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( ६७ ) तुह न खमं फुल्लेउं । जइ पञ्चंता करिंति डुमराई ॥ १ ॥
अर्थ- देखो अचेतन वनस्पतियाँ अधिकमास को अंगीकार नहीं करती हैं जिससे अधिकमास प्रथम को त्यागकर दूसरे ही मास में पुष्पवाली होती हैं, आवश्यक निर्युक्ति में कहा है कि - हे आम्रवृक्ष ! अधिकमास में कोर वृक्ष फूलता है, तुमको फूलना ठीक नहीं क्योंकि अधम कणेर वृक्ष आडंबर करते हैं । यह आवश्यक टीकाकार महाराज ने अन्य का कथन है, ऐसा लिखा है, वास्ते इस कथन से आपका उक्त मंतव्य सिद्धांतसंमत नहीं हो सकता है, क्योंकि सिद्धांतों में ५० दिने पर्युषण करने लिखे हैं ८० दिने नहीं । और उपर्युक्ति श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति सूत्रादि के पाठों से विदित होता है कि संपूर्ण चेतनता वाले याने कैवल्यज्ञान वाले श्री तीर्थंकर और गणधर आचार्य महाराजों ने प्रथम और दूसरे अधिकमास को गिनती में माना है तथा चेतनतावाली अनेक उत्तम वनस्पतियाँ प्रथम और दूसरे अधिकमास में पुष्प तथा फलवाली होती हैं, इसी लिये उन उत्तम वनस्पतियों के पुष्प फलादि से श्रीपरमात्मा की मूर्ति की पूजा प्रथम और दूसरे अधिकमास में की हुई प्रत्यक्ष देखते हैं और गृहस्थ लोग उन उत्तम वनस्पतियों के प्रथम और दूसरे अधिकमास में पुष्प फलादि को सेवन करते हैं तो अधिकमास को वनस्पतियाँ अंगीकार नहीं करती हैं । प्रथममास को त्यागकर दूसरे ही मास में पुष्पवाली होती हैं, यह आपके उपाध्यायों का कथन कौन सत्य मानेगा ? क्योंकि प्रथम मास में वनस्पतिया पुष्पवाली नहीं होती हों तो उस प्रथम मास में पुष्पों का सर्वथा अभाव होना चाहिये सो ऐसा देखने सुनने में आता नहीं है । आम्रवृक्ष विशेष करके फाल्गुन चैत्र वैशाख मासों में फूलते हैं और कणेर वृक्ष के प्रायः सदा पुष्प ( फूल )
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