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अपभ्रंश-व्याकरण एवं छंद-अलंकार
अभ्यास उत्तर पुस्तक
डॉ. कमलचन्द सोगाणी
निदेशक जैनविद्या संस्थान-अपभ्रंश साहित्य अकादमी
द्वारा रचित अपभ्रंश-व्याकरण छंद एवं अलंकार के अभ्यासों की स्वयं जाँच हेतु ___ रचित उत्तर पुस्तक की
लेखिका श्रीमती शकुन्तला जैन
यामादिति
णाणुज्जीवी जीवो जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी
प्रकाशक
अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
राजस्थान
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अपभ्रंश-व्याकरण एवं छंद - अलंकार अभ्यास उत्तर पुस्तक
डॉ. कमलचन्द सोगाणी
निदेशक
जैनविद्या संस्थान - अपभ्रंश साहित्य अकादमी द्वारा रचित अपभ्रंश-व्याकरण छंद एवं अलंकार के अभ्यासों की स्वयं जाँच हेतु रचित उत्तर पुस्तक की लेखिका
श्रीमती शकुन्तला जैन
सहायक निदेशक
अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर
णाणु ज्जीनों जोनो जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी
प्रकाशक
अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैन विद्या संस्थान
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
राजस्थान
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प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी श्री महावीरजी - 322 220 (राजस्थान) दूरभाष – 07469-224323 प्राप्ति-स्थान 1. साहित्य विक्रय केन्द्र, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र
दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी . । सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004
दूरभाष - 0141-2385247 प्रथम संस्करण 2012 सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन मूल्य - 400 रुपये ISBN No. 978-81-92/276-5-1 पृष्ठ संयोजन फ्रैण्ड्स कम्प्यूटर्स जौहरी बाजार, जयपुर - 302003 दूरभाष – 0141-2562288
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मुद्रक
जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. एम.आई. रोड, जयपुर - 302 001
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अनुक्रमणिका
प्रकाशकीय
अपभ्रंश-व्याकरण
विषय
पृष्ठ संख्या
-.
सन्धि प्रयोग के उदाहरण समास प्रयोग के उदाहरण कारक अभ्यास 1 अभ्यास 2 अभ्यास 3 अभ्यास 4 अभ्यास 5 अभ्यास 6
. . . .
छंद एवं अलंकार
विषय
पृष्ठ संख्या
.
छन्द (खण्ड 1) अभ्यास (क) अभ्यास (ख) अभ्यास (ग) अभ्यास (घ)
५ ५
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अलंकार
अभ्यास (क) अभ्यास (ख)
विषय
छन्द (खण्ड 2 )
अभ्यास (क)
अभ्यास (ख)
अभ्यास (ग) अभ्यास (घ)
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333 15
53
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पृष्ठ संख्या
56
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प्रकाशकीय
'अपभ्रंश - व्याकरण एवं छंद - अलंकार अभ्यास उत्तर पुस्तक' अध्ययनार्थियों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है।
तीर्थंकर महावीर ने जनभाषा 'प्राकृत' में उपदेश देकर सामान्यजन के लिए विकास का मार्ग प्रशस्त किया । प्राकृत भाषा ही अपभ्रंश के रूप में विकसित होती हुई प्रादेशिक भाषाओं एवं हिन्दी का स्त्रोत बनी। अतः हिन्दी एवं अन्य सभी उत्तर भारतीय भाषाओं के विकास के इतिहास के अध्ययन के लिए 'अपभ्रंश भाषा' का अध्ययन आवश्यक है।
'अपभ्रंश ईसा की लगभग सातवीं से तेरहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण उत्तर भारत की सामान्य लोक-जीवन के परस्पर व्यवहार की बोली रही है।' हमारे देश में प्राचीनकाल से ही लोकभाषाओं में साहित्य-रचना होती रही है। अपभ्रंश साहित्य की विशालता, लोकप्रियता और महत्ता के कारण ही आचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'प्राकृत - व्याकरण' के चतुर्थ पाद में स्वतन्त्र रूप से अपभ्रंश भाषा की व्याकरण - रचना की ।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि अपभ्रंश भारतीय आर्यभाषाओं (उत्तर - भारतीय भाषाओं) की जननी है, उनके विकास की एक अवस्था है। डॉ. . हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- 'साहित्यिक परम्परा की दृष्टि से विचार किया जाए तो अपभ्रंश के सभी काव्यरूपों की परम्परा हिन्दी में ही सुरक्षित है।' द्विवेदी जी ने तो अपभ्रंश को हिन्दी की 'प्राणधारा' कहा है। हिन्दी एवं अन्य सभी उत्तरभारतीय भाषाओं के विकास के इतिहास के अध्ययन के लिये अपभ्रंश का अध्ययन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। अतः राष्ट्रभाषा हिन्दी सहित आधुनिक
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भारतीय भाषाओं के सन्दर्भ में यह कहना कि अपभ्रंश का अध्ययन राष्ट्रीय चेतना और एकता का पोषक है उचित प्रतीत होता हैं।
अपभ्रंश साहित्य के अध्ययन-अध्यापन एवं प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित जैनविद्या संस्थान के अन्तर्गत अपभ्रंश साहित्य अकादमी की स्थापना सन् 1988 में की गई। अकादमी का प्रयास है- अपभ्रंश के अध्ययन-अध्यापन को सशक्त करके उसके सही रूप को सामने रखना जिससे प्राचीन साहित्यिक-निधि के साथ-साथ आधुनिक आर्यभाषाओं के स्वभाव और उनकी सम्भावनाएँ भी स्पष्ट हो सकें।
वर्तमान में अपभ्रंश भाषा के अध्ययन के लिए पत्राचार के माध्यम से अपभ्रंश सर्टिफिकेट व अपभ्रंश डिप्लामो पाठ्यक्रम संचालित हैं, ये दोनों पाठ्यक्रम राजस्थान विश्वविद्यालय से मान्यता प्राप्त हैं।
किसी भी भाषा को सीखने, जानने, समझने के लिए उसके रचनात्मक स्वरूप/संरचना को जानना आवश्यक है। अपभ्रंश के अध्ययन के लिये भी उसकी रचना-प्रक्रिया एवं व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है। अपभ्रंश भाषा को सीखने-समझने को ध्यान में रखकर ही 'अपभ्रंश रचना सौरभ', 'अपभ्रंश अभ्यास सौरभ', 'अपभ्रंश काव्य सौरभ', 'प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ', 'अपभ्रंश-व्याकरण' 'अपभ्रंश अभ्यास उत्तर पुस्तक' आदि पुस्तकों का प्रकाशन किया जा चुका है। 'अपभ्रंश-व्याकरण एवं छंद-अलंकार अभ्यास उत्तर पुस्तक' इसी क्रम का प्रकाशन है।
शिक्षक के अभाव में अध्ययनार्थी 'अपभ्रंश-व्याकरण' एवं 'छंद-अलंकार' के अभ्यासों को हल करके जाँचने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। अतः इस कठिनाई को दूर करने के लिए 'अपभ्रंशव्याकरण' एवं 'छंद-अलंकार' के अभ्यासों को हल करके 'अपभ्रंश-व्याकरण एवं छंद-अलंकार अभ्यास उत्तर पुस्तक' की रचना की गई है, जिससे अध्ययनार्थी अभ्यासों को स्वयं जाँच सके।
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आशा है 'अपभ्रंश व्याकरण एवं छंद-अलंकार अभ्यास उत्तर पुस्तक' अपभ्रंश अध्ययनार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
श्रीमती शकुन्तला जैन ने बड़े परिश्रम से 'अपभ्रंश-व्याकरण एवं छंद-अलंकार अभ्यास उत्तर पुस्तक' को तैयार किया है जिससे अध्ययनार्थी अपभ्रंश भाषा को सीखने में अनवरत उत्साह बनाये रख सकेंगे। अतः वे हमारी बधाई की पात्र हैं।
पुस्तक प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वान एवं पृष्ठ संयोजन के लिए फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स के हम आभारी हैं। मुद्रण के लिए जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. धन्यवादाह है।
जस्टिस नगेन्द्र कुमार जैन प्रकाशचन्द्र जैन डॉ. कमलचन्द सोगाणी ...... अध्यक्ष मंत्री
संयोजक प्रबन्धकारिणी कमेटी जैनविद्या संस्थान समिति दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी जयपुर
आचार्य कुन्दकुन्द जन्म दिवस माघ शुक्ल पंचमी, वीर निर्वाण संवत्-2538 28.01.2012
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अपभ्रंश-व्याकरण
उत्तर
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सन्धि-प्रयोग के उदाहरण
(अपभ्रंश काव्य सौरभ)
निम्नलिखित का सन्धि विच्छेद कीजिए और सन्धि का नियम बतलाइये।
पाठ 1-पउमचरिउ आसाट्टमिहिं = आसाढ+अट्टमिहिं (आसाढ की अष्टमी के दिन)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व - स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। रहसुच्छलिय = रहस+उच्छलिय (हर्ष से पुलकित)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। पाणवल्लहिय = पाणवल्लहा+इय (इस प्रकार प्राणों से प्यारी )
- नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। धवलियासु = धवलिय+आसु (सफेद किया गया मुख)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। पढमाउसु = पढ़म+आउसु (प्रारम्भिक आयु की)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। धिगत्थु = धिग+अत्थु (धन को धिक्कार)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व . स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। जीवाउ = जीव+आउ (जीव की आयु) - नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ आ = आ।
अपभ्रंश-व्याकरण एवं छंद-अलंकार अभ्यास उत्तर पुस्तक
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वियप्पेवि = वियप्प + एवि ( विचार करके)
चिन्तावण्णु = चिन्ता+3
नियम 4- लोप - विधान सन्धिः (ख) ए, ओ से पहले अ, आ का लोप हो जाता है।
अणुवाहणु = अण+उवाहणु (बिना जूतों के)
+ आवण्णु ( चिन्ता में डूबे हुए)
नियम 1 - समान स्वर सन्धिः (क) आ + आ = आ।
णिसुणेवि = णिसुण + एवि (सुनकर )
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है।
वड्ढि
पाठ 2- पउमचरिउ
उव्वेल्लिज्जइ = उव्वेल्ल + इज्जइ ( उछाला जाता है )
2
नियम 4लोप - विधान सन्धिः (ख) ए, ओ से पहले अ, आ का लोप हो जाता है।
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। -
णवेप्पणु = णव + एप्पिणु (प्रणाम करके ) नियम 4लोप - विधान सन्धिः (ख) ए, ओ से पहले अ, आ का लोप हो जाता है।
बहु- दुक्खाउरु = बहुदुक्ख + आउरु ( बहुत दुःखों से पीड़ित ) नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ + आ = आ। विसयासत्तु = विसय + आसत्तु (विषय में आसक्त)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ + आ = आ। सव्वाहरणहो = सव्व+आहरणहो (सभी अलंकार के)
नियम 1 - समान स्वर सन्धिः (क) अ + आ = आ। अत्तावणु = अत्त+तावणु ( शरीर का तपन )
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ + आ = आ। = ड्ड + इउ (बढ़कर )
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है।
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करेवउ = कर+एवउ (किया जाना चाहिए)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (ख) ए, ओ से पहले अ, आ का लोप हो जाता है।
पाठ 3-पउमचरिउ गयणङ्गणे = गयण+अङ्गणे (आकाश के आँगन में)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर
पूर्व स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। पाविट्ठहो = पावि+इट्ठहो (अत्यन्त पापी का)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। धम्मिट्टहो = धम्म+इट्ठहो (अत्यन्त धार्मिक का)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। . वणन्तरे = वण+अन्तरे (जंगल के अन्दर)
नियम 4-लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व ... स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। धूमावलि = धूम+आवलि (धूम की शृंखला)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। पवणाकम्पिय = पवण+आकम्पिय (पवन से हिले-डुले)
. नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। भयाउर = भय+आउर (भय से आतुर)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ।
पाठ 4-पउमचरिउ जिओऽसि = जिओ+असि (जीते गए हो) - नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (ग) () पूर्व पद के पश्चात् अ का .. लोप दिखाने के लिए एक अवग्रह चिह्न (s) लिखा जाता है।
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एक्कन्तरु = एक्क+अन्तरु (एक परिवर्तित दशा)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। भमरावलिहि = भमर+आवलिहि (भँवरों की पंक्तियों द्वारा)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। जलोल्लिय = जल+उल्लिय (जल से गीली हुई)
नियम 2- असमान स्वर सन्धिः (ख) अ+उ = ओ। समरङ्गणे = समर+अङ्गणे (युद्धस्थल में)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। सरणाइय = सरण+आइय (शरण में आये हुए के लिए)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। दसासहो = दस+आसहो (दस मुखवाले (रावण) के द्वारा)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। ... सउणाहारें = सउण+आहारें (पक्षियों के (प्रिय) भोजन) , नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ।
पाठ 5 - पउमचरिउ सोक्खुप्पत्ती = सोक्ख+उप्पत्ती (सुख की उत्पत्ति को)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। कालान्तरेण = काल+अन्तरेण (समय बीतने से)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+अ = आ। लवणंकुस = लवण+अंकुस (लवण और अंकुस)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। वणन्तरे = वण+अन्तरे (वन के अन्दर में)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है।
- अपभ्रंश-व्याकरण एवं छंद-अलंकार अभ्यास उत्तर पुस्तक
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कुलुग्गयहे = कुल+उग्गयहे (कुल में उत्पन्न)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। डहेवि = डह+एवि (जलाने के लिए)
. नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (ख) ए, ओ से पहले अ, आ का .. लोप हो जाता है। .
पाठ 6-महापुराण थियमिह = थियं+इह (यहाँ ठहरा)
नियम 6- यदि पद के अन्तिम म्' के पश्चात स्वर आवे तो उसका
विकल्प से अनुस्वार होता है। (प्राकृत-व्याकरण पृ.4) णिच्चलंगयं = णिच्चल+अंगयं (दृढ़ अंगवाला)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। जेणेयहु = जेण+इयह (जिस कारण से इसकी)
नियम 2- असमान स्वर सन्धिः (क) अ+इ = ए। तेओहामियचंदविणेसहं = तेअ+ओहामिय-चंददिणेसहं (सूर्य और चन्द्रमा का - तेज तिरस्कृत)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
___ स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। पणविज्जइ = पणव+इज्जइ (प्रणाम किया जाता है)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व - स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। डहिवि = डह+इवि (जलाकर)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर
। पूर्व स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। ढोयवि = ढोय+अवि (ढोकर) . .. नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
. स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। अपभ्रंश-व्याकरण एवं छंद-अलंकार अभ्यास उत्तर पुस्तक
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जेणेह = जेण+इह (जिसके द्वारा यहाँ)
नियम 2- असमान स्वर सन्धिः (क) अ+ई = ए। ..
पाठ 7-महापुराण कालाणलु = काल+अणलु (कालरूपी अग्नि) .
... नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+अ = आ। . परमुण्णइ = परम+उण्णइ (परम उन्नति)
- नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व ___स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। तुहुप्परि = तुह+उप्परि (तुम्हारे ऊपर)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। रणंगणि = रण+अंगणि (रण के आंगन में)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। .. बाणावलि = बाण+आवलि (बाणों की पंक्ति)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ आ = आ।
पाठ 8-महापुराण महुरक्खरेहि = महुर+अक्खरेहिं (मधुर शब्दों से)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। रामाहिराम = रामा+अहिराम (स्त्रियों के लिए आकर्षक)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) आ+अ = आ। मेल्लिवि = मेल्ल+इवि (छोड़कर)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है।
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हंसावलि = हंस+आवलि (हंस की पंक्ति)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ।
पाठ 9-जम्बूसामिचरिउ जाणाविउ = जाण+आविउ (बतलाया गया)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। एक्केक्कउ = एक्क+एक्कउ (एक-एक)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (ख) ए, ओ से पहले अ, आ का
लोप हो जाता है। निसागमि = निसा+आगमि (रात्रि आने पर)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) आ+आ = आ।
पाठ 10-सुदंसणचरिउ सप्पाइ = सप्प+आइ (सर्प आदि)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। : जम्मंतर = जम्म+अंतर (जन्म के समय)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। णरयण्णवे = णरय+अण्णवे (नरकरूपी समुद्र में)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व . स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। दिव्वाहरण = दिव्व+आहरण (सुन्दर आभूषण) .....नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। मलयायले = मलय+अयले (मलय पर्वत से)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+अ = आ। धम्मोवएसु = धम्म+उवएसु (धर्म के उपदेश)
नियम 2- असमान स्वर सन्धिः (ख) अ+उ = ओ।
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पाठ 11-सुदंसणचरिउ सिविणंतरु = सिविण+अंतरु (स्वपन के भीतर)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। णिसुणिवि = णिसुण+इवि (सुनकर)
. नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। जईस = जइ+ईस (शक्तिसंपन्न यति)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (ख) इ+ई = ई। ..
पाठ 12-करकंडचरिउ खमीसु = खम+ईसु (क्षमा कीजिए, हे नाथ)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है।
पाठ 13-धण्णकुमारचरिउ मारणत्थि = मारण+अत्थि (मारने के इच्छुक)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। भयाउर = भय+आउर (भय से पीड़ित) .
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। विसमावत्थहिं = विसम+अवत्थहिं (कठिन (विषम) अवस्था में)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+अ = आ। पवणाहय = पवण+आहय (वायु से आघात प्राप्त)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। चरणारविंद = चरण+अरविंद (चरणरुपी कमल)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+अ = आ।
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धाइवि = धाअ+इवि (दौड़कर)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। जिणायमु = जिण+आयमु (जिनागम)
__ नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। पयडियसुवाउ = पयडिय-सुव+आउ (पुत्र की आयु, प्रकट की गयी)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ।
पाठ 14-हेमचन्द्र के दोहे असुलहमेच्छण = असुलहं+एच्छण (असुलभ लक्ष्य)
नियम 6- यदि पद के अन्तिम 'म्' के पश्चात स्वर आवे तो उसका
विकल्प से अनुस्वार होता है। (प्राकृत-व्याकरण पृ.4) कुडुल्ली = कुडि+उल्ली (कुटिया)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। जिब्भिन्दिउ = जिब्भ+इन्दिउ (रसना इन्द्रिय)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। जैप्पि = जि+एप्पि (जीतकर)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। भुञ्जणहं = भुज+अणहं (भोगने के लिए)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है।
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पाठ 15-परमात्मप्रकाश परमप्पु = परम+अप्पु (परम आत्मा)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। परमाणंद = परम+आणंद (परम आनंद)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। . जीवाजीव = जीव+अजीव (जीव और अजीव)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+अ = आ। अणिंदिउ = अण+इंदिउ (इन्द्रियरहित)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है।
पाठ 16-पाहुडदोहा अप्पायत्तउ = अप्प+आयत्तउ (स्वयं के अधीन)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। कम्मायत्तउ = कम्म+आयत्तउ (कर्मों के अधीन)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ। सुमिट्ठाहार = सुमिट्ठ+आहार (सुमधुर आहार)
नियम 1- समान स्वर सन्धिः (क) अ+आ = आ।
पाठ 17-सावयधम्मदोहा खेत्तियई = खेत्त+इयई (खेत में) ___नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। दोसड = दोस+अड (दूषण)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है।
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थोवडउ = थोव+अडउ (थोड़ा)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। किज्जइ = कि+इज्जइ (किया जाता है) .
नियम-4 लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। मेल्लिवि = मेल्ल+इवि (छोड़कर)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। जीवियलाहडउ = जीविय-लाह+अडउ (जीवन के लाभ को)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व
स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है। लहिवि = लह+इवि (पाकर)
नियम 4- लोप-विधान सन्धिः (क) स्वर के बाद स्वर होने पर पूर्व स्वर का लोप विकल्प से हो जाता है।
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समास प्रयोग के उदाहरण
(अपभ्रंश काव्य सौरभ)
पाठ 1-पउमचरिउ कोसलणन्दणेण (कोसल नगर के राजपुत्र द्वारा)
. नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास). आसाढट्ठमिहिं (आसाढ की अष्टमी के दिन)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) सुर-समर-सहासेहिं (देवताओं के साथ हजारों युद्धों में)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) रहसुच्छलिय-गत्तु (हर्ष से पुलकित शरीरवाला)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) जिण-वयणु (जिण का वचन)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) . सीस-वलग्ग (सिर पर चढ़ा हुआ)
नियम 2- सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास (सप्तमी तत्पुरुष समास) सन्धि-वन्ध (हड्डियों के जोड़ो के बन्धन)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) गिरि-णइ-पवाह (पर्वतीय नदी के समान प्रवाह को)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) राम-वप्पु (राम के पिता)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) मेरु-सरिसु (मेरु पर्वत के समान)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास)
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अजरामरु ( अजर-अमर )
नियम 2.1- कम्मधारय समास ( कर्मधारय समास ) दिढ - वन्धणाई (कठोर बन्धन)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास )
घर-दाराइं (घर और पत्नी)
नियम 1 - दंद समास (द्वन्द्व समास )
अण्ण-दिणे (दूसरे दिन )
नियम 2.1 - कम्मधारय समास ( कर्मधारय समास ) अत्थाण - मग्गो ( सभास्थान का पथ )
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) चिन्तावण्णु ( चिन्ता में डूबे हुए)
नियम 2 - सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास ( सप्तमी तत्पुरुष समास ) तुरङ्गम-णाएहिं (घोड़े और हाथी पर )
नियम 1 - दंद समास (द्वन्द्व समास )
हियव (मन की अवस्था में)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास )
पाठ 2 - पउमचरिउ
सुई - सिद्धन्त-पुराणेहिं (श्रुति, सिद्धान्त और पुराणों द्वारा) नियम 1 - दंद समास (द्वन्द्व समास )
दुट्ठ - कलत्तु (दुष्ट स्त्री)
. नियम 2.1 - कम्मधारय समास ( कर्मधारय समास ) बहु-दुक्खाउरु (बहुत दुःखों से पीड़ित )
नियम 2 - तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास )
दुग्ग - कुडुम्बु ( दरिद्र कुटुम्ब )
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास )
विसयासत्तु (विषय में आसक्त)
नियम 2
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सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास ( सप्तमी तत्पुरुष समास )
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तव-वाएं (तप की बात से)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) वर-उज्जाणइं (श्रेष्ठ उद्यानों को)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) तव-चरणहो (तप के आचरण का)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) चउ-कसाय-रिउ (चारों कषायरूपी शत्रु)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) .. अत्तावणु (शरीर का तपन)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) तव-चरणु (तप के आचरण)
नियम 2- छुट्टी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) दय-धम्मु (दया एवं धर्म)
नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास) जर-मरण (जरा-मरण)
नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास)
पाठ 3-पउमचरिउ . गुरू-वेसु (शिक्षक के रूप को)
__ नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) सुन्दर-सराई (सुन्दर स्वरों को)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) अक्खर-णिहाणु (अक्षरों का भण्डार)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) गयणङ्गणे (आकाश के आंगन में)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) जगणाहहो (जग का नाथ) नियम 2- छट्टी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास)
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बहु-अंसु-जलोल्लिय (विपुल, आंसू रूपी, जल से, भरे हुए)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) भयाउरए (भय से आतुर)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास)
पाठ 4-पउमचरिउ आसा-पोट्टलु (आशाओं की पोटली)
- नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) महि-मण्डलु (पृथ्वीमण्डल)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) . जरढ-मयलञ्छणु (क्षीण चन्द्रमा) .
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) वरिसिय-घणु (बरसा हुआ बादल)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) अमर-वहूहिं (देवताओं की स्त्रियों द्वारा) ... नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) भमरावलिहि (भँवरों की पंक्तियों द्वारा)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) दस-सिरु (दससिर)
नियम 2.2- दिगु समास ( द्विगु समास) दस-सेहरु (दसशिखा)
नियम 2.2- दिगु समास ( द्विगु समास) दस-मउडउ (दसमुकुट)
- नियम 2.2- दिगु समास ( द्विगु समास) मुच्छा-विहलु (मूर्छा से व्याकुल)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) भाइ-विओएं (भाई के वियोग से)
. नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) अपभ्रंश-व्याकरण एवं छंद-अलंकार अभ्यास उत्तर पुस्तक
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लक्खण-रामेहिं ( राम और लक्ष्मण द्वारा )
अद्धयन्द - बिम्बाई (अर्द्धचन्द्र के प्रतिबिम्ब )
नियम 1 - दंद समास ( द्वन्द्व समास )
दीह-विसालई (लम्बे और चौडे)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास )
दट्ठोट्टई (दाँतों से काटे गये होठ )
नियम 1 - दंद समास ( द्वन्द्व समास )
जीव - दया - परिचत्तउ ( जीव की दया छोड दी गई ) नियम 2गोग्गहे (गाय के संरक्षण में)
नियम 2छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ). मित्त - परिग्गहे (मित्र की सहायता में )
नियम 2छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) महिस- विस- मेसहिं (महिस, वृष और मेष के द्वारा) नियम 1- दंद समास ( द्वन्द्व समास )
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नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास )
अविणय - थाणें (दोष के घर)
नियम 2 - छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) सउणाहारें (पक्षियों के ( प्रिय) भोजन )
नियम 2
छट्ठी विभत्ति तप्पुरिसं समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) मण - तुरउ (मनरूपी घोड़ा)
नियम 2.1- कम्मधारय समास ( कर्मधारय समास )
छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास )
हरिवंसुप्पण्णी (हरिवंश में उत्पन्न )
पाठ 5 - पउमचरिउ
नियम 2
वय - गुण - संपण्णी ( व्रत और गुण से युक्त)
सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास ( सप्तमी तत्पुरुष समास )
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास )
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जिण-सासणे (जिन शासन में)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) सोक्खुप्पत्ती (सुख की उत्पत्ति को)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) अन्तेउर-सारी (अन्तःपुर में श्रेष्ठ)
नियम 2- सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास (सप्तमी तत्पुरुष समास) रयणासव-जाएं (रत्नाश्रव के पुत्र द्वारा)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) पड-पोट्टले (कपड़े की पोटली में)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) णहङ्गणु (नभ का आंगन)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) मेरु-सिहरे (पर्वत के शिखर पर)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) चउ-सायरहं (चारों सागरों के)
. नियम 2.2- दिगु समास ( द्विगु समास) गग्गिरवायए (भरी हुई वाणी से)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास). णिटर-हिययहो (निष्ठुर हृदय के)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) डाइणि-रक्खस-भूय-भयङ्करे (डाकनियों, राक्षसों और भूतोंवाले डरावने (वन) में)
नियम 2- सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास (सप्तमी तत्पुरुष समास) कमलमाल (कमल की माला)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) वट्टि-सिहए (बत्ती (वर्तिका) की शिखा से) .. नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास)
पार-णारिहिं (नर और नारी में) - नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास)
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पाठ 6-महापुराण पयराईवई (चरण (रूपी) कमलों को) ।
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) केसरिकंधर (सिंह के समान गर्दनवाले)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) णिवकुमारवासं (राजपुत्रों के घर) ।
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) सामिसालतणुरुह (स्वामी के श्रेष्ठ पुत्रों को)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) कुमारगणु (कुमारगण)
__ नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) कयंतवासु (यम का फंदा)
___ नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) जम्मजरामरणइं (जन्म, जरा और मरण)
नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास) , चउगइदुक्खु (चारगति के दुःख को)
नियम 2 - छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) वक्कलणिवसणु (वृक्ष की छाल का वस्त्र)
नियम 2 - छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) वणहलभोयणु (जंगल के फलों का भोजन) .
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) अहिमाणविहंडणु (स्वाभिमान का खण्डन)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) कोद्दवछत्तहं (कोदों के खेत की)
नियम 2 - छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) तिलखलु (तिलों की खल को)
___ नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास)
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वृक्ष
चंदणतरु (चंदन के नियम 2
को)
छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास )
लोहियसुक्क (लाल और सफेद)
नियम 1 - दंद समास (द्वन्द्व समास )
रसणफंसणरसदड्ढउ (रसना और स्पर्शन इन्द्रियों के रस से सताया हुआ)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास )
पाठ 7-महापुराण
सीलसायरा (शील के सागर)
नियम 2- छट्ठीं विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) दुरियणासिणा (पाप के नाशक)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) कुलविहसणं (कुल की शोभा )
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) केसरिकेसरु (सिंह के बाल को)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) वरसइंथणय (श्रेष्ठ सती के वक्षस्थल को )
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) कालाणलु (कालरूपी अग्नि)
नियम 2.1 - कम्मधारय समास ( कर्मधारय समास ) • परमुण्णइ (परम उन्नतिं)
. नियम 2.1 - कम्मधारय समास ( कर्मधारय समास ) सिहिसिहहिं (अग्नि की ज्वाला में)
नियम 2
छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) रणगणि (रण के आंगन में)
नियम 2छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) रक्खाकंखड़ (रक्षा की इच्छा से)
नियम 2
छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास )
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माणभंग (मान के भंग होने पर)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) विणिवासं ( राजा का घर )
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) वाणावलि (वाणों की पंक्ति) नियम 2मुणितंडउ ( मुनि समूह को) नियम 2
छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास ( षष्ठी तत्पुरुष समास )
छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास )
रणभोयणु (रणरूपी भोजन)
नियम 2.1- कम्मधारय समास ( कर्मधारय समास ) करिरयणइं (हाथी रूपी रत्नों को)
नियम 2.1 - कम्मधारय समास ( कर्मधारय समास )
गुरुकहिउ (गुरु के द्वारा कथित)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास )
रहसाऊरियाइं (वेग से भरी हुई )
नियम 2 - तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास ) मच्छरभावभरिय (ईर्ष्याभाव से भरे हुए)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास ) महुरक्खरेहिं (मधुर शब्दों से)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समासे)
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पाठ 8 - महापुराण
जयलच्छिगेह (विजयरूपी लक्ष्मी के घर )
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) रामाहिराम (स्त्रियों के लिए आकर्षक )
चउत्थी विभत्ति तप्पुरिस समास (चतुर्थी तत्पुरुष समास )
नियम 2महिमहिलहि (पृथ्वीरूपी महिला की )
नियम 2.1 - कम्मधारय समास ( कर्मधारय समास )
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णिवणायकुसल (राजनीति में कुशल)
नियम 2- सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास (सप्तमी तत्पुरुष समास) णियतायपायपंकरुहभसल (निज पिता के चरणरूपी कमलों के भौरें)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) धम्मपक्खु (धर्मपक्ष को)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) खरपहरणधारादारिएण (प्रखर आयुधों की धार से विदारित)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) णिवमल्ल (राजारूपी पहलवान)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) णवजोव्वणेण (नवयौवन से)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) णयवयणइं (नीति-वचनों को)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) सीहासणछत्तइं (सिंहासन और छत्र)
. नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास)
पाठ 9-जंबूसामिचरिउ . रविगहणे (सूर्यग्रहण के अवसर पर)
. नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) निययघरु (अपने घर को)
नियम 2- बिइया विभत्ति तप्पुरिस समास (द्वितीया तत्पुरुष समास) कणयमणिभरियउ (स्वर्ण तथा मणियों से भरे हुए)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) दविणासए (द्रव्य की आशा से) ... नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) रयणसमूह (रत्न समूह को)
. नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) अपभ्रंश-व्याकरण एवं छंद-अलंकार अभ्यास उत्तर पुस्तक
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साहीणलच्छि (स्वाधीन लक्ष्मी को)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) सुण्णनिहि (शून्यनिधि) .
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) । रच्छामुहे (मोहल्ले के मुख पर)।
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) भयकंपिरु (भय से कंपनशील)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) निसागमि (रात्रि आने पर)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) कामुयजणु (कामुक मनुष्य)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) पियमणु (प्रिया के मन को)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) जीवियास (जीने की आशा)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) सायरजलु (सागर के जल को)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) हरि-करि (घोड़े व हाथी)
नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास) संसारसमुद्दि (संसार समुद्र में)
नियम 2- सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास (सप्तमी तत्पुरुष समास)
पाठ 10-सुदंसणचरिउ च्छोहजुत्तु (रोष से युक्त हुआ)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) रत्ताघरिसण (खून का घर्षण) नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास)
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वेसापमत्तु (वेश्या में मस्त हुआ)
नियम 2- सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास (सप्तमी तत्पुरुष समास) : पारद्धिरत्तु (शिकार का प्रेमी)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) गुरुमायबप्पु (गुरु, माँ और बाप)
नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास) णियभुयबलेण (निज भुजाओं के बल से)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) णिद्दभुक्खु (निद्रा और भूख को)
नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास) परयाररया (परस्त्री में अनुरक्त हुआ)
नियम 2- सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास (सप्तमी तत्पुरुष समास) सीलगुरुक्किय (कठोर शील धारण की हुई)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) हरि-हलि-चक्वट्टि-जिणमायउ (नारायण, बलदेव, चक्रवर्ती तथा तीर्थंकरों की - माताएँ)
नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास) सीलकमलसरहंसिउ (शीलरूपी कमल सरोवर की हंसिनी) - - नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास)
फणिणरखयरामरहिं (नागों, मनुष्यों, आकाश में चलनेवाले (विद्याधरों) और देवों द्वारा) .. नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास) छारपुंजु (राख का ढेर)
. नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) पंडियलोयविवेउ (ज्ञानी समुदाय का विवेक)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) दुट्ठसहाउ (दुष्ट स्वभाव) - नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास)
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णिद्धणचित्ते (निर्धन के चित्त से)
- नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) सिद्धसमूह (सिद्धों का समूह)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) पावकलंकु (पाप का कलंक) |
. नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) कामुयचित्ते (कामुक चित्त से)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास). णायणाहु (सों का स्वामी)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) कामाउरे (काम से पीड़ित)
__ नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) विरहडाह (विरह का संताप)
___नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) जलपवाह (जल का प्रवाह)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) पहुपेसणे (स्वामी का प्रयोजन)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) पयसमासु (पदों में समास)
नियम 2- सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास (सप्तमी तत्पुरुष समास) धम्मोवएसु (धर्म का उपदेश)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) मइविसेसु (बुद्धि की श्रेष्ठता)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) चारित्तवित्तु (चारित्ररूपी धन को)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास)
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पाठ 11-सुदंसणचरिउ अमरिंदघरु (इन्द्र का घर)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) पवरंबुणिही (उत्तम समुद्र)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) वरसुद्धमई (उत्तम शुद्धमति)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) सुरवंदणीउ (देवताओं द्वारा वंदनीय)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) कलिमलु (पाप (रूपी) मल को)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) गुणमणिणिकेउ (गुण (रूपी) मणियों का घर)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) मोक्खलाह (मोक्ष के लाभ को)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) कमलिणिदले (कमलिनी के पत्ते पर)
. नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) दुट्ठपाविट्ठपोरत्थगणु (दुष्ट, अत्यन्त पापी, ईर्ष्यालु वर्ग)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) पणट्ठाईसो (काम नष्ट कर दिया गया है) .. नियम 3- बहुव्वीहि समास (बहुव्रीहि समास) जईसो (शक्तिसंपन्न यति)
. नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) - सज्जणकामिणिसोत्तहिरामो (सज्जन और कामिनियों के कानों के लिए मनोहर)
नियम 2- चउत्थी विभत्ति तप्पुरिस समास (चतुर्थी तत्पुरुष समास) सोहणमासे (शुभ-मास में) - नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास)
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वयपालणे (व्रत के पालन से )
नियम 2 - छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुषं समास) पियलोयणे (स्नेही के दर्शन से)
नियम 2 - छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास )
उच्चकहाणी (उच्च की कहानी)
नियम 2 - छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) मंतिपयम्मि (मंत्री पद पर )
नियम 2 - छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) सीलणिहि (शील के निधान)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) विलासिणिमंदिरासु (विलासिनी के घर को )
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) धरणिईसु (पृथ्वी का मुखिया)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) रायणेहु (राजा के स्नेह को)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) णिवणंदणु (राजा का पुत्र)
नियम 2 - छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) परममित्तु (परममित्र)
नियम 2.1- कम्मधारय समास ( कर्मधारय समास )
पाठ 12 - करकंडचरिउ
हि इच्छिr (मन के लिए चाही गई )
नियम 2
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चउत्थी विभत्ति तप्पुरिस समास (चतुर्थी तत्पुरुष समास )
लउडि-खग्ग ( लकड़ियाँ और तलवारें ) नियम 1
पाठ 13-धण्णकुमार चरिउ
दंद समास (द्वन्द्व समास )
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मारणत्थि (मारने के इच्छुक)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) वच्छउलइं (बछड़ों के समूहों को)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) भयतट्ठउ (भय से कॉपा)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) भयवसु (भय के अधीन)
___ नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) सीह-भयाउर (सिंह के भय से पीड़ित)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) विसमावत्थहिं (कठिन अवस्था में)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) बहुदुक्खायरु (बहुत दुःखों की खान)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस (षष्ठी तत्पुरुष) पुर-सयासि (नगर के पास)
. नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) दुख-दालिद्द-जडिउ (दुख दरिद्रता से युक्त) ... नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास)
पुष्यक्किय (पूर्व में किये हुए) . नियम 2- सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास (सप्तमी तत्पुरुष समास) पवणाहय (वायु से आघात प्राप्त)
. नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) भयभीयउ (भय से काँपा हुआ)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) संसार-सरूवउ (संसार का स्वरूप)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) दुहभरिया (दुःख से भरा हुआ) .. . नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास)
.
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गिरि-गुह-वारि (पर्वत की गुफा के दरवाजे पर)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) कर-चलणइं (हाथ और पैर)
नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास) दहदिसि (दसों दिशाओं में)
नियम 2.2- दिगु समास (द्विगु समास) कमलवत्त (कमल के समान मुखवाले) . नियम 3- बहुव्वीहि समास (बहुब्रीहि समास) चलण-कर (पैर और हाथ)
नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास) सग्गवासि (स्वर्ग का वासी)
· नियम 2- छट्टी विभत्ति तप्पुरिस (षष्ठी तत्पुरुष). सोक्खरासि (सुख की खान)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) णियगुरु-चरणारविंद (निज गुरु के चरणरूपी कमलों को)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) मोहाउर (मोह से पीड़ित)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) जिणवयणु (जिणवचन को)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) देवपुज्जु (देवों द्वारा पूज्य)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) कर-चरण (हाथ और पैर)
नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास) गुह-अब्भंतरि (गुफा के भीतर)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) चिरकह (पुरानी कथा) -
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास)
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बहु- सुह - छण्णउ ( बहुत सुखों से आच्छादित)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास )
गिरि - सिंगहुं ( पर्वत की शिखा से)
नियम 2 - छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) खल-वयणइं (दुष्टों के वचन)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) उज्जाणवणेहिं (उद्यानों और वनों से )
नियम 1 - दंद समास (द्वन्द्व समास )
पाठ 14 - हेमचन्द्र के दोहे
कसाय-बलु (कषाय की सेना )
नियम 2-. छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास )
पंच-गुरु (पाँच गुरु)
पाठ 15 - परमात्मप्रकाश
नियम 2.2- • दिगु समास ( द्विगु समास)
देह - विभिण्णउ (देह से भिन्न)
नियम 2 - पंचमी विभत्ति तप्पुरिस समास (पञ्चमी तत्पुरुष समास ) परमप्पु (परम-आत्मा)
नियम 2.1 - कम्मधारय समास ( कर्मधारय समास )
पुव्व-क्रियाई (पूर्व में किए गए)
. नियम 2 - सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास ( सप्तमी तत्पुरुष समास ) इंदिय - सुह- दुहई (इन्द्रियों के सुख-दुःख)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) मण-वावारु (मन का व्यापार )
नियम 2 - छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) देहादेहहिं (देह में और बिना देह के अपने में)
नियम 1- दंद समास ( द्वन्द्व समास )
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जीवाजीव (जीव और अजीव)
नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास) भव-तणु-भोय-विरत्त-मणु (संसार, शरीर और भोगों से उदासीन हुआ मन)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) देहादेवलि (देहरूपी मंदिर में)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) अणाइ-अणंतु (अनादि-अनंत)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) .. केवल-णाण-फुरंत-तणु (केवलज्ञान से चमकता हुआ शरीर) .
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास)
. पाठ 16-पाहुडदोहा अप्पायत्तउ (स्वयं के अधीन)
नियम 2- छठ्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) विसयसुह (विषय से (उत्पन्न) सुख)
नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास) सासयसुहु (अविनाशी सुख)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) णिच्चलठियई (अचलायमान और दृढ़ होने पर)
नियम 1- दंद समास (द्वन्द्व समास) सुमिट्टाहार (सुमधुर आहार)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास) दुज्जणउवयार (दुर्जन के प्रति किया गया उपकार)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) गुणसारा (गुणों की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ)
नियम 2- छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास) कम्मविणिम्मिय (कर्मों से रचित) ___नियम 2- तइया विभत्ति तप्पुरिस समास (तृतीया तत्पुरुष समास)
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कम्मविसेसु (कर्म की विशेषता )
नियम 2 - छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास )
पाठ 17 - सावयधम्मदोहा
सायरगयहिं (सागर में लुप्त )
नियम 2 - सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास ( सप्तमी तत्पुरुष समास ) भवजलगयहिं (संसाररूपी पानी (सागर) में पड़े हुए)
नियम 2- सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास ( सप्तमी तत्पुरुष समास ) मणवयकायहिं (मन-वचन-काय से)
नियम 1 - दंद समास (द्वन्द्व समास )
पसुधणधण्णइं (पशु, धन और धान्य)
नियम 1 - दंद समास ( द्वन्द्व समास ) परिमाणपवित्ति (परिमाण में प्रवृत्ति )
नियम 2 - सत्तमी विभत्ति तप्पुरिस समास ( सप्तमी तत्पुरुष समास ) पत्थरणाव (पत्थर की नाव )
नियम 2 - छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) उवहिणीरु (समुद्र का जल)
नियम 2 - छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास ) दुक्खसयाई (सैकड़ों दुःखों को)
नियम 2.1- कम्मधारय समास (कर्मधारय समास )
इंधणकज्जे ( ईंधन के प्रयोजन से )
नियम 2
छट्ठी विभत्ति तप्पुरिस समास (षष्ठी तत्पुरुष समास )
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कारक प्रथमा विभक्तिः कर्त्ता कारक
यहाँ प्रथमा विभक्ति के अभ्यास वाक्य नहीं दिये गये हैं। इन्हें अपभ्रंशव्याकरण में दिये गये उदाहरण वाक्यों से समझा जाना चाहिए ।
द्वितीया विभक्तिः कर्म कारक
अभ्यास 1
/ /तें (3 / 1 ) गंथ / गंथा / गंथु / गंथो ( 1 / 1 ) पढिज्जइ / पढिअइ / पढिज्जए/पढिअए।
नियम 1- कर्मवाच्य में कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है।
सो (1/1) बालअ / बालआ / बालउ (5 / 1-2 / 1) पह / पहा / पहु (2 / 1 ) पुच्छइ / पुच्छेइ /पुच्छए ।
नियम 2 - द्विकर्मक क्रियाओं के योग में मुख्य कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है और गौण कर्म में सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध, अधिकरण, आदि विभक्तियों के होने पर भी द्वितीया विभक्ति होती है।
सो (1 / 1 ) गावी / गावि (5/12/1 ) दुद्ध/दुद्धा/दुद्धु (2/1) दुहइ / दुई / दुहए |
नियम 2- अपादान 5/1 के स्थान पर द्वितीया विभक्ति ।
सो (1/1) रुक्ख/रुक्खा / रुक्खु (5/12/1) पुप्फ / पुप्फा / पुप्फु (2/1) चुइ चुणे/चुण |
नियम 2- अपादान 5 / 1 के स्थान पर द्वितीया विभक्ति ।
मुणि / मुणी ( 1 / 1) बालअ / बालआ / बालउ ( 4 / 1-2 / 1 ) धम्म / धम्मा / धम्मु (2 / 1 ) उवदिसइ / उवदिसेइ / उवदिसए ।
नियम 2 - सम्प्रदान 4 / 1 के स्थान पर द्वितीया विभक्ति ।
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सो (1/1) तं (5/12/1 ) धण / धणा / धणु ( 2 / 1 ) मग्गइ / मग्गेइ /
मग्गए ।
नियम 2 - अपादान 5/1 के स्थान पर द्वितीया विभक्ति।
तुहुं (1 / 1 ) अग्गि / अग्गी ( 3 / 1-2 / 1 ) भोयण / भोयणा / भोयणु ( 2 / 1 ) पचि/पचे/पचु/पच/पचहि/पचेहि/पचसु/पचेसु ।
नियम 2 - करण 3 / 1 के स्थान पर द्वितीया विभक्ति ।
नरिंद / नरिंदा / नरिंद्र / नरिंदो (1/1) मंति/मंती (2/1) णयर / णयरा / जयरु (7/12/1 ) वहइ / वहेइ / वहए अथवा णीणइ / णीणेइ/णीणए । नियम 2 - अधिकरण 7 / 1 के स्थान पर द्वितीया विभक्ति ।
हउं (1/1) देवउल / देवउला / देवउलु (2 / 1 ) गच्छउं / गच्छमि / गच्छामि / गच्छेमि ।
नियम 3 - सभी गंत्यार्थक क्रियाओं के योग में द्वितीया विभक्ति होती है।
सो (1 / 1 ) रत्ति / रत्ती ( 7/12/1 ) मित्त/मित्ता / मित्तु ( 2 / 1 ) सुमर / सुमरे / सुमरए ।
नियम 4 - सप्तमी विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है।
सुअण/सुअणा/सुअणसु/सुअणासु/सुअणहो/सुअणाहो / सुअणस्सु (6/1) विज्जुप्फुरिय/ विज्जुप्फुरिया ( 1 / 1-2 / 1 ) कोह / कोहा/कोहु/कोहो (1 / 1 ) हवइ / हवेइ / हवए ।
नियम 5- प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है।
12. देव / देवा (1/2) सग्ग / सग्गा / सग्गु ( 2 / 1 ) उववसहिं / उववसन्ति / उववसन्ते/उववसिरे अथवा अनुवसहिं अथवा अहिवसहिं अथवा आवसहिं/आदि।
नियम 6- यदि वस क्रिया के पूर्व उव, अनु, अहि और आ में से कोई भी उपसर्ग हो तो क्रिया के आधार में द्वितीया होती है।
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13. कण्ह/कण्हा/कण्हु (2/1) सव्वओ बालअ/बालआ (1/2) अत्थि।
नियम 7- सव्वओ (सब ओर) के साथ द्वितीया विभक्ति होती है। णयर/णयरा/णयरु (2/1) समया सरिआ/सरिअ (1/1) अत्थिा :
नियम 7- समया (समीप) के साथ द्वितीया विभक्ति होती है। ... 15. तं (2/1) अन्तरेण/विणा हउँ (1/1) गच्छउं/गच्छमि/गच्छामि/
गच्छेमि। नियम 8 व 12- अन्तरेण व विणा के योग में द्वितीया विभक्ति होती
णइ/णई (2/1) णयर/णयरा/णयरु (2/1) य अन्तरा वणं/वणा/ वणु (1/1) अत्थि। नियम 8- अन्तरा (बीच में, मध्य में) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। बालअ/बालआ/बालउ (2/1) पडि तुहुं (1/1) सनेह/सनेहा/सनेहु (2/1) करहि/करसि/करसे। नियम 9- पडि (की ओर, की तरफ) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। सो (1/1) बारह वरिस/वरिसा/वरिसइं/वरिसाइं (2/2) वसइ/ वसेइ/वसए। नियम 10- समयवाची शब्दों में द्वितीया विभक्ति होती है। हउं (1/1) कोस/कोसा/कोसु (2/1) चलउं/चलमि/चलामि/चलेमि। नियम 10- मार्गवाची शब्दों में द्वितीया विभक्ति होती है। णइ/णई (1/1) णयरहे/णयराहे/णयरहु/णयराहु (5/1) दूर/दूरा/दूरु (2/1) अत्थि। नियम 11- दूर (नपुंसकलिंग) शब्द द्वितीया विभक्ति में रखा जाता है। सायर/सायरा/सायरसु/सायरासु/सायरहो/सायराहो (6/1) अंतिय/ अंतिया/अंतियु (2/1) लंका/लंक अत्थि। नियम 11- अंतिय (नपुंसकलिंग) शब्द द्वितीया विभक्ति में रखा जाता है। सो (1/1) दुह/दुहा/दुहु (2/1) जीवइ/जीवेइ/जीवए। नियम 13- कभी-कभी संज्ञा शब्द की द्वितीया विभक्ति का एकवचन क्रियाविशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है।
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2. तणा
तृतीया विभक्तिः करण कारक
अभ्यास 2 1. सो (1/1) जलेण/जलेणं/जलें (3/1) कर/करा (2/2) पच्छालइ/
पच्छालेइ/पच्छालए। नियम 1- कार्य की सिद्धि में जो कर्ता के लिए अत्यन्त सहायक होता है वह करण कहा जाता है। उसे तृतीया विभक्ति में रखा जाता है। तेण/तेणं/तें (3/1) दिवायर/दिवायरा/दिवायरु/दिवायरो (1/1) देखिज्जइ/देखिज्जए/देखिअइ/देखिअए।
नियम 2- कर्मवाच्य में तृतीया विभक्ति होती है। 3. कन्नाए/कन्नए (3/1) लज्जिज्जइ/लज्जिज्जए/लज्जिअइ/लज्जिअए।
नियम 2- भाववाच्य में तृतीया विभक्ति होती है। 4. पुण्णेण/पुण्णेणे/पुण्णे (3/1) हरि/हरी (1/1) देखिअ/देखिआ/खिउ/
देखिओ।
नियम 3- कारण व्यक्त करने वाले शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। 5. हरि/हरी (1/1) पंचहि/पंचहिं/पंचहिँ (3/2) दिणहिं/दिणेहिं (3/2) · कोसेण/कोसेणं/कोसें (3/1) गच्छिअ/गच्छिआ/गच्छिउ/गच्छिओ।
नियम 4- फल प्राप्त या कार्य सिद्ध होने पर कालवाचक और मार्गवाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। सो (1/1) बारहहि/बारहहिं/बारहहिँ (3/2) वरिसहिं/वरिसेहिं (3/2) वागरण/वागरणा/वागरणु (2/1) पढइ/पढेइ/पढए। नियम 4- फल प्राप्त या कार्य सिद्ध होने पर कालवाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। पुत्तेण/पुत्तेणं/पुत्तें (3/1) सह बप्प/बप्पा/बप्पु/बप्पो (1/1) गच्छइ/ गच्छेइ/गच्छए। नियम 5- सह, सद्धिं, समं (साथ) अर्थ वाले शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
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बप्प/बप्पा/बप्पु/बप्पो (1/1) पुत्तेण/पुत्तेणं/पुत्ते (3/1) समं खेलइ/. खेलेइ/खेलए। नियम 5- सह, सद्धिं, समं (साथ) अर्थ वाले शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। जल/जला/जलु (2/1) अथवा जलेण/जलेणं/जलें (3/1) अथवा जलहे/जलाहे/जलह/जलाह (5/1) विणा कमल/कमला/कमलु (1/1) न विअसइ/विअसेइ/विअसए। नियम 6- 'विणा' शब्द के साथ द्वितीया, तृतीया या पंचमी विभक्ति होती है। सो (1/1) नरिंदेण/नरिदेणं/नरिंदें (3/1) नरिंद/नरिंदा/नरिंदसु/ नरिंदासु/नरिंदहो/नरिंदाहो/नरिंदस्सु (6/1) तुल्ल/तुल्ला/तुल्लु/ तुल्लो अत्थि। नियम 7- तुल्य (समान, बराबर) का अर्थ बताने वाले शब्दों के साथ तृतीया अथवा षष्ठी विभक्ति होती है। सो (1/1) कण्णेण/कण्णेणं/कण्णे (3/1) बहिर/बहिरा/बहिरु/ बहिरो (1/1) अत्थि। नियम 8- शरीर के विकृत अंग को बताने के लिए तृतीया विभक्ति होती
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सो (1/1) णेहेण/णेहेणं/णेहें (3/1) घर/घरा/घरु (2/1) आवइ/ आवेइ/आवए। नियम 9- क्रियाविशेषण शब्दों में भी तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है। सीलि/सीले (7/1) णट्ठि/ण? (7/1) उच्चेण कुलेण (3/1) किं? नियम 11- किं, कज्जु, अत्थो इसी प्रकार प्रयोजन प्रकट करनेवाले शब्दों के योग में आवश्यक वस्तु को तृतीया विभक्ति में रखा जाता है। ईसरहं/ईसराहं (6/2) कज्ज/कज्जा/कज्जु (1/1) तिणेण/तिणेणं/ तिणें (3/1) वि हवइ/हवेइ/हवए। नियम 11- किं, कज्जु, अत्थो इसी प्रकार प्रयोजन प्रकट करनेवाले शब्दों के योग में आवश्यक वस्तु को तृतीया विभक्ति में रखा जाता है।
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चतुर्थी विभक्तिः सम्प्रदान कारक
. अभ्यास 3 1. सो (1/1) पुत्ती/पुत्ति/पुत्तीहे/पुत्तिहे (4/1) धण/धणा/धणु (2/1)
देइ। नियम 1- दान कार्य के द्वारा कर्ता जिसे सन्तुष्ट करना चाहता है, उस व्यक्ति की सम्प्रदान कारक संज्ञा होती है। सम्प्रदान को बताने वाले संज्ञापद को चतुर्थी विभक्ति में रखा जाता है। सो (1/1) धण/धणा/धणसु/धणासु/धणहो/धणाही/धणस्सु (4/1) चे?इ/चे?इ/चेट्टए। नियम 2- जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य होता है, उस प्रयोजन में
चतुर्थी विभक्ति होती है। 3. हरि/हरी (4/1) भत्ति/भत्ती (1/1) रोअइ/रोएइ/रोअए।
नियम 3- रोअ (अच्छा लगना) तथा रोअ के समान अर्थ वाली अन्य क्रियाओं के योग में प्रसन्न होने वाला सम्प्रदान कहलाता है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। नरिंद/नरिंदा/नरिंदु/नरिंदो (1/1) मंति/मंती (4/1) कुज्झइ/कुज्झेइ/ कुज्झए। नियम 4- कुज्झ (क्रोध करना), क्रिया के योग में जिसके ऊपर क्रोध किया जाए उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। मंति/मंती (1/1) नरिंद/नरिंदा (2/1) अथवा नरिंद/नरिंदा/नरिंदसु/
नरिंदासु/नरिंदहो/नरिंदाहो/नरिंदस्सु (4/1) णमइ/णमेइ/णमए। ... नियम 5- ‘णम' क्रिया के योग में द्वितीया और चतुर्थी विभक्ति दोनों
होती हैं। 6: धन्न/धन्ना/धन्नु (1/1) भोयण/भोयणा/भोयणसु/भोयणासु/
भोयणहो/भोयणाहो/भोयणस्सु (4/1) अलं अत्थि। .. नियम 6- अलं (पर्याप्त) के अर्थ में चतुर्थी विभक्ति होती है। 7. सो (1/1) मुत्ति/मुत्ती/मुत्तिहे/मुत्तीहे (4/1) सिहइ/सिहेइ/सिहए।
नियम 7- सिह (चाहना) क्रिया के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। . अपभ्रंश-व्याकरण एवं छंद-अलंकार अभ्यास उत्तर पुस्तक
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माया/माय (1/1) पुत्ती /पुत्ति / पुत्ती हे / पुत्ति (4 / 1) कहा / कह (2/1) कहइ / कहेइ / कहए अथवा संसइ / संसेइ / संसए अथवा चक्ख /चक्खेइ /चक्खए। नियम 8 - कह ( कहना ), संस ( कहना ), चक्ख ( कहना) क्रियाओं के. योग में जिस व्यक्ति से कुछ कहा जाता है उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। नरिंद/नरिंदा /नरिंदु/नरिंदो (1 / 1 ) भोयणत्थं (4 / 1 ) बइसइ / बइसेइ / बइसए ।
नियम 9
चतुर्थी के अर्थ में अत्थं (अव्यय) का प्रयोग भी होता है । सो (1 / 1 ) नरिंद / नरिंदा / नरिंदसु / नरिंदासु / नरिंदहो / नरिंदाहो / नरिंदस्सु (4 / 1 ) ईसइ / ईसेइ / ईसए ।
नियम 4 - ईस ( ईर्ष्या करना) क्रिया के योग में जिससे ईर्ष्या की जाए उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है।
रहुणन्दण/रहुणन्दणा/रहुणन्दणु / रहुणन्दणो ( 1 / 1 ) असच्च/असच्चा / असच्चसु/असच्चासु/असच्चहो / असच्चाहो / असच्चस्सु (4 / 1 )
असूअइ / असूएइ / असूअए ।
नियम 4- असूअ (घृणा करना) क्रिया के योग में, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है ।
जिससे घृणा
पंचमी विभक्तिः अपादान कारक
अभ्यास 4
गिरिहे / गिरीहे (5 / 1 ) सरिआ / सरिअ (1 / 1 ) णीसरइ/णीसरेइ / णीसरए । नियम 1- जिससे किसी वस्तु का अलग होना पाया जाता है, उसे अपादान कहते हैं। अपादान को बताने वाले संज्ञापद को पंचमी विभक्ति में रखा जाता है।
की जाए
पत्तहे/पत्ताहे/पत्तह/पत्ताह (5 / 1 ) बिन्दु / बिन्दू (1/2) पडहिं/पडन्ति / पडन्ते / पडिरे ।
नियम 1- जिससे किसी वस्तु का अलग होना पाया जाता है, उसे अपादान कहते हैं। अपादान को बताने वाले संज्ञापद को पंचमी विभक्ति में रखा जाता है।
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सो गंभीरेण/गंभीरेणं/गंभीरें (3/1) अथवा गंभीरहे/गंभीराहे/गंभीरहु/ गंभीराहु (5/1) पसिद्धइ/पसिद्धेइ/पसिद्धए। नियम 2- गुणवाचक अस्त्रीलिंग संज्ञा शब्द (पुल्लिंग, नपुंसकलिंग संज्ञा शब्द) जो किसी क्रिया या घटना का कारण बताता है, उसमें तृतीया या पंचमी विभक्ति होती है। चोर/चोरा/चोरु/चोरो (1/1) नरिंदहे/नरिंदाहे/नरिंदह/नरिंदाहु (5/1) डरइ/डरेइ/डरए। नियम 3- भय अर्थवाली धातुओं के योग में भय का कारण पंचमी विभक्ति में रखा जाता है। सो बप्पहे/बप्पाहे/बप्पहु/बप्पाहु (5/1) लुक्कइ/लुक्केइ/लुक्कए। नियम 4- जब कोई अपने को छिपाता है, तो जिससे छिपना चाहता है वहाँ पंचमी विभक्ति होती है। सो पावहे/पावाहे/पावहु/पावाहु (5/1) रोक्कइ/रोक्केइ/रोक्कए। नियम 5- रोकना अर्थवाली क्रियाओं के योग में पंचमी विभक्ति होती
5.
6.
. 7. तुहं गुरुहे/गुरूहे (5/1) गंथ/गंथा (2/1) पढि/पढे/पढु/पढ/पढहि/
पढेहि/पढसु/पढेसु। नियम 6- जिससे विद्या, कला पढ़ी/सीखी जाए, उसमें पंचमी विभक्ति होती है।
नरिंद/नरिंदा/नरिंदु/नरिंदो (1/1) असच्चहे/असच्चाहे/असच्चहु/ .. असच्चाहु (5/1) दुगुच्छइ/दुगुच्छेइ/दुगुच्छए। . नियम 7- दुगुच्छ (घृणा) शब्द या क्रिया के साथ पंचमी विभक्ति होती
9.
मुक्ख/मुक्खा/मुक्खु/मुक्खो (1/1) सज्जणहुं/सज्जणाहुं (5/2) विरमइ/विरमेइ/विरमए। नियम 7- विरम (हटना) शब्द या क्रिया के साथ पंचमी विभक्ति होती
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सो (1/1) सज्झायि/सज्झाये (5/177/1) पमायइ/पमायेइ/पमायए। नियम 10- पंचमी के स्थान में कभी-कभी कहीं-कहीं तृतीया और सप्तमी विभक्ति पाई जाती है। कोहहे/कोहाहे/कोहहु/कोहाहु (5/1) मोह/मोहा/मोहु/मोहो (1/1) उप्पज्जइ/उप्पज्जेइ/उप्पज्जए अथवा पभवइ/पभवेइ/पभवए। नियम 8- उप्पज्ज (उत्पन्न होना), पभव (उत्पन्न होना) क्रिया के योग में पंचमी विभक्ति होती है। हिंसाहे/हिंसहे (5/1) अहिंसा/अहिंस (1/1) गुरुअरा (वि. 1/1)
अत्थि । नियम 9- जिससे किसी वस्तु या व्यक्ति की तुलना की जाए, उसमें : पंचमी विभक्ति होती है। सो (1/1) णाण-गुणेण/णाण-गुणेणं/णाण-गुणे (5/1-23/1) विहीण/विहीणा/विहिणु/विहिणो (वि. 1/1) अत्थि। नियम 10- पंचमी के स्थान में कभी-कभी कहीं-कहीं तृतीया और सप्तमी विभक्ति पाई जाती है। सो (1/1) भावहे/भावाहे/भावहु/भावाहु (5/1) विरत्त/विरत्ता/ विरत्तु/विरत्तो (वि.1/1) हवइ/हवेइ/हवए। नियम 7 - दुगुच्छ (घृणा), विरम (हटना) और पमाय (भूल, असावधानी) तथा इनके समानार्थक शब्दों या क्रियाओं के साथ पंचमी होती है। धम्महे/धम्माहे/धम्महु/धम्माहु (5/1) विणा जीवण/जीवणा/जीवणु (1/1) असार/असारा/असारु अथवा णिरत्थ/णिरत्था/णिरत्थु (वि.1/1) अत्थि। नियम 11- 'विणा' के योग में पंचमी विभक्ति भी होती है।
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षष्ठी विभक्तिः सम्बन्ध कारक
अभ्यास 5
रहुणन्दण/रहुणन्दणा/रहुणन्दणु / रहुणन्दणो ( 1 / 1 ) अज्झयण / अज्झयणा / अज्झयणसु / अज्झयणासु / अज्झयणहो / अज्झयणाहो / अज्झयणस्सु (6/1) हेउ / हेऊ (6 / 1 ) गंथ / गंथा / गंथु ( 2 / 1) पढइ / पढेइ/पढए।
नियम 1- हेउ (प्रयोजन या कारण अर्थ में) शब्द के साथ षष्ठी विभक्ति होती है। हेउ शब्द तथा कारण या प्रयोजनवाची शब्द दोनों को ही षष्ठी विभक्ति में रखा जाता है।
सो (1/1) केण / केणं/कें (3/1) अथवा कहां/काहां (5/1) अथवा क/का/कसु/कासु/कहो / काहो / कस्सु (6/1 ) हेउ / हेऊ (6/1) आगच्छिअ / आगच्छिआ/आगच्छिउ / आगच्छिओ।
नियम 2- यदि हे शब्द के साथ सर्वनाम का प्रयोग किया गया है तो हे शब्द और सर्वनाम दोनों में विकल्प से तृतीया, पंचमी या षष्ठी विभक्ति होती है।
गिरिहिं / गिरीहिं / गिरिहं / गिरीहं ( 7 / 2 ) वा गिरि/गिरी / गिरिहं/ गिरीहूं / गिरिहं / गिरीहं (6 / 2) मेरु/मेरू (1/1 ) अईव उण्णमइ / उण्णमेइ /
उण्णमए ।
नियम 3 - एक समुदाय में से जब एक वस्तु विशिष्टता के आधार से छाँटी जाती है, तब जिसमें से छाँटी जाती है उसमें षष्ठी या सप्तमी विभक्ति होती है।
पुत्ती / पुत्ति / पुत्ती / पुत्ति (4 / 1 अथवा 6 / 1 ) कुसल / कुसला (1/1)1
नियम 4 - आशीर्वाद देने की इच्छा होने पर कुसल शब्द के साथ चतुर्थी या षष्ठी विभक्ति होती है।
ह ं (1/1) महावीर / महावीरा / महावीरसु/महावीरासु / महावीरहो / महावीराहो /महावीरस्सु (2/16/1 ) वन्दउं / वन्दमि / वन्दामि / वन्देमि । नियम 5द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति होती है।
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सो (1 / 1) धण / धणा / धणसु/धणासु/ धणहो/धणाहो / धणस्सु (3/16/1) धणवन्त / धणवन्ता / धणवन्तु / धणवन्तो ( 1 / 1 ) हविअ / हविआ/ हविउ / हविओ।
नियम 5 - तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति होती है। सो (1 / 1 ) सीह / सीहा / सीहसु/सीहासु/सीहहो / सीहाहो /सीहस्सु (5/16/1) डरइ / डरेइ / डरए ।
नियम 5- पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति होती है। त/ता/ तसु/तासु/तहो/ ताहो / तस्सु (6/1) घर/घरा / घरसु / घरासु /... घरहो /घराहो / घरस्सु (7/1 - 6 / 1 ) पहाण / पहाणा (1/2) अत्थि । नियम 5- सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति होती है।
सप्तमी विभक्तिः अधिकरण कारक
अभ्यास 6
नरिंद/नरिंदा/नरिंदु/नरिंदो (1/1) आसनि/ आसने ( 7 / 1) चिट्ठिअ / चिट्ठिआ/चिट्ठिउ/चिट्ठिओ ।
नियम 1 - कर्त्ता की क्रिया का आधार या कर्म का आधार अधिकरण कारक होता है। वह सप्तमी विभक्ति में रखा जाता है।
सो (1/1) घरि / घरे (7/1 ) वसई / वसेइ / वसए।
नियम 1 - कर्त्ता की क्रिया का आधार या कर्म का आधार अधिकरण कारक होता है। वह सप्तमी विभक्ति में रखा जाता है ।
कोहि/कोहे (7/1) उवसमि/उवसमिर (7/1 ) करुणा / करुण ( 1/1) होइ ।
नियम 2 - जब एक कार्य के हो जाने पर दूसरा कार्य होता है तो हो चुके कार्य में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है ।
दुस्सीलि / दुस्सीले (7/1) णस्सि / णस्सिए (7 / 1) सील / सीला/सीलु (1/1) फुरइ / फुरेइ / फुरए ।
नियम 2- जब एक कार्य के हो जाने पर दूसरा कार्य होता है तो हो चुके कार्य में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है।
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आगमहिं / आगमाहिं (2/27/ 2) जाणि / जाणिउ / जाणिवि / जाणवि /
सच्च / सच्चा/ सच्चु ( 1/1 ) कहिअ / कहिआ / कहिउ ।
नियम 3
है।
द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति भी हो जाती
अणुचरहिं/अणुचराहिं (3/27/ 2) सह संभासि / संभासिउ / संभासिवि / संभासवि / संभासेप्पि/संभासेप्पिणु / संभासेवि / संभासेविणु (संकृ) सो (1 / 1) गच्छिअ/गच्छिआ /गच्छिउ /गच्छिओ।
नियम 3 - तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति भी हो जाती है।
विसइ / विसए ( 5 / 1 - 7 / 1 ) विरत्तचित्त / विरत्तचित्ता / विरत्तचित्तु / विरत्तचित्तो (1 / 1 ) जोइ / जोई हवइ/हवेइ/हवए।
नियम 3 - पंचमी विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी सप्तमी विभक्ति होती है।
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छंद एवं अलंकार
के
उत्तर
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छंद (खण्ड 1) अभ्यास (क)
1. सिंहावलोक छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में सगण (।।s) होता है। पद्धडिया छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में सोलह
मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में जगण (15) होता है। 3. खंडयं छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में तेरह
मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में रगण (sis) होता है। 4... पादाकुलक छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं और सर्वत्र लघु होता है। आनन्द छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में पाँच - मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में लघु (1) आता है।
6. दोहा छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। पहले व तीसरे चरण में तेरह-तेरह मात्राएँ होती हैं और दूसरे व चौथे चरण में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं। चन्द्रलेखा छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ
होती हैं। अपभ्रंश-व्याकरण एवं छंद-अलंकार अभ्यास उत्तर पुस्तक
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8... गंधोदकधारा छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में तेरह मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में नगण (1) होता है। चारुपद छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में दस मात्राएँ
होती हैं तथा चरण के अन्त में गुरु (s) व लघु (1) होता है। 10. मालती छन्द - लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में दो जगण
(IsI+II) व 6 वर्ण होते हैं। 11. दोधक छन्द
लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में तीन भगण (si+s||+SII) और दो (s+s) व 11 वर्ण होते हैं।
1.
2.
अभ्यास (ख) गाहा छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में 27 मात्राएँ होती हैं। खंडयं छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में तेरह मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में रगण (sis) होता है। वदनक छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में दो मात्राएँ लघु (।।) होती हैं। करमकरभुजा छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में आठ मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में लघु-गुरु (। 5) होते हैं।
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मधुभार छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में आठ मात्राएँ होती हैं।
दीपक छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में दस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में लघु (1) होता है।
वदनक छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती है तथा चरण के अन्त में दो मात्राएँ लघु ( 11 ) होती हैं। अमरपुरसुन्दरी छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण में दस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में लघु (1) व गुरु (s) होता है। मोक्तिकदाम छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में चार जगण ( ISI + ISI + ISI + ISI ) व 12 वर्ण होते हैं।
वसन्तचत्वर छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण में जगण (ISI), रगण (SIS), जगण (ISI), रगण ( SIS) व 12 वर्ण होते हैं। पंचचामर छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में जगण (ISI), रगण ( SIS), जगण ( 151 ), रगण ( SIS), जगण (ISI) और गुरु व 16 वर्ण होते हैं।
अभ्यास (ग)
1. करिमकरभुजा छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में आठ मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में लघु-गुरु (15) होते हैं।
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मधुभार छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में आठ मात्राएँ होती हैं।
पद्धडिया छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में जगण (ISI) होता है ।
गाहा छन्द
लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी ) । प्रत्येक चरण में 27 मात्राएँ होती हैं।
जम्भेटिया छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में नौ मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में रगण (SIS) आता है।
जम्भेटिया छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में नौ मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में रगण ( SIS) आता है।
कुसुमविलासिका छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी ) । प्रत्येक चरण में आठ मात्राएँ होती हैं तथा चरण के प्रारम्भ में नगण ( 111 ) और अन्त में लघु (1) व गुरु (S) होता है।
अडिल्ल (अलिल्लह) छन्द
लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में दो मात्राएँ लघु ( 11 ) होती हैं। उप्पहासिणी छन्द
लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं और अन्त में लघु-गुरु-लघु-गुरु होता है।
चारुपद छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी ) । प्रत्येक चरण में दस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में गुरु (S) व लघु ( 1 ) होता है।
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अभ्यास (घ)
खंडयं छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में तेरह मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में रगण ( SIS) होता है। दोहा छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । पहले व तीसरे चरण में तेरह-तेरह मात्राएँ होती हैं और दूसरे व चौथे चरण में ग्यारह - ग्यारह मात्राएँ होती हैं। सिंहावलोक छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में सगण ( 115 ) होता है । दीपक छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में दस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में लघु (1) होता है।
पादाकुलक छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं और सर्वत्र लघु होता है ।
आनन्द छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में पाँच मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में लघु (1) आता है।
मदनविलास छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में आठ मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में गुरु - गुरु (SS) आता है। चन्द्रलेखा छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी ) । प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं।
अमरपुरसुन्दरी छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी ) । प्रत्येक चरण में दस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में लघु (1) व गुरु (s) होता है।
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मालती छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में दो जगण (ISI+Isi) व 6 वर्ण होते हैं। दोधक छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में तीन भगण (si+s+ sI) और दो (s+s) व 11 वर्ण होते हैं।
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अलंकार अभ्यास (क)
1. विरोधाभास अलंकार- वस्तुतः विरोध न रहने पर भी विरोध का __. आभास ही विरोधाभास है। 2. उत्प्रेक्षा अलंकार- जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना अर्थात्
उत्कृष्ट कल्पना का वर्णन हो वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। अपभ्रंश में इव, णं, णावइ आदि वाचक शब्दों का प्रयोग होता है। अनुप्रास अलंकार- पद और वाक्य में वर्णों की आवृत्ति का नाम
अनुप्रास है। अनुप्रास का अर्थ होता है वर्गों का बार-बार प्रयोग। 4. यमक अलंकार- जहाँ पद एक से हों किन्तु उनमें अर्थ भिन्न-भिन्न हो
वहाँ यमक अलंकार होता है। . 5. विभावना अलंकार- जहाँ कारण के अस्तित्व के बिना कार्य की
सिद्धि हो वहाँ विभावना अलंकार होता है। सन्देह अलंकार- जहाँ उपमेय में उपमान होने का सन्देह किया जाए
वहाँ सन्देह अलंकार होता है। . 7. भ्रान्तिमान अलंकार-नितान्त सादृश्य के कारण उपमेय में उपमान की
भ्रांति ही भ्रान्तिमान अलंकार है। उपमा अलंकार- जहाँ उपमेय और उपमान में भेद होते हुए भी उपमेय के साथ उपमान के सादृश्य का वर्णन हो वहाँ उपमा अलंकार होता है अर्थात् उपमेय और उपमान में समानता ध्वनित होती है। उपमा में चार तत्त्वों का होना आवश्यक है1. उपमेय 2. उपमान 3. साधारण धर्म और 4. वाचक शब्द।
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श्लेष अलंकार - जब वाक्य में एक ही शब्द के दो या दो से अधिक अर्थ निकलें तो ऐसे अनेकार्थी शब्द में श्लेष अलंकार होता है।
रूपक अलंकार- रूपक अलंकार में उपमेय पर उपमान का आरोप कर दिया जाता है अर्थात् उपमेय को ही उपमान बता दिया जाता है।
अभ्यास ( ख )
यमक अलंकार - जहाँ पद एक से हों किन्तु उनमें अर्थ भिन्न-भिन्न हो वहाँ यमक अलंकार होता है ।
उपमा अलंकार- जहाँ उपमेय और उपमान में भेद होते हुए भी उपमेय के साथ उपमान के सादृश्य का वर्णन हो वहाँ उपमा अलंकार होता है अर्थात् उपमेय और उपमान में समानता ध्वनित होती है । उपमा में चार तत्त्वों का होना आवश्यक है
1. उपमेय 2. उपमान 3. साधारण धर्म और 4. वाचक शब्द | विभावना अलंकार - जहाँ कारण के अस्तित्व के बिना कार्य की सिद्धि हो वहाँ विभावना अलंकार होता है।
उत्प्रेक्षा अलंकार- जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना अर्थात् उत्कृष्ट कल्पना का वर्णन हो वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। अपभ्रंश में इव, णं, णावइ आदि वाचक शब्दों का प्रयोग होता है। सन्देह अलंकार - जहाँ उपमेय में उपमान होने का सन्देह किया जाए वहाँ सन्देह अलंकार होता है।
भ्रान्तिमान अलंकार - नितान्त सादृश्य के कारण उपमेय में उपमान की भ्रांति ही भ्रान्तिमान अलंकार है ।
श्लेष अलंकार - जब वाक्य में एक ही शब्द के दो या दो से अधिक अर्थ निकलें तो ऐसे अनेकार्थी शब्द में श्लेष अलंकार होता है।
उत्प्रेक्षा अलंकार - जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना अर्थात् उत्कृष्ट कल्पना का वर्णन हो वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। अपभ्रंश में इव, णं, णावइ आदि वाचक शब्दों का प्रयोग होता है।
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रूपक अलंकार - रूपक अलंकार में उपमेय पर उपमान का आरोप कर दिया जाता है अर्थात् उपमेय को ही उपमान बता दिया जाता है।
सन्देह अलंकार - जहाँ उपमेय में उपमान होने का सन्देह किया जाए वहाँ सन्देह अलंकार होता है।
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छन्द (खण्ड 2 )
अभ्यास ( क )
विलासिनी छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में लघु (1) व गुरु (5) होता है। ' मत्तमातंग छन्द
लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण में अट्ठारह मात्राएँ होती हैं. तथा चरण के अन्त में जगण (ISI) होता है ।
चउपही (चतुष्पदी) छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में बीस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में दो मात्राएँ, लघु (1) होती हैं। तोटक छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण में चार सगण (IIS+IIS+IIS+IIS ) व 12 वर्ण होते हैं।
शालभंजिका छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी ) । प्रत्येक चरण में चउवीस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में लघु (1) व गुरु (S) होता है । मदनावतार छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण में बीस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में रगण ( SIS) होता है ।
लताकुसुम छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी ) । प्रत्येक चरण में तीस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में सगण ( 115 ) होता है ।
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भुजंगयप्रयात छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में चार यगण (Iss+Iss+Iss+Iss) व 12 वर्ण होते हैं। स्रग्विणी छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में चार रगण (sis+s/s+s/s+sis) व 12 वर्ण होते हैं। . सोमराजी छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में दो यगण (Iss+Iss) व 6 वर्ण होते हैं।
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अभ्यास (ख) रयडा छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं। निध्यायिका छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में उन्नीस मात्राएँ होती हैं। शशितिलक छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में बीस मात्राएँ होती हैं तथा सर्वत्र लघु (1) होता है। दुवई छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में अट्ठाइस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में लघु (1) व गुरु (s) होता है। आरणाल छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में तीस मात्राएँ होती हैं।
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रासाकुलक छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण में इक्कीस मात्राएँ
होती हैं तथा चरण के अन्त में नगण ( 111 ) होता है ।
मंजरी छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण में इक्कीस मात्राएँ होती हैं।
प्रमाणिका छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में क्रमशः जगण (ISI), रगण ( SIS), लघु (1) व गुरु (S) आते हैं व आठ वर्ण होते हैं।
समानिका छन्द
लक्षण - इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में क्रमशः रगण (SIS), जगण (ISI), गुरु (s) व लघु (1) आते हैं व आठ वर्ण होते हैं।
चित्रपदा छन्द
लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी) । प्रत्येक चरण में दो भगण ( SII+SII) और दो गुरु (ss) होते हैं व आठ वर्ण होते हैं ।
अभ्यास (ग)
सारीय छन्द
लक्षण
इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी ) । प्रत्येक चरण में बीस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में गुरु (s) व लघु ( 1 ) होता है। लाद्विपदी छन्द
लक्षण - इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण में बाइस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में दो गुरु (SS) होते हैं ।
कामलेखा छन्द
लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी) । प्रत्येक चरण में सत्ताइस मात्राएँ होती हैं।
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तोमर छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में चार बार गुरु (s) व चार बार लघु (1) आता है। सोमराजी छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में दो यगण (Iss+Iss) व 6 वर्ण होते हैं। स्रग्विणी छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में चार रगण (ऽ।ऽ+SIS+SIS+SIs) व 12 वर्ण होते हैं। प्रमाणिका छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में क्रमशः जगण (151), रगण (sis), लघु (1) व गुरु (s) आते हैं व आठ वर्ण होते हैं। चित्रपदा छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में दो भगण (5।।+SI) और दो गुरु (ss) होते हैं व आठ वर्ण होते हैं।
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अभ्यास (घ) - 1. शालभंजिका छन्द
लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में चउवीस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में लघु (1) व गुरु (s) होता है।
मदनावतार छन्द . लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में बीस मात्राएँ
होती हैं तथा चरण के अन्त में रगण (sis) होता है। मंजरी छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में इक्कीस मात्राएँ
3.
होती हैं।
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रासाकुलक छन्द — लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में इक्कीस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में नगण (1) होता है। हेलाद्विपदी छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में बाइस मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अन्त में दो गुरु (ss) होते हैं। आरणाल छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में तीस मात्राएँ होती हैं। कामलेखा छन्द लक्षण- इसमें दो चरण होते हैं (द्विपदी)। प्रत्येक चरण में सत्ताइस मात्राएँ होती हैं। समानिका छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में क्रमशः रगण (sis), जगण (151), गुरु (s) व लघु (1) आते हैं व आठ वर्ण होते हैं। स्रग्विणी छन्द लक्षण- इसमें चार चरण होते हैं (चतुष्पदी)। प्रत्येक चरण में चार रगण (sis+ss+ss+s/s) व 12 वर्ण होते हैं।
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