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________________ =अकबर प्रतिबोधक कोन ?== सितंबर 1595 के पिन्हेरो के अकबर जैन अनुयायी है, ऐसे उल्लेख वाले पत्र का समय हि. सं. 1652, गु. सं. 1651 होता है और तब आ. श्री विजयसेनसूरिजी का तृतीय चातुर्मास लाहोर में चल रहा था। अतः अकबर को जैन अनुयायी कहलाने का श्रेय आ. विजयसेनसूरिजी को ही मिलना चाहिए। * कर्मचंद प्रबंध के अनुसार आ. जिनचंद्रसूरिजी तो गु. सं. 1648 (हि. सं. 1649) का चातुर्मास लाहोर में करके गुजरात की ओर विहार कर चुके थे। अतः उनके उपदेश श्रवण की यहाँ बात ही प्रस्तुत नहीं होती है। __ अगर 'युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि' के आधार से आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी का हि. वि. सं. 1649-हापाणइ में चातुर्मास करना मान भी लेवे तो भी ई. सन् 1595, हिं. सं. 1652 में तो वे लाहोर में थे ही नहीं, बल्कि वहाँ पर आ. श्री विजयसेनसूरिजी थे, तो उक्त पत्र में कथित अकबर के जैन अनुयायी होने की घटना का श्रेय आ. जिनचंद्रसूरिजी को कैसे दिया जा सकता है? अस्तु ! ये तो केवल अगरचंदजी नाहटा की बात को विकल्प से स्वीकार करके अभ्युगम से बताया है, बाकि कर्मचंद प्रबंध' ग्रंथ जो आ. जिनचंद्रसूरिंजी के लाहोर गमन में साथी जयसोम उपाध्यायजी द्वारा रचित है और सं. 1655 में जिस पर वाचक गुणविनयजी ने टीका की है, उसके आधार से तो आ. जिनचंद्रसूरिजी ने हिं. सं. 1649 का चातुर्मास ही लाहोर में किया था। वे सं. 1651 या सं. 1652 में लाहोर में नहीं थे। तो फिर, जहाँगीर के अकबर के 11 वर्षीय धार्मिक जीवन के कथन का या पिनहेरो के पत्र में लिखित अकबर के जैन अनुयायी होने के पीछे का श्रेय आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी को, जैसे अगरचंदजी नाहटा ने दिया है, वह कहाँ तक उचित है ? *1. जैन परंपरा नो इतिहास भाग 4, पृष्ठ 358, (पू. विद्याविजयजी) के आधार से आ. विजयसेनसूरिजी ने लाहोर (गु. सं. 1649-50-51) (हि. सं. 1650-51-52) के तीन चातुर्मास किये थे। जबकि कु. नीना जैन (मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति) पृष्ठ 82 के अनुसार आचार्य श्री ने (गु. सं. 1650-51) (हि. सं. 1651-52) के दो चातुर्मास किये थे। कुछ भी हो, परंतु बादशाह जहाँगीर के उक्त कथन एवं पिनहेरो पादरी के पत्र संबंधी वर्ष के चातुर्मास क्रमशः हि. सं. 1651 एवं 1652 के हैं, उन दोनों चातुर्मास में आ. श्री विजयसेनसूरिजी की हाजरी थी, ऐसा दोनों ने मौलिक रूप से स्वीकारा ही है। *2. ऐसे तो अकबर के अंतिम जीवन को अहिंसामय बनाकर उसे जैन अनुयायी कहलाने का श्रेय तो सभी जैन साधुओं को देना चाहिए। परंतु अगर इन उल्लेखों के समय में जिनकी उपस्थिति थी उनको ही यह श्रेय दिया जावे, ऐसा माना जाय, तो यह श्रेय आ. विजयसेनसूरिजी को ही देना उचित प्रतीत होता है। 46
SR No.002459
Book TitleAkbar Pratibodhak Kaun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherMission Jainatva Jagaran
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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