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॥ श्रीपर्युषण मीमांसा॥ इष्टसिद्धिप्रदं पार्वं ध्यात्वा देवी सरस्वतीम् । श्रीपर्युषण मीमांसा क्रियते सद्धिया मया ॥१॥
अर्थ-इष्टसिद्धि को देनेवाले श्रीपार्श्व तीर्थंकर का और श्रीसरस्वती देवी का ध्यान करके समीचीन बुद्धि याने निष्पक्ष भाव से श्रीपर्युषण पर्व की मीमांसा करता हूँ ॥ १ ॥ पक्षपातो न मे गच्छे न द्वेषो वल्लभादिषु । किन्तु बालोपकाराय शास्त्रवाक्यम्प्रदर्श्यते ॥२॥
अर्थ-विचारवान् सज्जन वृन्द ! इस ग्रंथ की रचना से गच्छ संबंधी मेरा किसी प्रकार का पक्षपात नहीं है और श्रीबल्लभ विजयजी आदि में द्वेषभाव भी नहीं है किन्तु उक्त महात्मा ने अभिवति वर्ष में शास्त्रसंमत ५० दिने पर्युषण पर्व करनेवालों के प्रति आज्ञाभंग दोष आरोप करके पश्चात् जो कटु वाक्य जैनपत्र में प्रकाशित किये है उसका यथार्थ उत्तर रूप सर्वसंमत शास्त्रवाक्यों को बालजीवों के उपकारार्थ बताता हूँ ॥२॥ यथा सूत्रकृदंगादौ उत्सूत्र मत खंडनम् । तथाऽत्रापि यदुत्सूत्रं खंडयते तन्न दोषकृत् ॥३॥
अर्थ-जैसे श्रीसूयगडांग सूत्रादि ग्रंथों में अद्विाक्य विरुद्ध उत्सूत्र मत का खंडन स्वपरोपकार के लिये श्रीगणधरादि महाराजों ने किया है उसी तरह इस ग्रंथ में महात्मा श्रीवल्लभविजय जी का उपर्युक्त शास्त्रविरुद्ध उत्सूत्र कथन का आगम पाठ प्रमाणों से सूत्रादि पाठ रुचि सम्यग् दृष्टि जीवों के उपकारार्थ खंडन करता हूँ अतएव पाठकबग दोषावह न समझें ॥३॥
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