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________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ? प्राक्कथन ऐसे तो सम्राट अकबर एवं जैनाचार्यों के संबंध विषयक विपुल साहित्य प्रकाशित हो चुका है एवं उस पर कई ऐतिहासिक संशोधन विदेशी विद्वानों के द्वारा भी किये जा चुके हैं, फिर इस नवीन लेख की जरुरत क्यों हुई ? ऐसी जिज्ञासा होनी स्वाभाविक है। अतः सर्वप्रथम इस लेख को लिखने के प्रेरणास्रोत एवं उद्देश्य को यहाँ पर बता देना उचित प्रतीत होता है। केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद श्रमण भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। चतुर्विध संघ को मोक्ष तक पहुंचाने में समर्थ ऐसे जिनशासन (जिनाज्ञा) रूपी रथ के श्रुतज्ञान, एवं आचार मार्ग रूपी दो पहिये हैं! इस रथ को चलाने की धुरा (लगाम) गणधरों को दी गयी एवं तदनन्तर आचार्यों की परंपरा ने इस शासन को आगे बढ़ाया। दुःषमकाल की विकट परिस्थितियों एवं भस्मग्रह के प्रभाव से अनेक आपत्तियां आयी, परंतु आचार्यों की समय सूचकता एवं पुरुषार्थ से शासन अविरत चलता रहा। ऐसे में कुछ सिद्धांत भेदों को लेकर दिगंबर पंथ अलग पड़ा एवं उसी तरह आगे चलकर कुछ सामाचारी भेद या छोटे-छोटे सिद्धान्त भेदों को लेकर श्वेताम्बर परंपरा में भी गच्छ भेद हुए एवं आगे चलकर स्थानक वासी एवं तेरापंथी अलग हुए। फिर भी भगवान की मूल परंपरा अविरत रुप से चलती आ रही है। वर्तमान में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ के अंचलगच्छ, खरतरगच्छ, पायचंद गच्छ एवं बृहत्सौधर्म तपागच्छ प्रायः विद्यमान हैं। प्रायः सभी परंपरा के पूर्वाचार्यों ने सर्वमान्य ऐसी अहिंसा के प्रवर्तन के लिए उपदेश दिये थे। हर परंपरा में समयसमय पर हुए प्रभावक आचार्यों ने तत्कालीन राजाओं को उपदेश देकर अमारि का प्रवर्तन कराया भी था। अतः भारत में अहिंसा की भावना को टिकाये रखने में सभी का योगदान है, ऐसा स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं है। परंतु किसी गच्छ के आचार्य के उपदेश से हुए कार्यों का अन्य आचार्य के नाम से प्रचार करना तो उचित नहीं कहलाता है। __ ऐसा ही बनाव एक बड़े शहर में बना। वहाँ किसी के मुख से सुना- 'आ. जिनचंद्रसूरिजी अकबर प्रतिबोधक कहे जाते हैं, तो आ. हीरविजयसूरिजी को
SR No.002459
Book TitleAkbar Pratibodhak Kaun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherMission Jainatva Jagaran
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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