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अकबर प्रतिबोधक कोन ?
Command. Many a family was ruined, and his property was confiscated. During the time of those fasts, the Emperor abstained altogether form meat as a religious penance, gradually extending the several fast during a year for six months and even more, with a view to eventually discontinuing the use of meat altogether."
अर्थात् - ‘इस समय बादशाह ने कितने ही नये-प्रिय सिद्धान्तों (विचारों) का प्रचार किया था। सप्ताह के प्रथम दिन (रविवार) को प्राणियों के वध की कठोरता पूर्वक निषेधाज्ञा की, क्योंकि यह दिन सूर्य पूजा का है। तथा फरबरदीन महीने के पहले 18 दिनों में, सारे अबान महीने (जिस महीने में बादशाह का जन्म हुआ था) में तथा हिन्दुओं को खुश करने के लिये दूसरे कई दिनों में प्राणियों के वध का सख्त निषेध किया था। यह हुकम सारे राज्य में घोषित किया गया था । आज्ञा विरुद्ध बस्ताव करने वालों को दंड दिया जाता था। इससे बहुत से परिवारों को दंडित किया गया तथा उनकी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली गई थी। इन उपवासों के दिनों में बादशाह ने एक धार्मिक तप के रूप में मांसाहार को एकदम (पूर्णतः ) बन्द कर दिया था। धीरे-धीरे वर्ष के छह महीने तथा इससे भी अधिक कई उपवास इसी हेतु से बढ़ाया गया ताकि (प्रजा) मांस का धीरे-धीरे एकदम त्याग कर सके।'
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बदाउनी के ऊपर के वाक्य में जो 'हिन्दू' शब्द का प्रयोग किया है, इस हिन्दू शब्द से ज़ैन ही समझना चाहिये क्योंकि पशुओं-पक्षियों के वध के निषेध करने में और जीवदया संबंधी राजा - महाराजाओं को उपदेश देने में आज तक जो कोई प्रयत्नशील रहे हों तो वे जैन ही हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार विसेन्ट स्मिथ भी अपनी अकबर नामक पुस्तक के 335 पृष्ठ में स्पष्ट लिखता है कि
"He cared little for flesh food, and gave up the use of it almost entirely in the later years of his life, when he came under Jain influence."
अर्थात् - मांस भोजन पर बादशाह को बिल्कुल रुचि नहीं थी। इसलिये इसने अपनी पिछली आयु में जब से वह जैनों के समागम में आया, तब से मांस भोजन को सर्वथा छोड़ दिया था।
(3) सम्राट के जीवहिंसा निषेध करने का सारा श्रेय जैन साधुओं के समागम का ही है, यह बात प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार श्री विन्सेन्ट ए. स्मिथ अपनी पुस्तक Akbar the Great Mogal के सन् 1917 के संस्करण के पृ 167 पर लिखते हैं :
1. Al-Badaoni. Translated by W. H. Lowe. M. A. Vol. II. P. 331