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________________ अकबर प्रतिबोधक कोन ? साहित्य में न मिलती हो, तो भी तत्कालीन साहित्य एवं शिलालेखों के ऊपर से इस बात की सत्यता का स्वीकार करना चाहिए । आ. श्री हीरविजयसूरिजी को 'जगद्गुरु' की पद्वी 'अकबर द्वारा दी गयी थी, उसके कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं - संवत् 1646 में लिखी हुई, जिसकी प्रत मिलती है एवं जिसका नाम भी 'जगद्गुरु' के उपर से 'जगद्गुरुकाव्य' है । उसमें उसके कर्ता 197वें श्लोक में कहते हैं कि - शुद्धाः सर्वपरीक्षण गुरुवरा ज्ञात्वेति पृथ्वीपतिः । सभ्यानां पुरतः स्वपर्षदि गुणांस्तेषां स्वधी शोधितान्।। उक्त्वा सर्वयतीशहीरविजयाख्यानामददाद् भक्तितः। स्वैर्वाक्यैर्बिरुदं जगद्गरुरिति स्पष्टं महः पूर्वकम्॥1॥ सर्व परीक्षा से गुरुवर शुद्ध हैं, ऐसा जानकर बादशाह ने अपनी पर्षदा में (दरबार में) सभ्यों के समक्ष, स्वबुद्धि से ढुंढे हुए ऐसे उनके गुणों को कहकर, सर्व यतिओं के स्वामी ऐसे- जिनका नाम हीरविजय है, उन्हें भक्ति से अपने ही शब्दों में 'जगद्गुरु' ऐसा स्पष्ट बिरुद महोत्सव पूर्वक दिया। 'हीर सौभाग्य नाम का महाकाव्य जिसकी रचना पं. देवविमल गणिजी ने सं. 1645 के पहले चालु की थी, उसके 14 वें सर्ग के श्लोक 205 में बताया है कि'जिस प्रकार आघाट नगर में राजा ने आ. जगच्चंद्रसूरिजी को 12 वर्ष तक आयंबिल तप करने के कारण 'तपा' बिरुद दिया, खंभात में दफर खान ने आ. मुनि सुन्दरसूरिजी को प्रेम से 'वादि गोकुल संकट' बिरुद दिया था, उसी प्रकार - गुणश्रेणीमणीसिन्धोः श्री हीरविजय प्रभोः । जगद्गुरुरिदं तेन बिरुदं प्रददे तदा ।। अर्थात् - उस अवसर पर उन्होंने (अकबर बादशाह ने) गुणश्रेणी रूप मणियों में समुद्र रूप श्री हीरविजय प्रभु को 'जगद्गुरु' यह बिरुद दिया । श्री पूरणचंद्रजी नाहर द्वारा सम्पादित 'जैन लेख - संग्रह ' भाग -1 के 714 नं. का संवत् 1647 वाला शिलालेख का एक ही दृष्टांत लेते हैं - ‘।।ॐ।। संवत् 1647 वर्षे फाल्गुन मासे शुक्ल पक्ष पंचम्यां तिथौ गुरुवासरे श्री तपागच्छाधिराज पातशाह श्री अकबर दत्त जगद्गुरु बिरुद धारक भट्टारक श्री श्री श्री 4 हीरविजय सूरीणामुपदेशेन चतुर्मुख श्री धरणविहारे प्राग्वाट ज्ञातीय 54
SR No.002459
Book TitleAkbar Pratibodhak Kaun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherMission Jainatva Jagaran
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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