Book Title: Akbar Pratibodhak Kaun
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबर ufaateras asta? प्रतिबोधक (एक ऐतिहासिक अन्वेषण) 0.10 भूषण शाह Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ امام ما و امداد و ما و موم . GV دلي لالالالا امارات شده را ودارت مشاورت اور آرام را از میان اما من الظرون از دست او را در را در تمام است 2 ایران در بازار را دارا اور ایوان کورد | و عملکرد و قراردادها جی الوار مردان و 2 امه 2 م لا لا مهر و ماما ما ما . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = अकबर प्रतिबोधक कोन ?= “जैनशासन-जैनागम जयकारा'. अकबर प्रतिबाधक कोना (एक ऐतिहासिक अन्वेषण) देवलोक से दिव्य सानिध्य - प. पू. गुरुदेव श्री जम्बूविजयजी महाराज मार्गदर्शन - गुरुमाँ डो. प्रीतमबेन सिंघवी संपादक - भूषण शाह प्रकाशक/प्राप्ति स्थान मिशन जैनत्व जागरण 'जंबूवृक्ष' सी/504, श्री हीर अर्जुन सोसायटी, चाणक्यपुरी ओवर ब्रीज के नीचे, प्रभात चौक के पास, घाटलोडीया अहमदाबाद -380061 मूल्य - 50/- रुपये Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ग्रंथ समर्पण" गच्छराग से उपर उठकर, गच्छवाद के क्लेशों को शान्त करने वाले “शान्तिदूत” ऐसे गुणानुरागी, सुविशुद्ध संयमी, शासनहितैकलक्षी, सत्यप्रिय, मध्यस्थ महापुरुषों के करकमलों में सादर समर्पित... Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ? प्राक्कथन ऐसे तो सम्राट अकबर एवं जैनाचार्यों के संबंध विषयक विपुल साहित्य प्रकाशित हो चुका है एवं उस पर कई ऐतिहासिक संशोधन विदेशी विद्वानों के द्वारा भी किये जा चुके हैं, फिर इस नवीन लेख की जरुरत क्यों हुई ? ऐसी जिज्ञासा होनी स्वाभाविक है। अतः सर्वप्रथम इस लेख को लिखने के प्रेरणास्रोत एवं उद्देश्य को यहाँ पर बता देना उचित प्रतीत होता है। केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद श्रमण भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। चतुर्विध संघ को मोक्ष तक पहुंचाने में समर्थ ऐसे जिनशासन (जिनाज्ञा) रूपी रथ के श्रुतज्ञान, एवं आचार मार्ग रूपी दो पहिये हैं! इस रथ को चलाने की धुरा (लगाम) गणधरों को दी गयी एवं तदनन्तर आचार्यों की परंपरा ने इस शासन को आगे बढ़ाया। दुःषमकाल की विकट परिस्थितियों एवं भस्मग्रह के प्रभाव से अनेक आपत्तियां आयी, परंतु आचार्यों की समय सूचकता एवं पुरुषार्थ से शासन अविरत चलता रहा। ऐसे में कुछ सिद्धांत भेदों को लेकर दिगंबर पंथ अलग पड़ा एवं उसी तरह आगे चलकर कुछ सामाचारी भेद या छोटे-छोटे सिद्धान्त भेदों को लेकर श्वेताम्बर परंपरा में भी गच्छ भेद हुए एवं आगे चलकर स्थानक वासी एवं तेरापंथी अलग हुए। फिर भी भगवान की मूल परंपरा अविरत रुप से चलती आ रही है। वर्तमान में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ के अंचलगच्छ, खरतरगच्छ, पायचंद गच्छ एवं बृहत्सौधर्म तपागच्छ प्रायः विद्यमान हैं। प्रायः सभी परंपरा के पूर्वाचार्यों ने सर्वमान्य ऐसी अहिंसा के प्रवर्तन के लिए उपदेश दिये थे। हर परंपरा में समयसमय पर हुए प्रभावक आचार्यों ने तत्कालीन राजाओं को उपदेश देकर अमारि का प्रवर्तन कराया भी था। अतः भारत में अहिंसा की भावना को टिकाये रखने में सभी का योगदान है, ऐसा स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं है। परंतु किसी गच्छ के आचार्य के उपदेश से हुए कार्यों का अन्य आचार्य के नाम से प्रचार करना तो उचित नहीं कहलाता है। __ ऐसा ही बनाव एक बड़े शहर में बना। वहाँ किसी के मुख से सुना- 'आ. जिनचंद्रसूरिजी अकबर प्रतिबोधक कहे जाते हैं, तो आ. हीरविजयसूरिजी को Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन?= अकबर प्रतिबोधक कैसे कह सकते हैं ?' तब आश्चर्य हुआ, क्योंकि इस घटना के पहले, जैन शासन में तो 'अकबर प्रतिबोधक' के रूप में आ. हीरविजयसूरिजी की ही प्रसिद्धि होने से, आ. जिनचंद्रसूरिजी को भी कोई अकबर प्रतिबोधक कहता है, ऐसी कल्पना भी नहीं थी। इसलिए इस विषय में जानकारी एवं आत्म-संतोष हेतु संशोधन करके तत्त्व का निर्णय कर लिया गया था। परंतु पुनः इसके बाद एक शहर में खरतरगच्छ की एक प्रभावक व्याख्यात्री साध्वीजी भगवंत ने अपने प्रवचन में कुछ इस प्रकार की ही प्ररूपणा की कि - 'अकबर को प्रतिबोध देकर अमारि प्रवर्तन कराने वाले युगप्रधान जिनचंद्रसूरिजी थे, अतः अकबर प्रतिबोधक तो वे ही कहलाते हैं। परंतु तपागच्छ के लोग तो आ. हीरविजयसूरिजी को अकबर प्रतिबोधक कहते हैं और उसका प्रचार करते हैं। इस तरह हमारे आचार्य का बिरुद अपने आचार्य के नाम लगाना उनके लिए उचित नहीं है। तपागच्छ वाले पहले से ऐसा ही करते आये हैं। वगैरह...' जब यह बात सुनने में आयी तो लगा कि यह तो सीधी, तपागच्छ के ऊपर आक्षेप की बात हुई ___एक विद्वान साध्वीजी ने यह बात बतायी थी, अतः ऐतिहासिक संशोधन के बिना, केवल तपागच्छ के ग्रंथों में किये गये आ. हीरविजयसूरिजी के गुणानुवाद या खरतरगच्छ के ग्रंथों में मिलते आ. जिनचंद्रसूरिजी के गुणानुवाद का अवलम्बन लेकर इस विषय में ठोस निर्णय पर आया नहीं जा सकता था। अतः वर्तमान में बादशाह अकबर आदि के द्वारा दिये गये फरमान एवं उसकी सभा में रहे इतिहासकारों के ऐतिहासिक उल्लेख तथा तत्कालीनं दोनों गच्छों के साहित्य आदि के अवलम्बन से अकबर प्रतिबोधक कोन ? इस प्रश्न का उत्तर पाने का विशेष प्रयास किया गया है। ___ इस विषय में खरतरगच्छ के उपलब्ध साहित्य में अगरचंदजी नाहटा द्वारा लिखित 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि' मुख्य ग्रंथ लगा तथा ‘सच्चाई छुपाने से सावधान' एवं 'तीर्थ स्वर्णगिरि-जालोर' ये पुस्तकें भी देखने में आई। तपागच्छ के साहित्य में 'सूरीश्वर और सम्राट', 'मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म', 'हीरसौभाग्य काव्य', 'जैन परंपरानो इतिहास' 'मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति' - कु. नीना जैन, 'सम्राट अकबर और जैन धर्म' - बी. एल. कुम्भट वगैरह ग्रंथ एवं तत्कालीन ऐतिहासिक उल्लेख पत्र तथा फरमानों पर भी अध्ययन किया गया। (2) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ?== तटस्थ भाव से अध्ययन करते हुए लगा कि अगरचंदजी नाहटाजी ने 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि' में ऐतिहासिक सामग्रीओं का विशिष्ट अवलोकन किये बिना अपने गच्छ के मिलते उल्लेखों के आधार पर आ. श्री हीरविजयसूरिजी को गौण करके आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी को एवं आ. श्री जिनसिंहसूरिजी को ही अकबर में विशिष्ट परिवर्तन लाने वाले के रूप में सिद्ध करने की कोशिश की है। ___ मुनिश्री पीयूषसागरजी (वर्तमान में आचार्य) ने हीरालालजी दुग्गड़ द्वारा लिखित 'मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म' तथा 'जैन धर्म और जिनप्रतिमा पूजन' इन दो पुस्तकों में से कई प्रकरणों को अक्षरशः उतारकर 'सच्चाई छुपाने से सावधान' यह पुस्तक स्थानकवासी आदि को उद्देश्य कर संपादित की है। उसमें भी ‘मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म में जिस जगह पर तपागच्छ के आचार्य या उनकी शासन सेवा विशेषतः आ. श्री हीरविजयसूरिजी का उल्लेख था, वह सब छोड़ दिया गया है। इस प्रकार गच्छराग के कारण सच्चाई को छुपाने या सच्चाई को अलग ढंग से पेश करना देखा गया, जिनका यथास्थान पर निर्देश एवं उनकी समालोचना भी इस लेख में दी गयी है। ___ 'अकबर प्रतिबोधक कोन ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिये किये गये ऐतिहासिक अन्वेषण से प्राप्त नवनीत को प्राप्त कर सभी लोग सत्य का साक्षात्कार कर सकें एवं जिन-जिन आचार्यों ने जो-जो सुकृत किये उनके, उन-उन कार्यों के प्रति आदर भाव, कृतज्ञता भाव को प्राप्त करके तथा गलतफहमिओं को दूर करके, तात्त्विक गुणानुराग द्वारा गुणों की प्राप्ति द्वारा सर्वगुण संपूर्ण ऐसे मोक्षधाम को प्राप्त करें।' इसी शुभाशय से यह लेख प्रकाशित किया गया है। किसी गच्छ या किसी लेखक के प्रति पक्षपात या दुर्भाव बिना, उपलब्ध प्रमाणों के आधार से तटस्थतापूर्वक केवल सत्य को उजागर करने का यहाँ प्रयास किया गया है। अगर इस प्रयास से किसी के कोमल हृदय को थोड़ी सी भी ठेस पहुँची हो तो अन्तःकरण से क्षमायाचना करते हुए, प्राक्कथन को यहीं पर विराम दिया जाता है। जिनाज्ञा विरूद्ध कुछ भी लिखा हो तो त्रिविध - त्रिविध मिच्छा-मि-दुक्कडं। ता. क. इस लेख में कोई त्रुटि अथवा भूल लगे तो विद्वान इतिहासज्ञ सज्जनों से प्रार्थना है कि वे सूचित करें, ताकि उसका सुधारा हो सके। -- 3 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन? अतीत का सिंहावलोकन अतीतकाल से बोध लेकर, भविष्य को लक्ष्य में रखते हुए वर्तमान को व्यतीत करना ही मानव जीवन है। इस त्रिकाल गोचर जीवन में अपना वर्तमान, भूतकाल का आभारी है। भूतकाल में हुए महापुरुषों के सत्पुरुषार्थ के प्रताप से ही वर्तमान में आत्मा को पवित्र करनेवाले, धर्म के शास्त्र, शास्त्र में बताई हुई क्रियाएँ; पवित्र जीवन जीते हए पवित्रता का संदेश देने वाला साधु-साध्वी भगवंतों का समुदाय, परमात्मा की कल्याणक भूमि आदि स्वरूप तीर्थक्षेत्र वगैरह आध्यात्मिक क्षेत्र की विरासतें मिली हैं। साथ ही सामाजिक जीवन में नैतिकता, सहृदयता वगैरह एवं प्रदेश की प्रजा में शांतिप्रियता, अहिंसकता वगैरह में पूर्व के महापुरुषों के सत्पुरुषार्थ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अतः भूतकाल में हुए इन उपकारी गुरु भगवंतों के उपकारों को याद करने एवं उनके प्रति भक्ति भाव रखने से जीवन में कृतज्ञता का गुण विकसित होता है। कहा गया है कि - कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः यानि जो उपकार को भूल जाये उसका निस्तार नहीं होता है। अतः वर्तमान की सुख-शांतिमय एवं धार्मिक जीवन रूपी इमारत की नींव रूप भूतकाल को पहचानना भी जरुरी होता है। इतिहास कहता है कि सोने की चिड़ियाँ कहलाने वाला भारत देश 8वीं शताब्दी तक प्रायः सुख, शांति, समृद्धि एवं धर्म प्रवृत्ति से परिपूर्ण था। परिवर्तनशील काल ने करवट बदली और पश्चिम देशों से पठाणों ने आक्रमण करके भारत को लुटना शुरु किया। धीरे-धीरे कुछ क्षेत्रों को जीतकर उनपर राज्य करने लगे। ‘इस्लाम धर्म स्वीकार करो वरना मरने के लिए तैयार हो जाओ' इस नीति से, तलवार की जोर पर आर्य संस्कृति एवं धर्म पर अत्याचार होने लगे। सेकड़ों लोग क्रूरतापूर्वक मारे गये। धन, मिल्कत एवं स्त्रियों की लूटें भी होती रहती थी। इतना ही नहीं परंतु भारतीय बिन-इस्लामी प्रजा पर धर्म परिवर्तन करने के लिए दबाव डालने रुप 'जजियावेरा' 'कर' 8 वीं शताब्दी में 'कासिम' ने चालु किया। जिसमें खाने-पीने के अतिरिक्त जो (मुनाफा) संपत्ति बचती वह सरकार ले जाती। दुसरे शब्दों में मरण तुल्य दंड, यह 'कर' था। इस 'कर' में कुछ परिवर्तन हुए परंतु आर्य प्रजा को इससे राहत नहीं मिली, वह त्रस्त थी। तीर्थयात्रा में भी 'कर' लिये जाते थे। मांसाहारी और मांसप्रिय शासकों के इस राज्यकाल में निर्दोष पशु ( 4 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ==अकबर प्रतिबोधक कोन ?=== पक्षियों की हिंसा भी बहुत व्याप्त हो गयी थी। ऐसी स्थिति लगभग 17वीं शताब्दी की शुरुआत तक चली। भारत की प्रजा को जरुरत थी एक संत की, जिसके उपदेश से राजा प्रजावत्सल, अहिंसक बन जाये। भारत की जब ऐसी दयनीय स्थिति थी, तब 14 वर्ष की उम्र में दिल्ली की राजगद्दी पर ई. सन् 1556 में अकबर का राज्याभिषेक हुआ। यद्यपि उसका राज्य उस समय दिल्ली-आग्रा एवं पंजाब के कुछ विभाग तक सीमित था, फिर भी उसने 20 साल तक घोर हिंसक युद्ध खेलकर, भारत के बहभाग पर अपना साम्राज्य जमा दिया था। अकबर ने चित्तोड़ के किल्ले को जीतने के लिए भयंकर हिंसा चलायी, जिसमें एक कुत्ते को भी बाकी नहीं रखा। वह रोज की सवा-शेर चिडियों की जीभ का नाश्ता करता। शिकार में इतना आसक्त था की उसने 10 मील के जंगल में 50,000 लोगों को एक महीने तक पशुओं को इकट्ठा करने का आदेश दिया और अंत में उन इकट्ठे किये हुए प्राणियों का 5 दिन तक विविध रीति से शिकार किया। इस ‘कमर्घ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। प्रायः ऐसा भयंकर शिकार भूतकाल में पहले कभी नहीं हुआ था। स्त्री लंपटता, शराब का व्यसन वगैरह अनेक दुर्गुण होने पर भी उसमें ‘गुणानुराग' नाम का एक महत्त्वपूर्ण गुण था। वह गुणवान व्यक्ति की कद्र करता था और अपने पर किये गये उपकारों को याद रखता था। अकबर को 20 साल की उम्र में जातिस्मरण ज्ञान हुआ था कि वह पूर्वभव में प्रयाग (इलाहाबाद) में मुकुन्द नाम का सन्यासी था।' इस घटना से उसे परलोक के हित के लिए कुछ करने की रुचि प्रगट हुई, परंतु वह राज्य के लोभ एवं अपने दुर्व्यसनों के वश होकर कुछ कर नहीं सका। ___ वह प्रजा के हित के कार्य एवं उन पर रहम दृष्टि रखने लगा, परंतु वह जनहित के कार्य मुख्यतया राज्य को स्थिर बनाने के लिए ही करता था, न कि दया की दृष्टि से। वह युद्ध में पकड़े सैनिकों को बंदी बनाकर रखता था और अपराधियों के प्रति अत्यंत क्रूर था। ऐसे क्रूर हिंसक बादशाह ने भी जैन साधुओं के सत्संग में आकर अपनी पिछली जिंदगी में कई सत्कार्य किये, जिससे प्रजा में सुख-शांति, टिप्पणी - * मुकुन्द सन्यासी ने प्रयाग (इलाहाबाद) में सम्राट बनने की इच्छा से वि. सं. 1598, द्वितीय माह वद 12, (2701-1542) को अग्निस्नान किया और वि. सं. 1599, कार्तिक वद 6 (15-10-1542) को अकबर के रूप में जन्म लिया। विशेष के लिये देखें - जैन परंपरा का इतिहास भाग-4, पृष्ठ -120।- ("An oriental biographical dictionary") Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? धार्मिक स्वांतत्र्य की कुछ अनुभूति हुई और आर्यवर्त में अहिंसा देवी की कुछ अंश में पुनः मंगल प्रतिष्ठा हुई। अकबर के उपर जैन साधुओं के प्रभाव के विषय में कुछ ऐतिहासिक उल्लेख: अकबर के दरबार में दो मूसलमान विद्वान ऐसे थे जिनका सम्पर्क दिन-रात अकबर के साथ रहता था। 1. अबुलफ़जल तथा 2. बदाउनी । (1) अबुलफ़ज़ल अपनी 'आइने अकबरी' पुस्तक में लिखता है किं "Now, It is his intention quit it by degrees, confirming, however, a little to the spirit of the age. His Majesty abstained from meat for some time on Fridays and then on Sundays; now on the first day of every solar month, on solar and lunar eclipses, on days between two fasts, on the Mondays of the month of Rajab, on the feast day of the every solar month, during the whole month of Forwardin and during the month in which His Majesty was born, viz., the month of Aban." अर्थात - वह (बादशाह) समय की भावनाओं को कुछ हद तक ध्यान में रखते हु वर्तमान में धीरे-धीरे मांस छोड़ने का विचार रखता है। बादशाह बहुत समय तक शुक्रवारों (जुम्मा) और तत्पश्चात् रविवारों (सूर्य के वारों) में भी मांस नहीं खाता। वर्तमान में प्रत्येक सौर्य महीने की पहली तारीख (सूर्य - संक्राति), रविवार, सूर्य तथा चंद्रग्रहण के दिन, दो उपवासों के बीच के दिन, रजब महीने के सोमवारों, प्रत्येक सौर महीने के त्योहारों, सारे फ़रबरदीन महीने में तथा अपने जन्मदिन के महीने में - अर्थात् सारे आबास मास में (बादशाह) मांस भक्षण नहीं करता।” - (2) इसी की पुष्टि में अकबर दरबार का कट्टर मुसलमान बदाउनी इस प्रकार लिखता है - "At the time His majesty promulgated some of his-faugled degrees. The killing of animals on the first day of the week was strictly prohibited (P.322) because this day is secred to the Sun, also during the first eighteen days of the month of Farwardin; the whole of the month of abon (the month in which His Majesty was born); and on several other days, to please the Hindus. This order was extended over the whole realm and punishment was inflicted on every one, who acted against the 1. 2. The Ain-i-Akbari translated by H. Blochmann M. A. Vol. I P. P. 61-62. अकबर के जीवन में जैन लेखकों ने मांस त्याग के जितने दिन गिनायें हैं उसकी सत्यता इस लेख से दृढ तथा स्पष्ट हो जाती है। 6 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? Command. Many a family was ruined, and his property was confiscated. During the time of those fasts, the Emperor abstained altogether form meat as a religious penance, gradually extending the several fast during a year for six months and even more, with a view to eventually discontinuing the use of meat altogether." अर्थात् - ‘इस समय बादशाह ने कितने ही नये-प्रिय सिद्धान्तों (विचारों) का प्रचार किया था। सप्ताह के प्रथम दिन (रविवार) को प्राणियों के वध की कठोरता पूर्वक निषेधाज्ञा की, क्योंकि यह दिन सूर्य पूजा का है। तथा फरबरदीन महीने के पहले 18 दिनों में, सारे अबान महीने (जिस महीने में बादशाह का जन्म हुआ था) में तथा हिन्दुओं को खुश करने के लिये दूसरे कई दिनों में प्राणियों के वध का सख्त निषेध किया था। यह हुकम सारे राज्य में घोषित किया गया था । आज्ञा विरुद्ध बस्ताव करने वालों को दंड दिया जाता था। इससे बहुत से परिवारों को दंडित किया गया तथा उनकी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली गई थी। इन उपवासों के दिनों में बादशाह ने एक धार्मिक तप के रूप में मांसाहार को एकदम (पूर्णतः ) बन्द कर दिया था। धीरे-धीरे वर्ष के छह महीने तथा इससे भी अधिक कई उपवास इसी हेतु से बढ़ाया गया ताकि (प्रजा) मांस का धीरे-धीरे एकदम त्याग कर सके।' 1 बदाउनी के ऊपर के वाक्य में जो 'हिन्दू' शब्द का प्रयोग किया है, इस हिन्दू शब्द से ज़ैन ही समझना चाहिये क्योंकि पशुओं-पक्षियों के वध के निषेध करने में और जीवदया संबंधी राजा - महाराजाओं को उपदेश देने में आज तक जो कोई प्रयत्नशील रहे हों तो वे जैन ही हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार विसेन्ट स्मिथ भी अपनी अकबर नामक पुस्तक के 335 पृष्ठ में स्पष्ट लिखता है कि "He cared little for flesh food, and gave up the use of it almost entirely in the later years of his life, when he came under Jain influence." अर्थात् - मांस भोजन पर बादशाह को बिल्कुल रुचि नहीं थी। इसलिये इसने अपनी पिछली आयु में जब से वह जैनों के समागम में आया, तब से मांस भोजन को सर्वथा छोड़ दिया था। (3) सम्राट के जीवहिंसा निषेध करने का सारा श्रेय जैन साधुओं के समागम का ही है, यह बात प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार श्री विन्सेन्ट ए. स्मिथ अपनी पुस्तक Akbar the Great Mogal के सन् 1917 के संस्करण के पृ 167 पर लिखते हैं : 1. Al-Badaoni. Translated by W. H. Lowe. M. A. Vol. II. P. 331 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ? = "Akbar's action in abstaining almost wholly from eating meat and in issuing stringent prohibitions, resembling those of Ashoka, restricting to the narrowest possible limits the destruction of animal life, certainly was taken in obedience to the doctrines of his Jain Teachers. The infliction of capital penalty on a human being for causing the death of an animal, was in accordance with the practice of several famous ancient and Buddhist and Jain Kings. The regulation must have inflicted much hardship on many of Akbar's subjects and especially on the Mahammadans." ___ अर्थात् अकबर का लगभग पूर्ण रूप से मांस का परित्याग करना, एवं अशोक के समान क्षुद्र-से-क्षुद्र जीवहिंसा का निशेध करने के लिए सख्त आज्ञाओं का जारी करना, अपने जैन गुरुओं के सिद्धान्त के अनुसार आचरण करने ही के परिणाम थे। हिंसा करनेवाले मनुष्यों को कड़ी सजा देना यह कार्य प्राचीन प्रसिद्ध बौद्ध और जैन सम्राटों ही के अनुसार था। इन आज्ञाओं से अकबर की प्रजा में से बहुत लोगों को और विशेष रूप से मुसलमानों को बहुत कष्ट हुआ होगा। अन्वेषण की परम आवश्यकता अकबर के जीवनकाल में इन मंगल कार्यों का श्री गणेश कराने वाले या अकबर को प्रतिबोध देकर उसकी जिंदगी में अहिंसा की क्रांति लाने वाले महापुरुष कोन थे? यह जानना परम आवश्यक है, ताकि सभी भारतीय प्रजा एवं विशेष करके जैन समाज उनके प्रति श्रद्धा भक्ति एवं कृतज्ञता का भाव प्रगट करने का अपना कर्तव्य निभा सके। मध्यस्थभाव से सत्य की शोध गच्छराग एवं पक्षपात से दूर हटकर मुख्यरूप से ऐतिहासिक सामग्रीओं के आधार पर इस बात पर प्रकाश डालना ही इस लेख का उद्देश्य है। ऐतिहासिक सामग्रीओं में - 1. अकबर बदशाह के समय लिखी गई उनकी जीवन विषयक पुस्तकें - __आइन-इ-अकबरी, अल बदाउनी, अकबरनामा आदि. 2. अकबर के फरमान, जहाँगीर के फरमान, 3. इतिहासविद् विद्वानों के अभिप्राय, 4. तत्कालीन अन्य राजा आदि के पत्र वगैरह मुख्यरूप से आधार माने गये Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? अकबर बादशाह के निकट मित्र और अकबर की धर्मसभा (इबादत खाना) के मुख्य संचालक अबुलफज़ल ने अकबर की जीवनकथा लिखी, जो आइन-इअकबरी के नाम से प्रख्यात है । उसमें लिखा है कि - अकबर ने अपनी धर्मसभा के सभ्यों को 5 विभागों में विभक्त किया था, जिसमें कुल 140 विद्वान थे । उनमें प्रथम वर्ग में 21 नाम है, जिसमें 16वाँ नाम आचार्य श्री हीरसूरिजी का है और 5 वें वर्ग में आ. विजयसेनसूरिजी और उपा. भानुचंद्र विजयजी के नाम है। ये तीनों ही साधु भगवंत थे। खरतरगच्छ के आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी आदि के नाम उसमें नहीं हैं। अबुलफज़ल का खून जहाँगीर ने वि. सं. 1659 में कराया था, जबकि उसके मरने के 10 वर्ष पूर्व वि. सं. 1649 में आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी अकबर को मिल चुके थे। इसी तरह जिनसिंहसूरिजी या समयसुंदर गणिजी का नाम भी आइन-इ-अकबरी में देखने में नहीं आता है। तपागच्छ इस सामान्य ऐतिहासिक उल्लेख के बाद हम घटनाक्रम एवं अन्य ऐतिहासिक निरीक्षण करेंगे। प्रतिबोधक किसे कहते हैं? सामान्यतः प्रतिबोध का अर्थ होता है नींद में से जागना तथा अकबर बादशाह, जो मोह की नींद में सोया था, उसे अहिंसा वगैरह के उपदेश देकर सर्वप्रथम जगाकर सफल रूप से अहिंसा की राह पर चलाने का कार्य करनेवाले आ. हीरविजयसूरिजी ही थे; वे ही अकबर प्रतिबोधक कहलाने चाहिए। इतिहास बताता है कि, वि. सं. 1639 में आ. हीरविजयसूरिजी फतेहपुर पधारे थे। आपके चारित्र और ज्ञान से अकबर बहुत ही प्रभावित हुआ । प्रसन्न हुए अकबर द्वारा सर्वप्रथम युद्ध में किये बंदियों को मुक्त कराया और फिर पंखियों को बंधन मुक्त कराया । वि. सं. 1640 में फतेहपुर के चातुर्मास में अकबर के पास पर्युषणा के (12 दिन) की अमारि घोषणा के फरमान निकलवाये और गुजरात में श्री सिद्धाचलजी आदि तीर्थों पर लिये जानेवाले कर और अत्यंत पीडादायक ऐसे 'जजियावेरा' कर को गुजरात में बंद करवाया । * इस प्रकार के अनेक कार्य कराने के बाद वि. सं. 1642 में गुजरात की ओर विहार करते समय, अकबर के हृदय रुपी बगीचे में अहिंसा का जो पौधा लगाया था, उसके सिंचन हेतु आ. * यद्यपि सम्राट ने अपने राज्य के 9वें वर्ष (वि. सं. 1621) में जजियाकर हटा दिया था। उस समय गुजरात उसके अधिकार में नहीं था। अतः गुजरात प्रदेश पर अधिकार के बाद, गुजरात प्रदेश तथा तीर्थों का जजियाकर आ. हीरविजयसूरि उपदेश से माफ किया था। 9 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ?: हीरविजयसूरिजी, शांतिचंद्र उपाध्यायजी को रखकर गये । उन्होंने वि. सं. 1645 तक रहकर अमृतमय उपदेश देकर के अकबर के पास से जीवदया पालन के लगभग 6 माहिने और 6 दिन तक के कुल फरमान निकलवाये एवं गुर्वादेश से उपाध्याय श्री भानुचंद्रजी एवं श्री सिद्धिचंद्रजी ने भी 23 साल तक मुगल राजाओं के पास रहकर शासन के कार्य करवाये थे। खरतरगच्छ के आचार्य जिनचंद्रसूरिजी ने भी आ. हीरविजयसूरिजी द्वारा खुले किये मार्ग के सहारे, वि. सं. 1649 में अमारि का अष्टाह्निका फरमान ( आषाढ सुद 9 से आ. सु. पूर्णिमा तक ) 7 दिन का मुलतान आदि के 12 सूबों के नाम से निकलवाया था। एवं आ. श्री जिनसिंहसूरिजी ने वि. सं. 1660 में मुलतान संबंधी उक्त फरमान के खो जाने पर पुनः नया फरमान प्राप्त क्रिया था । दोनों आचार्यों ने अकबर के पास अन्य शुभकार्य भी करवाये होंगे, परंतु उन्हें 7 दिन का एक ही फरमान मिला, ऐसा देखने में आता है। आ. जिनचंद्रसूरिजी के बाद, अकबर के दरबार में आ. विजयसेनसूरिजी उपस्थित हुए थे। अकबर की ओर से उन्हें भी एक फरमान मिला था। इस प्रकार सर्वप्रथम वि. सं. 1639 में आ. श्री हीरविजयसूरिजी ने अकबर बादशाह को प्रतिबोध देकर तीर्थरक्षा, अमारि प्रवर्तन एवं प्रजा के हित के प्रति सक्रिय बनाया। इसी कार्य को बाद के आचार्यों ने आगे बढ़ाया था। चलें ! ऐतिहासिक अन्वेषण करें ! इस प्राथमिक ऐतिहासिक निरीक्षण से ही स्पष्ट हो जाता है कि 'अकबर प्रतिबोधक', आचार्य श्री हीरविजयसूरिजी थे। इसी बात को थोड़े विस्तार से एवं प्रमाणों के आधार से देखेंगे। 1. आ. हीरविजयसूरिजी द्वारा अकबर को प्रतिबोध देने के विषय में ‘युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि' ग्रंथ (अगरचंदजी नाहटा ) में भी इस प्रकार बताया है: 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि' (प्रकरण छठा ) पृ. 64 : सम्वत् 1639 में तपागच्छ के आचार्य श्री हीरविजयसूरिजी भी सम्राट से मिले थे, उसके पश्चात् तो जैन विद्वानों का समागम उसे निरंतर रहा; जिससे जैन दर्शन के प्रति उनका अनुराग दिनों-दिन बढ़ने लगा था । 10 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? 2. आ. श्री हीरविजयसूरिजी के फतेहपुर सिकरी जाने के बाद अकबर पर जो प्रभाव पड़ा उसका विवरण, अकबर के दरबार में रहे इतिहासकार और कट्टर मुसलमान बदाउनी ने इस प्रकार दिया है : अकबर ने वर्ष में छह मास तक जीववध बन्द करने का आदेश दिया था। इस बात का उल्लेख बदाउनी ने इस प्रकार किया है -: "1 In these days 996 (Hijri), 1583 A. D.' (1640 Vikram Samwat) New Orders were given. The Killing of animals on certain days was forbiden, as on sundays, because this day is scared of the Sun, during the first 18 days of the month of Farwardin; the whole month of Abin (the month in which His Majesty was born) and several other days to please the Hindus. The order was extended over the whole. Realm and Capital punishments was inflicted on every one who acted against the command. (Badaoni P. 312) (मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म - पेज - 305 ) 3. जिनचंद्रसूरिजी का अकबर के साथ मिलन का समय और उनके उपदेश द्वारा हुए सत्कार्य का वर्णन 'मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म' पेज - 291 में इस प्रकार मिलता है : खरतरगच्छीय आयार्च श्री जिनचंद्रसूरि की लाहोर में सम्राट अकबर से भेंट : अकबर के दरबार में ओसवाल बच्छावत गोत्रीय श्वेतांबर जैन धर्मानुयायी कर्मचन्द्र नाम का एक मंत्री था। वह बड़ा दानवीर, शूरवीर, धर्मवीर, चारित्रवान, बुद्धिमान, कुशल राजनीतिज्ञ था। एक दिन सम्राट को कर्मचंद के मुख से श्री जिनचन्द्रसूरि की प्रशंसा सुनकर उनसे मिलने की उत्कंठा हुई। बादशाह ने अपने फ़रमान द्वारा आपको लाहौर पधारने की प्रार्थना की। फ़रमान पाते ही आप जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरिजी से 10 वर्ष बाद विक्रम संवत् 1648 ( ईस्वी सन् 1591) फाल्गुन सुदि 12 (ईद) के दिन 31 साधुओं के साथ लाहौर पहुँचे। सम्राट ने यहाँ पर आपको विक्रम संवत् 1649 फाल्गुन सुदि में 'युगप्रधान' की पदवी दी । - जिसके * तपागच्छ के प्रभावक आचार्य श्रीमान् हीरविजयसूरिजी के समागम से अकबर पर अच्छा प्रभाव पड़ा था, फल स्वरूप उसने जजियाकर वगैरह छोड़ दिया। कई दिनों तक अमारि उद्घोषणा के फरमान पत्र प्रकाशित कर अनेक जीवों को अभयदान दिया। उसके पश्चात् शांतिचंद्रजी, विजयसेनसूरिजी, भानुचंद्रजी आदि ने जैन धर्म का सबोध दिया था, इन सब बातों को जानने के लिये 'सूरीश्वर और सम्राट' आदि ग्रंथों को देखना चाहिये। (युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि के पृष्ठ - 64 की यह टिप्पणी है।) 1. इसी वर्ष अकबर ने श्री हीरविजयसूरिजी को जगद्गुरु की पदवी देकर उन्हें अपना गुरु माना था। 2. यहाँ उल्लेखित 'हिन्दु' शब्द का अर्थ 'जैन' करना चाहिए, जिसका स्पष्टीकरण पृष्ठ 7 पर कर चुके हैं। 11 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : अकबर प्रतिबोधक कोन ?: आपके साथ आये हुए मुनि जिनसिंह की आचार्य पदवी, मुनि गुणविनय और मुनि समयसुन्दर को वाचनाचार्य की पदवी, वाचक जयसोम और मुनि रत्नविधान को उपाध्याय पदवी से विभूषित किया। इस अवसर पर कर्मचन्द की प्रार्थना पर सम्राट ने एकदिन के लिए जीवहिंसा बन्द कराई। जिनचन्द्र सूरि के प्रभाव से सम्राट ने सौराष्ट्र में द्वारका के जैन-जैनेतर मंदिरों की रक्षा का फ़रमान वहाँ के सूवा के नाम भेजा । एकबार सम्राट ने काश्मीर जाने की तैयारी की, जाने से पहले सूरि जी को बुलाकर उनसे धर्मलाभ लिया। उसके उपलक्ष्य में सम्राट ने आषाढ़ सुदि 9 से 15 तक सात दिनों के लिए जीवहिंसा बन्द करने का फ़रमान अपने सारे राज्य के 12 सूबों में भेजा। उस फ़रमान में लिखा थाकि 'श्रीहीरविजयसूरि के कहने से पर्युषणों के 12 दिनों में जीवहिंसा का निषेध पहले कर चुके हैं अब श्री जिनचंद्रजी की प्रार्थना को स्वीकार करके एक सप्ताह के लिए वैसा ही हुक्म दिया जाता है। खंभात के समुद्र में एक वर्ष तक हिंसा न हो और लाहौर में आज एक दिन के लिए हिंसा न हो। ऐसे फ़रमान भी जारी किये। इस प्रकार जिनचंद्र सूरि लाहौर में अकबर के सानिध्य में एक वर्ष व्यतीत (वि. सं. 1649 का चौमासा) करके वि. सं. 1650 में गुजरात की तरफ़ विहार कर गये । हम लिख आए हैं कि वि. सं. 1650 में तपागच्छीय आचार्य विजयसेन सूरि लाहौर में अकबर के वहाँ पधारे। इससे पहले जिनचंद्र वापिस लौट चूके थे । उपर्युक्त वर्णन 'कर्मचन्द प्रबंध', जिसकी रचना खरतरगच्छीय क्षोमशाखा के प्रमोदमाणिक्य के शिष्य जयसोम उपाध्याय ने वि. सं. 1650 में विजया -दसमी के दिन लाहौर में की है और उस पर संस्कृत व्याख्या इनके शिष्य गुणविजय ने वि. सं. 1655 में की है। इसी वर्ष इसी गुणविनय ने इसका गुजराती पद्य में भी अनुवाद किया है, यह ग्रंथ जिनचंद्र के वापिस लौटने के बाद उसी वर्ष लिखा गया है। अकबर द्वारा आ. श्री हीरविजयसूरिजी एवं आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी को दिये गये फरमान, स्वयं महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और उन फरमानों से अकबर की पूज्य गुरुवरों के प्रति की श्रद्धा और उसके हृदय में कालक्रम से हुए दया भाव के विकास के दर्शन होते हैं। अतः सर्वप्रथम आ. श्री हीरविजयसूरिजी म.सा. को दिये गये * 'सच्चाई छुपाने से सावधान' पुस्तक के पृष्ठ 337 में यह पुरा प्रकरण ज्युं का त्युं लिखा है। मूल प्रकरण के उपर 3 नं. लिखा था, वह भी उसमें कायम रखा परंतु 'मूगल साम्राज्य और जैन धर्म' के अंतर्गत उस प्रकरण के आगे के 2 प्रकरण (1. भावदेवसूरिजी, 2. हीरविजयसूरिजी म.सा. के प्रकरण) को छोड़कर 3 नं. का प्रकरण छापा है और उसमें भी बीच की ये दो पंक्तियाँ जिनमें विजयसेनसूरिजी का केवल उल्लेख आया था, उसे भी उडा दिया गया है। 12 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? फरमानों में से : 1. पर्युषणा की अमारि प्रवर्तन का फरमान की नकल, 2. सिद्धाचलजी, गिरनारजी, तारंगाजी, केसरियानाथजी, आबुजी, राजगिरी के पहाड़ एवं सम्मेतशिखरजी के पहाड़ अर्पण का फरमान की नकल, 3. धर्मस्थानों की रक्षा के फरमान की नकल जो उपलब्ध है, वह यहाँ पर दी जाती है। इन फरमानों के बाद ( 4 ) आ. जिनचंद्रसूरिजी एवं ( 5 ) जिनसिंहसूरिजी को मिले अष्टाह्निका फ़रमान भी यहाँ पर दिये जायेंगे । यथास्थान इनके उपर कुछ विचार प्रस्तुत किये जायेंगे । 13 - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jonas,03%29, Davao, okos,room20.comco, ,como,cenas, odo,cona3, NC || DD-CEDDETDI-EGDDEENDEEDUCEDDETDD- CDD-COD-ECDD-CE 0000-00-000-00-000-000-000-00-000-000Ree 920, exa0, Coco, exc3,0320 29,90X00,0009ookoo, somas, con 23, Texas, 23 R adhivirail Mauritin दिया गया फ़रमान क्रमांक - 1 अकबर बादशाह द्वारा आचार्य श्री हीरविजयसूरिजी को =अकबर प्रतिबोधक कोन - PRODUKOSHOBINOD GOVEREDMIDOMEDY SHADGAGED SOMETRIOSINOD, SOREDITORIRADED, SIROHD ReerenceOD.0000000000000000000000000000 20066000000000000000000000066 CROSITIODIO BREED ADDIO TOOG GARIOD GOVIDES GODHRISED, ISROVIDEDITORIES ||GADDREDITODVISED Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ?= पर्युषणा अमारि संबंधी . हीरविजयसूरिजी को अकबर बादशाह का फ़रमान क्रमांक - 1 (ईश्वर के नाम से ईश्वर बड़ा है) मालवा के मुत्सद्दियों को विदित हो कि चूंकि हमारी कुछ इच्छायें इसी बात के लिए हैं कि शुभाचरण किये जायें और हमारे श्रेष्ठ मनोरथ एक ही अभिप्राय अर्थात् अपनी प्रजा के मन को प्रसन्न करने और आकर्षण करने के लिये नित्य रहते इस कारण जब कभी हम किसी मत व धर्म के ऐसे मनुष्यों का जिक्र सुनते हैं तो अपना जीवन पवित्रता से व्यतीत करते हैं, अपने समय को आत्म ध्यान में लगाते हैं और जो केवल ईश्वर के चिन्तन में लगे रहते हैं तो उनकी पूजा की बाह्य रीति को नहीं देखते हैं और केवल उनके चित्त के अभिप्राय को विचार के उनकी संगति करने के लिए हमें तीव्र अनुराग होता है और ऐसे कार्य करने की इच्छा होती है जो ईश्वर को पसन्द हो इस कारण हरिभज सूर्य (हीरविजयसूरि) और उनके शिष्य जो गुजरात में रहते हैं और वहाँ से हाल ही में यहाँ आये हैं। उनके उग्रतप और असाधारण पवित्रता का वर्णन सुनकर हमने उनको हाजिर होने का हुक्म दिया है और वे आदर के स्थान को चूमने की आज्ञा पाने से सन्मानित हुए हैं। अपने देश को जाने के लिए विदा (रूखसत) होने के पीछे उन्होंने निम्नलिखित प्रार्थना की - ___ यदि बादशाह जो अनाथों का रक्षक है यह आज्ञा दे दे कि भादों मास के बारह दिनों में जो पजूसर (पजूषण) कहलाते हैं और जिनको जैन विशेषकर के पवित्र समझते हैं कोई जीव उन नगरों में न मारा जावे जहाँ उनकी जाति रहती है, तो इससे दुनियां के मनुष्यों में उनकी प्रशंसा होगी बहुत से जीव वध होने से बच जायेंगे और सरकार का यह कार्य परमेश्वर को पसन्द होगा और चूंकि जिन मनुष्यों ने यह प्रार्थना की है वे दर देश से आये हैं और उनकी इच्छा हमारे धर्म की आज्ञाओं के प्रतिकूल नहीं है वरन् उन शुभ कार्यों के अनुकूल ही है, जिनको माननीय और पवित्र मुसलमानों ने उपदेश किया है। इस कारण हमने उनकी प्रार्थना को मान लिया और हुक्म दिया कि उन बारह दिनों में जिनको पजूसर (पजूषण) कहते हैं, किसी जीव की हिंसा न की जावे। 15 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ?=== यह सदा के लिए कायम रहेगी और सबको इसकी आज्ञा पालन करने और इस बात का यत्न करने के लिए हुक्म दिया जाता है कि कोई मनुष्य अपने धर्म सम्बन्धी कार्यों के करने में दुख न पावे। निति 7 जमादूलसानी सन् 992 हिजरी। ('मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति' : लेखिका - कु. नीना जैन से साभार उद्धृत) 16 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Oooooooooooooo अकबर प्रतिबोधक कोन ? अकबर बादशाह द्वारा आचार्य श्री हीरविजयसूरिजी को दिया गया फ़रमान क्रमांक - 2 04-1 سی را دارد و در راه ها را کی کیوں بابر کا کام کیا اور کس سے کر کے دنیا کیا کیا Lu Cayo ya sh ون در مورد گرم در صد پر واقع ان برای تریر ران و کارایی تمدن نوین و او را در این را ست است و الله 17 NDOKOONOOMOONG@@OND@YOONGOKOONGAM @ONGOK NOOK CONGO CONG Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - = अकबर प्रतिबोधक कोन ?= शत्रुजय, गिरनार, सम्मेतशिखर आदि तीर्थों के समर्पण संबंधी हीरविजयसूरिजी को अकबर बादशाह का फरमान क्रमांक - 2 जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर जलालुद्दीन अकबर बादशाह बादशाह गाजी का फरमान हमायूं बादशाह का लड़का बाबर बादशाह का लड़का - अमरशेख मिर्जा का लड़का सुल्तान अबू सइद का लड़का सुल्तान मुहम्मदशाह का लड़का मीरशाह का लड़का - अमीर तैमूर साहिब किरान का लड़का सूबा, मालवा, अकबराबाद, लाहौर, मूलतान, अहमदाबाद, अजमेर, गुजरात, बंगाल तथा दूसरे हमारे कब्जे में मुल्क का हाल तथा इसके बाद मुत्सदी सूबा करोरी तथा जागीरदारों को मालूम हो कि हमारा कुल इरादा ये है कि सभी रइयत का मन राजी रहे, कारण कि उनका दिल परमेश्वर की एक बड़ी अमानत है। विशेषकर वृद्धावस्था में हमारा इरादा ये है कि हमारा भला चाहने वाली रइयत सुखी तथा राजी रहे। हमारा अन्तःकरण पवित्र हृदय वाले व्यक्ति, भक्त, सजनों की खोज में निरन्तर लगा रहता है। जिस कारण मेरे सुनने में आया है कि हीरविजयसूरि (हीरविजयसूरि) जैन श्वेताम्बर के आचार्य गुजरात में बन्दरो में परमेश्वर की भक्ति कर रहे हैं, उनको अपने पास बुलाया, उनसे मुलाकात की हमें बड़ी खुशी हुई। उन्होंने अपने वतन जाने की आज्ञा मांगते समय अर्ज किया गरीब परवर की हुक्म हो कि सिद्धाचलजी, गिरनारजी, तारंगाजी, केसरियानाथजी, आबूजी के पहाड़ जो गुजरात में हैं तथा राजगिरी के पांचों पहाड़, सम्मेतशिखरजी उर्फ पार्श्वनाथजी जो बंगाल के मुल्क में हैं वो तथा पहाड़ों के नीचे जो मंदिर, कोठी तथा भक्ति करने की सभी जगहें तथा तीर्थ की जगहें जहाँ जैन श्वेतांबर धर्म की अपने अधिकार में, मुल्क में, जहाँ-जहाँ भी हमारे कब्जे में हैं, पहाड़ तथा मंदिर के आसपास कोई भी आदमी जानवर न मारे और ये दूर देश से हमारे पास आये हैं इनकी अर्ज यथार्थ है। यद्यपि मुसलमानी धर्म के विरुद्ध लगता है फिर भी परमेश्वर को पहचानने वाले मनुष्यों का कायदा है कि किसी के धर्म में दखल न दे - 18 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? और उनके रिवाजों को कायम रखें। ये अर्ज मेरी नजर में दुरुस्त मालूम पड़ी कि जो सभी पहाड़ तथा पूजा की जगहें बहुत समय से जैन श्वेतांबर धर्म की हैं, अतएव उनकी अर्ज क़बूल कर सिद्धाचल का पहाड़ गिरनारजी का पहाड़, तारंगाजी का पहाड़, केसरियानाथजी के पहाड़ जो गुजरात देश में हैं वो तथा राजगिरी के पांचों पहाड़, सम्मेतशिखर उर्फ पार्श्वनाथ का पहाड़ जो बंगाल में है। सभी पूजा की जगह तथा पहाड़ के नीचे की तीर्थ की जगह जो हमारे अधीन मुल्क में है और कोई जैन श्वेतांबर धर्म की हो वो हीरविजयसूरि जैन श्वेतांबर आचार्य को दे दिया गया है। वे निखालिस मन से परमेश्वर की भक्ति करेंगे और जो पहाड़ तथा पूजा की जगहें, तीर्थ की जगहें श्वेतांबर धर्म की ही हैं। असल में देखा जाये तो वे सब जैन श्वेतांबर धर्म की ही है। जब तक सूर्य से दिन उजाला होगा, चन्द्रमा से रात को रोशनी होगी तब तक इस फरमान का हुक्म जैन श्वेतांबर धर्म को मानने वाले लोगों में प्रकाशित रहे और कोई मनुष्य इस फ़रमान में दखल न करे। कोई भी उन पहाड़ों के ऊपर तथा उसके आस-पास के पूजा की जगहों, तीर्थों की जगहों में जानवर मारना नहीं और इस हुक्म पर गौर कर अमल करें। तथा हुकुम से मुकरना नहीं, दूसरी नई परमान मांगना नहीं । लिखा तारीख 7 माह उरदो बेहेस्त मुताबिक रविउल अवल, सन् 37 जुलुसी । (मुग़ल सम्राटों की धार्मिक नीति (कु. नीना जैन) में से साभार उद्धृत) 19 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ و ?= :aha mfare अकबर बादशाह का फ़रमान क्रमांक - 3 و و - و و و و . تا ۱۱ م گر بادش دعا نرا نتميان مسلمانان انقل اعمأدران المطيرا عن الجنادر الكيتو زوالجماران واشهاد مدیرکرالله القا هرمون الماء الباهره مورین المتابعت السلطان منظور انتظا ریلخانانضم لما بلاضرر را كانت المفروپا ملزمان مبارزان اعسار بونردانشان رانقدر رویا خرید. ما در شانزا با ریا اتر چری مکی همت ی انن مصر آن تر جیح فرزني انام وطبقات عمارات علمی مشارب رمنائنين مزاهب ومنيوعز ما رمنلز خزان رفيع وبر ديسمبر رونی رنجر رانا والدك هرکدم إزانامظم تخلیات خاص حق ومصررترتان جوانان است وازربع مربع از اندام خیره بنحور ثابت دل الخروفايع خاطرماتبارت عام عادت را ندار خراسان رشته دراما ندامت بزننتال ازراه شمال رکن مفصال مسل نماینده حکمت بالغ . که از اوریادم بنصب در رزن را سرپیک هینات دارنست ا نعام وقت طلت راکہ پر تربیت ازطق ت ب لغرابردی منشی خود ساختہ اگر روش سران كل ترانروید بامی با مرحبا، مكرما نده ناحیه مبارالمبیلرا مهربانان روز شنتاری کرج ردرمودرا خدای کنتاج لا دعان: ما وجرومردت نظرامان (خراخش معاونت مقتصدرشار نینان کیر ارضعین کرنا، بر هرکدام سردردل دهي باطن اشند باع من ركزت رياضت، خراجلیے عر متضان مریجی سررسیری را مجاز عقد زود مات المعلمات درکاء اركرشکنی حریریک آن دیارنز لراحل النور ساکن نیشان کر ر هاوریوسانهای ایمان کے درد سیار واطات با بانراوه زخ اره با مدا رولت ش اندار معتقدان رمحبان ایشان با سایر صاحب بن کر دنیای بی اساسی را هم أحري د م رمر زن اغتاد خراسان سالارز وانوآنہ ککرامنت إزياد وأعماما فسرنا انتم نبت بایینامهراهنر انناسمینا بدران و ارماترا در اصل به مې حلمت اتار کر ان د ندان مبارز سندات فرد رحبان مرمت ستجد اچا قدرد: مینا کی انعام مباشر لمن باشه د مخنصر وشاربانیان ایر تارتني و و و و و و و و و هههههههههههههههههههههههههههههههههههه و و و و و و و و و DOGGIEGGIO-GGIOGCI-EGOI-EGDIGGINGGINGWIGGIGG eeeeeeeeeeeeeeeeeeee.دوعدد %2 و 2% %2e %62 %2 . و ععهععههعهههععههههههههههههههههههههههههههههه %. و و3%2 2 و 2 و و و من النهار دراج کومبا % 20,00co, sendo, ovce, Coco Danco, eco, enco, condo, و از روندد: تر بنات رد و ح برد در یامشرک هر اس علم کی منار ال : استانک تم توارد فرجیع خانم رونتال واستقبل رجيم تمديان، شما زاد است که حکم په جل کر مرجان های اینتر وی به خال حوير نستخلت در دنیای روی حسرے ر وئی درست رشد مناسب لك من هرماس ما نرم و راست حماااا در تامر هدايت د بر را در حماد موجود در مورد دنیا پرستی کی باید در عمر را تخلق لے مجا ندهدکه م من الارصاد ایر ۲ مطایق و من هرم خام س ا دیبا را روی صوتی و و و . الکترعها والضا وإنما با هم من و و و 20 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? धार्मिक सुरक्षा संबंधी अकबर बादशाह का फ़रमान क्रमांक - 3 अल्लाहो अकबर । जलालुद्दीन महम्मद अकबर बादशाह ग़ाज़ी का फ़र्मान । अल्लाहो अकबर की मुहर के साथ नक़ल मुताबिक़ असल फ़र्मान के है। महान् राज्य के सहायक, महान् राज्य के वफ़ादार, श्रेष्ठ स्वभाव और उत्तम गुणवाले, अजित राज्य को दृढ बनानेवाले, श्रेष्ठ राज्य के विश्वास भाजन, शाही कृपापात्र, बादशाह द्वारा पसंद किये गये और ऊँचे दर्जे के ख़ानों के नमूने स्वरूप 'मुबारिज्जुदीन' (धर्मवीर) आज़मख़ान ने बादशाही महरबानीयाँ और बख्शिशों की बढ़ती से, श्रेष्ठता का मान प्राप्त कर जानना कि - भिन्न-भिन्न रीति-रिवाज वाले, भिन्न धर्मवाले, विशेष मतवाले और जुदा पंथवाले, सभ्य या असभ्य, , छोटे या मोटे, राजा या रंक, बुद्धिमान या मूर्ख-दुनिया के हरेक दर्जे या जाति के लोग, · कि जिसमें का प्रत्येक व्यक्ति ख़ुदाईनूर जहूर में आने का, प्रकट होने का - स्थान है और दुनिया को बनाने वालों के द्वारा निर्मित भाग्य के उदय में आनेकी असल जगह है; एवं सृष्टि संचालक (ईश्वर) की आश्चर्यपूर्ण अमानत हैं, - अपने अपने श्रेष्ठ मार्ग में दृढ रहकर, तन और मन का सुख भोगकर, प्रार्थनाओं और नित्यक्रियाओं में एवं अपने ध्येय पूर्ण करने में लगे रहकर, श्रेष्ठ बख़्शिशें देने वाले (ईश्वर) से दुआ-प्रार्थना करें कि, वह (ईश्वर) हमें दीर्घायु और उत्तम काम करने की सुमति दे। कारण, • मनुष्य जाति में से एक को राजा के दर्जे तक ऊँचा चढ़ाने और उसे सर्दार की पोशाक पहनाने में पूरी बुद्धिमानी यह है कि - वह (राजा) यदि सामान्य कृपा और अत्यंत दया को जो परमेश्वर की सम्पूर्ण दया का प्रकाश है - अपने सामने रखकर सबसे मित्रता न कर सके, तो कम-से-कम सबके साथ सुलेह-मेलकी नींव डालें और पूज्य व्यक्ति के (परमेश्वर के) सभी बंदों के साथ महरबानी, मुहब्बद और दया करे तथा ईश्वर की पैदा की हुई सब चीज़ों (सब प्राणियों) को - जो महान् परमेश्वर की सृष्टि के फल हैं - मदद करने का ख्याल रक्खे एवं उनके हेतुओं को सफल करने में और उनके रीति रिवाजों को अमल में लाने के लिए मदद करे कि जिससे बलवान् ग़रीब पर जुल्म न कर सके और हरेक मनुष्य प्रसन्न और सुखी हो । - 21 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ?= इससे योगाभ्यास करने वालों में श्रेष्ठ हीरविजयसूरि 'सेवडा" और उनके धर्म के मानने वालों की- जिन्होंने हमारे दर्बार में हाज़िर होने की इज्जत पाई है और जो हमारे दर्बार के सच्चे हितेच्छु हैं- योगाभ्यास की सच्चाई, वृद्धि और ईश्वर की शोध पर नजर रखकर हुक्म हुआ कि, - उस शहर के (उस तरफ़ के) रहने वालों में से कोई भी इनको हरकत (कष्ट) न पहुँचावे और इनके मंदिरों तथा उपाश्रयों में भी कोई न उतरे। इसी तरह इनका कोई तिरस्कार भी न करे। यदि उसमें से (मंदिरों या उपाश्रयों में से) कुछ गिर गये, या उजड़ गये हों और उनको मानने, चाहने खैरात करने वालों में से कोई उसे सुधारना या उसकी नींव डालना चाहता हो तो उसे कोई बाह्य ज्ञानवाला (अज्ञानी) या धर्मांध न रोके और जिस तरह खुदा को नहीं पहचानने वाले, बारिश रोकने और ऐसे ही दूसरे कामों को करना-जिनका करना केवल परमात्मा के हाथ में है- मूर्खता से, जादू समझ, उसका अपराध उन बेचारे खुदा को पहचानने वालों पर लगाते हैं और उन्हें अनेक तरह के दुःख देते हैं। ऐसे काम तुम्हारे साये और बन्दोबस्त में नहीं होने चाहिए; क्योंकि तुम नसीब वाले और होशियार हो। यह भी सुना गया है कि, हाजी 'हबीबुल्लाह ने जो हमारी सत्य की शोध और ईश्वरीय पहचान के लिए थोड़ी जानकारी रखता है- इस जमात को कष्ट पहुँचाया है। इससे हमारे पवित्र मन को- जो दुनिया का बंदोबस्त करनेवाला है- बहुत ही बुरा लगा है। इसलिए तुम्हें इस बात की पूरी होशियारी रखनी चाहिए कि तुम्हारे प्रान्त में कोई किसी पर जुल्म न कर सके। उस तरफ़ के मौजूदा और भविष्य में होनेवाले हाकिम, नवाब या सरकारी छोटे से छोटे काम करने वाले अहलकारों के लिए भी यह नियम है कि वे राजा की आज्ञा को ईश्वर की आज्ञा का रूपान्तर समझें, उसे अपनी हालत सुधारने का वसीला समझें और उसके विरुद्ध न चलें; राजाज्ञा के अनुसार चलने में ही दीन और दुनिया का सुख एवं प्रत्यक्ष सम्मान समझें। यह फर्मान पढ़, इसकी नकल रख, उनको दे दिया जाय जिससे सदा के लिए उनके पास सनद रहे ; वे अपनी भक्ति की क्रियाएँ करने में 1. श्वेताम्बर जैन साधुओं के लिए संस्कृत में श्वेतपट' शब्द है। उसी का अपभ्रंश भाषा में 'सेवड' रूप होता है। वही रूप विशेष बिगड़कर 'सेवड़ा' हुआ है। 'सेवड़ा' शब्द का उपयोग दो तरह से होता है। जैनों के लिए और जैन साधुओं के लिए। अब भी मुसलमान आदि कई लोग प्रायः जैन साधुओं को सेवड़ा ही कहते हैं। 2. देखो पेज 31-32 'सूरीश्वर और सम्राट' पुस्तक के। 3. इसी पुस्तक के पृष्ठ 190-194 में और 'अकबरनामा के तीसरे भाग के वेवरीज कृत अंग्रेजी अनुवाद के पृ 207 में इसका हाल देखो। 22 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : अकबर प्रतिबोधक कोन ? चिन्तित न हों और ईश्वरोपासना में उत्साह रक्खें। इसको फ़र्ज समझ इसके विरुद्ध कुछ न होने देना । इलाही संवत् 35 अज़ार महीने की छठी तारीख़ और खुरदाद नाम के रोज़ यह लिखा गया । मुताबिक़ तारीख 28 वीं मुहर्रम सन् 999 हिजरी । मुरीदों (अनुयायियों) में से नम्रातिनम्र अबुल्फ़ज़ल ने लिखा और इब्राहीमहुसेन ने नोंध की । नक़ल मुताबिक़ असल के है। ('सूरीश्वर और सम्राट' में से साभार उद्धृत | ) फ़रमानों की महत्त्वपूर्ण बातें अकबर बादशाह इस फरमानों के निरीक्षण से स्पष्ट पता चलता है कि आ. श्री हीरविजयसूरिजी म.सा. के तप और पवित्रता का वर्णन सुनकर उन्हें बुलाया था और जैसा सुना था वैसा देखने पर खुश होकर आ. श्री . हीरविजयसूरिजी को आदर के स्थान से सम्मानित किया था। - फरमान नं. 3 में योगाभ्यास करने वालों में श्रेष्ठ आ. श्री हीरविजयसूरिजी 'जो हमारे दर्बार के सच्चे हितेच्छु हैं - योगाभ्यास की सच्चाई, वृद्धि और ईश्वर की शोध पर नजर रखकर हुक्म हुआ' इन शब्दों से स्पष्ट होता है कि - आ. श्री हीरविजयसूरिजी के प्रति अकबर बादशाह को कितना बहुमान था । 23 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? HIH Hich - 4 لیاں مار مران . اری کریں بنات ایرانی را که در این کار را مدیریت علقات عالم مادام رات انسان را ن کی مون و من هم استانی س ام اس ایران یا اس روایت می کرد که سایت مربع وما ہر ود را در استان اور ان کا سارا رار دیا اور ان کا کام کر ای ایرانی نیست ماس با ما در ایران را رد کرد و درمان است رای این کار را در این کار را و او را برای من است ره وان و جوان را در دو سات حرارت دست अष्टाद्विकामादि शाही फरमान والے بستری استان درو کار ا خواران ایشان را سیر وروت در फरमान के पिछले भाग की नकल 24 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? जोधपुर निवासी मुन्शी देवीप्रसादजी ने इसका अनुवाद हिन्दी में इस तरह किया है - फ़रमान अकबर बादशाह ग़ाजी का ' सूबे मुलतान के बड़े - बड़े हाकिम, जागीरदार, करोड़ी और सब मुत्सद्दी (कर्मचारी) जान लें कि हमारी यही मानसिक इच्छा है कि सारे मनुष्यों और जीव जन्तुओं को सुख मिले, जिससे सब लोग अमन चैन में रहकर परमात्मा की आराधना में लगे रहें। इससे पहिले शुभचिंतक तपस्वी जयचन्द (जिनचंद्र ) सूरि खरतर (गच्छ) हमारी सेवा में रहता था। जब उसकी भगवद् भक्ति प्रकट हुई तब हमने उसको अपनी बड़ी बादशाही की महरवानियों में मिला लिया। उसने प्रार्थना की कि इससे पहिले हीरविजयसूरि ने सेवा में उपस्थित होने का गौरव प्राप्त किया था और हरसाल बारह दिन मांगे थे, जिन में बादशाही मुल्कों में कोई जीव मारा न जावे और कोई आदमी किसी पक्षी, मछली और उन जैसे जीवों को कष्ट न दे। उसकी प्रार्थना स्वीकार हो गई थी। अब मैं भी आशा करता हूँ कि इस सप्ताह का और वैसा ही हुक्म इस शुभचिन्तक के वास्ते हो जाय। इसलिए हमने अपनी आम दया से हुक्म फ़रमा दिया कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष को नवमी से पूर्णमासी तक साल में कोई जीव मारा न जाय और न कोई आदमी किसी जानवर को सतावे । असल बात तो यह है कि जब परमेश्वर ने आदमी के वास्ते भांति-भांति के पदार्थ उपजाये हैं तब वह कभी किसी जनावर को दुःख न दे और अपने पेट को पशुओं का मरघट न बनावे। परन्तु कुछ हेतुओं से अगले बुद्धिमानों ने वैसी तजबीज की है। इन दिनों आचार्य ‘जिनसिंह' उर्फ मानसिंह ने अर्ज कराई कि पहिले जो उपर लिखे अनुसार हुक्म हुआ था वह खो गया है इसलिये हमने उस फरमान के अनुसार नया फरमान इनायत किया है । चाहिये कि जैसा लिख दिया गया है वैसा ही इस आज्ञा का पालन किया जाय। इस विषय में बहुत बड़ी कोशिश और ताकीद समझकर इसके नियमों में उलट फेर न होने दें। ता. 31 खुरदाद इलाही । सन् 46।। हजरत बादशाह के पास रहने वाले दौलतखाँ को हुकुम पहुंचाने से उमदा अमीर और सरकारी राय मनोहर की चौकी और ख्वाज़ा लालचंद के वाकिया (समाचार) लिखने की बारी में लिखा गया ।' * यह फरमान लखनऊ में खरतरगच्छ के भंडार में है। इसकी नकल 'कृपारस कोश' पृ. 32 में भी छप चुकी है। मूल फरमान फारसी में है, और उपर शाही मुहर लगी हुई है। ('युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि' में से साभार उद्धृत | ) 25 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? फ़रमान क्रमांक - 5 अल्लाहु अकबर नकल- प्रतिभाशाली (चमकदार ) फरमान, जिस पर मुहर 'अल्लाहु अकबर' लगी हुई है। तारीख शहरयूर 4 माह महर आलही सन् 37। चूंकि उमदतूल मुल्क सुकनूस सल्तनत उल काहेरात उजदूददौला निजामुद्दीन सइदखाँ जो बादशाह का कृपापात्र है, मालूम हो चूंकि मेरा (बादशाह का ) पूर्ण हृदय तमाम जनता यथा सारे जानदारों (जीवधारियों) के शांति के लिये लगा है कि समस्त संसार के निवासी शांति और सुख के पालन में रहें। इन दिनों में ईश्वरभक्त व ईश्वर के विषय में मनन करनेवाले जिनचंद्रसूरि खरतर भट्टारक को मेरे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उनकी ईश्वरभक्ति प्रगट हुई । मैने उसको - बादशाही महिरबानियों से परिपूर्ण कर दिया। उसने प्रार्थना की कि इससे पहिले ईश्वरभक्त हीरविजयसूरि तपसीने (हजूर के) मिलने का सौभाग्य प्राप्त किया था, उसने प्रार्थना की थी कि हर साल बारह दिन साम्राज्य में जीववध न हो और किसी चिड़ीया या मच्छी के पास न जाय (न सतावे)। उसकी प्रार्थना कृपा की दृष्टि से व जीव बचाने की द्रष्टि से स्वीकार हुई थी, अब मैं आशा करता हूँ कि मेरे लिये (एक) सप्ताह भर के लिये उसी तरह से (बादशाह का) हुकम हो जाय। इसलिये. हमने पूर्ण दया से हुकम किया है कि आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में सात दिन जीववध न हो और न सतानेवाले (गैर मूजी) पशुओं को कोई न सतावे, उसकी तफसील यह है : नवंमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णमाशी । वास्तव में बात यह है कि, चूंकि आदमि के लिये ईश्वर ने भिन्न-भिन्न अच्छे पदार्थ दिये हैं, अतः उसे पशुओं को न सताना चाहिए और अपने पेट को पशुओं की कब्र न बनावें; कुछ हेतुवश प्राचीन समय के कुछ बुद्धिमान लोगों ने इस प्रथा को चला दिया था । चाहिये कि जैसा उपर लिखा गया है उस पर अमल करें, इसमें कमी न हो और इसे (हुकम को) कार्यरूप में परिणत करने में बहुत सहनशीलता से काम लें । उपर लिखी तारीख को लिखा गया । अबुलफ़ज़ल व वाक्यानवीस इब्राहीमवेरा। नकल - (1) उड़ीसा और उड़ीसा की सब सरकारें 26 (ओरिसा प्रान्त) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ==अकबर प्रतिबोधक कोन ?= जिहन्ताबाद खिल्जीयाबाद मारोहा (मादोहा) सरीफाबाद तारीकाबाद सासा गाँव गोरीया सार काम कफदा सलीमाबाद कीचर सलसल (सिलसल) बलाद (टाण्डा) फदेहाबाद ताजपुर भूराघाट हसनगाँव महमूदाबाद मदारक नकल - (2) अवधप्रान्त फरमान बयाजी व मोहर 'अल्लाहु अकबर' असकरार 4 शहरयूर माह महर आलही सन् 37 आकि जागीरदारान करोडियान ओ मुत्सदियान सूबे अवध बिदानद। अवध वहेराइच खैराबाद गोरखपुर लखनउ नकल - (3) दिल्ही-आगरा प्रान्त (कटा हुआ आधा उपर का भाग नहीं मिला।) देहली सरहिंद बदायु सम्बल हिसार-फिरोजा सहारनपुर · रिवाडी ('जैन परंपरानो इतिहास भाग - 4) फ़रमान से खुलते इतिहास के पृष्ठ जैसे कि पहले बताया जा चुका है कि वि. सं. 1639 में आ. श्री हीरविजय सूरिजी म. सा. ने अकबर के हृदय में दया का जो पोधा लगाया था, उसको उनके जाने के बाद उनके शिष्य उपाध्याय शान्तिचंद्रजी एवं भानुचंद्रजी ने जिनवाणी से सिंचन कर अत्यंत विकसित कर दिया था। अकबर के हृदय में पल्लवित हुई यह 27 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ?= दया, वि. सं. 1649 में आ. जिनचंद्रसूरिजी एवं आ. जिनसिंहसूरिजी की प्रार्थना को स्वीकार करके दिये गये फरमानों में, 'इसलिए हमने अपनी आमदया से हुक्म फरमा दिया कि...' एवं 'असल बात तो यह है कि परमेश्वर ने आदमी के वास्ते भिन्न-भिन्न पदार्थ उपजाये हैं, तब वह कभी किसी जानवर को दुःख न दे और अपने पेट को पशुओं का मरघट न बनावे।' - अकबर के इन शब्दों में स्पष्ट प्रतीत होता है। ___ इन फरमानों से यह भी पता चलता है कि. आ. जिनचंद्रसूरिजी ने आ. श्री हीरविजयसूरिजी को मिले फरमान का उल्लेख करके अमारि प्रवर्तन के शुभ कार्य के लिए प्रार्थना की थी। इसमें आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी की शासन भक्ति और नम्रता . के दर्शन होते हैं क्योंकि स्वयं समर्थ आचार्य होते हुए भी जानते थे कि अकबर बादशाह मुझसे पहले आ. हीरविजयसूरिजी के संपर्क में आ चुके हैं और उनसे प्रभावित है। आचार्य श्री ने सोचा होगा कि 'आ. हीरसूरिजी के नाम से अगर शासन का कार्य होता है, तो इसमें क्या गलत है?' नम्रता एवं शासनभक्ति के बिना एक समर्थ आचार्य द्वारा अपनी प्रार्थना में अन्य गच्छ के आचार्य के नाम का निर्देश करना दुष्कर है। अब हम अकबर बादशाह द्वारा विजयसेनसूरिजी को दिये गये फरमान को देखेंगे, जिसमें - 1. जैनों के आसपास गाय, बैल, भेंस एवं पाड़ा को कभी नहीं मारने का तथा चमड़ा नहीं उतारने का। 2. हर महीने कुछ दिन मांस नहीं खाने का। 3. घर में या वृक्षों पर घोसलें बनाये हो, उन प्राणियों को मारने या कैद करने की मनाइ का एवं 4. धर्म स्थानों की रक्षा का उल्लेख है। . 28 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 0, = = 3bat xfaalea अकबर बादशाह का फ़रमान क्रमांक - 6 :eeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee @@ههههههههههههههههههههععهه 29, melcao, emo,coexC9, menco, dando, menina,condo,conco, concorrenc3,02a کمد و ابر سلطانهم نان - لبنان من أصل سن در زنان این سه مرد دباب . مهزرا منته. تحك. باردار در ایران ح راستقبال و تهران سيء مربرت ریرا رسول تقعان عليانسوان فشار دره و رتبے کاری بینرز ویژه مناره وزن دم زدن در رد و مطمن علی نظری که با وجزرزسرجرجنان نکتدار واجات ومنتزعنفات رانندرجا مرلینکدخان جارانانرنر اداره دانخوری باراشة احتلنار وملاحرار کرده اند و. بود نان دانية کر نظر سے رکن بات وخواطئےعل ماضاني سبوهالبنرهبر کبوتر با بیان طرشت ارگرد علامت اند نیہان معلمان داده معابد واکرایانکر : اما ایشان باند کے نردبار واعانت اینازاند واران بها رو برادران عنوان انسان ایزه احبنه يختر الدكر يعبراندریاسالا . حلمتظاهرين ونعموناس نایدوجنة ہے ان خزاناتناسان ماكانکتار باستانمانینگ ا لعامل این بانون وطلانترنت باننامالانه بایندوانواع آنرا برسانند وزیر وطن خود کمیک انع میکرمند مطلت بنالک امریان نامارت کرده کنا بند کر دباغ خاط بإرتاحزر برده با داشتن این دوطرين وبرنیزامی می باشند بایک حسب الرمان عالیشان علمزمان اینایندکرجیب ترین جمی بردراید واعر علانك نتوان کردعمين انتران هنرده دیگر دين يخلت نابرخرمة التايهة . دغه شميريام المتهمان پرمن Nos , sendo, como enco, sanoo, evo, sokan, Danao, ondo, senos, coenos, eeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeود ه و ره وه و هههههههههههههههههههههههههههههههههههههههه و و و و و و و @@ @ الحمرننرااط ازتون سنعر ( ان 2 د ارد روزکاررلم يدرسون کرمان دريزمان باز کرد ارمان بود WAT 3.6 AH a... (29) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? अमारि एवं धार्मिक सुरक्षा संबंधी अकबर बादशाह का फ़रमान क्रमांक - 6 का अनुवाद अल्लाहो अकबर । 1. अबु-अलमुज़फ्फ़र सुल्तान..... का हुक्म. ऊँचे दर्जे के निशान की नक़ल असल के मुताबिक़ है । 6 इस वक्त ऊँचे दर्जे वाले निशान को बादशाही महरबानी से बाहर निकालने का सम्मान मिला ( है ) कि, - मौजूदा और भविष्य के हाकिमों, जागीरदारों, करोड़ियों और गुजरात सूबे के तथा सोरठ सरकार के मुसद्दियों ने, सेवड़ा (जैनसाधु) लोगों के पास गाय और बैलों को तथा भैंसों और पाड़ों को किसी भी समय मारने की तथा उनका चमड़ा उतारने की 'मनाई से संबंध रखनेवाले श्रेष्ठ और सुख के चिह्नोंवाला फ़र्मान है और उस श्रेष्ठ फ़र्मान के पीछे लिखा है कि, 'हर महीने में कुछ दिन इसके खाने की इच्छा नहीं करना तथा इसे उचित और फ़र्ज समझना। और जिन प्राणियों ने घर में या वृक्षों पर घौंसले बनाये हां, उन्हें मारने या कैद करने (पिंजरे में डालने) से दूर रहने की पूरी सावधानी रखना।' इस मानने लायक़ फ़र्मान में और भी लिखा है कि योगाभ्यास करने वालों में श्रेष्ठ हीरविजयसूरि के शिष्य विजयसेनसूरि सेवड़ा और उसके धर्म को पालने वालेजिन्हें हमारे दर्बार में हाज़िर होने का सम्मान प्राप्त हुआ है और जो हमारे दर्बार के खास हितेच्छु है- उनके योगाभ्यास की सत्यता और वृद्धि तथा परमेश्वर की शोध पर नजर रख (हुक्म हुआ कि ), - इनके मंदिरों या उपाश्रयों में कोई न ठहरे एवं कोई इनका तिरस्कार भी न करे। अगर ये जीर्ण होते हों और इनके माननेवालों, चाहनेवालों या ख़ैरात करने वालों में से कोई इन्हें सुधारे या इनकी नींव डाले तो कोई भी बाह्य ज्ञानवाला या धर्मांध उसे न रोके । और जैसे खुदा को नहीं पहचानने वाले, बारिश को रोकने या ऐसे ही दूसरे काम - जो पूज्य जात के (ईश्वर के) काम हैं - करने का दोष, मूर्खता और बेवकूफ़ी के सबब, उन्हें जादू के काम समझ, उन बेचारे खुदा के मानने वालों पर लगाते हैं और उन्हें अनेक प्रकार के दुःख देते हैं तथा वे जो धर्म क्रियाएं करते हैं उनमें बाधा डालते हैं। ऐसे कामों का दोष इन बेचारों पर नहीं लगाकर इन्हें अपनी जगह और मुकाम पर खुशी के साथ भक्ति का काम करने देना चाहिए एवं अपने धर्म के अनुसार उन्हें धार्मिक क्रियाएँ करने देना देखो पेज 165, 166। (सूरीश्वर और सम्राट) 30 1 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -अकबर प्रतिबोधक कोन ? = चाहिए।' इससे (उस) श्रेष्ठ फ़र्मान के अनुसार अमल कर ऐसी ताकीद करनी चाहिए कि, - बहुत ही अच्छी तरह से इस फर्मान का अमल हो और इसके विरूद्ध कोई हुक्म न चलावे। (हरेक को चाहिए कि वह अपना फ़र्ज़ समझकर फर्मान की उपेक्षा न करे ; उसके विरुद्ध कोई काम न करे। ता. 1 शहर्युर महीना, दलाह सन् 46, मुताबिक़ ता. 25. महीना सफर, सन् 1010 हिज्री। पेटा का वर्णन फ़र्वरदीन महीना, जिन दिनों में सूर्य एक राशी से दूसरी राशी में जाता है वे दिन ; ईद; मेहर का दिन ; हर महीने के रविवार; वे दिन कि जो दो सूफ़ियाना दिनों के बीच में आते हैं; रजब महीने का सोमवार ; आबान महीना कि जो बादशाह के जन्म का महीना है; हरेक शमशी महीने का पहला दिन जिसका नाम ओरभज है; और बारह पवित्र दिन कि जो श्रावण महीने के अन्तिम छः और भादवे में प्रथम छः दिन मिलकर कहलाते हैं। निशाने आलीशान की नक़ल असल के मुताबिक़ है। (इस मुहर में सिर्फ क़ाज़ी ख़ानमुहम्मद का नाम पढ़ा जाता है। दूसरे अक्षर पढ़े नहीं जाते।) 15 (इस मुहर में लिखा है, 'अकबरशाह मुरीदा जादा दाराब') . ('सूरीश्वर और सम्राट' में से साभार उद्धृत।) 1. दाराबका पूरा नाम मिर्ज़ादाराबख़ाँ था। वह अबुर्रहीम ख़ानखाना का लड़का था। विशेष के लिए देखो, 'आइन-ई-अकबरी' के पहले भाग का अंग्रेजी अनुवाद। पृ339। 31) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? फ़रमान स्वयं ही बताता है जैसे कि पहले देख चुके हैं कि आ . जिनचंद्रसूरिजी के बाद अकबर बादशाह आ. विजयसेनसूरिजी के संपर्क में आये थे। जैनाचार्यों के सतत समागम से अकबर के हृदय में दया भाव का विकास इतना हो गया था कि उसने, घर या वृक्षों पर घोंसले डालने वाले पक्षियों को भी मारने या पकड़ने की मनाई फरमायी । अकबर बादशाह इस फरमान को देने के समय तक कई अजैन सन्यासी एवं आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी सहित कई जैन संतों के समागम में भी आ चुका था फिर भी, आ. हीरसूरिजी की जो छाप अकबर के हृदय में अंकित हुई थी, वह अमिट थी। यह बात 'योगाभ्यास करने वालों में श्रेष्ठ हीरविजयसूरि के शिष्य अकबर के इन शब्दों से ही स्पष्ट हो जाती है। परंतु खेद की बात है कि गुरुजन एवं गच्छ के प्रति अत्यंत अनुराग के कारण कभी इतिहास की प्रस्तुति अन्य रीति से भी कर दी जाती है कि 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि' में पृष्ठ 83 में ऐसा बताया गया है कि 'अकबर अपने परिचय में आये सभी श्वेतांबरादि यति साधुओं में से आ. जिनचंद्रसूरिजी को ही सबसे श्रेष्ठ मानता है। ' अगर अकबर बादशाह ऐसा मानता होता तो आ . जिनचंद्रसूरिजी के परिचय के बाद दिये गये इस फरमान में आ. हीरविजयसूरिजी के लिए 'श्रेष्ठता' सूचक शब्द का प्रयोग नहीं करता । तथा 'आइन - ई-अकबरी' में अबुलफ़ज़ल ने अकबर की धर्मसभा में प्रथम श्रेणी में आ . हीरविजयसूरि के स्थान पर आ . जिनचंद्रसूरिजी को बताया होता, जबकि अबुलफ़ज़ल ने आ. हीरविजयसूरिजी को अकबर की धर्मसभा में प्रथम श्रेणी में बताया है, जबकि आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी के लिए इस ऐतिहासिक ग्रंथ में ऐसा कोई उल्लेख मिलता नहीं है । 32 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहाँगीर बादशाह का फ़रमान سه گیر حكام وعال ويتصدر مهات وسار معانا ح و منقدرش حصرا کار سورية ترحب بادشاهان بازار و مدرن بوده اند كون بجانچنے وجہ اس جوسر فهم مروان رسانیدند که وجوه جزير ومكنون بر جا مردان از کارت ترومان اصلا وحيوانات دیگر 1 مترا مرا دینے والا مورة و اسیر کردن مردم درہم میں اور ایران ساتر بر سر کارسو میکنند حفر على معان ومنع ر و ناسرا، وكان من رفیع المزن ماننان كان النت و لے کردرا کافر مرا دارم امور تر را مع لما در تیرماه ولارت مارکت شده موم کرد را هم دوام می پرست الح العشرين علموا تحلم واسرا میزند و شان شد کر و انجا ناراحو الاناضر دربرد، مکا مار چه دورند د اما نه رعایت را به ارسال مربی به مورادی مجمع ارد اندام رسان کرمبران ساطير ما بے روبرو والمسرح اشتغال می شود باشند و در بره او الخطوب مربی درون خود را داده از دستور فرما. کرنا میری بی تو والامل شعر تیب وار لے کر ان کے مام رونار • अकबर प्रतिबोधक कोन ? جاري الصاع مخصر سلمان سال است وروز و روزی سیا لوله مانه نے شهد در اینه Noooooooooo ook ooooooooo 33 अकबर बादशाह द्वारा दिये गये फ़रमानों के बाद, अब यहाँ पर जहांगीर बादशाह द्वारा उपा. भानुचंद्रजी एवं सिद्धिचंद्रजी को दिया गया फ़रमान दिया जाता है। इसमें आ. श्री हीरविजयसूरिजी एवं आ. श्री विजयसेनसूरिजी की प्रेरणा से अकबर बादशाह ने जो फ़रमान निकाले थे, उनका निर्देश किया गया है और जहांगीर के जन्म के महीने में अमारि का प्रवर्तन वगैरह के महत्वपूर्ण उल्लेख हैं Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ? अमारि एवं धार्मिक सुरक्षा संबंधी जहाँगीर बादशाह का फ़रमान क्रमांक - 7 का अनुवाद । अबुलमुज़फ्फ़र सुल्तान शाह सलीम गाजी का दुनिया द्वारा माना हुआ फ़र्मान। नक़ल मुताबिक़ असल के हैं। बड़े कामों से संबंध रखनेवाली आज्ञा देने वालों, उनको अमलमें लानेवालों, उनके अहलकारों तथा वर्तमान और भविष्य के मुआमलतदारों... आदि और मुख्यतया सोरठ सरकार को शाही सम्मान प्राप्त करके तथा आशा रखके मालूम हो कि 'भानुचंद्र यति' और 'खुशफ़हम' का खिताब वाले सिद्धिचंद्र यति ने हमसे प्रार्थना की कि, - 'जज़िआ , कर, गाय, बैल, भैंस, और भैंसे की हिंसा, प्रत्येक महीने नियत दिनों में हिंसा, मरे हुए लोगों के माल पर कब्ज़ा करना, लोगो को कैद करना और सोरठ सरकार शत्रुजय तीर्थ पर लोगों से जो मेहसूल लेती है वह महसूल, इन सारी बातों की आला हज़रत (अकबर बादशाह ने) मनाई और माफ़ी की है।' इससे हमने भी हरेक आदमी पर हमारी महरबानी है इससे एक दूसरा महीना जिसके अन्तमें हमारा जन्म हुआ है और शामिलकर, निम्न लिखित विगत के अनुसार माफ़ी की है - हमारे श्रेष्ठ हुक्म के अनुसार अमल करना तथा विजयदेवसूरि और विजयसेनसूरि के जो वहाँ गुजरात में हैं- हाल की ख़बरदारी करना और भानुचंद्र तथा सिद्धिचंद्र जब वहाँ आ पहुँचें तब उनकी सार सँभालकर, वे जो कुछ काम कहें उसे पूरा कर देना, कि जिससे वे जीत करने वाले राज्यों को हमेशा (क़ायम) रखने की दुआ करने में दत्तचित्त रहें। और 'ऊना' परगने में एक वाड़ी है। उसमें उन्होंने अपने गुरु हीरजी (हीरविजयसूरिजी) की चरणपादुका स्थापित की है, उसे पुराने रिवाज के अनुसार 'कर' आदि से मुक्त समझ, उसके संबंध में कोई विघ्न नहीं डालना। लिखा (गया) ता. 14 शहेरीवर महीना, सन् इलाही 55. * वर्तमान में कुछ इतिहासकार ऐसा भी मानते हैं कि अकबर ने 'जिजआ कर' माफ नहीं किया था और गैरमुसलमानों पर जुल्म करता था एवं आ. हीरविजयसूरिजी भी उसमें कोई परिवर्तन ला नहीं सके थे। उनकी ये सब बातें पूर्व में दिये गये फ़रमान एवं इस फरमान में उल्लेखित अकबर द्वारा जजिआ कर की माफी के वर्णन से गलत साबित होती है। = 34 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? पेटा का खुलासा फ़रबरदीन महीना, वे दिन कि, जिनमें सूर्य एक राशी से दूसरी राशी में जाता है। ईद के दिन, मेहर के दिन, प्रत्येक महीने के रविवार, वे दिन कि जो सूफियाना के दो दिनों के बीच में आते हैं, रजब महीने का सोमवार, अकबर बादशाह के जन्म का महीना - जो आबान महीना कहलाता है। प्रत्येक शमशी (Solar) महीना का पहला दिन, जिसका नाम ओरमज है। बारह बरकत वाले दिन की जो श्रावण महीने के अन्तिम छः दिन और भादो के पहले छः दिन हैं। अल्लाहो अकबर। नक़ल मुताबिक़ असल के है। (इस मुहर में अक्षर पड़े नहीं जाते । ) ل ( इस मुहर में क़ाज़ी 1 अब्दुलसमी का नाम है। नक़ल मुताबिक़ असल के है। قبل الامل (इस मुहर में क़ाज़ी ख़ानमुहम्मद का नाम है ।) दूसरे अक्षर पढ़े नहीं जाते। ('सूरीश्वर और सम्राट' में से साभार उद्धृत । ) 1. यह ‘मियाँकाल' नामके पहाड़ी प्रदेश का रहने वाला था। यह प्रदेश समरकंद और बुख़ारा के बीच में है। बदाउनी कहता है कि यह धन के लिए शतरंज खेलता था। शराब भी बहुत पीता था । हि. सं. 990 में अकबर ने उसे काज़ी जलालुद्दीन मुल्तानी में क़ाज़ील्कुजात बनाया था। देखो 'आइन-ई-अकबरी' के प्रथम भाग का अंग्रेजी अनुवाद पृ 545. 35 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ?= = प्रामाणिक उल्लेखों से करें सत्य का निर्णय तपागच्छ पट्टावली, हीरसौभाग्य, हीरसूरिनो रास आदि ग्रंथों में आ. हीरसूरिजी एवं उनके शिष्यों के द्वारा छः महीने एवं छः दिन की अमारि प्रवर्तन करायी जाने की बात आती है। उन ग्रंथों में उक्त अमारि प्रवर्तन के महिनों एवं दिनों के जो उल्लेख हैं, करीबन उन सभी दिनों का इस फरमान में दिये गये दिनों से मेल बैठता है। इस प्रकार इस ऐतिहासिक फ़रमान से उक्त ग्रंथों की प्रामाणिकता भी सिद्ध होती है। इस फरमान और पीछे के फरमानों से स्पष्ट होता है कि आ. हीरसूरिजी और उनके शिष्यों के उपदेश से ही छः महीने का अमिर प्रवर्तन, गाय, बैल, भैंस, वगैरह की रक्षा, शत्रुजय तीर्थका कर मोचन वगैरह सत्कार्य, अकबर ने किये थे। इस प्रकार इतिहास से सिद्ध होते हुए भी 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरिज़ी' में पृष्ठ 113 में अपने ही गच्छ के किसी एक शिलालेख के आधार से - _1) प्रतिवर्ष में सब मिलाकर छः महीने पर्यंत अपने समस्त राज्य में जीवहिंसा निषेध, 2) शत्रुजय तीर्थ का कर मोचन, 3) सर्वत्र गौरक्षा का प्रचार। ये कार्य जिनचंद्रसूरिजी के उपदेश से अकबर बादशाह ने किये थे' ऐसा सिद्ध करने का प्रयास किया है, जबकि आ. जिनचंद्रसूरिजी संबंधी दिये हुए ऐतिहासिक फरमानों में या कर्मचंद प्रबंध ग्रंथ जो खरतरगच्छीय जयसोम उपाध्यायजी के द्वारा रचित है, उसमें भी कहीं इन कार्यों का आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी द्वारा किये जाने का उल्लेख नहीं है। इन सभी फरमानों के निरीक्षण से ही पता चल जाता है कि आ. श्री हीरविजयसूरिजी का अकबर बादशाह पर कितना प्रभाव पड़ा था एवं अकबर भी उन्हें योगाभ्यास (मोक्षमार्ग की साधना) करने वालों में श्रेष्ठ मानता था। 364 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? आ. हीरविजयसूरिजी और महाराणा प्रताप आ. श्री हीरविजयसूरिजी ने अकबर को प्रतिबोध देकर के गुजरात की ओर प्रयाण किया था, बीच में उन्होंने वि. सं. 1643 का चातुर्मास नागोर में किया और बाद में सिरोही में चौमुख जिनप्रसाद एवं श्री अजितनाथ जिनालय में प्रभु प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करके जब मुसुदाबाद (मुसुद) पधारे थे, तब मेवाड़ में पधारने के लिए महाराणा प्रतापसिंह का विनंति पत्र आया था, वह यहाँ पर दिया जाता है। जैसे कि फरमान से पता चलता है कि अकबर बादशाह ने आ. हीरसूरिजी को बुलाया था और जैन धर्म का प्रतिबोध पाकर उसने अनेक सत्कार्य किये थे। वैसे ही जगद्गुरु हीरविजयसूरि को महाराणा प्रतापसिंह ने भी अपने राज्य में पधारने के लिए अनेक बार विनंति पत्र लिखे थे। वह भी जगद्गुरु की कृपा तथा आशीर्वाद का लाभ उठाना चाहता था । परंतु वृद्धावस्था के कारण आप का यहाँ पधारना न हो सका। महाराणा के अनेक विनंति पत्रों में से हम यहाँ एक पत्र का उल्लेख करते हैं। यह पत्र पुरानी मेवाड़ी भाषा में महाराणा ने स्वयं अपने हाथों से जगद्गुरु को लिखा था। इस पत्र से इतिहास पर अच्छा प्रकाश पड़ेगा। महाराणा प्रताप सिंह का पत्र समस्त श्री महाराज मंगसूदाना महासुभस्थाने सरब ओपमाला अक श्री हीरबजे सूरजि चरणकमलां अणे श्री बजेस्वस्त चावडरा देश सुधाने महाराजाधिराज श्री राणा प्रताप संघ जि ली. पगे लागणो वंचसी । - कटक अठारा समाचार भला है, आपरा सदा भला छाईजे। आप बड़ा है, पूजनीक है- सदा करपा राखे जीसु ससह (श्रेष्ठ) रखावेगा अप्रं आपरो पत्र अणा दनाम्हें आया नहीं सो करपा कर लेषावेगा। श्री बड़ा हजुररी वगत पदारखो हुवो जी में अठांसु पाछा पदारता पातसा अकब्र जिने जैन वादन्हें ग्रान रा प्रतिबोद दीदो। जीरो चमत्कार मोटो बताया जीव हंसा (हिंसा) छरकली (चिड़ियाँ) तथा नाम पषुरू (पक्षी) वेती सो माफ कराई जीरो मोटो उपगार कीदो, सो श्री जैनरा में* उप्रदेश गुजरात सुदा चारुदसा (चारों दिशा) म्हें धमरो बड़ो उदोतकार देखाणी जठा पछे आप से पदारणो हुवो न्हीं सो कारण कही वेगा पदारसी आगे सु पटा परवाणा करण रा दस्तुर माफक आप्रे हे जी माफक तोल मुरजादं सामो आवो सा बरतेगा श्री बड़ा हजुररी वषत धम 37 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ?= 97ਧਦੀ ਸਦਵ 7 37 ਦੀ ਦ ਧਵੀ ਢੁਗੀ ਜੋ ਸ ਦm ਸੋਦਰੋਂ भूल रहीवेगा जी रो अदेसो नहीं जाणेगा। आगे सुश्री हेमाचार जिन श्री ਦਵੋ ਸਰਦਾਰ ਵੈ ਸੰ ਧ ਦ ਫੋਗਰੋਂ ਜੀ ਸਲਝ Gਧਦਾ ਟਰਦ गादी प्र आवेगातो पटा माफक मान्या जावेगा। श्री हेमाचार जि पेली श्री ਛੁਰਾਦਰ' ਦਾ ਟਰਦ ਗੋ ਛੁ7 ਦ0 s ਦਵੋ ਸਰਦ ਸਨ आपने आपरा पगदा गादी प्र पाटवी तपागच्छ रा ने मान्या जावेगारी सुवाये देसम्हे आप्रे गच्छ से देवरो (मंदिर) तथा उपासरो वेगा जी से मुरजाद श्री राज मुंवा दुजा गच्छरा भटारष आवेगा सो राधेगा। श्री समरण, ध्यान, देव जाया जठ साद करावसी भूलसी नहिं ने वेगा पदारसी। परवानगी पंचोली गोरी समत' 1645 वर्ष आसोज सुद' 5 . गुरुवार। इस पत्र में, आ. हीरविजयसूरिजी ने अकबर बादशाह को प्रतिबोध दिया और जीवहिंसा वगैरह बंद करायी,' उसका स्पष्ट उल्लेख किया है और लिखा है कि वर्तमान में आपके जैसा उद्योतकारी (प्रभावक) दिखता नहीं है। अलबदाउनी का बयान हीरविजयसूरि आदि जैन साधुओं का उपदेश कितने महत्त्व का था, इस महत्त्व को बदाउनी भी स्वीकार करता है "And Samanas' and Brahmans (who as far as the matter of private interviews is concerned (P. 257) gained the advantage over everyone in attaining the honour of interviews with His Majesty, and in associating with him, and were in every way superior in reputation to all learned and trained men for their treatises on morals and on physical and stages of spiritual progress and human perfections) brought forward proofs, based on reason and traditional testimony, for the truth of their own, and the fallacy of our religion, and inculcated their doctrine with such firmness and assurance, that they affirmed mere imagination as though they were self evident facts, the truth of which the doubts of the secptic could no more shake."2 ___ 1. मूल फ़ारसी पुस्तक को सेवड़ा' शब्द के अनुवादक ने 'श्रमण' लिखा है, परंतु चाहिये 'सेवड़ा'; क्योंकि उस समय में जैन श्वेतांबर साधुओं को सेवड़ा के नाम से लोग पहचानते थे। उस समय पंजाब आदि प्रदेशों में जैन साधुओं को सेवड़ा कहते थे। इस अंग्रेजी अनुवाद W. H. Lowe M.A. (डब्ल्यू एच लाँ एम. ए) इस अपने अनुवाद के नोट में श्रमण का अर्थ बौद्धश्रमण करता है पर यह ठीक नहीं है। क्योंकि बौद्धश्रमण बादशाह के दरबार में कोई गया ही नहीं था। इस बात का अधिक स्पष्टीकरण हम आगे करेंगे। यह सेवड़ा में श्वेतांबर जैन साधु को ही समझना चाहिए। 2. Al-Badaoni Translated byW.H. LoweM.A.Vol.-II, Page-264 38 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ?== अर्थात् – “सम्राट अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा श्रमणों (जैन साधुओं) और ब्राह्मणों की एकांत परिचय को मान अधिक देता था। उन के सहवास में अधिक समय व्यतीत करता था। वे नैतिक, शारीरिक, धार्मिक और आध्यात्मिक शास्त्रों में इस धर्मोन्नति की प्रगति में और मानव जीवन की संपूर्णता प्राप्त करने में दूसरे सब (संप्रदायों के) विद्वानों और पंडित पुरुषों से सब प्रकार से श्रेष्ठ थे। वे अपने मत की सत्यता और हमारे (मुसलमान) धर्म के दोष बतलाने के लिये बुद्धिपूर्वक और परम्परागत प्रमाण देते थे। और ऐसी दृढ़ता और दक्षता के साथ अपने मत का समर्थन करते थे कि जिस से उनका केवल कल्पित जैसा मत स्वतः सिद्ध प्रतीत होता था और उसकी सत्यता के लिये नास्तिक भी शंका नहीं ला सकता था।' ऐसे अधिक सामर्थ्यवान जैनसाधु अकबर पर अपना ऐसा प्रभाव डाले, यह क्या संभव नहीं? अकबर ने जब अपने व्यवहार में इतना अधिक परिवर्तन कर डाला था तो इस पर से ऐसा मानना अनुचित नहीं है - 'कि अकबर ने दया संबंधी विचार बहत ही उच्चकोटि तक पहुंच चुके थे।' इस बात की पुष्टि के अनेक प्रमाण मिलते हैं। देखिये बादशाह ने राजाओं के जो धर्म प्रकाशित किये थे, उन में उस ने एक यह धर्म भी बताया था। _ 'प्राणीजगत जितना दया से वशीभूत हो सकता है, उतना दूसरी किसी वस्तु से नहीं हो सकता। दया और परोपकार - ये सुख और दीर्घायु के कारण हैं।' आइने अकबरी की बातें अबुलफ़ज़ल लिखता है कि - ‘अकबर कहता था - यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता कि मांसाहारी एक मात्र मेरा शरीर ही खाकर दूसरे प्राणियों के भक्षण से दूर रह सकते तो कैसा सुख का विषय होता ! अथवा मेरे शरीर का एक अंश काटकर मांसाहारी को खिलाने के बाद भी यदि वह अंश पुनः प्राप्त होता, तो भी मैं बहुत प्रसन्न होता। मैं अपने एक शरीर द्वारा मांसाहारियों को तृप्त कर सकता।' दया संबंधी कैसे सरस विचार ? अपने शरीर को खिलाकर मांसाहारियों की इच्छा पूर्ण करना, परंतु दूसरे जीवों की कोई हिंसा न करे, ऐसी भावना उच्चकोटि की दयालुवृत्ति के सिवाय कदापि हो सकती है क्या ? 1. 2. आइने अकबरी खंड 3 जैरिट कृत अंग्रेजी अनुवाद , पृष्ठ - 383-384. आइने अकबरी खंड 3 पृष्ठ 395. 394 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? अबुलफ़ज़ल 'आईने-अकबरी' के पहले भाग में एक जगह ऐसा भी लिखता है "His Magesty cares very little for meat, and often expresses himself to that effect. It is indeed from ignorance and cruelty that, although various kind of food are obtainable, man are bent upon injuring living creatures, and lending a ready hand in killing and eating them; none seems to have an eye for the beauty inherent in the prevention of cruelty, but makes himself a tomb for animals. If His Majesty had not the burden of the world on his shoulders, he would atonce totally abstain from meat.1 अर्थात् - 'शहेनशाह मांस पर बहुत कम लक्ष्य देता और कई बार तो वह कहता था कि यद्यपि बहुत प्रकार के खाद्य पदार्थ मिलते हैं तो भी जीवित प्राणियों को दुःख देने का मनुष्यों का लक्ष्य रहता है। तथा उनको कतल (हत्या) करने में एवं उनका भक्षण करने में तत्पर रहते हैं। यह वास्तव में उन की अज्ञानता और निर्दयता का कारण है, कोई भी मनुष्य निर्दयता को रोकने में जो आंतरिक सुन्दरता रही हुई है उसे परख नहीं सकता, परंतु उल्टा प्राणियों की कब्र अपने शरीर में बनाता है - यदि शहेनशाह के कंधों पर दुनियाँ का भार (राज्य का भार ) न होता, तो वह मांसाहार से एकदम दूर रहता । इतिहास वेत्ता का उल्लेख इसी प्रकार डा. विन्सेंट स्मिथ ने भी अकबर के विचारों का उल्लेख किया है। जिन में ये भी है - "Men are so accustomed to meat that, were it not for the pain, they would undoubtedly fall on to themselves." "From my earliest years, whenever I ordered animal food to be cooked for me, I found it rather tasteless and cared little for it. I took this feeling to indicate the necessity for protecting animals, and I refrained from animal food." "Men should annually refrain from eating meat on the anniversary of the month of my accession as a thanks - giving to the Almighty, in order that the year may pass in prosperity." "Butchers, fishermen and the like who have no other occupation but taking life should have a separate quarter and their association with others should be prohibited by fine."1 1. 2. Ain-I-Akbri by H. Blochmann Vol.-I, Page-61. Akbar The Great Mogal. P. P. 335-336. 40 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन?== अर्थात् – 'मनुष्यों को मांस खाने की ऐसी आदत पड़ जाती है कि- यदि उन्हें दुःख न होता तो वे स्वयं अपने आप को भी अवश्य खा जाते।' “मैं अपनी छोटी उम्र से ही जब-जब मांस पकाने की आज्ञा करता था तबतब वह मुझे नीरस लगता था। तथा उसे खाने की मैं कम अपेक्षा रखता था। इसी वृत्ति के कारण पशु रक्षा की आवश्यकता की तरफ़ मेरी दृष्टि गई और बाद में मैं मांस भोजन से सर्वथा दूर रहा।' ____'मेरे राज्यारोहण की तिथि के दिन प्रतिवर्ष ईश्वर का आभार मानने के लिये कोई भी मनुष्य मांस न खाये। जिस से सारा वर्ष आनन्द में व्यतीत हो।' ___कसाई, मच्छीमार तथा ऐसे ही दूसरे, कि जिन का व्यवसाय केवल हिंसा करने का ही है, उनके लिये रहने के स्थान अलग होने चाहियें और दूसरों के सहवास में वे न आवे, उसके लिये दंड की योजना करनी चाहिये।' । उपर्युक्त तमाम वृतांत से हम इस निश्चय पर आते हैं कि - अकबर की जीवनमूर्ति को सुशोभित- देदीप्यमान बनाने में सुयोग्य- जैसी चाहिये वैसी दक्षता जो किसी ने बतलाई हो तो वे हीरविजय सूरि आदि जैनसाधुओं ने ही बतलाई थी। मात्र इतना ही नहीं परंतु उपाध्याय भानुचंद्र और खुशफहम सिद्धिचंद्र ने अकबर पर उपकार तो किया ही था किन्तु उसके पुत्र जहाँगीर तथा पौत्र शाहजहाँ के जीवन पर भी खूब प्रभाव डाला था और उन्हें जीवदया, धर्मसहिष्णुता, एवं प्रजावात्सल्यता का महान अनुरागी भी बनाया था। = 41 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन सत्य तो सत्य ही रहता है पीछे दिये गये ऐतिहासिक उल्लेखों के आधार से इतना निश्चित हो जाता है कि, जैसे संप्रति राजा के प्रतिबोधक आर्यसुहस्तिजी, वनराज चावडा प्रतिबोधक आ. शीलगुणसूरिजी, कुमारपाल राजा को प्रतिबोध देने वाले हेमचंद्राचार्यजी, महम्मद तुघलक के प्रतिबोधक आ. जिनप्रभसूरिजी कहलाते हैं, वैसे ही क्रूर और हिंसक अकबर बादशाह को सर्वप्रथम प्रतिबोध देकर उसको करुणावंत बनाकर और क्रमशः छः महीने तक का अमारि प्रवर्तन करवाने के कारण, 'अकबर प्रतिबोधक' तो आ. श्री हीरविजयसूरिजी ही कहलाने योग्य हैं। अन्य आचार्यों ने अकबर के प्रतिबोधित होने के बाद उसके बोध को और विकसित किया था, ऐसा . स्वीकार करना चाहिए। ___ वि. सं. 1639 में आ. हीरसूरिजी से प्रतिबोध पाने के बाद अकबर बादशाह में बहत परिवर्तन आया। वह सतत जैन संतों के समागम की इच्छा रखता था और जीवन के अन्त तक उसे जैन साधुओं का सांनिध्य पाने का सौभाग्य मिला। जिसमें तपागच्छ के उपाध्याय शांतिचंद्रजी, उपा. भानुचंद्रजी, सिद्धिचंद्रजी एवं उनके बाद (गुजराती वि. सं. 1648, हिन्दी वि. सं. 1649) में खरतरगच्छ के आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी और आ. श्री जिनसिंहसूरिजी के संपर्क में रहा था और अन्तिम विशिष्ट उपदेश अकबर बादशाह को आ. विजयसेनसूरिजी (गु. सं. 1649-5051) से मिला था, जिससे अकबर का जीवन अहिंसा की भावना से ओत-प्रोत हो गया था। उसका वर्णन इतिहास में इस तरह प्राप्त होता है:___ 1. जहाँगीर के उद्गार : सम्राट जहाँगीर, अपनी 'आत्म जीवनी' में अपने राज्यारोहण के पश्चात् प्रकाशित 12 आज्ञाओं में से 11 वीं आज्ञा इस प्रकार लिखते हैं - | ‘আমার জন্ম মাসে সমগ্র রাজ্যে মাংসাহার নিষিদ্ধ এবং বৎসরের মধ্যে এমন এক এক দিন নির্দিষ্ট থাকিবে যে দিন সর্ব প্রকার পশু হত্যা নিষিদ্ধ। আমার রাজারােহণের দিন বৃহস্পতিবার, সে দিন এবং রবিবার কে হ মাংসাহার করিতে পারিবে না। কেননা যে দিন জগৎ সৃষ্টি সম্পূর্ণ হইয়া ছিল সে দিন কোন জীবের প্রাণ হরণ করা অন্যায়। ১১ বৎসের অধিক কাল আমার পিতা এই নিয়ম পালন করিয়াছেন এবং এই সময়ের মধ্যে রবিবার দিন তিনি কখনও মাংসাহার করেন নাই। সুতরাং আমার রাজ্যে আমিও এই দিনে মাংসাহার নিষিদ্ধ বলিয়া ঘােষণা করিতেছি।” [ बसौतन आय बोवनौ by कूभूमिनो भिख ...] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? अर्थात् :- मेरे जन्ममास में, सारे राज्य में मांसाहार निषिद्ध रहेगा । * वर्ष में एक-एक दिन इस प्रकार के रहेंगे, जिसमें सर्व प्रकार की पशु - हत्या का निषेध हो। मेरे राज्याभिषेक का दिन अर्थात् वृहस्पतिवार और रविवार के दिन भी कोई मांसाहार नहीं कर सकेगा। क्योंकि संसार का सृष्टि सर्जन सम्पूर्ण हुआ था उस दिन किसी भी जन्तु का प्राणघात करना अन्याय है। मेरे पिता ने ग्यारह वर्षों से अधिक समय तक इन नियमों का पालन किया है और उस समय रविवार के दिन उन्होंने कदापि मांसाहार नहीं किया। अतः मेरे राज्य में मैं भी उन दिनों में जीवहिंसा निषेधात्मक उद्घोषणा करता हूँ। ( युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि पृष्ठ - 114 ) इतिहासकार डॉ. विन्सेन्ट स्मिथ का मत एवं पिन्हेरो पादरी का पत्र बादशाह को मांसाहार छुड़ाने में तथा जीववध न करने में श्री हीरविजयसूरि तथा उनके शिष्य-प्रशिष्य आदि जैन उपदेशक ही सिद्धहस्त हुए हैं। डॉ. स्मिथ यह भी कहते हैं कि But Jain the holymen undoubtedly gave Akbar prolonged instruction for years, which - largely influenced his actions; and they secured his assent to their doctrines so far that he was reputed to have been converted to Jainism."" - " अर्थात्-परंतु जैन साधुओं ने निःसंदेह वर्षों तक अकबर को उपदेश दिया था। इस उपदेश का बहुत प्रभाव बादशाह की कार्यावली पर पड़ा था। उन्होंने अपने सिद्धान्तों को उससे यहाँ तक मना लिया था कि लोगों में ऐसा प्रवाद फैल 'गया था कि - 'बादशाह जैनी हो गया है।' यह बाद प्रवादमात्र ही नहीं रही थी, किन्तु कई विदेशी मुसाफिरों को अकबर के व्यवहार से निश्चय हो गया था कि 'अकबर जैन सिद्धान्तों का अनुयायी है।' 1. इस के संबंध में डॉ. स्मिथ ने अपनी अकबर नाम की पुस्तक में एक मार्के की बात लिखी है। उसने इस पुस्तक के पृष्ठ 262 में 'पिनहरो' (Pinhiero) नामक एक पुर्तगेज पादरी के पत्र के उस अंश को उद्धृत किया है कि जो ऊपर की बात को प्रगट करता है। यह पत्र उसने लाहौर से 3 सेप्टेम्बर 1565 (वि. सं. 1652) को लिखा था, उस में उसने लिखा था - जहाँगीर ने अपने जन्म मास में मांसाहार का निषेध उपाध्याय भानुचंद्रजी एवं सिद्धिचंद्रजी की प्रेरणा से किया था, ऐसा पृष्ठ 35 पर दिये गये जहाँगीर के फरमान से पता चलता है। Jain Teachers of Akbar by Vincent A, Smith. 43 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? “He Follows the sect of the Jains (Vertie )" ऐसा लिखकर उस ने कई जैन सिद्धान्त भी अपने इस पत्र में लिखे थे जब विजयसेन सूरि लाहौर में अकबर के पास थे। इस से यह स्पष्ट समझ सकते हैं कि सम्राट की रहमदिली (दयालुवृत्ति) बहुत ही दृढ़ होनी चाहिये। और एसी दयालुवृत्ति जैनाचार्यों ने, जैन उपदेशकों ने ही उत्पन्न कराई थी। इस बात के लिये अब विशेष प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है। - मध्य एशिया एवं पंजाब में जैन धर्म - पृष्ठ 296-297 आश्चर्य की बात है कि इन्हीं प्रमाणों को देखकर, 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि' 9वें प्रकरण में अगरचंदजी नाहटा ने ... 1. पृष्ठ 116 पर बताया कि - 'सम्राट जहांगीर कथित शेष ग्यारह वर्ष से अधिक समय तक और डॉ विन्सेन्ट स्मिथ का 'अपने जीवन' के अंतिम भाग के कथन से स्पष्ट है कि सम्राट के हृदय में इतने गहरे दया भाव के होने का प्रबल कारण आ . जिनचंद्रसूरिजी और उनके शिष्य आ. जिनसिंहसूरिजी के धर्मोपदेश ही हैं, क्योंकि सं. 1662 में अकबर का देहान्त हुआ और सं. 1649 से अकबर को सूरज के सत्समागम का लाभ मिला। सूरिजी सं. 1651 में अकबर के पास ही थे। इससे उपर के उभय कथनों की पुष्टि होती है।' 2. पृष्ठ 118 पर (Pinheiro ) पिनहेरो के पत्र के उपर से यह तात्पर्य निकाला कि - 'इस पत्र के लेखन का समय सं. 1652 (सन् 1595) है, करीब उसी समय श्री जिनचंद्रसूरिजी महाराज, श्री जिनसिंहसूरिजी आदि लाहौर में अकबर के पास थे। अतः अकबर को जैन धर्मानुयायी कहलाने का श्रेय सूरिजी को ही है। क्योंकि यह प्रभाव सूरिजी के सतत धर्मोपदेश का ही है।' अगरचंदजी नाहटा की ये दोनों बातें स्वीकार्य नहीं बनती है, क्योंकि - 1. पहली बात तो यह है कि आ . जिनचंद्रसूरिजी के साथ जो लाहोर पधारे थे, ऐसे जयसोम उपाध्यायजी ने वि. सं. 1650 की विजयादशमी को कर्मचंद्र प्रबंध ( कर्मचंद मंत्री बंध प्रबंध) की रचना की और उसमें लिखा है कि आ. जिनचंद्रसूरिजी ने अकबर के पास लाहौर में वि. सं. 1649 में चातुर्मास किया था और कुल एक वर्ष व्यतीत कर वि. सं. 1650 में गुजरात की तरफ विहार कर गये।' इस ग्रंथ की टीका वि. सं. 1655 में गुणविनयमुनिजी ने की थी, वे भी लाहौर में साथ में पधारे थे। 44 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकताह? =अकबर प्रतिबोधक कोन ?== अतः स्पष्ट समझ सकते हैं कि वि. सं. 1650 एवं 1651 में जब आ. जिनचंद्रसूरिजी का उपदेश ही अकबर को प्राप्त नहीं हुआ तो, अकबर का अंतिम 11 वर्षीय जीवन अहिंसामय बनाने का श्रेय आ. जिनचंद्रसूरिजी को कैसे मिल सकता है? ___ हकीकत तो यह है कि, आ. हीरविजयसूरिजी ने अकबर के आग्रहभरी विनंतिवाले पत्र को पढ़कर अपनी अंतिम अवस्था में उनकी जरुरत महसूस करते हुए भी शासन एवं देश के हित हेतु अपने पट्टधर आ. विजयसेनसूरिजी को मनमक्कम करके भेजा था। उन दिनों में अकबर बादशाह आ. विजयसेनसूरिजी (गु. सं. 1649-50-51) (हि.सं. 1650-51-52) की उपदेंशधारा से पुनित हो रहे थे। अतः यह श्रेय उनको ही देना चाहिए।* हिन्दी विक्रम सं. का प्रारंभ चातुर्मास के पहले चैत्र सुंद 1 से होता है और गुजराती विक्रम सं., चातुर्मास के अंत में कार्तिक सुद 1 से प्रारंभ होता है। अतः चातुर्मास में दोनों संवतों में 1 वर्ष का अंतर आता है। हिन्दी वि. सं. 1 साल आगे चलता है और ई. सन् को 57 वर्ष मिलाने से वह प्राप्त होता है, जबकि चातुर्मास में गुज. वि. सं., ई सन् को 56 वर्ष मिलाने से प्राप्त होता है। खरतरगच्छ के आचार्यों के चातुर्मास के वर्णन में हि. सं. का प्रयोग किया गया देखने में आता है, जैसे कि आ. जिनचंद्रसूरिजी सं. 1648 फ. सु. 12 को लाहौर पधारे और वि. सं. 1649 का चातुर्मास लाहोर में किया, ऐसा उल्लेख 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि' पृ. 74 एवं 84 पर मिलता है। इसका अर्थ यह हुआ कि उनके इतिहास में हिन्दी संवतों का प्रयोग हुआ है। जबकि तपागच्छीय आचार्यों के इतिहास में गुजराती संवतों का प्रयोग पाया जाता है। अतः ऐसा कह सकते हैं कि आ. जिनचंद्रसूरिजी ने (गु. सं. 1648) (हि. सं. 1649) का चातुर्मास लाहौर में किया था। जबकि आ. विजयसेनसूरिजी ने (गु. सं. 164950-51 (हिं. सं. 1650-51-52) के चातुर्मास लाहोर में किये थे। *1. यह बात पहले भी आ. जिनचंद्रसूरिजी की अकबर से भेंट के विषय में पृष्ठ 12 पर दिये गये लेख में आयी है, वहाँ देख सकते हैं। *2. वास्तव में देखा जाय तो आ. हीरविजयसूरिजी से प्रतिबोध पाने के बाद उनके शिष्य उपा. शांतिचंद्रजी, उपा. भानुचंद्रजी आदि तथा उनके बाद आ. जिनचंद्रसूरिजी एवं आ. जिनसिंहसूरिजी एवं अंत में आ. विजयसेनसूरिजी के उपदेशों का सतत श्रवण करने के कारण अकबर में इतना परिवर्तन आया था। अतः उसका श्रेय उन सभी जैन साधओं को देना चाहिए। परंतु अगर इस उल्लेख के समय में जिनकी उपस्थिति थी उनको ही यह श्रेय दिया जावे, ऐसा माना जाय तो यह श्रेय आ. विजयसेनसूरिजी को ही देना उचित प्रतीत होता है। 45) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ?== सितंबर 1595 के पिन्हेरो के अकबर जैन अनुयायी है, ऐसे उल्लेख वाले पत्र का समय हि. सं. 1652, गु. सं. 1651 होता है और तब आ. श्री विजयसेनसूरिजी का तृतीय चातुर्मास लाहोर में चल रहा था। अतः अकबर को जैन अनुयायी कहलाने का श्रेय आ. विजयसेनसूरिजी को ही मिलना चाहिए। * कर्मचंद प्रबंध के अनुसार आ. जिनचंद्रसूरिजी तो गु. सं. 1648 (हि. सं. 1649) का चातुर्मास लाहोर में करके गुजरात की ओर विहार कर चुके थे। अतः उनके उपदेश श्रवण की यहाँ बात ही प्रस्तुत नहीं होती है। __ अगर 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि' के आधार से आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी का हि. वि. सं. 1649-हापाणइ में चातुर्मास करना मान भी लेवे तो भी ई. सन् 1595, हिं. सं. 1652 में तो वे लाहोर में थे ही नहीं, बल्कि वहाँ पर आ. श्री विजयसेनसूरिजी थे, तो उक्त पत्र में कथित अकबर के जैन अनुयायी होने की घटना का श्रेय आ. जिनचंद्रसूरिजी को कैसे दिया जा सकता है? अस्तु ! ये तो केवल अगरचंदजी नाहटा की बात को विकल्प से स्वीकार करके अभ्युगम से बताया है, बाकि कर्मचंद प्रबंध' ग्रंथ जो आ. जिनचंद्रसूरिंजी के लाहोर गमन में साथी जयसोम उपाध्यायजी द्वारा रचित है और सं. 1655 में जिस पर वाचक गुणविनयजी ने टीका की है, उसके आधार से तो आ. जिनचंद्रसूरिजी ने हिं. सं. 1649 का चातुर्मास ही लाहोर में किया था। वे सं. 1651 या सं. 1652 में लाहोर में नहीं थे। तो फिर, जहाँगीर के अकबर के 11 वर्षीय धार्मिक जीवन के कथन का या पिनहेरो के पत्र में लिखित अकबर के जैन अनुयायी होने के पीछे का श्रेय आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी को, जैसे अगरचंदजी नाहटा ने दिया है, वह कहाँ तक उचित है ? *1. जैन परंपरा नो इतिहास भाग 4, पृष्ठ 358, (पू. विद्याविजयजी) के आधार से आ. विजयसेनसूरिजी ने लाहोर (गु. सं. 1649-50-51) (हि. सं. 1650-51-52) के तीन चातुर्मास किये थे। जबकि कु. नीना जैन (मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति) पृष्ठ 82 के अनुसार आचार्य श्री ने (गु. सं. 1650-51) (हि. सं. 1651-52) के दो चातुर्मास किये थे। कुछ भी हो, परंतु बादशाह जहाँगीर के उक्त कथन एवं पिनहेरो पादरी के पत्र संबंधी वर्ष के चातुर्मास क्रमशः हि. सं. 1651 एवं 1652 के हैं, उन दोनों चातुर्मास में आ. श्री विजयसेनसूरिजी की हाजरी थी, ऐसा दोनों ने मौलिक रूप से स्वीकारा ही है। *2. ऐसे तो अकबर के अंतिम जीवन को अहिंसामय बनाकर उसे जैन अनुयायी कहलाने का श्रेय तो सभी जैन साधुओं को देना चाहिए। परंतु अगर इन उल्लेखों के समय में जिनकी उपस्थिति थी उनको ही यह श्रेय दिया जावे, ऐसा माना जाय, तो यह श्रेय आ. विजयसेनसूरिजी को ही देना उचित प्रतीत होता है। 46 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? गुणानुरागी मध्यस्थ जनों को नम्र निवेदन गुरुभक्ति होनी बुरी बात नहीं, परंतु भक्ति के अतिरेक में आकर ठोस प्रमाण बिना ही जैसे-तैसे करके, अन्य आचार्य के द्वारा किये गये सुकृतों का अपने गुरु के नाम से प्रचार करना उचित प्रतीत नहीं होता है । आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी प्रभावक थे और अकबर बादशाह के द्वारा सम्मानित हुए थे। उन्होंने भी 7 दिन की अमारि प्रवर्तन कराना आदि सत्कार्य कराये थे और अकबर द्वारा उन्हें 'युगप्रधान पदवी' दी गयी थी, इत्यादि कहना और प्रचार करना अनुचित नहीं है। परंतु अकबर को जैन अनुयायी कहलाने का श्रेय सूरिजी को ही है", सम्राट के हृदय में इतने गहरे दयाभाव के होने का प्रबल कारण आ. जिनचंद्रसूरिजी और उनके शिष्य आ. श्री जिनसिंहसूरिजी के धर्मोपदेश ही हैं (2), छः महीने की अमारि का प्रवर्तन करानेवाले आ. जिनचंद्रसूरिजी थे ", अकबर द्वारा आ. जिनचंद्रसूरिजी को ही सर्वश्रेष्ठ साधु कहना वगैरह बातें जो पहले बतायी रीति से इतिहास विरूद्ध है, उनको सही मानकर वर्तमान के खरतरगच्छीय साधु-साध्वीजी भगवंतों द्वारा 'जिनचंद्रसूरिजी ही 'अकबर प्रतिबोधक' हैं, ' इत्यादि बातों का प्रचार करना एवं जो सत्य हकीकत है कि पूर्वोक्त कार्य आ. श्री हीरविजयसूरिजी एवं उनके शिष्यों की प्रेरणा से हुए थे तथा आ. श्री हीरविजयसूरिजी ही अकबर प्रतिबोधक' कहलाने योग्य हैं, इसका अपलाप करना एवं सत्य हकीकत को झुठलाना सत्यान्वेषी एवं मध्यस्थ गुणानुरागी सज्जनों के लिए उचित नहीं है। (4) 9 जिन महापुरुषों ने जिस कार्य क्षेत्र में जो सत्कार्य किये थे, उन सत्कार्यों का श्रेय उन्हीं महापुरुषों को देकर कृतज्ञता प्रगट करने में वास्तविक गुणानुराग कहलाता है। (1). देखें- 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि पृ. 118, जिसका खुलासा इस लेख के पृ. 46-47 पर किया है। (2). देखें- 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि पृ. 117, जिसका खुलासा इस लेख के पृ. 46 पर किया है। (3). देखें - 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि ' पृ. 113, जिसका खुलासा इस लेख के पृ. 37 पर किया है। (4). देखें- 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि पृ. 83, जिसका खुलासा इस लेख के पृ. 33 पर किया है। 47 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? परिशिष्ट- 1 जैनाचार्यों के उपदेश से हुए शासन प्रभावक कार्यों का संकलन अकबर बादशाह ने आ. हीरविजयसूरिजी एवं आ . जिनचंद्रसूरिजी और उनके शिष्यों के उपदेश से जो सत्कार्य किये थे, वे पूर्व में दिये गये फ़रमान आदि में बिखरे हुए पाये जाते हैं। अतः पाठकों को अच्छी रीति से बोध होवे, इस हेतु वे सत्कार्य खरतरगच्छ एवं तपागच्छ के आचार्य आदि को लेकर दो विभाग में यहाँ दिये जाते हैं । खरतरगच्छीय आचार्य आदि द्वारा हुए शासन प्रभावक कार्य अ. 1. आ. जिनचंद्रसूरिजी के प्रभाव से सम्राट ने सौराष्ट्र में द्वारका के जैनजैनेतर मंदिरों की रक्षा का फ़रमान वहाँ के सूबों के नाम भेजा। 2. एक बार सम्राट ने काश्मीर जाने की तैयारी की, जाने से पहले सूरिजी को बुलाकर उनसे धर्मलाभ लिया। उसके उपलक्ष्य में सम्राट ने आषाढ़ सुद 9 से 15 तक सात दिनों के लिए जीवहिंसा बंद करने का फ़रमान अपने सारे राज्य के 12 सूबों में भेजा । उस फ़रमान में लिखा था कि आ. श्री . हीरविजयसूरिजी के कहने से पर्युषणों के 12 दिनों में जीवहिंसा का निषेध पहले कर चुके हैं अब श्री जिनचंद्रसूरिजी की प्रार्थना को स्वीकार करके एक सप्ताह के लिए वैसा ही हुक्म दिया जाता है। 3. खंभात के समुद्र में एक वर्ष तक हिंसा न हो। 4. लाहौर में आज एक दिन के लिए हिंसा न हो। ऐसा फ़रमान भी जारी किये। इस प्रकार जिनचंद्रसूरिजी लाहोर में अकबर के सांनिध्य में एक वर्ष व्यतीत (वि. सं. 1649 का चौमासा) करके वि. सं. 1650 में गुजरात की तरफ विहार कर गये । (मध्य एशिया एवं पंजाब में जैन धर्म - पृष्ठ 291 से साभार उद्धृत) * * यह ग्रंथ तपागच्छ के श्रावक पं. हीरालालजी दुग्गड़ ने लिखा है, जिसमें खरतरगच्छ के आचार्यों के उपदेश द्वारा हुए कार्यों का भी उल्लेख किया है। परंतु खेद की बात यह है कि इसी ग्रंथ को लेकर खरतरगच्छीय साधु-भगवंत ने नया ग्रंथ (सच्चाई छुपाने से सावधान') संपादित किया है, जिसमें तपागच्छ का नाम या उनके आचार्यों के उपदेश से हुए सत्कार्यों का वर्णन, जो पूर्व के ग्रंथ में था, उसे पूर्ण रूप से छोड़ दिया गया है। 48 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -अकबर प्रतिबोधक कोन ?=== ब. 1. आ. जिनसिंहसूरिजी के उपदेश से कइ जगह तालाबों के जलचर की हिंसा बंद करवायी गयी। 2. उनकी अभिलाषा अनुसार अकबर ने गजनी, गोलकुंडा और काबुल तक अमारि की उद्घोषणा करायी। 3. मुलतान इलाके संबंधी अषाढी अष्टाह्निका फरमान जो खो गया था, उसको पुनः सं. 1660 में अकबर से प्राप्त किया। 4. अकबर ने आपके उपदेश से काश्मीर विजय के बाद वहाँ 8 दिन तक अमारि घोषणा की। 5. सलीम (जहांगीर) को मूलनक्षत्र में एक पुत्री हुइ। उसके ग्रहदोष निवारण हेतु आ. जिनसिंहसूरिजी ने अष्टोत्तरी स्नात्र पढाई। उसके प्रभाव से सर्वदोष शांत हो जाने से जिनशासन का गौरव बढ़ा। ('मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति' पृ. 92-93 एवं 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि पृ. 86, 97) क. वाचक समयसुंदरजी ने अकबर के काश्मीर प्रयाण के समय ‘राजानो ददते सौख्यम्' इस वाक्य के व्याकरण के अनुसार कुल 10,22,407 अर्थ किये थे, जिनमें 2,22,407 अर्थ शायद असंभवित या युक्ति युक्त नहीं थे। अतः उन्हें पूर्ति के लिए छोड़कर 8 लाख अर्थ को प्रगट करने वाले ‘अष्टलक्षी' ग्रंथ को सभा में सुनाया था। इससे जैनशासन की बहुत प्रभावना हुई। = 49 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - = = अकबर प्रतिबोधक कोन ?== = तपागच्छीय आचार्य आदि द्वारा हुए शासन प्रभावक कार्य जगद्गुरु हीरविजयसूरि, सवाई विजयसेन सूरि तथा आपके शिष्यों-प्रशिष्यों के प्रभाव से सम्राट अकबर ने समय-समय पर अपने सारे राज्य में राजकीय फ़रमानों (आज्ञापत्रों) को राजकीय मोहर लगाकर जारी किया; उन आज्ञाओं का विवरण इस प्रकार है।* - 1. श्वेतांबर जैनों के पर्युषण पर्व के 12 दिनों (भादो वदि 10 से भादो सुदि 6) तक; सारे रविवारों को, सम्राट के जन्म दिन का महीना, सम्राट के तीनों पुत्रों के जन्म के तीनों पूरे महीने, सूफ़ी लोगों के दिन, ईद के दिन, वर्ष में 12 सूर्य संक्रांतियाँ, नवरोज़ के दिन ; कुल मिलाकर वर्ष में 6 मास 6 दिन सारे राज्य में . सर्वथा जीवहिंसा बंद करने के फ़रमान (आज्ञापत्र) जारी करके उन्हें राज्य मुद्रांकित किया और उन्हें सारे राज्य में 14 सूबों के सूबेदारों को भेज दिया। ताकि इनके अनुसार वहाँ अहिंसा का पालन होता रहे। 2. गुजरात राज्य में जज़िया (अमुस्लिमों से लिये जाने वाला कर) लेना बन्द करा दिया।1 3. मेड़ता में जैनधर्म के त्योहारों को स्वतंत्रता पूर्वक मनाने का आदेश दिया। 4. डामर तालाब पर जाकर पशुओं को पिंजरों से मुक्त कराया तथा मछलियाँ पकड़ना बंद कराया।2 5. जैन मंदिरों के सामने बाजे बजाने की निषेधाज्ञा को हटाया। 6. सम्राट ने स्वयं शिकार खेलने का त्याग किया और गुरुदेव को वचन दिया कि सब पशु-पक्षी मेरे राज्य में मेरे समान सुखपूर्वक रहें, मैं सदा इसके लिये प्रयत्नशील रहूँगा। 7. अकबर स्वयं पाँच सौ चिड़ियों की जिह्वाओं का मांस प्रतिदिन खाया 1. मूल पुस्तक में 'सारे राज्य में' ऐसा लिखा है, परंतु हीरसौभाग्य ग्रंथ एवं ऐतिहासिक उल्लेखों के आधार से 'गुजरात राज्य में जजिया कर' आ. हीरसूरिजी के उपदेश से बंद हुआ था। अतः उपर 'सारे' की जगह पर 'गुजरात' लिखा है। * मुनि श्री पीयुषसागरजी (हाल में आचार्य) द्वारा संपादित 'सच्चाई छुपाने से सावधान' पुस्तक के पृष्ठ 339 में 'मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म' पुस्तक का यह 293 वाँ पृष्ठ पुरा उतार दिया गया है, जिसमें अकबर द्वारा किये गये सुकृतों का वर्णन दिया गया है, परंतु वे सुकृत जिन जैनाचार्यों के उपदेश से हुए थे उसका निर्देश करने वाले इस फकरे को काटकर यह लेख छापा गया है, जो प्रामाणिकता के अभाव को सूचित करता है। उक्त पुस्तक के संपादक ने स्थानकवासी आदि द्वारा छुपायी जाने वाली शास्त्र एवं इतिहास सिद्ध मूर्तिपूजा की सच्चाई को उजागर करने हेतु जैन धर्म और जिन प्रतिमा पूजन' एवं 'मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म' का प्रायः पूर्णतया उपयोग करके पुनः नूतन प्रकाशन के रूप में प्रगट किया है। ऐसा उनकी प्रस्तावना एवं ग्रंथों के परस्पर अवलोकन से भी स्पष्ट पता चलता है। सत्य को उजागर करने वाले अच्छे लेखों को पुनः प्रकाशित करने के ऐसे प्रयास आवकार्य ही होते हैं। परंतु साथ में यह समझना आवश्यक है कि मूर्तिपूजा की सच्चाई को छुपाना गलत है, उसी तरह तपागच्छ के आचार्यों द्वारा = 50 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? करता था, उस का त्याग कर दिया। 8. शत्रुंजय, गिरनार, तारंगा, आबू, केसरियाजी (श्री ऋषभदेवजी) ये जैनतीर्थ जो गुजरात, सौराष्ट्र और राजस्थान में हैं तथा राजगृही के पाँच पहाड़, सम्मेतशिखर (पार्श्वनाथ पहाड़) आदि । जो बिहार प्रांत के जैन तीर्थ हैं, उन सभी पहाड़ों के नीचे आसपास; सभी मंदिरों की कोठियों के आसपास तथा सभी भक्ति करने की जगहों पर जो जैन श्वेतांबर धर्म की है उनके चारों ओर कोई भी व्यक्ति किसी भी जीव को न मारे । उपर्युक्त सब पहाड़ और भी जो जैन श्वेतांबर धर्म के धर्मस्थान हमारे ताबे ( आधीन ) हैं वे सभी जैन श्वेतांबर धर्म के आचार्य श्री हीरविजयसूरि के स्वाधीन किये जाते हैं। जिससे इन धर्मस्थानों पर शांतिपूर्वक अपनी ईश्वरभक्ति किया करें। ऐसा फरमान जारी किया। 9. अकबर युद्धों में राजबंदी बनाता था उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बना लिया करता था, उन्हें बंदीखाने से मुक्त कराया। मुसलमान न बनाने की प्रतिज्ञा दिलायी और हिन्दू-मुसलमान सब समान हैं अपने-अपने धर्म की आराधनाभक्ति करने में उन्हें कोई बाधा न पहुँचाये। ऐसे फ़रमान जारी किये। 10. सूरि सवाई आचार्य विजयसेन सूरि के उपदेश से सम्राट ने 1 ) गाय-बैल, 2) भैंस-भैंसा, 3) ऊँट, 4) बकरा - बकरी की हिंसा, 5 ) निःसंतान मृत्युवालों का धन राज्यकोष (सरकारी खजाने) में ले जाना, (6) बन्दीवानों को पकड़ना इन छः कार्यों को बंद कराया । 11. शत्रुंजयादि तीर्थों पर जो यात्रियों से जज़िया (कर) लिया जाता था वह बंद कराया। 12. भानुचंद्रोपाध्यायजी का सामान्य जनसमूह के लिए भी अकबर पर अच्छा प्रभाव था। एक बार गुजरात के सूबा अज़ीज़खाँ कोका ने जामनगर के राजा सत्रसाल को युद्ध में हराकर उसे तथा उसके साथी युद्ध करने वालों को बंदी बना कर कारावास में डाल दिया था। जब भानुचंद्रजी को इस बात का पता लगा तो उन्होंने अकबर को कहकर राजा सत्रसाल के समेत सब युद्ध बन्दियों को छुड़ा दिया था। 13. पूर्वोक्त आ. जिनसिंहसूरिजी द्वारा पढ़ाई गयी अष्टोत्तरी स्नात्र के पीछे भी की गयी शासन सेवा की सच्चाई को छुपाना एवं कुछ स्थानों पर उनके किये कार्यों का उल्लेख करना परंतु नाम या गच्छा उल्लेख नहीं करने के द्वारा सच्चाई को छुपाना भी प्रामाणिकता और तटस्थ इतिहास लेखन के अभाव को सूचित करता है। तपागच्छ का नाम एवं उनके आचार्यों की यशोगाथा किसी भी प्रकार से न आवे, इसलिए इस ग्रंथ (सच्चाई छुपाने से सावधान) में पूर्वोक्त ग्रंथ की कई बातें और कहीं-कहीं तो 1-2 फकरे या 1-2 लाईन छोड़कर पुरा पन्ना छापा है जो संक्षेप में इस प्रकार हैं 51 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ?== भानुचंद्रजी उपाध्याय का ही मार्गदर्शन था। उन्होंने पुत्री की हत्या का पाप करने के बदले परमात्मा की अष्टोत्तरी पूजन पढ़ाने की सलाह दी। तब अकबर ने यह कार्य कर्मचंद्र मंत्री को सौंपा और मंत्रीजी स्वयं खरतरगच्छीय श्रावक थे, अतः स्वाभाविक था कि वह अपने गुरु भगवंतों के पास ही यह कार्य करवायेंगे। अतः आ. जिनसिंहसूरिजी ने अष्टोत्तरी स्नात्र पढायी एवं शासन की महिमा बढ़ी। इस पुरी घटना का उल्लेख 'हीरसूरि नो रास' में मिलती है, उसमें मानसिंहजी का उल्लेख भी दिया है। परंतु खेद की बात है कि 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि' के पृष्ठ 85 में अगरचंदजी नाहटा ने 'अकबर ने अबुलफजल आदि की सलाह ली' ऐसा बताया, परंतु जिन जैन साधु भगवंत (उपा. भानुचंद्रजी) की सलाह से यह जैन धार्मिक अनुष्ठान हुआ, उसका उल्लेख तक नहीं किया। PP सच्चाई छुपाने से सावधान पुस्तक के निकाले हुए पोईंट जो मध्य एशिया और पंजाब में जैन क्रमांक क्र. धर्म पुस्तक में छपे हुए हैं। 1. पृ.-296 में 48-49-50 पोईंट निकाले। 1. पृ.-196 में छपे हुए हैं। 2. प.-298 में 67-68 पोईंट आ. हीरसरि म.सा.संबंधी। 2. पृ.-198 में छपे हुए हैं। 3. पृ.-299 'ईसा पर जैन धर्म का प्रभाव' के पूर्व 3. पृ.-200 में छपे हुए हैं। पू. बुटेरायजी, पू. आत्मारामजी का पंजाब पर किये गये उपकार के मेटर को उडाया। 4. पृ.-308 ‘अकबर का पूर्व जन्म' के पूर्व 'अकबर की जिनपूजा' मेटर | 4. पृ.- 238 में छपे हुए हैं। छिपाया। 5. पृ.-336 इस पृष्ठ में मूल पुस्तक पृ 282-290 तक में आ. | 5. पृ- 282 से 290 में छपे हुए हैं। भावदेवसूरिजी, आ. हीरसूरि म. का प्रभाविक चारित्र छोड़ | दिया, आगे आ. श्री हीरसूरि म. का विस्तृत चरित्र है, उसमें से अंश भर भी नहीं लिया। आ. जिनचंद्रसूरिजी का ले लिया। 6. पृ.-339 'श्वेतांबर जैनों'.... के पूर्व का आ. हीरसूरि म. का विवरण | 6. पृ-293 में छपे हुए हैं। उडाया जिससे आगे संबंध भी नहीं बैठता। 7. पृ-340 कलम 10-11 उडायी आ. सेनसूरि, आ. हीरसूरि के | 7. पृ- 294 में छपे हुए हैं। संबंधित। 8. पृ-340 अकबर द्वारा जैन मुनियों को पवियाँ-उडाया | 8. पृ- 294-295में छपे हुए हैं। 9. पृ.-341 ‘इससे सिद्ध होता है कि' आ. हीरसूरि वाला - उडाया। | 9. पृ- 296 में छपे हुए हैं। 10. पृ.-342 ‘बादशाह जैनी हो गया है' के बाद यह बात प्रवाद मात्र...' से | 10. पृ-297-298 में छपे हुए हैं। _ 'दीर्घायु के कारण है।' तक का मेटर उड़ा दिया। 11. पृ.-343 ‘अकबर के विषय'.... इसके पूर्व के 8 पेज आ. हीरसूरि म. ' 11. पृ-299 से 307 तक में छपे हुए हैं। वगेरे के गुणगान छोड़ दिये। प्रायः तपागच्छ संबंधी मेटर कट करके 'सच्चाई छपाने से सावधान' में छपे हए हैं जो मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म' में से कोपी ट कोपी है। पृ.-68 से 163 तक । पृ.-1 से 70 तक पृ.-168 से 317 तक | पृ.-93 से 256 तक पृ.-318 से 347 तक | पृ.-260 से 315 तक पृ.-348 से 376 तक पृ.-320 से 341 तक (52) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ? dini & in परिशिष्ट-2 अकबर द्वारा जैन मुनियों को पदवियाँ प्रदान श्री हीरविजयसूरिजी को जगद्गुरु की पदवी दी। श्री विजयसेनसूरिजी को सूरिसवाई की पदवी दी। श्री शांतिचंद्रजी गणि को उपाध्याय पदवी दी। श्री भानुचंदजी को उपाध्याय पदवी से अलंकृत किया। जहाँगीर ने श्री सिद्धिचंद्र को खुशफहम और जहाँगीर पसंद की पदवी दी। श्री नंदीविजयजी को खुशफ़हम की पदवी प्रदान की। श्री विजयदेवसूरिजी को जहाँगीर ने महातपा की पदवी दी। श्री जिनचंद्रसूरिजी को युगप्रधान की पदवी दी। . श्री जिनसिंहजी को आचार्य पदवी दी। 10-11. मुनि मुणविनयजी और मुनि समयसुंदरजी को वाचनाचार्य की पदवी दी 12-13. वाचक जयसोमजी तथा मुनि रत्ननिधान को उपाध्याय पदवी दी। इस प्रकार आचार्य हीरविजयसूरि तथा उनके शिष्य-प्रशिष्यों एवं आचार्य जिनचंद्रसूरिजी और उनके शिष्य प्रशिष्यों (इन सब श्वेतांबर मुनियों) को अकबर ने तथा उसके वंशजों ने सादर पदवियाँ प्रदान की। o noso आ. हीरविजयसूरिजी को मिले 'जगद्गुरु' पद की - ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्धि 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि' ग्रंथ के पृ 104 की टिप्पण में लिखा कि 'श्रीमान् हीरविजयसूरिजी का 'जगद्गुरु' पद उनके भक्त श्रावक-श्राविकाओं द्वारा रखा हुआ, गुरुभक्ति सूचक मात्र था, किन्तु सम्राट अकबर ने उन्हें 'जगद्गुरु' का कोई बिरुद नहीं दिया था।' यह बात बराबर नहीं है क्योंकि - जिस तरह तपागच्छ के साहित्य में खरतरगच्छाचार्य जिनचंद्रसूरिजी की अकबर ने 'युगप्रधान' बिरुद दिया था, ऐसा देखने में नहीं आता, फिर भी खरतरगच्छ के तत्कालीन शिलालेख एवं साहित्य से उक्त घटना का स्वीकार किया जाता है। उसी तरह अकबर ने तपागच्छाचार्य हीरविजयसूरिजी को ‘जगद्गुरु' बिरुद दिया था, यह बात भले ही खरतरगच्छ के 53 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? साहित्य में न मिलती हो, तो भी तत्कालीन साहित्य एवं शिलालेखों के ऊपर से इस बात की सत्यता का स्वीकार करना चाहिए । आ. श्री हीरविजयसूरिजी को 'जगद्गुरु' की पद्वी 'अकबर द्वारा दी गयी थी, उसके कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं - संवत् 1646 में लिखी हुई, जिसकी प्रत मिलती है एवं जिसका नाम भी 'जगद्गुरु' के उपर से 'जगद्गुरुकाव्य' है । उसमें उसके कर्ता 197वें श्लोक में कहते हैं कि - शुद्धाः सर्वपरीक्षण गुरुवरा ज्ञात्वेति पृथ्वीपतिः । सभ्यानां पुरतः स्वपर्षदि गुणांस्तेषां स्वधी शोधितान्।। उक्त्वा सर्वयतीशहीरविजयाख्यानामददाद् भक्तितः। स्वैर्वाक्यैर्बिरुदं जगद्गरुरिति स्पष्टं महः पूर्वकम्॥1॥ सर्व परीक्षा से गुरुवर शुद्ध हैं, ऐसा जानकर बादशाह ने अपनी पर्षदा में (दरबार में) सभ्यों के समक्ष, स्वबुद्धि से ढुंढे हुए ऐसे उनके गुणों को कहकर, सर्व यतिओं के स्वामी ऐसे- जिनका नाम हीरविजय है, उन्हें भक्ति से अपने ही शब्दों में 'जगद्गुरु' ऐसा स्पष्ट बिरुद महोत्सव पूर्वक दिया। 'हीर सौभाग्य नाम का महाकाव्य जिसकी रचना पं. देवविमल गणिजी ने सं. 1645 के पहले चालु की थी, उसके 14 वें सर्ग के श्लोक 205 में बताया है कि'जिस प्रकार आघाट नगर में राजा ने आ. जगच्चंद्रसूरिजी को 12 वर्ष तक आयंबिल तप करने के कारण 'तपा' बिरुद दिया, खंभात में दफर खान ने आ. मुनि सुन्दरसूरिजी को प्रेम से 'वादि गोकुल संकट' बिरुद दिया था, उसी प्रकार - गुणश्रेणीमणीसिन्धोः श्री हीरविजय प्रभोः । जगद्गुरुरिदं तेन बिरुदं प्रददे तदा ।। अर्थात् - उस अवसर पर उन्होंने (अकबर बादशाह ने) गुणश्रेणी रूप मणियों में समुद्र रूप श्री हीरविजय प्रभु को 'जगद्गुरु' यह बिरुद दिया । श्री पूरणचंद्रजी नाहर द्वारा सम्पादित 'जैन लेख - संग्रह ' भाग -1 के 714 नं. का संवत् 1647 वाला शिलालेख का एक ही दृष्टांत लेते हैं - ‘।।ॐ।। संवत् 1647 वर्षे फाल्गुन मासे शुक्ल पक्ष पंचम्यां तिथौ गुरुवासरे श्री तपागच्छाधिराज पातशाह श्री अकबर दत्त जगद्गुरु बिरुद धारक भट्टारक श्री श्री श्री 4 हीरविजय सूरीणामुपदेशेन चतुर्मुख श्री धरणविहारे प्राग्वाट ज्ञातीय 54 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = अकबर प्रतिबोधक कोन ? सुश्रावक सा. खेता नायकेन वर्धा पुत्र यशवन्तादि कुटुम्ब युतेन अष्ट चत्वासिंशत् (48) प्रमाणानि सुवर्ण नाणकानि मुक्तानि पूर्वदिक् सत्क प्रतोली निमित्त मिति श्री अहमदाबाद पार्वे उसमा पुरतः ।।श्रीरस्तु।। प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर द्वारा प्रकाशित तीर्थ स्वर्णगिरि-जालोर (लेखक- साहित्य वाचस्पति श्री भंवरलालजी नाहटा, पुस्तक के पृष्ठ 97 पर ‘मुनि जिनविजयजी के प्राचीन जैन लेख संग्रह से जालोर-स्वर्णगिरि के अभिलेख में से लेख नं. 4 के कुछ अंश यहाँ पर दिये जाते हैं____ 1) ।।.।। संवत् 1681 वर्षे प्रथम चैत्र वदि 5 गुरौ अद्येह श्री राठोड वंशे श्री सूरसिंघ पट्टे श्री महाराज श्री गजसिंहजी। ___5) पट्टशृंगार हार महाम्लेच्छाधिपति पातशाहि श्री अकबर प्रतिबोधक तद्दत्त जगद्गुरु बिरुदधारक श्री शत्रुजयादितीर्थ जीजीयादि करमोचक तद्दत्त षण्मास अमारि प्रवर्तक भट्टारक श्री हीरविजयसूरि पट्ट मुकुटायमान भ. इस प्रकार अनेक तत्कालीन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि आ. श्री हीरविजयसूरिजी को 'जगद्गुरु' बिरुद अकबर बादशाह द्वारा ही दिया गया। जिस प्रकार आ. जिनचंद्रसूरिजी को 'युगप्रधान' बिरुद भी अकबर द्वारा दिया गया उसी प्रकार आ. हीरविजयसूरिजी को भी ‘जगद्गुरु' बिरुद अकबर द्वारा दिया गया । और संशोधन करने से कालक्रम को विचार ते सं 1640 में यह 'जगद्गुरु' बिरुद आ. हीरविजयसूरिजी को दिया गया था, ऐसा प्रतीत होता है। शुभं भूयात् सकलसंघस्य ‘परमसंबोहीए सुहिणो भवन्तु जीवा, सुहिणो भवन्तु जीवा, सुहिणो भवन्तु जीवा' (सकल संघ का मंगल हो।) (श्रेष्ठ सम्यक्त्व (श्रद्धा) की प्राप्ति से सभी जीव सुखी होवें।) परम तारक जिनाज्ञा के विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो, तो उसका त्रिविध-त्रिविध मिच्छा मि दुक्कडं। 55 Page #62 --------------------------------------------------------------------------  Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ اسد اکبر عریان از قرار تاریخ است داشتم ماه فروردیے سنده حکام را درمان نظام مقصد اگر امن و امان السلطا فيه وجابر دارلر وکر دريان كل ممالک محروسه بدانند ک چون هما بحت عدالت برای جهانگیری در تحصل عينات المصروف و تمام نیت نخندم در بدست آورد خاطر کار براكه ميباع معبر واحد واجب الوجود معط واستحصرها در استرضاي قلوب فاليتان وفرصتا اندیشا کہ وجہ مقصود و مطلوبشان جز حق جویی وخراطلے امی دیک نیست عایت توجه سر ور میداریم لهن ادرين لاک پیک مهره بلند مانند راوردیکھ پاتے کہ مرید بحي سير سور بھی دیو سپورو نندی مخاطب حوش هم که درین مدت در پایر سربر سلطنت می بودندچون المتماس واستدعا نمودند که اگر درکال مالک محروسه درد وازده روز معتبرها که رونا بارون بحسن باشد در مسلخها انه تم جانورها وحيوانات کشته نشود موجب سر فراری این مسكنان خواهد بود و چندین انها يمن وبركت اين حكم اقدس اعلاخلامي خواه يافت و تام کر بروزکارنت حضرت اقدس اشرف همایون عايد خواهدکردیران انجاکرحمت شامش بانجاح مطالب و ارتجيعمل ونخل زمرة وما بعد یاسر كان جاندار معروف داشترام ملتم اورا بقبول مقرون داشتها قطاع . واجب الاتباع جها نكر شرف اصدار یافت که در وارد روز مذکور سال بساله در کل مالک محروم در سلنا جانور نکشند وبرامون این امـر محدد نالند می باید کرد ابوليزوتريت واقع محمد سيد بر سال میدیا اخلاص Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 二 2