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या चातुर्मामिक प्रतिक्रमण पौषधादि धर्मकृत्य निषेध कर पापकल्पों से विराधते हैं, तथा चतुर्दशी की वृद्धि होने से सूर्योदयपुक्क ६० घड़ी की संपूर्ण स्वाभाविक पहिली चतुर्दशी पर्वतिथि को पातिक या चातुर्मासिक प्रतिक्रमण पौषधादि धर्मकृत्य निषेध कर पाप-कृत्यों से विराधते हैं । इसी तरह स्वाभाविक पहिली दूज, पहिली पंचमी आदि तिथियों को भी विराधते हैं, इससे दोष के भागी अवश्य होते हैं । क्योंकि श्रीदशाश्रुतस्कंधभाष्यकार महाराज ने लिखा है कि
उदयमि या तिही सा, पमाण मियरा उकीरमाणाणं । आणा भंगण वत्था, मिच्छत्त विराहणा पावं ॥१॥
अर्थ-सूर्योदय में जो पर्वतिथि हो सो मानना प्रमाण है उसको (इयरा) अन्य अपर्वतिथि करनेवालों को जैसे कि दो दूज हो तो दो एक्कम, दो पंनमी हो तो दो चौथ, दो अष्टमी हो तो दो सप्तमी, दो एकादशी हो तो दो दशमी, दो चतुर्दशी या दो अमावास्या वा दो पूर्णिमा हो तो दो तेरस अपर्वतिथियाँ करनेवालों को प्राज्ञा भंग अवस्था १ मिथ्यात्व २ और पर्वतिथि पापकृत्यों से विराधने से पाप ३ ये तीन दोष लगते हैं। श्राद्धविधि ग्रंथ में तपगच्छ के श्रीरत्नशेखरसूरिजी ने लिखा है कि
क्षये पूर्वा तिथिःकार्या, वृद्धौ कार्या तथोत्तरा। श्रीमहावीर निर्वाणे, भव्यै र्लोकानुगैरिह ॥१॥
भावार्थ-श्रीमहावीर निर्वाण कल्याणक संबंधी कार्तिक, अमावास्या तिथि का क्षय हो तो लोकानुवर्ती भव्य जीवों को
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