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प्रकाशकीय
'अपभ्रंश - व्याकरण एवं छंद - अलंकार अभ्यास उत्तर पुस्तक' अध्ययनार्थियों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है।
तीर्थंकर महावीर ने जनभाषा 'प्राकृत' में उपदेश देकर सामान्यजन के लिए विकास का मार्ग प्रशस्त किया । प्राकृत भाषा ही अपभ्रंश के रूप में विकसित होती हुई प्रादेशिक भाषाओं एवं हिन्दी का स्त्रोत बनी। अतः हिन्दी एवं अन्य सभी उत्तर भारतीय भाषाओं के विकास के इतिहास के अध्ययन के लिए 'अपभ्रंश भाषा' का अध्ययन आवश्यक है।
'अपभ्रंश ईसा की लगभग सातवीं से तेरहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण उत्तर भारत की सामान्य लोक-जीवन के परस्पर व्यवहार की बोली रही है।' हमारे देश में प्राचीनकाल से ही लोकभाषाओं में साहित्य-रचना होती रही है। अपभ्रंश साहित्य की विशालता, लोकप्रियता और महत्ता के कारण ही आचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'प्राकृत - व्याकरण' के चतुर्थ पाद में स्वतन्त्र रूप से अपभ्रंश भाषा की व्याकरण - रचना की ।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि अपभ्रंश भारतीय आर्यभाषाओं (उत्तर - भारतीय भाषाओं) की जननी है, उनके विकास की एक अवस्था है। डॉ. . हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- 'साहित्यिक परम्परा की दृष्टि से विचार किया जाए तो अपभ्रंश के सभी काव्यरूपों की परम्परा हिन्दी में ही सुरक्षित है।' द्विवेदी जी ने तो अपभ्रंश को हिन्दी की 'प्राणधारा' कहा है। हिन्दी एवं अन्य सभी उत्तरभारतीय भाषाओं के विकास के इतिहास के अध्ययन के लिये अपभ्रंश का अध्ययन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। अतः राष्ट्रभाषा हिन्दी सहित आधुनिक
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