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( ७३ ) “ सरैयमेव केशरमुनेः कठोर एव त्रिशंकुयमानत्वे हेतुरित्युन्नीतम् ” ।
अर्थ-- वखते आवेला सर्वेए मनन करी जाणी लीधुं के "कठोर गाममांज त्रिशंकुनी पेठे अंतरियाल केशरमुनिजी रोकाइ रह्या तेनु एज कारण होवू जोइये" एटले केशरमुनिजीए वय अने कुल मा घणोज ओछो शिष्य कीधेलो होवाथी महाराजश्रीए कुपित थइ तेमनी इच्छा होवा छतां पोतानी पासे आवा दीधा नहीं तेथी कठोर गाममांज रह्या हता, इस लेख से केशरमुनिजी की निंदा बतलाने के लिये हर्षमुनिजी ने अपना द्वेषभाव जो प्रकाशित किया है, सो अनुचित है। क्योंकि भावसारकुल कणबीकुल जाटकुल से आहारपाणि साधु लेते हैं, केशरमुनिजी ने ६ वर्ष हुए जाटकुल का शिष्य किया उत्तम जीव है और तपगच्छ में तथा खरतरगच्छ में अनेक मुनियों ने भावसारकुल के कणबीकुल के जाटकुल के उत्तम जीवों को शिष्य किये हैं तो परभव में नीचकुल को प्राप्त करनेवाला कुलमद हर्षमुनिजी आदि को करना उचित नहीं है, तथापि द्वेषभाव से कूदते हुए इससे भी अधिक निंदा और कुल मद करें। आपके लेखानुसार उत्तर आपको तथा दूसरों को मिलतेही रहेंगे, अन्यथा आपके द्वेष की शांति नहीं होंगी, यह अवश्य याद रखना। और उस वखत भोयणी गाम में केशरमुनिजी को हर्षमुनिजी . ने पत्र में लिखा था कि-"महाराजजीए लखाव्युं छे के तमारे आवचानी मरजी होय तो सुखेथी आवजो।" इत्यादि पत्र मौजूद है तथा श्रीपद्ममुनिजी ने केशरमुनिजी को पत्र में यह सत्य लिखा था कि"तमोने इहां भाववासारु महाराजे मने लखानु कीधुं पण कांतिमुनिजीए द्वेषथी महाराजने मना कीधी तेथी महाराजे हालकठोर गाममां . ठहरवानु लखाव्युछे।" पाठकगण ! उक्त गुरु महाराज की आज्ञा
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