ष असत्य प्रलापरूप है। अस्तु चंद्रवर्ष में अधिकमास नहीं होने से नव कल्प विहार कहलाता है, तथापि आपके उक्त उपाध्यायों ने लिखा है कि नवकल्प विहारादि में अधिकमास गिनती में नहीं, यह प्रत्यक्ष अपना असत्य मंतव्य दिखलाया है । क्योंकि-.
काउण मासकप्पं, तत्थेव ठियाण जइ वासं। मग्गसिरे सालंबणाणं, छम्मासिनो जेठोग्गहो होइति ॥१॥
यह नियुक्तिकार श्रीभद्रबाहुस्वामि ने जैनटिप्पने के अनुसार दूसरा आषाढ़ अधिक मासकल्प को गिनती में ले के मगसिर मासकल्प पर्यंत ६ मास ज्येष्ठ कालावग्रह से उसी एक क्षेत्र में सालंबी स्थविरकल्पि साधुओं को रहने की आज्ञा लिखी है । और शेष रहे ७ महीने के सात मासकल्प होते हैं। यह उपर्युक्त सब १३ मास उस अभिवर्द्धित वर्ष में होते हैं तो अधिकमास गिनती में नहीं, इस प्रत्यक्ष झूठे कदाग्रह को कौन बुद्धिमान् सत्य मानेगा ? आपके उक्त उपाध्यायों ने लिखा है कि--"आषाढ़े मासे दुपया इत्यादि सूर्यचारेऽपि " याने
आषाढ़मास की पूर्णिमा को (दुपया) जानु संबंधी छाया दो पैर (दो पग) माप जितनी जब हो तब पौरसी होती है (आगे ६ मास तक ७॥ या तिथिक्षय होने से ७ दिन रात्रि वीतने से । एक एक अंगुल छाया अधिक होने पर पौरसी होती है, इसी लिये आश्विनमास की पूर्णिमा को तीन पैर और पौषमास की पूर्णिमा को चार पैर जानु छाया होने से पौरसी हो पीछे ६ मास तक ७॥ या तिथिक्षय होने से ७ दिनरात्रि करके एक एक अंगुल छाया कमती होने पर पौरसी होती है, वास्ते चैत्र
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( ५२ )
मास की पूर्णिमा को तीन पैर और आषाढ़ मास की पूर्णिमा को दो पैर जितनी जानु छाया जब हो तत्र पौरसी हो ) यह ६ मास उत्तरायण तथा ६ मास दक्षिणायन (सूर्यचारेपि) सूर्य के चलने में भी अधिकमास गिनती में नहीं यह मंतव्य आपके उपाध्यायों ने व्यर्थ दिखलाया है । क्योंकि ऊपर में श्रावण से पौष तक ६ मास तथा माघ से आषाढ़ तक ६ मास, यह चंद्रसंवत्सर संबंधी १२ मासों की पौरसी की छाया दिखलाई है, इससे अधिकमास गिनती में नहीं, अथवा अधिकमास में सूर्यचार से पौरसी की छाया कमती बेसी न हो । ये दोनों बातें नहीं हो सकती हैं । क्योंकि आषाढ़ मास की पूर्णिमा को दो पैर जानु छाया रहते पौरसी हो आगे और साढ़े सात साढ़े सात दिन रात्रि होने से एक एक अंगुल अधिक छाया रहने से पौरसी होती है तो जैनटिप्पने के अनुसार दूसरा श्राषाढ़ अधिकमास होता है । उस मास में भी अन्य मासों की तरह साढ़े सात साढ़े सात दिनरात्रि होने से एक एक अंगुल छाया अधिक और दूसरे पौष में साढ़े सात साढ़े सात दिन रात्रि होने से एक एक अंगुल छाया कमती होते पौरसी माननी पड़ेगी । इस विषय में आप अन्यथा प्रकार से समाधान नहीं कर सकते हैं । और अधिक मास गिनती में नहीं, यह तो असत्य प्रलाप है । क्योंकि श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र की टीका में लिखा है कि
कथमधिकमाससंभवो येनाऽभिवर्द्धितसंवत्सर उपजायते कियता वा कालेन संभवतीति उच्यते इह युगं चंद्राऽभिवर्द्धितरूपपंचसंवत्सरात्मकं सूर्यसंवत्सराऽपेक्षया परिभाव्यमानमऽन्युनाऽतिरिक्तानि पंच वर्षाणि भवंति सूर्यमासश्च सार्वत्रिंश
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( ५३ ) दऽहोरात्रिप्रमाणः चंद्रमास एकोनविंशदिनानि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्ठिभागा दिनस्य ततो गणितसंभावनया सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासाऽतिक्रमे एकश्चंद्रमासोऽधिको लभ्यते इत्यादि । ___अर्थ-अधिक मास किस तरह होता है, जिस अधिकमास से अभिवर्द्धित संवत्सर होता है अथवा कितने काल से अधिक मास होता है वह बताते हैं कि यहाँ पर बारह बारह मास के तीन चन्द्रसंवत्सर और तेरह तेरह मास के दो अभिवद्धित संवत्सर, इन पाँच संवत्सरों का एक युग हो, ३६६ दिनरात्रि का एक सूर्यसंवत्सर होता है । ऐसे सूर्य संवत्सर की अपेक्षा से एक युग में विचारा जाय तो अन्यूनाधिक याने संपूर्ण पाँच वर्ष होते हैं । और सूर्यमास ३०॥ साढ़े तीस दिनरात्रि प्रमाण का होता है । चंद्रमाम २६ उन्तीस दिनरात्रि और एक दिनरात्रि के ६२ बासठ भाग करके उनमें से ३२ भागयुक्त हो याने २६॥ साढे उन्तीस दिनरात्रि का होता है । क्योंकि चंद्रकला की हानि तथा वृद्धि के निमित्त से तिथि संबंधी काल कमती होता है और सूर्य के चलने के निमित्त से दिनरात्रिसंबंधी काल अधिक होता है। वास्ते सूर्यमास ३०॥ दिनरात्रि प्रमाण का और तिथिसंबंधी चंद्रमास २६ ।। दिनरात्रि का होता है, तो एक दिनरात्रि अधिक हुआ। इस गणित के विचार से सूर्यसंवत्सर संबंधी ३० तीस मास वीतने पर एक चंद्रमास अधिक होता है । फिर सूर्य संवत्सर संबंधी ३० तीसमास वीतने पर दूसरा चंद्रमास अधिक होता है अर्थात् एक युग में चंद्रमास ६२ और सूर्यमास ६० उक्त गिनती में माने हैं । सूर्यचार में अधिकमास गिनती में नहीं, ऐसा आपके उक्त उपाध्यायों का मंतव्य मान लेवें तब तो एक युग की गिनती में
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( ५४ ) सूर्यचार से सूर्यमास ६० नहीं होते हैं, किंतु एकयुग में दो अधिकमास गिनती में नहीं ऐसा मानने से ५८ मास गिनती में रहते हैं । और शास्त्रकारों ने तो एक युग की गिनती में सूर्यचार से सूर्यमास ६० उनके चंद्रमास ६२ माने हैं । श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति चंद्रपज्ञप्तिसूत्र की टीका में लिखा है कि
सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासाऽतिक्रमे एकोऽधिकमासो युगे च सूर्यमासाः षष्ठिस्ततो भूयोऽपि सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासाऽतिक्रमे द्वितीयोऽधिकमासो भवति ।
भावार्थ-सूर्यसंवत्सर संबंधी ३० मास वीतने पर ३१ वाँ एक चंद्रमास अधिक हो एक युग में सूर्यचार से सूर्यमास ६० होते हैं, इसी लिये फिर भी सूर्यसंवत्सर संबंधी ३० मास बीतने पर ६२ वाँ दुसरा चंद्रमास अधिक होता है । श्रीचंद्रपज्ञप्ति सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र की टीकाओं में लिखा है कि___ यस्मिन् संवत्सरे अधिकमासः संभवेत् त्रयोदश चंद्रमासा भवंति सोऽभिवर्द्धितसंवत्सरः उक्तं च तेरसय चंदमासा वासो अभिवढियो य नायव्वो। ___ अर्थ-जिस संवत्सर में अधिकमास हो उस वर्ष में १३ मास होते हैं, वह अभिवर्द्धित संवत्सर है । कहा है कि एक पूर्णिमा को १ चंद्रमास, ऐसे १३ चंद्रमास वाला अभिवर्द्धितवर्ष जानना । और श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र में भी लिखा है कि-"गोयमा अभिपढिय संवच्छरस्स छवीसाइं पव्वाइं।" यह श्रीतीर्थकर गणधर महाराजों ने अधिकमास को गिनती में लेके अभिववित
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( ५५ ) संवत्सर के २६ पन कहे हैं तो अभिनिवेषिक मिथ्यात्व के कदाग्रह से उत्सूत्रभाषी के विना अन्य कौन अभिवर्द्धित संवत्सर के १२ मास २४ पन कहेगा ? महाशय वल्लभविजयजी ! आपके उक्त उपाध्यायों ने लिखा है कि
लोकेऽपि दीपालिकाऽक्षयतृतीयादिपर्वसु धन कलांतरादिषु च अधिकमासो न गण्यते ।
याने लोक में भी दिवाली अक्षयतृतीयादि पर्यों में और धनव्याजादि में अधिकमास नहीं गिनते हैं। इससे आपके मंतव्य की सिद्धि नहीं हो सकती है । क्योंकि अधिकमास को श्रीतीर्थकर गणधर आचार्य महाराजों ने गिनती में माना है तथापि आप यदि अधिक मास को गिनती में नहीं मानते हैं तो आप लोग दूसरे भाद्रपद अधिकमास में ८० दिने पर्युषण पर्व और दूसरे कार्तिक अधिकमास में १०० दिने चतुर्मासी कृत्य क्यों करते हो ? तथा उन दूसरे अधिकमासों को गिनती में क्यों मानते हो ? देखिये श्रीबृहत्कल्पचूर्णिकार महाराज ने लिखा है कि__ एत्थ अधिमासगो चेव मास गणिजति सो वीसाए समं वीसतिरातो भएणति चेव ।
अर्थ-(एत्थ) याने अभिवर्द्धित वर्ष में जैनटिप्पणे के अनुसार पौष और आषाढ़ अधिकमासं निश्चय गिनती में लिया जाता है, वह अधिकमास वीस रात्रि के साथ होने से २० वीस रात्रि याने श्रीनियुक्तिकार महाराज ने-"अभिवढियंमि २० वीसा इयरेसु २० सवीसइ १ मासो।" इस वाक्य से चंद्रवर्ष में ५० दिने और अभिवर्द्धित वर्ष में आषाढ़ पूर्णिमा से २० वीं रात्रि श्रावणसुदी ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि
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( ५६ ) कृत्ययुक्त पर्युषण करने की आज्ञा लिखी है। श्रीनिशीथचूर्णिकार जिनदासमहत्तराचार्य महाराज ने भी उपर्युक्त पाठ में लिखा है कि___ जम्हा अभिवढियवरिसे गिम्हे चेव सो मासो अतिकतो तम्हा वीसदिणा।।
अर्थ-जिस कारण से अभिवर्द्धित वर्ष में जैनटिप्पने के अनुसार पौष या आषाढ़ एक अधिकमास निश्चय ग्रीष्मऋतु में अतिक्रांत हो जाता है उसी कारण से जैनटिप्पने के अनुसार श्रीनियुक्तिकार महाराज ने अभिवति वर्ष में आषाढ़ पूर्णिमा से २०वें दिन श्रावणसुदी ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि कृत्ययुक्त पर्युषण करने लिखे हैं । तपगच्छ के श्रीधर्मसागरजी श्रीजयविजयजी श्रीविनयविजयजी ने स्वविरचित कल्पसूत्र की टीका के उपर्युक्त पाटों में लिखा है कि___ अभिवदितवर्षे चातुर्मासिक दिनादारभ्य २० विंशत्यादिनैः (पर्युषितव्यं) इत्यादि तत् जैन टिप्पनकाऽनुसारेण यत स्तत्र युगमध्ये पौषो युगांते चाषाढ़ एव वईते नाऽन्ये मासा स्तट्टिप्पनकं तु अधुना सम्यग् न ज्ञायते अतः ५० पंचाशतैव दिनैः पर्युषणा युक्तेति वृद्धाः।। __ भावार्थ-अभिवति वर्ष में आषाढ़ पूर्णिमा से २० वें दिन श्रावणसुदी ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि कृत्ययुक्त पर्युषण पर्व करना वह युग के मध्य पौष और युग के अंत में आषाढमास की वृद्धिवाले जैनटिप्पने के अनुसार है । उन जैनटिप्पनों का सम्यगज्ञान इस काल में नहीं है, इसीलिये श्रावणादि मास की वृद्धि
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( ५७ ) वाले लौकिक टिप्पने के अनुसार ५० वें दिन दूसरे श्रावणसुदी ४ को वा प्रथमभाद्रपद सुदी ४ को ५० दिने पर्युषण करने युक्त हैं, ऐसा वृद्ध पूर्वाचार्यों का कथन है । अर्थात् ८० दिने वा दूसरे भाद्रपद अधिकमास में सुदी ४ को ८० दिने पर्युषण करने युक्त नहीं हैं। ____ महाशय वल्लभविजयजी ! आपके उक्त उपाध्यायों ने लिखा है कि
सर्वाणि शुभकार्याणि अभिवदिते मासे नपुं. सक इति कृत्वा ज्योतिःशास्त्रे निषिद्धानि । ___ याने सब शुभकार्य बढ़े हुए दूसरे अधिकमास को नपुंसक मानकर ज्योतिषशास्त्र में निषेध किये हैं तो गुजराती प्रथमभाद्र वदी १२ से पर्युषण प्रारम्भ करके दूसरा भाद्रपद अधिक नपुंसक मास में ८० दिने सिद्धांत-विरुद्ध पर्युषण आप लोग क्यों करते हो ? ज्योतिषशास्त्र में लिखा है किवर्षासु शुभकार्याणि नाऽन्यान्यपि समाचरेत् । गृहीणां मुख्यकार्यस्य, विवाहस्य तु का कथा ॥१॥
अर्थ-वर्षा चतुर्मासी में अन्य भी शुभकार्य आचरण नहीं करें इत्यादि । तो वर्षा चतुर्मासी में आप लोग पर्युषण के शुभकार्य आचरण करोगे या नहीं ? याद रखना कि शास्त्रों में ८० दिने पर्युषण करने निषेध किये हैं, मुहूर्त विना ही आषाढ़ चतुमौसी से ५० दिने पर्युषणादि धर्मकृत्य अधिक मास में या वर्षा चतुर्मासी में करने ज्योतिषशास्त्र में निषेध नहीं किये हैं, किंत अच्छे मुहूर्त में करने योग्य गृहस्थ के विवाह आदि कार्य अधिक
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(५८) मास में और वर्षा चतुर्मासी में ज्योतिषशास्त्रकारों ने निषेध किये हैं । अस्तु, आपके उक्त उपाध्यायों ने लिखा है कि
“प्रास्तामऽन्योऽभिवर्द्धितो भाद्रपदवृद्धौ प्रथमो भाद्रपदोऽपि अप्रमाणमेव ।”
याने अन्य मास बढ़ाहुअा रहने दो, दूसरा भाद्रपद अधिकमास होने पर स्वाभाविक प्रथम भाद्रपद मास भी गिनती में नहीं । यह अनेक आगम-वचनों को बाधाकारी, प्रत्यक्ष-विरुद्ध, महामिथ्या वचन कौन सत्य मानेगा ? क्योंकि जैनागम श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति आदि सूत्र तथा टीका चूर्णि आदि ग्रंथों के उपर्युक्त पाठों में अर्थतः श्रीतीर्थंकर महाराजों ने, सूत्रतः श्रीगणधर महाराजों ने
और नियुक्ति चूर्णि टीकाकार आदि महाराजों ने अधिक मास को गिनती में माना है । वास्ते स्वाभाविक प्रथमभाद्रपद मास और दूसरा भाद्रपद अधिक मास गिनती में अवश्य प्रमाण किया जायगा तथा स्वाभाविक प्रथम भाद्रपद मास की सुदी ४ को ५० दिने श्रीपर्युषण पर्व करने संबंधी उपर्युक्त शास्त्रपाठों की आज्ञा का ' भंग नहीं किया जायगा। आपके उक्त उपाध्यायों ने लिखा है कि__“यथा चतुर्दशीवृद्धौ प्रथमां चतुर्दशीमवग
णय्य द्वितीयायां चतुर्दश्यां पाक्षिककृत्यं क्रियते तथाऽत्राऽपि।"
याने जैसे चतुर्दशी पर्वतिथि की वृद्धि होने पर सूर्योदययुक्त ६० घड़ी की संपूर्ण पहिली चतुर्दशी पर्वतिथि को पापकृत्यों से विराध के अर्थात् पाक्षिक प्रतिक्रमण पौषधादि धर्मकृत्यों को निषेध कर दूसरी किंचित् चतुर्दशी को पाक्षिक प्रतिक्रमणादि
कृत्य करते हैं वैसे यहाँ पर भी स्वाभाविक प्रथम भाद्रपद सुदी ४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( ५६ ) को ५० दिने पर्युषण करने की उपर्युक्त शास्त्रपाठों की आज्ञा का भंग करके गुजराती प्रथम भाद्र वदी १२ से पर्युषण प्रारंभ करके दूसरे भाद्रपद अधिक मास में सुदी ४ को ८० दिने पर्युषण करते हैं। यह मंतव्य पंचांगी के किस पाठों के आधार से लिखा है, उन सूत्र, नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीका आदि पंचांगी के पाठों को बतलाइये ? अन्यथा उक्त मनःकल्पित मंतव्य को सिद्धांत-विरुद्ध समझ कर त्याग देना उचित है । क्योंकि उपर्युक्त सूत्र, नियुक्ति, चूर्णि, टीका आदि शास्त्रपाठों के आधार से जैन टिप्पने के अनुसार अभिवर्द्धित वर्ष में आषाढ़ पूर्णिमा से २० दिने श्रावण सुदी ५ को गृहिज्ञात सांवत्सरिक कृत्ययुक्त पर्युषण, उसके स्थान में जैनटिप्पने के अभाव से लौकिक टिप्पने के अनुसार ५० दिने दूसरे श्रावण सुदी ४ को वा प्रथम भाद्र सुदी ४ को ५० दिने पर्युषण करना संगत ( युक्त ) है, यह श्री वृद्ध पूर्वाचार्य महाराजो के वचन श्रीकल्पसूत्र को टीकाप्रो में आपके उक्त उपाध्यायों ने भी लिखे हैं । तथा ५० दिन के अंदर भी पर्युषण करने कल्पते हैं, परंतु पर्युषण किये विना ५० वें दिन की रात्रि को उल्लंघन करना कल्पता नहीं है, यह श्रीमूल कल्पसूत्रादि ग्रंथों में साफ मना लिखा है। वास्ते इस आज्ञा का भंग करके दूसरे भाद्रपद अधिकमास में सुदी ४ को ८० दिने पर्युषण करना सर्वथा असंगत है । अस्तु, आपके उक्त उपाध्यायों ने गुजराती प्रथम भाद्रपद मास को गिनती में अप्रमाण किया है तो बदी १२ से गुजराती प्रथम भाद्रपद मास में चार दिन जो आप लोग पर्युषण करते हैं वे गिनती में प्रमाण मानते हैं या नहीं ? और दूसरे भाद्रपद अधिकमास में ८० दिने पर्युषण करते हो तो दूसरे भाद्रपद सुदी ४ तक कोई ३५ उपवास करे, उसमें गुजराती प्रथम भाद्रपद मास संबंधी उपवास के ३० दिन
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आप गिनती में प्रमाण मानते हैं या नहीं ? तथा गुजराती प्रथम भाद्रपद मास के दो पानिक प्रतिक्रमण में १५-१५ रात्रि दिन गिनती में बतलाते हो तो फिर दूसरे भाद्रपद अधिकमास में ८० दिने पर्युषण करते हुए इन उपर्युक्त पंद्रह दूने ३० रात्रि दिनों को गिनती में नहीं बतलाते हो, यह प्रत्यत मिथ्या प्रलाप है या नहीं ?
और चतुर्दशी की वृद्धि होने पर सूर्योदययुक्त ६० घड़ी की संपूर्ण प्रथम चतुर्दशी पर्वतिथि को पाक्षिक प्रतिक्रमण पौषध आदि धर्मकृत्य निषेध कर पापकृत्यों से उस पर्वतिथि को आप लोग विराधना बतलाते हो और दूसरी को पाक्षिक कृत्य करते हो, तथा इस दृष्टांत से प्रथम भाद्रपद मास में ५० दिने पर्युषण करना निषेध कर दूसरे भाद्रपद अधिकमास में आगम-विरुद ८० दिने पर्युषण करने बतलाते हो, तो जैसे अमावास्या या पूर्णिमा की वृद्धि होने पर प्रथम अमावास्या या प्रथम पूर्णिमा में आप लोग पाक्षिक प्रतिक्रमणादि कृत्य करते हैं वैसे स्वाभाविक प्रथम भाद्रपद मास में ५० दिने पर्युषण सिद्धांत-संमत क्यों नहीं करते हैं ?
श्रीज्योतिष्करंड पयन्ना की टीका में तथा श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति और चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र की टीका में लिखा है कि
अहोरात्रस्य ६२ द्वाषष्टिभागीकृतस्य सत्का ये ६१ एकषष्टिभागास्तावत् प्रमाणा तिथिः ।
अर्थ-दिनरात्रि के ६२ भाग करके, उनमें से ६१ भाग प्रमाण तिथि श्रीतीर्थकर गणधर आचार्य महाराजों ने प्रमाण मानी हैं । वास्ते चतुर्दशी की वृद्धि होने से सूर्योदययुक्त ६० घड़ी की सम्पूर्ण प्रथम चतुर्दशी पर्वतिथि को पातिक प्रतिक्रमण पौषधादि धर्मकृत्य निषेध करके पापकृत्यों से विराधना
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(६१) और अप्रमाण मानना, यह तपगच्छ वालों का मंतव्य उपर्युक्त सिद्धांतपाठ से विरुद्ध है । और श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराज के वचन पर कौन भव्य श्रद्धावान् नहीं मेगा ? देखिये उन महापुरुष के युक्त वचनों कोतिहिवुढ्ढीए पुव्वा, गहिया पड़िपुन्न भोग संजुता । इयरावि माणणिज्जा, परं थोवत्ति तत्तुल्ला ॥ १॥ __ अर्थ-तिथि की वृद्धि जैसे दो चतुर्दशी होने से प्रथम (पहिली) तिथि सूर्योदययुक्त ६० घड़ी की सम्पूर्ण भोगवाली ग्रहण करना संयुक्त है, याने उपवास, व्रत, ब्रह्मचर्य, प्रतिक्रमणादि धर्मकृत्यों से मानना प्रमाण है अर्थात विराधना युक्त नहीं। और दूसरी तिथि भी मान्य है, याने नाम सदृश किंचित् होती है। जैसे घड़ी आध घड़ी वा दो चार पल की किंचित् दूसरी चतुर्दशी और विशेष अमावास्या या पूर्णिमा होती है । वास्ते उसमें भी नीलोत्तरी कुशीलादि का त्याग करे और सूर्योदययुक्त संपूर्ण तिथि नहीं मिले तो सूर्योदययुक्त अल्पतिथि भी मान्य होती है । तत्संबंधी पाठ । यथा
अह जइ कहवि न लम्भंति, ताश्रो सूरुग्गमेण जुत्ताअो । ता अवरविद्ध अवरावि, हुज्ज न हु पुव्वतिहिविद्धा ॥ १ ॥ __ अर्थ-अथ यदि किसी तरह भी ( तानो ) वह संपूर्ण तिथियाँ नहीं मिले तो सूर्योदय करके युक्त (ता) वह (अवर विद्ध अवरावि हुन्ज ) याने दूसरी तिथि में विद्धाणी हुई पूर्व तिथि भी मान्य होती है, जैसे कि सूर्योदय में चतुर्दशी है। बाद अमावास्या या पूर्णिमा हो तो दूसरी तिथि अमावास्या या पूर्णिमा
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में विद्धाणी हुई सूर्योदय करके युक्त पूर्वतिथि अल्प चतुर्दशी भी मान्य होती है । और (न हु पुव्वतिहिविद्धा) याने पूर्वतिथि से विद्धाणी हुई सूर्योदयरहित तिथि पर वह प्रमाण नहीं की जाती है। जैसे कि सूर्योदय से २ घड़ी त्रयोदशी है उसके बाद चतुर्दशी होवे तो सूर्योदयरहित वह चतुर्दशी प्रमाण नहीं की जायगी, किंतु सूर्योदय करके युक्त पूर्व तिथि २ घड़ी की अल्प त्रयोदशी ही मानी जायगी । तपगच्छनायक श्रीरत्नशेखरसूरिजी ने भी श्राद्धविधि ग्रंथ में लिखा है कि
पारासरस्मृत्यादावपि, आदित्योदयवेलायां । या स्तोकापि तिथिर्भवेत्, सा संपूर्णेति मंतव्या, प्रभूता नोदयं विना ॥ १॥
अर्थ-पारासरस्मृति आदि ग्रंथों में भी लिखा है कि सूर्योदय के समय में थोड़ी सी भी जो तिथि हो तो वही तिथि संपूर्ण मान लेनी चाहिये और सूर्योदय के समय जो तिथि न हो और पश्चात बहुत हो तो सूर्योदयरहित वह तिथि नहीं मानी जाती है । श्रीदशाश्रुतस्कंध भाष्यकार महाराज ने भी लिखा है कि
चाउम्मासिय वरिसे, पख्खियपंचट्टमीसुनायव्वा। तानो तिहिरो जासिं, उदेइ सूरो न अन्नात्रो॥१॥
अर्थ चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, पाक्षिक और पंचमी अष्टमी इत्यादि पर्वदिनों में वही तिथियाँ मानने योग्य जानना चाहिये, जिन चातुर्मासिक आदि पर्वतिथियों में सूर्य उदय हुआ हो । सूर्योदय रहित अन्य तिथियाँ मान्य नहीं । याने सूर्योदय के समय में चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, पाक्षिक आदि पर्वतिथियाँ जो हों उन्हीं तिथियों में चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, पानिकादि प्रतिक्रमण पौषधादि धर्मकृत्य करने चाहिये, यह शास्त्रकारों की आज्ञा है । तो चतुर्दशी वा प्रमा
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वास्या या पूर्णिमा का क्षय होने से तपगच्छवाले तेरस तिथि में पाक्षिक प्रतिक्रमण या चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करते हैं, सो
आगम-संमत नहीं है । क्योंकि उपर्युक्त गाथापाठ से स्पष्ट विदित होता है कि सूर्योदययुक्त चातुर्मासिक पानिक तिथियों में चातुर्मासिक पातिक प्रतिक्रमणादि कृत्य करने के हैं, अन्य तेरस तिथि में नहीं । इसी लिये चतुर्दशी का क्षय हो तो आगम-संमत पूर्णिमा, अमावास्या में ; और अमावास्या पूर्णिमा का क्षय हो तो आचरणा संमत चतुर्दशी में पानिक या चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि कृल करने उचित हैं । क्योंकि श्रीज्योतिष्करंड पयन्नादि ग्रंथों में लिखा है कि
छठी सहिया न अट्ठमी, तेरसी सहिअं न पख्खि होइ । पडिवया सहिअं न कइभावि, इयं भणियं वीयरागेहिं ॥१॥
भावार्थ-अष्टमी का तय हो तो अष्टमी संबंधी नियमादि धर्मकृत्य सप्तमी में हो, छठ तिथि के साथ नहीं हो सकते हैं। इसी तरह चतुर्दशी का क्षय हो तो चतुर्दशी संबंधी नियमादि धर्मकृत्य तेरस तिथि में हो, परंतु अमावास्या या पूर्णिमा संबंधी पाक्षिक, चातुर्मासिक, प्रतिक्रमणादि कृत्य तेरस तिथि के साथ नहीं होते, वास्ते अमावास्या या पूर्णिमा में करे और अमावास्या पूर्णिमा का क्षय हो तो चतुर्दशी में करे । तेरस तिथि में चातुर्मासिक या पातिक प्रतिक्रमणादि कृत्य नहीं हो तथा एक्कम तिथि में भी नहीं हो, यह श्रीवीतराग तीर्थकर महाराजों ने कहा है । और अमावास्या या पूर्णिमा की वृद्धि होने से तपगच्छवाले स्वाभाविक पहिली अमावास्या वा पहिली पूर्णिमा में नातुर्मासिक, पाक्षिक प्रतिक्रमणादि कृत्य करते हैं और चतुर्दशी पर्वतिथि को पानिक
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या चातुर्मामिक प्रतिक्रमण पौषधादि धर्मकृत्य निषेध कर पापकल्पों से विराधते हैं, तथा चतुर्दशी की वृद्धि होने से सूर्योदयपुक्क ६० घड़ी की संपूर्ण स्वाभाविक पहिली चतुर्दशी पर्वतिथि को पातिक या चातुर्मासिक प्रतिक्रमण पौषधादि धर्मकृत्य निषेध कर पाप-कृत्यों से विराधते हैं । इसी तरह स्वाभाविक पहिली दूज, पहिली पंचमी आदि तिथियों को भी विराधते हैं, इससे दोष के भागी अवश्य होते हैं । क्योंकि श्रीदशाश्रुतस्कंधभाष्यकार महाराज ने लिखा है कि
उदयमि या तिही सा, पमाण मियरा उकीरमाणाणं । आणा भंगण वत्था, मिच्छत्त विराहणा पावं ॥१॥
अर्थ-सूर्योदय में जो पर्वतिथि हो सो मानना प्रमाण है उसको (इयरा) अन्य अपर्वतिथि करनेवालों को जैसे कि दो दूज हो तो दो एक्कम, दो पंनमी हो तो दो चौथ, दो अष्टमी हो तो दो सप्तमी, दो एकादशी हो तो दो दशमी, दो चतुर्दशी या दो अमावास्या वा दो पूर्णिमा हो तो दो तेरस अपर्वतिथियाँ करनेवालों को प्राज्ञा भंग अवस्था १ मिथ्यात्व २ और पर्वतिथि पापकृत्यों से विराधने से पाप ३ ये तीन दोष लगते हैं। श्राद्धविधि ग्रंथ में तपगच्छ के श्रीरत्नशेखरसूरिजी ने लिखा है कि
क्षये पूर्वा तिथिःकार्या, वृद्धौ कार्या तथोत्तरा। श्रीमहावीर निर्वाणे, भव्यै र्लोकानुगैरिह ॥१॥
भावार्थ-श्रीमहावीर निर्वाण कल्याणक संबंधी कार्तिक, अमावास्या तिथि का क्षय हो तो लोकानुवर्ती भव्य जीवों को
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( ६५ )
कल्याणक तपस्या पूर्वतिथि चतुर्दशी को करना, और उस अमावास्या तिथि की वृद्धि हो तो उत्तरतिथि दूसरी श्रमावास्या को करना, इस कथन से कोई भी चतुर्दशी या श्रमावास्या वा पूर्णिमा का क्षय हो तो तेरसतिथि में पाक्षिक या चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि कृत्य करने सिद्ध नहीं हो सकते हैं । और चतुर्दशी या अमावास्या वा पूर्णिमा आदि पर्वतिथि की वृद्धि हो तो ६० घड़ी की संपूर्ण स्वाभाविक पहिली पर्वतिथि को पापकृत्यों से विराधना और धर्मकृत्य निषेधना पापभीरु आत्मार्थी नहीं बता सकता है । महाशय वल्लभ विजयजी ! तपगच्छ के श्रावक चतुर्दशी पर्वतिथि को पापकृत्यों से विराधते है और पहिली अमावास्या तिथि में पाक्षिक प्रतिक्रमणादि कृत्य करते हैं तथा पहिली पूर्णिमा में चातुर्मासिक या पाक्षिक प्रतिक्रमण करते हैं, इसी तरह स्वाभाविक पहिले कार्त्तिकमास में ७० दिने चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि कृत्य और स्वाभाविक पहिले भाद्रपद मास में ५० दिने पर्युषण कृत्य करके उपर्युक्त शास्त्रपाठों की आज्ञा के आराधक क्यों नहीं बनते हैं ? अस्तु, आपके उक्त उपाध्यायोंने लिखा है कि
यानि हि दिनप्रतिबद्धानि देवपूजामुनिदानाssarयकादि कृत्यानि तानि तु प्रतिदिनंकर्त्तव्यान्येव इत्यादि ।
याने जो दिन प्रतिबद्ध देवपूजा मुनिदान प्रतिक्रमणादि कृत्य वह प्रतिदिन समय पर अवश्य करने चाहियें, तो आपके उक्त उपाध्यायों ने यह क्यों लिखा है कि-
यानि तु भाद्रपदादिमासप्रतिबद्धानि तानि तु
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(६६ ) तद्द्वयसंभवे कस्मिन् क्रियते इति विचारे प्रथम अवगणय्य द्वितीये क्रियते।
भवार्थ-जो ५० दिने भाद्रपद मास प्रतिवद्ध पर्युषण के प्रतिक्रमणादि कृत्य और ७० दिने कार्तिकमास प्रतिवद्ध कार्तिक चतुर्मासी के प्रतिक्रमणादि कृत्य करने के हैं वे तो दो भाद्रपद
और दो कार्तिक होने पर किस मास में कितने दिने करने, इस विवार में स्वाभाविक प्रथम भाद्रपद मास को और स्वाविक प्रथम कार्तिक मास को गिनती में नहीं मानकर दूसरे भाद्रपद अधिकमास में ८० दिने पर्युषण पर्व के प्रतिक्रमणादि कृत्य करते हैं और १०० दिने दूसरे कार्तिक अधिकमास में चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि कृत्य करते हैं, यह आपके उक्त उपाध्यायों ने कौन से सूत्रादि पाठों के आधार से अपना मंतव्य दिखलाया है, याने दुसरे भाद्रपद अधिकमास में ८० दिने सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि कृत्य करने तथा १०० दिने दूसरे कार्तिक अधिक मास में चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि कृत्य करने, यदि सूत्र-नियुक्ति-चूर्णि-टीकापाठों से संमत (संगत ) हो तो उन सिद्धांत पाठों को बतलाइये, अन्यथा उपर्युक्त सूत्र-नियुक्ति-चूर्णि टीकापाठों से विरुद्ध आपका यह उक्त कपोलकल्पित मंतव्य सत्य नहीं माना जायगा । आपके उक्त उपाध्यायों ने लिखा है कि
पश्य अचेतना वनस्पतयोऽधिकमासं नांगीकुर्वते येनाऽधिकमासं प्रथमं परित्यज्य द्वितीये एव मासे पुष्यंति यदुक्तं आवश्यक निर्युक्तौ-जइ फुल्ला कणिारया, चूअग अहिमासयंमि घुटमि ।
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( ६७ ) तुह न खमं फुल्लेउं । जइ पञ्चंता करिंति डुमराई ॥ १ ॥
अर्थ- देखो अचेतन वनस्पतियाँ अधिकमास को अंगीकार नहीं करती हैं जिससे अधिकमास प्रथम को त्यागकर दूसरे ही मास में पुष्पवाली होती हैं, आवश्यक निर्युक्ति में कहा है कि - हे आम्रवृक्ष ! अधिकमास में कोर वृक्ष फूलता है, तुमको फूलना ठीक नहीं क्योंकि अधम कणेर वृक्ष आडंबर करते हैं । यह आवश्यक टीकाकार महाराज ने अन्य का कथन है, ऐसा लिखा है, वास्ते इस कथन से आपका उक्त मंतव्य सिद्धांतसंमत नहीं हो सकता है, क्योंकि सिद्धांतों में ५० दिने पर्युषण करने लिखे हैं ८० दिने नहीं । और उपर्युक्ति श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति सूत्रादि के पाठों से विदित होता है कि संपूर्ण चेतनता वाले याने कैवल्यज्ञान वाले श्री तीर्थंकर और गणधर आचार्य महाराजों ने प्रथम और दूसरे अधिकमास को गिनती में माना है तथा चेतनतावाली अनेक उत्तम वनस्पतियाँ प्रथम और दूसरे अधिकमास में पुष्प तथा फलवाली होती हैं, इसी लिये उन उत्तम वनस्पतियों के पुष्प फलादि से श्रीपरमात्मा की मूर्ति की पूजा प्रथम और दूसरे अधिकमास में की हुई प्रत्यक्ष देखते हैं और गृहस्थ लोग उन उत्तम वनस्पतियों के प्रथम और दूसरे अधिकमास में पुष्प फलादि को सेवन करते हैं तो अधिकमास को वनस्पतियाँ अंगीकार नहीं करती हैं । प्रथममास को त्यागकर दूसरे ही मास में पुष्पवाली होती हैं, यह आपके उपाध्यायों का कथन कौन सत्य मानेगा ? क्योंकि प्रथम मास में वनस्पतिया पुष्पवाली नहीं होती हों तो उस प्रथम मास में पुष्पों का सर्वथा अभाव होना चाहिये सो ऐसा देखने सुनने में आता नहीं है । आम्रवृक्ष विशेष करके फाल्गुन चैत्र वैशाख मासों में फूलते हैं और कणेर वृक्ष के प्रायः सदा पुष्प ( फूल )
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(६८) आते हैं । इससे ८० दिने वा दूसरे भाद्रपद अधिकमास में ८० दिने पर्युषण करने कदापि सिद्ध नहीं हो सकते हैं । क्योंकि श्रीदशवैकालिकसूत्र की नियुक्ति तथा बृहत् टीका में लिखा है कि
___ अइरित्त अहिगमासा, अहिगा संवच्छरा य कालंमि । टीका-अतिरिक्ता उचितकालात् समधिका अधिकमासका प्रतीताः अधिकाः संवत्सराश्च षष्ठयऽब्दाद्यऽपेक्षया कालइति कालचूड़ा । - अर्थ-इन उपर्युक्त नियुक्ति तथा टीकापाठों के वाक्यों के अनुकूल प्रथम भाद्रपद मास उचित काल में है इसलिये प्रथम भाद्रपद मास अधिक नहीं हो सकता है, किंतु १२ मासों का उचित काल के ऊपर अधिक १३ वाँ दूसरा भाद्रपद मास अधिक होता है और ६० वर्ष आदि की अपेक्षा से अधिक संवत्सर होते है । वास्ते दूसरा भाद्रपद अधिकमास में ८० दिने उपर्युक्त सिद्धांतपाठों से विरुद्ध पर्युषण करके अधम कणेरवृक्ष की तरह तपगच्छवालों को फूलना उचित नहीं हैं, किंतु उपर्युक्त सिद्धांतपाठों के अनुकूल ५० दिने प्रथम भाद्रपद मास में पर्युषण करना संगत (युक्त) है। क्योंकि उपर्युक्त श्रीपर्युषण कल्प सूत्र पाठ में लिखा है कि पर्युषणपर्व किये विना ५० वें दिन की रात्रि को उल्लंघनी कल्पती नहीं है, यह साफ मना लिखा है । वास्ते ८० दिने वा दूसरे भाद्रपद अधिकमास में ८० दिने सांवत्सरिक प्रतिक्रमण केशलोचादि कृत्यविशिष्ट पर्युषण करना सर्वथा असंगत ( अयुक्त ) है, आपके उक्त उपाध्यायों ने लिखा है कि___ अभिवढियंमि वीसा इति वचनं गृहिज्ञात मात्राऽपेक्षया, इत्यादि।
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(६६) अर्थात्-(अभिवढियंमि वीसा) यह नियुक्तिकार श्रीभद्रबाहुस्वामीका वचन गृहिज्ञातमात्रा पर्युषण की अपेक्षा से है, यह आपके उक्त उपाध्यायों ने श्रीनियुक्तिकार महाराज के वचन से विरुद्ध प्ररूपणा लिखी हैं सो कौन बुद्धिमान सत्य मानेगा ? क्योंकि नियुक्तिकार श्रीभद्रबाहुस्वामी ने चंद्रवर्ष में ५० वें दिन
और अभिवर्द्धित वर्ष में जैनटिप्पने के अनुसार २० वें दिन गृहिज्ञात पर्युषण लिखे हैं, गृहिज्ञातमात्रा नहीं । देखिये नियुक्ति का पाठ । यथा
__ इत्थय अणभिग्गहियं । २० वीसतिरायं ५० सवीसइमासं ॥ तेण परमभिग्गहियं । गिहिणायं कत्तिमोजाव ॥ १॥
असिवाइ कारणेहिं, अहवा वासं ण सुट्ठ आरद्धं ॥ अभिवढियमि २० वीसा, इयरेसु २० सवीसइ १ मासो ॥ २॥
अर्थ-यहाँ पर अशिवादि कारणों से श्रावण वदी ५ मी आदि पर्वदिनों में अनभिग्रहीत [ अनिश्चित ] याने गृहिअज्ञात पर्युषण किये जाते हैं सो अभिवर्द्धितवर्ष में आषाढ़ चतुर्मासी से २० दिन पर्यंत हैं और चंद्रवर्ष में ५० दिन पर्यत हैं । उक्त दिन बीत जाने के बाद याने अभिवर्द्धित वर्ष में वीसवें दिन श्रावण सुदी ५मी को और चंद्रवर्ष में पचासवें दिन भाद्रपद सुदी ५मीको अभिग्रहीत [निश्चित ] गृहिज्ञात पर्युषणपर्व अवश्य करने का है और उसके बाद यावत् कार्तिक मास पर्यंत याने कार्तिक पूर्णिमा तक साधु उस क्षेत्र में अवश्य स्थिति करके रहे । याने अभिवर्द्धित वर्ष में २० दिने श्रावण सुदी ५मी को गृहिज्ञात पर्युषणपर्व अवश्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
उसके बाद यावत् काय स्थिति करके जात पर्युषणपर्व अव
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(७०) करके पश्चात् कार्तिक पूर्णिमा पर्यंत १०० दिन चतुर्मासी के शेष स्थिति करके अवश्य रहे । और चंद्रवर्ष में ५० दिने भाद्रपद सुदी ५मी को गृहिज्ञात पर्युषणपर्व करके पश्चात् कार्तिक पूर्णिमा पर्यंत ७० दिन चतुर्मासी के शेष स्थिति करके अवश्य रहे ।
श्रीजिनदास महत्तराचार्य महाराज ने श्रीनिशीथचूर्णि में [अभिवढियमि वीसा ] इस नियुक्ति वचन की व्याख्या लिखी है कि-अभिवढियवरिसे २० वीसतिराते मते गिहिणातं करेंति " इत्यादि तथा श्रीकल्पसूत्रटीकाओं में"अभिवर्द्धितवर्षे दिनविंशत्या पर्युषितव्यमित्युच्यते तत्सिद्धांतटिप्पनानुसारेण ।" इत्यादि श्रीवृद्धपूर्वाचार्य महाराजों ने जैनसिद्धांतटिप्पने के अनुसार अभिवर्द्धित वर्ष में आषाढ़ चतुर्मासी से २० दिने श्रावण शुक्ल ५ मी को गृहिज्ञात याने सांवत्सरिक कृत्ययुक्त श्रीपर्युषणपर्व करने लिखे हैं और जैनटिप्पने के अभाव से लौकिक टिप्पने के अनुसार ५० दिने दूसरे श्रावण शुक्ल ४ को वा प्रथम भाद्रपद शुक्ल ४ को ५० दिने श्रीपर्युषणपर्व करना संगत बताया है तो आपके उक्त उपाध्यायों ने अभिवर्द्धित वर्ष में २० दिने गृहिज्ञात पर्युषण को गृहिज्ञातमात्रा लिख कर उसके स्थान में ८० दिने वा दूसरे भाद्रपद अधिकमास में ८० दिने पर्युषण करने लिखे हैं, सो उपर्युक्त सूत्र-नियुक्ति-चूर्णि-टीका श्रादि पाठों से प्रत्यक्ष विरुद्ध हैं । वास्ते संगत नहीं माने जायँगे । फिर आपके उक्त उपाध्यायों ने लिखा है कि___ आसाढ़पुगिणमाए पज्जोसविंति एस उस्सग्गो सेसकालं पज्जोसविताणं अववाश्रोत्ति, श्रीनिशीथचूर्णि-दशमोदेशक-वचनादाऽऽषाढ़पूर्णिमायामेव लोचादिकृत्यविशिष्टा कर्त्तव्या स्यात् ।
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(७१) अर्थात् आषाढ़ पूर्णिमा को ( गृहिअज्ञात याने द्रव्य क्षेत्र काल भाव से स्थापना ) पर्युषण साधु करे यह उत्सर्गमार्ग है, शेष कालको पर्युषण करनेवालों का अपवादमार्ग है, ऐसा श्रीनिशीथचूर्णि के दशमाउद्देशा का वचन से प्राषाढ़ पूर्णिमा को ही लोचादि कृत्यविशिष्ट पर्युषणा करने योग्य होगी । इस कथन से ८० दिने वा दूसरे भाद्रपद अधिकमास में ८० दिने सांवत्सरिकप्रतिक्रमण केशलुंचनादि कृत्यविशिष्ट पर्युषण करने योग्य कदापि सिद्ध नहीं हो सकती है । क्योंकि आपके उक्त उपाध्यायों ने श्रीनिशीथचूर्णि का उपर्युक्त पाठ अधूरा लिखा है । देखिये श्रीजिनदास महत्तराचार्य महाराज ने श्रीनिशीथचूर्णि में इस तरह उक्त पाठ लिखा है कि___ आसाढ़पुण्णिमाए पज्जोसवेंति एस उस्सग्गो, सेसकालं पज्जोसवेत्ताणं सव्वो अववातो, अववातेवि २० सवीसतिरात १ मासतो परेण अतिकामेउं ण वद्दति २० सवीसतिराते १ मासे पुण्णे जति वासखेत्तं ण लम्भति तो रुख्खहेतुवि पज्जोसवेयव्वं ।
भावार्थ-आषाढ़ पूणिमा को [गृहिअज्ञात याने द्रव्य क्षेत्र काल भाव से स्थापना] पर्युषण साधु करे, यह उत्सर्ग मार्ग है । रहने योग्य क्षेत्र नहीं मिलने से पाँच पाँच दिनों की वृद्धि से शेष कालको पर्युषण करनेवाले साधुओं का सब अपवाद मार्ग हैं, अपवादमार्ग में भी २० रात्रिसहित १ मास से पर अतिक्रमण करना नहीं वर्तता हैं याने ५० वें दिन की रात्रि को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण केशलुंचनादि कृत्ययुक्त पर्युषण किये विना उलंघनी नहीं कल्पती है । २० रात्रिसहित १ मास अर्थात् ५० दिन पूर्ण
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( ७२ ) हो गये हों यदि साधु को रहने योग्य क्षेत्र नहीं मिला तो वृक्ष के नीचे भी रह कर ५० वें दिन पर्युषण अवश्य करना किंतु इस आज्ञा का उल्लंघन करके ८० दिने वा दूसरे भाद्रपद अधिकमास में ८० दिने पर्युषणपर्व उपर्युक्त सूत्र-नियुक्ति-निशीथचूर्णि-आदि आगम पाठों से विरुद्ध करने संगत नहीं है । क्योंकि शास्त्रकारों ने मना लिखी है सो मानना अवश्य उचित है । इत्यलं प्रसंगेन ।
। इति श्रीपर्युषण मीमांसा समाप्ता । श्रीहर्षमुनिजी आदि मुनियों को विदित हो कि आप लोगों ने उपर्युक्त सिद्धांत पाठों से विरुद्ध ८० दिने पर्युषण आदि तपगच्छ की समाचारी का पक्षपात के कदाग्रह से उक्त सिद्धांत पाठों से संमत ५० दिने पर्युषण आदि खरतरगच्छ की समाचारी करने के लिये गुरु श्रीमोहनलालजी महाराज की आज्ञाका भंग किया और हम लोगों ने उक्त गुरु महाराज की आज्ञा से ५० दिने पर्युषण आदि शास्त्र संमत अपने खरतरगच्छ की समानारी अंगीकार करी यह गुरु श्रीमोहनलालजी महाराज ने अपने संघाड़े में भेद पाड़ा इसी कारण से हर्षमुनिजी ने श्रीमोहनचरित्र के पृष्ठ ४१४ से ४२५ तक आ मारो गच्छ छे इत्यादि आग्रह थी जे संघमां भेद पाडे छे ते साधु नहीं बीजा गच्छमां जाय ते साधु नहीं (आत्मीयगच्छ) पोताना गच्छनी पुष्टी करनेवालो नरक में जाय इत्यादि भेदपाड़नेवाले गुरुमहाराज की तथा हम लोगों की निंदारूप अनेक आक्षेप कुटिलता से छपवायें हैं और उसवख्त शास्त्रसंमत खरतरगच्छ की समाचारी करने के लिये गुरु महाराज की प्राज्ञा का भंग करने से हर्षमुनिजी वगैरः पर गुरु महाराज श्रीमोहनलालजी कुपित होने से हर्षमुनिजी विगेरः सर्व सूरतगाम में त्रिशंकुकी तरह आचरण करते होगे इसी लिये हर्षमुनिजी ने श्रीमोहनचरित्र के पृष्ठ ४२१ में छपवाया हैं कि
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( ७३ ) “ सरैयमेव केशरमुनेः कठोर एव त्रिशंकुयमानत्वे हेतुरित्युन्नीतम् ” ।
अर्थ-- वखते आवेला सर्वेए मनन करी जाणी लीधुं के "कठोर गाममांज त्रिशंकुनी पेठे अंतरियाल केशरमुनिजी रोकाइ रह्या तेनु एज कारण होवू जोइये" एटले केशरमुनिजीए वय अने कुल मा घणोज ओछो शिष्य कीधेलो होवाथी महाराजश्रीए कुपित थइ तेमनी इच्छा होवा छतां पोतानी पासे आवा दीधा नहीं तेथी कठोर गाममांज रह्या हता, इस लेख से केशरमुनिजी की निंदा बतलाने के लिये हर्षमुनिजी ने अपना द्वेषभाव जो प्रकाशित किया है, सो अनुचित है। क्योंकि भावसारकुल कणबीकुल जाटकुल से आहारपाणि साधु लेते हैं, केशरमुनिजी ने ६ वर्ष हुए जाटकुल का शिष्य किया उत्तम जीव है और तपगच्छ में तथा खरतरगच्छ में अनेक मुनियों ने भावसारकुल के कणबीकुल के जाटकुल के उत्तम जीवों को शिष्य किये हैं तो परभव में नीचकुल को प्राप्त करनेवाला कुलमद हर्षमुनिजी आदि को करना उचित नहीं है, तथापि द्वेषभाव से कूदते हुए इससे भी अधिक निंदा और कुल मद करें। आपके लेखानुसार उत्तर आपको तथा दूसरों को मिलतेही रहेंगे, अन्यथा आपके द्वेष की शांति नहीं होंगी, यह अवश्य याद रखना। और उस वखत भोयणी गाम में केशरमुनिजी को हर्षमुनिजी . ने पत्र में लिखा था कि-"महाराजजीए लखाव्युं छे के तमारे आवचानी मरजी होय तो सुखेथी आवजो।" इत्यादि पत्र मौजूद है तथा श्रीपद्ममुनिजी ने केशरमुनिजी को पत्र में यह सत्य लिखा था कि"तमोने इहां भाववासारु महाराजे मने लखानु कीधुं पण कांतिमुनिजीए द्वेषथी महाराजने मना कीधी तेथी महाराजे हालकठोर गाममां . ठहरवानु लखाव्युछे।" पाठकगण ! उक्त गुरु महाराज की आज्ञा
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( ७४ ) से केशरमुनिजी कठोर गाम में ठहरे थे तो द्वेष से त्रिशंकू आदि लिखवाना गुरुआज्ञा विरोधियों का कर्तव्य क्या बुद्धिमान् नहीं समझ सकते हैं ? क्योंकि ३-४ दिन के बाद श्रीमोहनलालजी महाराज का (काल) मृत्यु का तार हर्षमुनिजी ने केशरमुनिजी को दिया और पत्र तथा आदमी भेज के सूरत बुलाकर पास रक्ते, तो "कठोर गाममांज त्रिशंकुनी पेठे" इत्यादि निरर्थक लेख आपका द्वेषभाव और निंदास्वभाव ही विदित करवा है । क्योंकि गुरु श्रीमोहनलालजी महाराज की आज्ञा से पन्यास श्रीयशोमुनिजी देवमुनिजी कमलमुनिजी आदि शिष्य प्रशिष्य साधुओं विहार करके भरुच तथा श्रीसिद्धाचलजी महातीर्थ की यात्रा को गये, उस वारे में भी हर्षमुनिजी ने श्रीगौतमगणधर का दृष्टांतपूर्वक शास्त्रविरुद्ध निंदा छपवाई है कि-"गुरु के अंत समय में शिष्य विहार करे वह समुद्रतीर के कोठे में डूबने जैसा है, उसकी गुरु सेवा बकरी के गलस्तन की तरह निष्फल है, गुरु से श्रेष्ठ तीर्थ कोई नहीं, तीर्थ की सेवा के लिये विहार करना हो तो गुरु के पास रह कर तीर्थ में श्रेष्ठ श्रीगुरुजी की सेवा करने में अधिक लाभ है, पृथ्वी ऊपर श्रीमोहनलालजी महाराज से श्रेष्ठ कोई सुना नहीं, अपने घर में रहे हुए चिंतामणि रत्न को छोड़ के दूसरे रत्न के लिये विकट अटवी में जाने वाले की इस दुनियाँ में हलकाश होय, यही इम को लाभ है, दूसरा लाभ कुच्छ भी नहीं ।" इस प्रकार शास्त्रविरुद्ध तथा श्रीगुरुमहाराज की आज्ञा से विरुद्ध होकर अपनी प्रतिष्ठा के लिये हर्षमुनिजी ने द्वेषभाव से कपोलकल्पित निदा के अनेक आक्षेप परमोपकारी पन्यास श्रीयशोमुनिजी आदि ६ मुनियों पर कुटिलता से लिखवा कर चरित्र में छपवाये हैं, परन्तु . शास्त्र तथा गुरु की जैसी आज्ञा हो वैसा शिष्य प्रशिष्यादि को हनतना उचित है । वास्ते गुरु के अंत समय में गुरु महाराज की
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( ७५ ) आज्ञा से विहार करनेवाले श्रीगौतमस्वामी तथा प्रयास भीयोमुनि जी आदि अन्य क्षेत्रों में रहनेवाले मुनियों पर उ शाला प्राक्षेप हर्षमुनिजी ने अपनी प्रशंसा पूर्वक अनुचित छपवायें हैं, इसीलिये उचित उत्तर लिखने में आये हैं । क्योंकि यदि हर्षमुनिजी को अपनी प्रशंसा की बहुत चाहना थी तो दूसरे की अनुचित निंदा त्यागकर अपनी प्रशंसा ही छपवा देते, परंतु दूसरों की निंदा छपवाना युक्त नहीं था । जैसे कि सूरतनगर में श्रीमोहनलालजी महाराज का प्रवेश दिन की पिछली रात्रि में सूरतनिवासी श्राविका और श्रावकों के ब्रह्मचर्य व्रत का वर्णन पृष्ठ २५० से २५४ तक हर्षमुनिजी ने छपवाया है कि
कपोलभित्तो स्वच्छायां, प्रियायाः पद्मपत्रिकां । केषांचिल्लिखितां याता, दोषा दोषविवर्जिता ॥
अर्थ-केटला एक पतियोने पोतानी प्रियाना स्वच्छगाल ऊपर पद्मपत्रिका ( केशरथी मिश्र थयेला चंदनवड़े कमलफूलनी पांखड़ी चितरवीते ) चितरसां चितरतां निर्दोष रात्री बीती गई अर्थात् तेत्रो चितरता रह्या अने रात्री वीती गई एटले तेमने अनायासे ब्रह्मचर्यव्रत थयूं।
केषां कपोतभ्रातृणां, संगमार्थमुपेयुषां । बहुधा यतमानानामपि सा तु विभावरी॥ कुमारतारालंकारसंभारोद्विग्नमानस्सैः। . चंचलैःसमयाभावात् स्त्रीजनैर्विफलीकृता।
अर्थ-केटला एक कपोत पत्नीनी पेठे विषयनी लालस लामो समागमने माटे पोत पोतानी स्त्रीत्री पासे गया अने घण।
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( ७६ ) प्रयास करवा लाग्या, परंतु फलांणाना छोकराने झीकनो पोशाक अने माराने नहीं एवी रीतनी हठ लइने बेठेली चंचल स्त्रीरोए तेमनी ते इच्छा निष्फल करी कारणके हठमांज रात्री वीती गई। __ इत्यादि ब्रह्मचर्य का वर्णन नहीं किंतु श्रृंगार रस का वर्णन या कुशील का वर्णन, इससे भी अधिक अधिक निर्लज्जता वाला निंदित छपवाया है, उसकी सूरत में महाराज के प्रवेश के वर्णन में क्या आवश्यकता थी ? नहीं, क्योंकि इस वर्णन से परत निवासी श्रावकों की लज्जानेवाली निंदाही साफ मालूम होती है। वास्ते दूसरों की निंदा त्यागकर हर्षमुनिजी को अपनी प्रशंसाही छपवानी युक्त थी, जैसे कि श्रीमोहनचरित्र के पृष्ठ ३५१ में हर्षमुनि जीने छपवाया है कि“षष्ठयां श्रीहर्षमुनिराट् शांतो दांतो वशी कृती। संन्यासकौशलयोतिपन्यासास्पदसंस्कृतः ॥ __ अर्थ—षष्टीने दिवसे शांत ( अंतरिंद्रिय दमन-मनोनिग्रह करनार) दांत ( बायेंद्रियोनो दमन करनार ) तेथीज इंद्रियोने वश राखनार अने कुशल श्रीहर्षमुनिजीने संन्यासमां प्रवीणता सूचक पन्यासपद अपवामां आव्युं ।
इस विषय में हर्षमुनिजी ने अपनी लंबी चौड़ी प्रशंसा लिखवाकर दिखलाई है परंतु श्रीभगवती सूत्र के योग करानेवाले तथा -सन्यासपद देनेवाले परमोपकारी पन्यास श्रीयशोमुनिजी का नाम केी नहीं लिखवाया, और पृष्ठ ३७६ में लिखवाया है किमुनि व श्राद्धैर्न महाराजैर्दत्तं चास्मा इदं पदं ।
शास्त्र गोहना मान्यमान्यैर्भगवतीसूत्रैर्दत्तमिदं पदं ॥
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( ७७ )
अर्थ- हर्षमुनिजी ने आपद महाराजे पण आयुं नथी तेम श्रावको पण आप्युं नथी परंतु श्रेष्ठ पुरुषोए पण मान्य करवा योग्य भगवती सूत्रे या पद आपेलुंछे" - इस कपोलकल्पित लेख से महाराज का पद भगवतीसूत्र ने दिया लिखा है और जैनपत्र में प्रथम छपवाया था कि महाराज के पद में महाराज के मृतक संबंधी आए हुए काँधियो ने हर्षमुनिजी को स्थापन किये, इस प्रकार के अनुचित लेखों से अपनी कृतघ्नता पूर्वक महत्वता के लिये प्रशंसा दिखलाना कौन बुद्धिमान ठीक कहेगा ? अस्तु पृष्ठ ३७७ में हर्षमुनिजी ने अपनी प्रशंसा छपवाई है कि
-
ऊचुश्चान्योन्यमिलिता हर्षोवक्ति यथा श्रुतम् । न चान्यवक्तृवन्मिष्टं प्रजल्पति सुरोचकम् ॥
अर्थ — सर्वे मलीने परस्पर कहेवालाग्या के श्रीहर्षमुनिजी बरोबर शास्त्रप्रमाणे कछे, परंतु बीजा वक्ताओनी पेठे मीढुं मीटुं ने रुचिकर लागे एवं गमे त्यांथी लावीने कहेता नथी ।
यं स्वधर्ममर्मज्ञो मोहनर्षिरिवास्ति भोः । वचोऽस्य सत्यमस्माकं शिरोधार्यं प्रमात्वतः ॥ अर्थ - ( हर्षमुनि) पोताना धर्मना मर्मने मोहनलालजी महाराज नी पेठे जाणे छे अने एमनुं वचन प्रमाणवालु होवाथी आपणे माथे चढाव जोइए ।
सत्यं वक्ति मितं वक्ति वक्ति सूत्रानुसारतः । नो नः प्रतारयत्येष धर्मभीरुः सदाशयः ॥
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( ७८ ) अर्थ—सारा अंत:करणवाला श्रीहर्षमुनिजी धर्मथी डरीने सूत्रप्रमाणे यथार्थ अने परिमित बोलेछे अने कोईरीते अमने गमे तेम समज्जावी उड़ावता नथी ।
[प्रश्न] सूत्र तथा शास्त्र के बड़े जानकार इसी लिये उपर्युक्त प्रशंसा के योग्य हर्षमुनिजी ने श्रीकल्पसूत्रादि शास्त्रविरुद्ध ८० दिने वा दूसरे भाद्रपद अधिक मास में ८० दिने पर्युषण आदि तपगच्छ की समाचारी करने के आग्रह से शास्त्रसंमत ५० दिन पर्युषण आदि खरतरगच्छ की समाचारी करने के लिये गुरु महाराज श्रीमोहनलालजी की आज्ञा का भंग क्यों किया ? और उक्त गुरु महाराज की आज्ञा से तथा उपर्युक्त शास्त्रपाठों से संमत ५० दिने पर्युषण आदि खरतरगच्छ की समाचारी पन्यास श्रीयशोमुनिजी आदि ने अंगीकार की, इस भेद के प्रसंग से कुटिलता पूर्वक हर्षमुनि ने श्रीमोहनचरित्र में छपवाया कि “भेदपाड़े ते साधु नहीं इत्यादि" तथा गुरु के अंत समय में विहार करे तो समुद्र कोठे डूबने जैसा है, गुरुसेवा निष्फल, तीर्थयात्रादि का लाभ नहीं इत्यादि शास्त्रविरुद्ध उत्सूत्र भाव के लेख बालजीवों को भरमाने के लिये क्यों छपवाये हैं ?
[उत्तर ] प्रियपाठकगण ! गुरु आज्ञा लोपी हर्षमुनिजी के लिखवाये हुए उपर्युक्त लेखों का यही अभिप्राय ज्ञात होता है कि हर्षमनिजी को अपनी प्रशंसा और दूसरों की निंदा लोकों को
दिखलानी थी, इसी लिये शास्त्रज्ञानशून्यता से दूसरों की व्यर्थ - केदा के उक्त आक्षेप लेख शास्त्रविरुद्ध अनुचित छपवाये हैं। और श्री मुनिोहन उत्तरार्द्र चरित्र के प्रत्येक स्थानों में अपनी अत्यंत श्लाघा में..शाशंसा) लिखा कर चरित्र की पूर्णता की है। अब आगे हर्षमुनिजी श्रीमोहनीदे शास्त्रविरुद्ध उत्सूत्रभाव के निदित लेखों से किस प्रकार
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( ७६ )
प्रत्युत्तर प्रदान करेंगे सो परमात्मा जाने, परंतु महाशय यह अवश्य याद रक्खें कि "सत्यमेव जयति नानृतम् ।" अर्थात् सत्य ही जयको प्राप्त करता है, असत्य नहीं । वास्ते आपके शास्त्रविरुद्ध उत्सूत्र भाव वाले प्रत्युत्तर के लेखों का भी प्रत्युत्तर हर्षहृदय दर्पण के तीसरे भाग में प्रकाशित किये जायेंगे। किंबहुना इत्यलं विस्तरेण । ॥ अथप्रशस्ति ॥
गच्छे खरतरेऽभूवन् वाचंयमपुरंदराः । श्रीमन्मोहनलालाख्याः सत्योपदेशतत्पराः ॥ १॥ अर्थ - श्रीखरतरगच्छ में सदुपदेशतत्पर मुनिनायक श्री - मनमोहनलालजी महाराज हुए ।। १ ।।
तेषामाज्ञापत्रेण स्व-समाचारिकृतादराः । शिष्या अभूवन् पन्यास श्री मद्यशोमुनीश्वराः ॥२॥
अर्थ - श्रीमोहनलाल जी महाराज का सदुपदेश रूप आज्ञापत्र के द्वारा शास्त्रसंमत ५० दिने पर्युषण आदि अपने खरतर - गच्छ की समाचारी अंगीकार करनेवाले शिष्य पन्यास श्रीमद्यशो - मुनि जी महाराज हुए ॥ २ ॥
तेषामाज्ञानुसारेण शास्त्रपाठप्रमाणतः । लिखितोऽयं मया ग्रंथो केशराभिदसाधुना ॥३॥
अर्थ - श्रीयशोमुनिजी महाराज की आज्ञा के अनुसार शास्त्रपाठों के प्रमाणों से यह ग्रंथ केशरमुनि ने लिखा ॥ ३ ॥
श्रागमाद्विरुद्धं यत्स्यात् मिथ्यादुस्कृतमस्तु तत् जिनवाणी प्रमाणा मे भवत्वऽव भवे भवे ॥ ४
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________________ (80) अर्थ-अागम से विरुद्ध जो लिखाना हो वो मिथ्या दुस्कृत हो और इस भव तथा भवोभव में मेरे को श्रीजिनराज की वाणी प्रमाण हो // 4 // जयंतु ते महाभाग्या, मोहनाख्या मुनीश्वराः / शांता जितेन्द्रियाः श्रेष्ठा, वीरशासनद्योतकाः // 5 // अर्थ-श्रीवीरप्रभु के शासन की उन्नति करनेवाले अर्थात् सत्य उपदेशक तथा शांत और जितेन्द्रिय, अतिश्रेष्ठ, महाभाग्यशाली श्रीमोहनलालजी महाराज सदा जय करानेवाले हो // 1 // जयंतु दुर्जना येऽपि, भ्रष्टा द्वेष्याश्च मानिनः / यदि जगति ते न स्युःसतां दोषान् प्रलांति के // 6 // अर्थ-श्रद्धाहीन द्वेषी अभिमानी दुर्जन भी जयवंते रहो यदि वे लोग संसार में न होते तो सज्जनों के दोष ग्रहण कौन करता ? // 2 // नमः सिद्धादिराजाय, नमो गौतमस्वामिने ! नमः सज्जनवृंदाय, दुजनाय नमो नमः // 7 // अर्थ-गिरिराज श्रीसिद्धाचलजी महातीर्थ को नमस्कार हो, श्रीवीरतीर्थकर के प्रथम गणधर श्रीगौतमस्वामी को नमस्कार हो, सज्जनवृंद को नमस्कार हो और दुर्जनों को बार बार अमस्कार हो // 3 // इत्यांतमंगलम् / मनि,TAARBHATTARAIY अशा इति हर्षहृदयदर्पणस्य द्वितीयभागः समाप्तः श्रीर - 775 -19 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com