Book Title: Aagam 08 ANTKRUT DASHA Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [०८] श्री अन्तकृद्दशाङ्गसूत्रम् नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । "अंतकृद्दशा” मूलं एवं वृत्ति: [मूलं एवं अभयदेवसूरि रचित वृत्तिः ] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] | (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 29/09/2014, सोमवार, २०७० आसो शुक्ल ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०८], अंग सूत्र-[०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~0~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [-], ----------------------- अध्ययनं [-]--------- -------- मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अहम्। प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम श्रीमच्चन्द्रकलीन श्रीमदभयदेवाचार्य विहितविवरणयुतं अन्तकृद्दशाङ्ग सूत्रम् प्रकाशयित्री हेसाणा धारका श्रेष्टि वीकपकाल हीराचंद श्रेष्ठि गुलाबचन्द्र हर्षचन्दपली उमीया कोर विहितसाहाय्येन श्रेष्ठि वेणिचन्द्र सुरचन्द्रद्वारा आगमोदय समितिः॥ एवं पुस्तकं पुणामध्ये आर्यभूषण यन्त्रालये म्यानेजर अनंत विनायक पटवर्धन द्वारा मुद्रापितम् ॥ चौरसंवत् २४४६. विक्रमसंवत् १९७६. क्राइस्ट सन् १९२० पण्यंः-१०-० दशकमाणकानाम् । अन्तकृद्दशाङ्गसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: २७+१२ अन्तकृद्दशाङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ६२ मूलांक: | वर्ग: पृष्ठांक: मूलांक: पृष्ठांकः | । मूलांक: | --- पष्ठांक: | ००४ ०२३ ०४० ००१ | वर्ग: १, गौतम-आदि | दश अध्ययनानि वर्ग: ६, मकाई-आदि षोडश अध्ययनानि __०१५ । ०३२ वर्ग: ४, जालि-आदि | दश अध्ययनानि ०४१ ०५३ ००७ | वर्ग: २, अक्षोभ-आदि | अष्ट अध्ययनानि वर्ग:७, नंदा-आदि त्रयोदश अध्ययनानि ___०१८ ०३२ । ०१० वर्ग: ५, पद्मावती-आदि ____ दश अध्ययनानि ०५४ ०१० । वर्ग: ३, अनियाश-आदि त्रयोदश अध्ययनानि ०४६-- | वर्ग: ८, काली-आदि --०६२ । दश अध्ययनानि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [२८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ~ 2. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अन्तकृद्दशा' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले "अन्तकृद्दशाङ्गसूत्र” के नामसे सन १९२० (विक्रम संवत १९७६) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमसागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | * हमारा ये प्रयास क्यों? • आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर वर्ग, अध्ययन और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा वर्ग एवं अध्ययन चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ |-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते वर्ग, अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे खास विषयवस्तु की, मुल प्रतमें रही हई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्तिः ) वर्ग: [१], ......................----- अध्य यन [१-१०] ---------------------- मूलं [१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥ अहम् ॥ श्रीचन्द्रगच्छीयश्रीमदभयदेवसूरिसूत्रितवृत्तियुताः। श्रीमदन्तकृद्दशाः। गाथा: तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपानामै नगरी पुनम चेतिए वन्नओ, तेणं कालेणं तेणं समएणं अजसुहम्मे | समोसरिए परिसा निग्गया जाव पडिगया, तेणं का०२ अजमुहम्मस्स अंतेवासी अजजंबू जाव पज्जुवासति, एवं वदासि०-जति णं भंते । समणेणं आदिकरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्व अंगस्स उवासगदसाणं अ| १ अथान्तकदशासु किमपि वित्रियते-तत्रान्तो-भवान्तः कृतो-विहितो यैस्तेऽन्तकृतास्तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशा:-दशाध्ययनरूपा अन्यपद्धतय इति अन्तकृतदशाः, इह चाष्टी वर्गा भवन्ति तत्र प्रथमे वर्गे दशाध्ययनानि तानि शब्दन्युत्पत्तेनिमित्तमङ्गीकृत्यान्तकृतदशा उक्तासन चोपोपातार्थमाह सेण मित्यादि सर्वमिदं ज्ञाताधर्मकथायामिपावसेयं, CR4 दीप अनुक्रम [१-५] ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) (०८) वर्ग: [१], ......................----- अध्य यन [१-१०] ----------------------- मूलं [१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक गाथा: अन्तकृद्द कह- यमढे पन्नत्ते अट्ठमस्स णं भंते ! अंगस्स अंतगडदसाणं समणेणं० के अहे पण्णते?, एवं खलु जंबू! समणेणं १ वर्ग शाळे जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अह वग्गा पन्नत्ता, जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं १ध्ययन अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अह वग्गा पन्नत्ता पढ़मस्सणं भंते! वग्गस्स अंतगडदसाणं समणेणं जावसू०१ ॥१ ॥ संपत्तेणं कह अज्झयणा पन्नत्ता, एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं 31 पढमस्स वग्गस्स दस अज्मयणा पन्नत्ता, तं०-गोयम समुद्द सागर गंभीरे चेव होइ थिमिते य । अयले कंपिल्ले खलु अक्खोभ पसेणती विण्हू ॥१॥ जति णं भंते! समणेणं जाव संप० अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं पढमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पन्नत्ता पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स अंतगडदसाणं समगणं जाव संपत्तेणं के अटे पन्नत्ते?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ यारवतीणाम नगरी होत्था, दुवालस जोयणायामा नवजोअणविधिण्णा धैणवइमतिनिम्माया चामीकरपागारा नाणामणिपंचवन्नकविसीसगर्म४ डिया सुरम्मा अलकापुरिसंकासा पैमुदितपक्कीलिया पञ्चक्खं देवलोगभूया पासादीया ४, तीसे गं बारवतीनयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीमागे एत्थ णं रेवतते नाम पन्वते होच्था, तत्थ णं रेवतते पन्वते नंदण १ गोयमे'त्यादिगाथाऽध्ययनसङ्ग्रहार्था, २ घणवइमइनिम्माया' इति वैश्रमणबुद्धिविरचिता ३ 'अलयापुरिसंकासत्ति अलकापुरी-वैश्रमणयक्षपुरी तत्सदृशी ४ 'पमुइयपक्कीलियत्ति तन्निवासिजनानां प्रमुदितत्वप्रक्रीडितत्वाभ्यामिति । + + दीप अनुक्रम [१-५] SAREaratha बारावतीनगर्या: संक्षिप्त-वर्णनं ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [१] गाथा: दीप अनुक्रम [१-५] “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) - वर्ग: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... अध्ययनं [१-१०] मूलं [१] + गाथा: आगमसूत्र [०८ ], अंग सूत्र [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः वणे नामं उज्जाणे होत्था वन्नओ, सुरप्पिए नामं जक्खायतणे होत्या पोराणे, से णं एगेणं वणसंडेणं०, असोगवरपायवे, तत्थ णं धारवतीनयरीए कण्हे णामं वासुदेवे राया परिवसति मेहता रायवन्नतो, सेणं तत्थ समुह विजयपामोक्खाणं देसण्हं दसाराणं बलदेवपामोक्खाणं पंचण्डं महावीराणं पज्जुन्नपामोक्खाणं अजुट्ठाणं कुमारकोडीणं संवपामोक्खाणं सट्ठीए दुदंतसाहस्सीणं महसेणपामोक्खाणं छप्पण्णाए बलवगसा| हस्सीणं वीरसेणपामोक्खाणं एगवीसाते वीरसाहस्सीणं उग्गसेणपा० सोलसण्हं रायसाहस्सीणं रुप्पिणिपा० सोलसण्हं देविसाहस्सीणं अनंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं अन्नेसिं च बहूणं ईसर जाव सत्थवाहाणं वारवतीए नयरीए अद्धर्भरहस् य समत्यस्स आहेवचं जाव विहरति, तत्थ णं बारव तीए नयरीए अंधगवण्ही णामं राया परिवसति, महता हिमवंत वन्नाओ, तस्स णं अंधकवहिस्स रत्नो धारिणी नामं देवी होत्था वन्नाओ, तते णं सा धारिणी देवी अन्नदा कदाई तंसि तारिसगंसि सयणिज्वंसि १ 'महया० रायण्णओत्ति 'महया हिमवंतमहंतमलय भंदरम हिंदसारे' इत्यादी राजवर्णको वाच्यः, स च यथा प्रथमज्ञाते | मेघकुमारराज्याभिषेकावसरे तथा दृश्यः, २ 'सहं दसाराणं'ति तत्रैते दश -- 'समुद्रविजयोऽक्षोभ्यस्तिमितः सागरस्तथा । हिमवानचलचैव धरणः पूरणस्तथा ॥ १ ॥ अभिचन्द्रश्च नवमो, वसुदेवश्च वीर्यवान् । वसुदेवानुजे कन्ये, कुन्ती मद्री च विश्रुते ॥ २ ॥ दश च तेऽथ पूज्या इति दशाः, ३ तस्यां च द्वारिकावत्यां नगर्यामन्धकदृष्णिर्यादवविशेष एव । For Pasta Use Only बारावतीनगर्याः संक्षिप्त वर्णनं, कृष्णवासुदेवः एवं तस्य परिवारस्य वर्णनं ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [१], .....................----- अध्य यन [१-१०] ---------------------- मूलं [१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: R प्रत A-% शा सूत्राक [१] AC गाथा: एवं जहा महन्धले 'सुमिणसणकहणा जम्मं बालत्तणं कलातो य । जोवणपाणिग्गहणं कंता पासाय-1818 वर्ग भोगा य ॥१॥" नवरं गोयमो नामेणं अट्ठण्हं रायवरकन्नाणं एगदिवसेणं पाणिं गेण्हावेंति अडओ दाओ,11ध्ययन तेणं कालेणं २ अरहा अरिहनेमी आदिकरे जाव विहरति चउब्विहा देवा आगया कण्हेवि णिग्गए, तेते है सू०२ जाणं तस्स गोयमस्स कुमारस्स जहा मेहे तहा णिग्गते धर्म सोचा जं नवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि देवाणुप्पियाणं एवं जहा मेहे जाच अणगारे जाते जाच इणमेव णिग्गंथं पावयणं पुरओ कार्ड विहरति, तते णं से गोयमे अन्नदा कयाह अरहतो अरिहनेमिस्स तहारूवाण राणं अंतिए सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई अहिज्जति २ बहहिं चउत्थ जाव भावेमाणे विहरति, ते अरिहा अरिहनेमी अन्नदा |कदाह पारवतीतो नंदणवणातो पडिनिक्खमति बहिया जणवयविहार विहरति, तते णं से गोयमे अणगारे 'महाब्बले त्ति यथा भगवत्यां महाबलस्तथाऽयं वाच्यः, तत्र च यद्वकन्यं तद्गाथया दर्शयति–खप्रदर्शनं–खप्ने सिंहदर्शनमित्यर्थः 'कहणे'ति 'कथना' स्वप्नस्य राज्ञे निवेदना, जन्म दारकस बालत्वं तस्यैव, एवमादि सर्वमस्य तदक्षरं महावलवद्वक्तव्यम् , अस्ति पर विशेषः 'अट्ठहओ दाओ'त्ति परिणयनानन्तरमष्टौ हिरण्यकोटीरित्यादि दाउत्ति दानं वाच्यं । २ 'तते णमित्यागौ तस्य गौतमस्य ॥२॥ | 'अयमेयारवे अन्भस्थिए ४ संकप्पे समुष्पजिस्था' इत्यादि सर्व वथा मेघकुमारस्य प्रथमज्ञाते उक्तं तथा वाच्यम्, अत एवाह नहा | मेह तहा निग्गए धर्मा सोचा' इत्यादौ सर्वत्रोचितक्रियाऽध्याहारो वाच्यो मेधकुमारचरितमनुस्मृत्येति । . दीप अनुक्रम [१-५] 44 %A6 A asurary.com अत्र मूल-संपादने एक: मुद्रण-दोष: दृश्यते-शीर्षक- 'स्थाने सू०१' स्थाने 'सू० २' शब्द मुद्रितं गौतमकुमारस्य कथा ~7~ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [१] गाथा: दीप अनुक्रम [१-५] “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) - वर्ग: [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित गौतमकुमारस्य कथा अध्ययनं [१-१०] मूलं [१] + गाथा: आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अन्नदा कदाई जेणेव अरहा अरिहनेमी तेणेव उवा० २ अरहं अरिद्वनेमिं तिक्खुत्तो आदा० पदा० एवं व० - इच्छामि णं भंते । तुभेहिं अन्भपुण्णाते समाणे मासियं भिक्खुपडिमं जवसंपज्जित्ताणं विहरेत्तए, एवं जहा खंदतो तहाँ बारस भिक्खुपडिमातो फासेति २ गुणरयणंपि तवोकम्मं तहेब फासेति विरवसेसं जहा खंदतो तहा चिंतेति तहा आपुच्छति तहा थेरेहिं सद्धिं सेतुखं दुरूहति मासियाए संलेहणाए बारस वरिसाई परिताते जाव सिद्धे ५ ॥ ( सू० १) एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स | अंतगडदसाणं पढमवग्गपदमअज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, एवं जहा गोयमो तहा सेसा वन्हि पिया धा| रिणी माता समुद्दे सागरे गंभीरे थिमिए अयले कंपिल्ले अक्खोभे पसेणती विण्हुए एए एगगमा, पढमो १ एवं सर्व गौतमाख्यानकं भगवतीप्रतिपादितस्कन्दुककथानकसमानं तदनुसारेण वाच्यमिति, नवरं भिक्षुप्रतिमा एवम् एकमासपरिमाणा एकमासिकी एवं द्वयादिसप्तान्वमासपरिमाणा द्विमासिक्याद्याः सप्तमासिक्यन्ताः, तथा सप्तरात्रिंदिवप्रमाणाः प्रत्येकं सप्तरात्र दिवास्तिस्रः अहोरात्रिकी एकरात्रिकी चेति, स्वरूपं चासां विशेषेण दशाश्रुतस्कन्धादव सेयं, २ तथा गुणरत्नसंवत्सरं तपः एवंरूपं, तत्र हि प्रथमे मासे निरन्तरं चतुर्थ तपः, दिवोत्कटुकस्य सूराभिमुखस्यावस्थानं रात्रौ बीरासनेनाप्रावृतस्य, एवमेव द्वितीयादिषु षोडशावसानेपु मासेषु षष्ठभक्तादि चतुस्त्रिंशत्तमभक्तपर्यन्तं तप इति । ३ एवमन्यानि नब प्रागुक्तगाथोद्दिष्टानां समुद्रादीनां नवानामन्धकवृष्णिधारिणीसुतानामाख्यानकानि वाक्यानि एवं दशभिरध्ययनैः प्रथमो वर्गों निगमनीयः । For Parts Only ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [२, ३] दीप अनुक्रम [६,७-९] वर्ग: [१, २], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... “अन्तकृद्दशा" अंगसूत्र - ८ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [१-१०, 1-41 मूलं [२३] ...आगमसूत्र [०८ ], अंग सूत्र [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अन्तकृद्दशाने ॥३॥ ......... - • वग्गो दस अज्झयणा पन्नता ( सू० २) जंति दोचस्स वग्गस्स उक्लेवतो, तेणं कालेणं २ बारवतीते णगरीए वहि पिया धारिणी माता अक्खोभसागरे खलु समुदहिमवंत अचलनामे य । धरणे य पूरणेवि य अभिचंदे चेव अट्टमते ॥ १ ॥ जहा पढमो वग्गो तहा सव्वे अट्ठ अज्झयणा गुणरचणतवोकम्मं सोलस बासाइं परियाओ सेतु मासियाए संलेहणाए सिद्धी (सु० ३) जति तचस्स उक्खेवतो एवं खलु जंबू ! तचस्स वग्गस्स अंतगडदसाणं तेरस अञ्झयणा पन्नत्ता तं अणीयसे १ अनंतसेणे २ अणिय ३ विक ४ देवजसे ५ सत्तुसेणे ६ सारणे ७ गए ८ सुमुहे ९ दुम्मुहे १० कूबए ११९ दारुए १२ अणादिट्ठी १३ । जति १ 'जइ दोचरस उक्वड'ति 'जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं अद्रुमस्स अंगस्स पढमवग्गस्स अथमडे पण्णत्ते, दोचरस णं भंते! वग्गस्स के अड्डे पण्णत्ते ?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं समणेणं भगवया महावीरेण दोचस्स वग्गस्स अट्ठ अज्झयणा पण्णत्ता" इत्येवं द्वितीय वर्गस्योपक्षेपो वाच्यस्तत्र चाष्टावध्ययनाभिधानगाथा एवमध्येया- "अक्खोभ सागरे खलु समुद ३ हिमवंत ४ अचलनामे य ५ । धरणे य ६ पूरणे य ७ अभिचंदे चैव अहमद ॥ १ ॥” २ 'जइ वचस्स उक्वड'त्ति 'जइ णं भंते! समणेणं ० अंतगढदसाणंदोबस्त युगस्स अयमट्टे पण्णत्ते० एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं तचस्स वग्गस्स तेरस अज्झयणा पण्णत्ता तंजहा- 'अणीयसेत्यादि, जइ तथस्स वग्गस्स तेरस अज्झयणा पण्णता, पढमस्स णं भंते! के अट्ठे पण्णत्ते ? 'एवं खलु जंबू ! तेण मित्यादि । For Parts Only ~9~ १ वर्गे २ ध्ययनं सू० २-४ ॥ ३ ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [१०] “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [१६] वर्ग: [३], मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं तचस्स वग्गस्स अंतगडदसाणं तेरस अज्झपणा पं० तचस्स णं भंते! व ग्गस्स पढमअज्झयणस्स अंतगडदसाणं के अट्टे प० १ एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं २ भद्दिलपुरे नाम नगरे होत्था वन्नओ, तस्स णं भद्दिलपुरस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए सिरिवणे नामं उज्जाणे होत्था बन्नओ, जितसत्तु राया, तत्थ णं भद्दिलपुरे नयरे नागे नामं गाहावती होत्था अहे, तस्स णं नागस्स गाहावतिस्स सुलसा नाम भारिया होत्था समाला जाव सुरूवा, तस्स णं नागस्स गाहावतिस्स पुत्ते खुलसाए भारियाए | अत्तए अणीयजसे नाम कुमारे होत्था सूमाले जाव सुरूवे पंचधातिपरिक्खित्ते तं० खीरघाती जहा दढपहने जाब गिरि० सुहं० परिवहुति, तते णं तं अणियसं कुमारं सातिरेगअट्टवासजायं अम्मापियरो कलायरिय जाव भोगसमत्थे जाते यावि होत्था, तते णं तं अणियसं कुमारं उम्मुकबालभावं जाणेत्ता अम्मापियरो | संरि जाव बत्तीसाए इन्भवरकन्नगाणं एगदिवसे पाणिं गेण्हावेति तते णं से नागे गाहावती अणीयसस्स १ 'वीरघाती मज्जणधाईमंडणधाईकीलावणघाती अंकधाई'त्ति 'यथा दृढपणेति दृढप्रतिज्ञो राजप्रश्नकृते यथा वर्णितस्तथाऽयं वर्णनीयो यावद् गिरिकंदरमल्लीणेय चंपगवरपायवे सुहंसुद्देणं परिवति, तए णं तमणीयसं कुमार मित्यादि सर्वमभ्यूद्ध वक्तव्यम्, अभिज्ञानमात्ररूपत्वात् पुस्तकस्य, २ 'सरिसियाण' मित्यादौ यावत्करणात् 'सरितयाणं सरिव्वयाणं सरिसलावण्णरुवजोन्वणगुणोववेयाणं सरिसेहिंतो कुलेहिंतो आणिलियाण' मिति दृश्यं । अनियसकुमारस्य कथा For Park Use Only ~10~ nirary org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [३], ------------------------ अध्ययनं [१-६] ---------------- मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: वर्गे प्रत अन्तकृद्दशाङ्क सूत्राक ॥४॥ दीप अनुक्रम [१०-११] कुमारस्स इमं एयारूवं पीतिदाणं दलयति तं०-बत्तीसं हिरनकोडीओ जहा महब्बलस्स जाव उपि पासा फुद्द० विहरति, तेणं कालेणं २ अरहा अरिह जाव समोसढे सिरिवणे उज्जाणे जहा जाव विहरति.परिसाए णिग्गया, तते णं तस्स अणीयसस्स तं महा जहा गोयमे तहा नवरं सामाइयमातियाई चोइस पुब्वाई अहि जति बीसं वासाति परिताओ सेसं तहेव जाव सेत्तुले पन्वते मासियाए संलेहणाए जाव सिद्धे ५। एवं खलु जंबू! समणेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं तबस्स वग्गस्स पढमअज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, एवं जहा अणीयसे एवं सेसावि अणंतसेणो जाव सत्तुसेणे छअज्झयणा एकगमा बत्तीसदो दाओ वीसं वासा प-IN रियातो चोद्दस सेत्तुजे सिद्धा॥ छट्टमज्झयणं संमत्तं ।। (सू०४) तेणं कालेणं २ वारवतीए नयरीए जहा . १ जहा महब्बलस्सत्ति भगवत्यभिहितस्य तथाऽस्यापि दानं सर्व वाच्यम् , 'उपिपासायवरगए फुटमाणेहि मुइंगमत्थएहि |भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति, सत्तुंजे पवए मासियाए संलेहणाए सिद्धे, एवं खलु जंबू! समजेणं तबस्स बनारस पढमस्स अयणस्स | अयमढे पन्नति निक्षेपस्तृतीयवर्गप्रथमाध्ययनस । अमेतनानि पञ्चाध्ययनान्यतिदिशन्नाह-२ एवं जहा अणीयसेत्यादि पढध्ययनानि । प्रथमाध्ययनस्यापरित्यागेन 'एक्कग त्ति षड्भ्योऽप्यन्तेऽक एव पाठः, केवलं नामसु विशेषः, यतः सर्वेषामेषां द्वात्रिंशद्भार्याः द्वात्रिंशत्क 8 एव दायो दानं विंशतिर्वर्षाणि पर्याय:, चतुर्दश पूर्वाणि भुतं शत्रुनये सिद्धा, इति षडपि चैते तत्त्वतो वसुदेवदेवकीसुताः । एवं सप्तमा ध्ययनस्योपक्षेपमभिधायेदं वाच्यं तेण मित्यादि, ॥ ४ ॥ अनियसकुमारस्य कथा ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [३], ----------------------- अध्ययनं [७] -------- -------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्राक पढमे नवरं वसुदेवे राया धारिणी देवी सीहो सुमिणे सारणे कुमारे पन्नासतो दातो चोस पुख्वा वीसं वासा परिताओ सेसं जहा गोयमस्स जाव सेत्तुझे सिद्धे । (सू०५) जति उक्खेओ अट्ठमस्स एवं खलु जंबूर तेणं कालेणं २ बारवतीए नगरीए जहा पढमे जाव अरहा अरिहनेमी सामी समोसढे । तेणं कालेणं २ अरहतो अरिष्टनेमिस्स अंतेवासी छ अणगारा भायरो सहोदरा होत्था सरिसया सरिसया सरिव्वया नीलुप्पलगु-15 मालियअपसिकुसुमप्पगासा सिरिवच्छंकियवच्छा कुसुमकुंडलभद्दलया नलकुब्यरसमाणा, तते णं ते छ अ * दीप अनुक्रम [१२] १'जहा पढमे त्ति यथा तृतीयवर्गस्य प्रथमाध्ययनं तयेदमप्यध्ययनं नवरमिहायं विशेषो वसुदेव इत्यादि, चतुर्दशपूर्वादिकं तु प्रथमसमानमपि स्मरणार्थमुक्तमिति 'जइ उक्खेवां'त्ति जइर्ण भंते ! अंतगडदसाणं तच्चस्स वास्स सत्तमस्स अझयणस्स अयमढे पपणत्ते' 'अट्ठमस्सत्ति 'अट्ठमस्स णं भंते ! के अट्ठ पण्णत्ते? इत्युपक्षेपः, २ तत एवं खल्वित्यादि निर्वचनं 'सरिसय'त्ति सदृशाः-स* मानाः 'सरित्तयति सहक्त्वचः 'सरिव्वयत्ति सहरवयसः, नीलोत्पलगवलगुलिकाअतसीजकुसुमप्रकाशाः 'गवलं' महिषों अतसी धान्यविशेषः श्रीक्षाष्टितवक्षस: 'कुसुमकुंडलभलय'त्ति कुसुमकुण्डलं-धत्तूरकपुष्पसमानाकृतिकर्णाभरमं तेन भद्रका:-शोभना ये ते तथा, वालावस्थाश्रयं विशेषणं न पुनरनगारावस्थाश्रयमिदमित्येके, अन्वे पुनराहुः-दर्भकुसुमबद्भद्राः सुकुमारा इत्यर्थः, तस्वं तु बहुश्रुतगम्यं, नलकूकरसमाणा' वैश्रमणपुत्रतुल्याः, इदं च लोकरूया व्याख्यातं यतो देवानां पुत्रा न सन्ति, lada81-7 अनु.३ %AX गजसुकुमारस्य कथा ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [१३] “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) वर्ग: [३], अध्ययनं [C] मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अन्तकृद्द शाळे ॥ ५॥ गारा जं चैव दिवस मुंडा भवेत्ता अगाराओ अणगारियं पव्वतिया तं चैव दिवस अरहं अरिट्ठनेमीं वंदंति णमंसंति २ एवं व० - इच्छामो णं भंते! तुमेहिं अन्भणुन्नाया समाणा जावजीवाए उद्वेणं अणि| क्खित्तेणं तवकम्मसंजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरित्तते, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पंडि०, तते णं छ अणगारा अरया अरिट्ठनेमिणा अन्भणुण्णाया समाणा जावज्जीवाए छछद्वेणं जाव विहरति, तते णं छ अणगारा अन्नया कयाई छट्ठक्खमणपारणयंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेंति जह गोयमो जाव इच्छामो णं छट्ठक्खमणस्स पारणए तुम्भेहिं अन्भणुन्नाया ससाणा तिहिं संघाडएहिं बारवतीए नगरीए जाव अडित्तते, अहासुहं, तते णं ते छ अणगारा अरया अरिनेमिणा अन्भणुष्णाता समाणा अहं अरिइनेमिं वदति णमंसंति २ अरहतो अरिनेमिस्स अंतियात सहसंबवणातो पडिनिक्स्वमंति २ तिहिं संघाडएहिं अतुरियं जाव अडंति, तत्थ णं एगे संघाडए बारवतीए नगरीए उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाते अडमाणे २ वसुदेवस्स रनो देवतीए देवीते गेहे अणुपविट्ठे, तते णं सा देवती देवी ते अणगारे एजमाणे पासति पासेसा हद्व जाब हियया आसणातो अन्भुट्टेति २ सत्तट्ट पयाई तिक्खुत्तो १. 'जं चैव दिवस'ति यत्रैव दिवसे ते मुण्डा भूत्वा अगारादनगारितां प्रत्रजिताः 'तं चैव दिवस'ति तत्रैव दिवसे २ 'कुलाई 'ति गृहाणि । For Parts Only मूल-संपादने अत्र एकः मुद्रण-दोष: दृश्यते - शीर्षक-स्थाने सू० ६ स्थाने सू० ५ मुद्रितं गजसुकुमारस्य कथा ~13~ ३ वर्गे गजसुकुमारा ८ ध्ययनं सु० ५ ॥ ५॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [&] दीप अनुक्रम [१३] “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) वर्ग: [३], अध्ययनं [C] मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Eucation गजसुकुमारस्य कथा आयाम्हणपयाहिणं करेति २ वंदति णमंसति २ जेणेव भत्तघरते तेणेव उवागया सीहकेसराणं मोयगाणं थालं भरेति ते अणगारे पडिलाभेति बंदति णमंसति २ पडिवसज्जेति, तदाणंतरं च णं दोघे संघाडते बारवतीते उन्च जाव विसज्जेति तदाणंतरं च णं तचे संघाडते बारवतीए नगरीए उच्चनीए जाव पडिलाभेति २ एवं वदासि-किरणं देवाणुप्पिया ! कण्हस्स वासुदेवस्स इमीसे बारवतीए नगरीते नवजोयण० पञ्चक्खदेक्लोगभूताए समणा निग्गंथा उच्चणीय जाव अडमाणा भत्तपाणं णो लभंति जन्नं ताई चैव कुलाई भत्तपाणाए जो २ अणुष्पविसंति ?, तते णं ते अणगारा देवतिं देवीं एवं क्यासिनो खलु देवा०! कण्हस्स वासुदेवस्स इमीसे बारवती नगरीते जाव देवोगभूयाते समणा निग्गंथा उच्चनीय जाब अडमाणा भक्तपाणं णो लभंति नो (जं) चेव णं ताई ताई कुलाई दोपि तपि भत्तपाणाए अणुपविसंति, एवं खलु देवाशुप्पिया ! अम्हे भद्दिलपुरे नगरे नागस्स गाहाबतिस्स पुत्ता सुलसाते भारियाए अत्तया छ भायरो सहोदरा सरिसया जाव नलकुब्बरसमाणा अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतिए धम्मं सोचा संसारभव्विग्गा भीया जम्मणमरणाणं मुंडा जाव पव्वइया, तते णं अम्हे जं चैव दिवसं पञ्चतिता तं चैव दिवस अरहं अरिद्वनेमिं बंदामो नमसामो २ इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगेन्हामो-इच्छामो णं भंते! तुन्भेहिं अन्भणुष्णाया स १ 'भुजो भुजोत्ति भूयोभूयः पुनः पुनरित्यर्थः । For Park Use Only ~14~ Prop Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [३], ----------------------- अध्ययनं [८] -------------------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम [१३] अन्तक-माणा जाव अहासुह, तते णं अम्हे अरहतो अन्भणुषणाया समाणा जावज्जीवाए छटुंछट्टेणं जाव विड- वर्गे शाङ्गे रामो,तं अम्हे अज्ज छडक्खमणपारणयंसि पढमाए पोरिसिए जाव अडमाणा तव गेहं अणुप्पविहा. तं नो खलु देवाणुप्पिए! ते चेव णं अम्हे, अम्हे णं अने, देवतिं देविं एवं वदंति २ जामेव दिसं पाउ तामेव मारा ॥५॥1 दिसं पडिगता, तीसे देवतीते देवीए अयमेयारूवे अज्झ०४ समुप्पन्ने, एवं खलु अहं पोलासपुरे नगरे अ-12 ध्ययन तिमुत्तेणं कुमारसमणेणं बालत्तणे वागरिता तुमणं देवाणुछ अट्ठ पुत्ते पयातिस्ससि सरिसए जाव नलकु- ०५ ब्बरसमाणे नो चेच णं भरहे वासे अन्नातो अम्मयातो तारिसए पुत्ते पयातिस्संति तं न मिच्छा, इमं नं पचक्खमेव दिस्सति भरहे वासे अन्नातोवि अम्मताओ एरिस जाब पुत्ते पयायाओ, तं गच्छामि णं अरह अरिट्टनेमि वंदामि २ इमं च णं एयारूवं वागरण पुच्छिस्सामीतिकहु एवं संपेहेति २ कोहुंबियपुरिसा सद्दावेति २एवं व. लहकरणप्पवरं जाव उबट्ठति, जहा देवाणंदा जाव पज्जुवासति, ते अरहा अरिहनेमी देवतिं देवं एवं व०-से नूणं तव देवती! इमे छ अणगारे पासेत्ता अयमेयारूवे अन्भस्थि०४ एवं| खलु अहं पोलासपुरे नगरे अइमुत्तेणं तं चेव जाब णिग्गच्छसि २ जेणेव ममं अंतियं हलवमागया से नूर्ण १ 'लहुकरणेति लघुकरणेत्यादिवर्णकयुक्त यानप्रवरमुपस्थापयन्ति। २ 'जहा देवाणंदति भगवत्यमिहिता यथा देवामन्दा भगवन्महावीरप्रथममाता गता तधेयमपि भणनीया, SAMEmirathima मूल-संपादने अत्र एक: मुद्रण-दोष: दृश्यते-शीर्षक-स्थाने सू० ६ स्थाने सू० ५ मुद्रितं गजसुकुमारस्य कथा ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [१३] “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) वर्ग: [३], अध्ययनं [C] मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०८ ], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Ja Eucator देवती अत्थे समट्ठे ?, हंता अस्थि, एवं खलु देवा० तेणं कालेणं २ भद्दिलपुरे नगरे नागे नाम गाहावती परिवसति अड्डे, तस्स णं नागस्स गाहा० सुलसानामं भारिया होत्था, सा सुलसा गाहा० बालसणे चेव निमित्तणं वागरिता-एस णं दारिया शिंदू भविस्सति, तते णं सा सुलसा बालप्पभिति चैव हरिणेगमेसी भत्तया याविहोत्था हरिणेगमेसिस्स पडिमं करेति २ कल्ला कल्लिं पहाता जाव पायच्छित्ता उल्लपडसाडया महरिहं पुष्कचणं करेति २ जनुपायपडिया पणामं करेति ततो पच्छा आहारेति वा नीहारेति वा वरति वा, तते णं तीसे सुलसाए गाहा० भत्तिश्रमाणसुस्साए हरिणेगमेसीदेवे आराहिते याचि होत्या, तते णं से हरिणेगमेसी देवे | सुलझाए गाहावइणीए अणुकंपणट्टयाए सुलसं गाहावतिणि तुमं च दोवि समउउयाओ करेति, तते णं तुम्भे दोचि सममेव गन्भे गिन्हह सममेव गन्भे परिवहह सममेव दारए पयायह, तए णं सा सूलसा गाहावतिणी विणिहायमावन्ने दारए पयाइति, तते णं से हरिणेगमेसी देवे सुलसाए अणुकंपणट्ठाते विनिहाय मावण्णए दारए करतलसंपुर्ण गण्हति २ तब अंतियं साहरति २ समयं च णं तुमपि णवण्हं मासाणं० सुकुमालदारए पसवसि, जेवि अ णं देवाणुप्पिए तव पुत्ता तेवि य तब अंतिताओ करयल संपुर्ण गण्हति २ सुलसाए गाहा० अंतिए साहरति, तं तव चैव णं देवइ ! एए पुत्ता णो वेव सुलझाते गाहाव, तते १ 'निंदु'त्ति मृतप्रसविनी, यत्रैते षडप्यनगारास्तत्रोपागच्छति तच सा वन्दत इति । गजसुकुमारस्य कथा For Pasta Use Only ~ 16~ rary org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [3], ---------------------- अध्ययनं [८] ----------------------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक ६] अन्तकृद-18णं सा देवती देवी अरहओ अरिद्व० अंतिए एयमह सोचा निसम्म हहतुट्ठ जाव हियया अरहं अरिहनेमि 31 ३ वर्ग शाने वंदति नमसति २ जेणेच ते छ अणगारा तेणेव उवागच्छति ते छप्पि अणगारा वंदति णमंसति गजसुकु आगतपण्हता पप्फुतलोयणा कंचुयपडिक्खित्तया दरियलयवाहा धाराहयकलंचपुष्फगंपिव समूससिपरो- मारा मकूवा ते छप्पि अणगारे अणिमिसाते दिहीए पेहमाणी २ सुचिरं निरिक्खति २ बंदति णमंसति शीध्ययन जेणेव अरिहा अरिह तेणेव उवाग. अरहं अरिहनेमी तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति २ वदति 81 णमंसति २ तमेव धम्मियं जाणं दुरूहति २ जेणेव बारवतीणगरी तेणेच उवा०२पारवति नगरि अणुप्पवि-द सति २ जेणेव सते गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवाग०२ सा धम्मियातो जाणप्पवरातो पच्चोरुहति २ जेणेव सते वासघरे जेणेव सए सयणिजे तेणेव उवाग०२त्ता सयंसि सयणिज्जंसि निसीयति, दीप अनुक्रम [१३] -SCRECSCG १ भागयपण्हय'ति आगवप्रभवा-पुत्रस्नेहात् स्तनागतस्तन्या 'पप्फुयलोयणेति प्रप्लुते आनन्दजलेन लोचने यस्याः सा तथा 'केचुयपरिक्खित्त'त्ति परिक्षिप्तो विस्तारित इत्यर्थः कञ्चको-वारवाणो हर्षातिरेकस्थूरीभूतशरीरतया यया सा तथा 'दरियवलयवाहत्ति दीर्ण६ वलयौ-हर्षरोमाञ्चस्थूलत्वात् स्फुटितकदको बाहू-भुजौ यस्याः सा तथा प्राकृतत्वेन दरियवलयबाहा 'धाराहयकयंबपुप्फगंपिव समूससिय रोमकूवा' धाराभिः-मेघजलधारामिराहतं यत्कदम्बपुष्पं तदिव समुच्छ्रितानि रोमाणि कूपकेषु यस्याः सा तथा । AAR FarPranamamumony awraanasurary.org मूल-संपादने अत्र एक: मुद्रण-दोष: दृश्यते-शीर्षक-स्थाने सू० ६ स्थाने सू० ५ मुद्रितं गजसुकुमारस्य कथा ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [१], ---------------------- अध्ययनं [८] -------- -------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक तते गं तीसे देवतीते देवीए अयं अन्भत्थिते ४ समुप्पण्णे-एवं खलु अहं सरिसते जाव नलकुब्धरसमाणे सत्त। पुत्ते पयाता, नो चेव णं मए एगस्सवि बालत्तणते समुन्भूते, एसविय णं कण्हे वासुदेवे छहं छह मासाणं ममं अंतियं पायवंदते हव्वमागच्छति, तं धन्नातो णं ताओ अम्माओ जासिं मण्णे णियगकुच्छिसंभूतयाई धणदुद्धलुयाई महुरसमुल्लावयाई मंमणपजंपियाई थणमूलकक्खदेसभागं अभिसरमाणाति मुद्धयाई पुणो य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिहिऊण उच्छंगि णिवेसियाई देंति समुल्लावते सुमहुरे पुणो २ मंजुलप्पभ [६] दीप अनुक्रम [१३] १'अयमभत्थिए त्ति इहैवं दृश्यम्-'अयमेयारूवे अब्भत्थिए चिंतिते पस्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजिस्था' तत्रायमेतद्रूपः आध्यात्मिकः-आत्माश्रितश्चिन्तितः-स्मरणरूपः प्रार्थितः-अमिलापरूपो मनोगतो-मनोविकाररूपः सङ्कल्पो-विकल्पः समुत्पन्नः ।। धण्णाओ गं ताओं' इत्यादि, धन्या धनमर्हन्ति लप्स्यन्ते वा यास्ता धन्या इति, यासामित्यपेक्षया अन्या अम्बा:-नियः पुण्या:पवित्राः कृतपुण्याः कृतार्थाः कृतप्रयोजनाः कृतलक्षणा:-सफलीकृतलक्षणाः 'जासि'ति यासां मन्ये इति वितर्कार्थों निपाता, निजककुक्षि संभूतानि ढिम्भरूपाणीत्यर्थः स्तनदुग्धे लुब्धानि यानि तानि तथा, मधुराः समुल्लापा येषां तानि तथा मन्मनं-अव्यक्तमीपत्स्खलितं प्रजदिल्पितं येषां तानि तथा, स्तनमूलात्कक्षादेशभागमभिसंचरन्ति मुग्धकानि-अत्यव्यक्तविज्ञानानि भवन्तीति गम्यते, पुनश्च कोमलकमलो-18 पमाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्सङ्गे निवेशितानि सन्ति ददति समुल्लापकान सुमधुरान पुनः पुनर्मलप्रभणितान मखुलं-मधुरं प्रभणितभणितिर्येषु ते तथा तान, इह सुमधुरानित्यभिधाय यन्म खुलप्रभणितानित्युक्तं तत्पुनरुक्तमपि न दुष्ट सम्भ्रमभणितत्वादस्पेति, albhasaram.org गजसुकुमारस्य कथा ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [3], ---------------------- अध्ययनं [८] ----------------------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक ॥ अन्तकृद्द- णिते, अहं ने अपना अपुन्ना अकयपुन्ना एस्तो एकतरमपि न पत्ता, ओहय जाव झियायति । हर्म च णं कण्हे ३ वर्ग शाह लवासुदेवे पहाते जाव विभूसिते देवतीए देवीए पायवदते हथ्यमागच्छति, तते णं से कण्हे वासुदेवे देवई देविंद गजसुकु॥८ पासति २ सा देवतीए देवीए पायग्गहणं करेति २ देवती देवीं एवं वदासि-अन्नदा णं अम्मो! तुम्भे ममं मारा पासेत्सा हट्ठ जाव भवह, किपणं अम्मो! अन तुन्भे ओहय जाव झियायह?, तए णं सा देवती देवी ८ध्ययन कण्हं वासुदेवं एवं व०-एवं खलु अहं पुत्ता! सरिसए जाव समाणे सत्त पुत्ते पयाया नो चेव णं मए सू०५ एगस्सवि बालत्तणे अणुभूते तुमंपिय णं पुत्ता! ममं छहं २ मासाणं ममं अंतियं पादवंदते हब्वमा गच्छसि तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयातो जाव झियामि, तए णं से कण्हे वासुदेवे देवतिं देवि एवं व०-मा |तुम्भे अम्मो! ओहय जाव झियायह अहण्णं तेहा घत्तिस्सामि जहा णं ममं सहोदरे कणीयसे भाउए| भविस्सतीतिकट्ठ देवतिं देविंताहिं इटाहिं वरमूहि समासासेतिर ततो पडिनिक्खमति २जेणेच पोसहसाला| दीप अनुक्रम [१३] IMi ॥ ८ 'एत्तोत्ति विभक्तिपरिणामादेषामुक्तविशेषणवतां डिम्भानां मध्यात् एकतरमपि-अन्यतरविशेषणमपि डिम्भं न प्राप्ता इत्यु-13 |पहत्तमनःसङ्कल्पा भूगतदृष्टिका करतले पर्यस्तित्तमुखी ध्यायति । २ वहा पत्तिस्सामिति यतिध्ये 'कणीयसेचि कनीयान्-कविष्ठो | लघुरित्यर्थः । मूल-संपादने अत्र एक: मुद्रण-दोष: दृश्यते-शीर्षक-स्थाने सू० ६ स्थाने सू० ५ मुद्रितं गजसुकुमारस्य कथा ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [३], ------------- अध्ययनं [८] ---------------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक [६] HAMACANSPOORS तेणेव उवा०२ जहा अभओ नवरं हरिणेगमेसिस्स अट्ठमभत्तं पगेण्हति जाव अंजलिं कटु एवं वदासिइच्छामि णं देवाणु सहोदरं कणीयसं भाउयं विदिपण, तते णं से हरिणेगमेसी कण्हं वासुदेवं एवं वदासी-होहिति णं देवाणु तव देवलोयचुते सहोदरे कणीयसे भाउए से णं उम्मुक जाव अणुप्पत्ते अरहतो अरिहनेमिस्स अंतियं मुंडे जाव पब्बतिस्सति, कण्हं वासुदेवं दोबंपि तपि एवं वदति २ जामेव दिसं पाउ० तामेव दिसं पडिगते, तते णं से कण्हे वासु.पोसहसालाओ पडिनि० जेणेव देवती देवी तेणेव। उवा०२ देवतीए देवीए पायग्गहणं करेतिर एवं व०-होहिति णं अम्मो! मम सहोदरे कणीयसे भाउएत्तिकह देवतिं देवि ताहिं इट्ठाहिं जाव आसासेति २ जामेव दिसं पाउन्भूते तामेष दिसं पडिगते । तए णं सा देवती देवी अन्नदा कदाई तंसि तारिसगंसि जाव सीहं सुमिणे पासेत्ता पडिबुद्धा जाव पाढया हद्दहियया दीप अनुक्रम [१३] १ जहा अभओत्ति यथा प्रथमे ज्ञातेऽभयकुमारोऽष्टमं कृतवान् तथाऽयमपीति नवरं-केवलमयं विशेषः अर्थ हरिणेगमैषिण काआराधनाथाष्टमं कृतवान् , स तु पूर्वसङ्गतिकसा देवस्येति, 'विइणति वितीर्ण-दत्तं युष्माभिरिति गम्यते, २ 'संसि तारिसर्गसी'त्यादी। यावत्करणात् शयनसिंहवर्णको सायन्तौ दृश्यौ, 'सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा जाव'त्ति इतो यावत्करणात् दृष्टा तुष्टा स्वभावग्रहं करोति शयनीयात्पादपीठाचावरोहति राक्षे निवेदयति, स तु पुत्रजन्म तत्फलमादिशति, 'पाढगति स्वप्नपाठकानाकारवति, तेऽपि तदेवादिनन्ति, ततो राज्ञा तदादिष्टमुपश्रुत्य परिवहइसि सुखसुखेन गर्भ परिवहतीति द्रष्टव्यमिति, SAREauratona nd M auranorm गजसुकुमारस्य कथा ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [3], ---------------------- अध्ययनं [८] ----------------------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक मारा [६] अन्तकृद-18 परिवहति, तते णं सा देवती देवी नवण्हं मासाणं जासुमणारत्तवंधुजीवतलक्खारससरसपारिजातकतरुणदि-15 ३ वर्ग माझे वाकरसमप्पमं सब्बनयणकंतं सुकुमालं जाव सुरुवं गततालुयसमार्ण दारयं पयाया जम्मणं जहा मेहकुमारे || जाव जम्हा णं अम्हं इमे दारते गततालुसमाणे तं होउ णं अम्ह एतस्स दारगस्स नामधेजे गयसुकुमाले २ ॥९ ॥ तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरे नाम करेंति गयसुकुमालोत्ति सेसं जहा मेहे जाव अलं भोगसमत्थे जाते ८ध्ययन यावि होत्था । तत्थ णं बारबतीए नगरीए सोमिले नामं माहणे परिवसति अहे रिउव्वेद जाव सुपरिनिहिते याचि होस्था, तस्स सोमिलमाहणस्स सोमसिरी नाम माहणी होत्या सूमाल०, तस्स णं सोमिलस्स। धूता सोमसिरीए माहणीए अत्तया सोमानामं दारिया होत्था सोमाला जाव सुरूवा रूवेणं जाव लावणेणं है उकिट्ठा उकिसरीरा यावि होत्या, तते णं सा सोमा दारिया अन्नया कदाइ पहाता जाब विभूसिया | सू०५ दीप अनुक्रम [१३] १'जासुमिणेत्यादि जपा-वनस्पतिविशेषस्तस्याः सुमनसः-पुष्पाणि रक्तबन्धुजीवक-लोहितबन्धुकं तद्धि पञ्चवर्णमपि भवतीति | रक्तमहर्ण लाक्षारसो-यावकः 'सरसपारिजातकम्' अम्लानसुद्धमविशेषकुसुमं 'तरुणदिवाकरः' उदयदिनकरः एतैः समा-एतत्प्रभातु-16 ल्येत्यर्थः प्रभा-वों यस्य स तथा रक्त इत्यर्थः तं, सर्वस्य जनस्य नयनानां कान्त:-कमनीयोऽमिलपणीय इत्यर्थः सर्वनयनकान्तस्तं 'सूमाले'ति 'सुकुमालपाणिपायमित्यादिवर्णको दृश्यो यावत्स्वरूपमिति गजतालुकसमानं कोगलरक्तत्वाभ्यां, २ 'रिउन्नेदे' इत्यादि कम्वेदयजुर्वेदसामवेदाथर्ववेदानां साङ्गोपाङ्गानां सारको धारकः पारग इत्यादिवर्णको यावत्करणाद् दृश्यः, Barasaram.om मूल-संपादने अत्र एक: मुद्रण-दोष: दृश्यते-शीर्षक-स्थाने सू० ६ स्थाने सू० ५ मुद्रितं गजसुकुमारस्य कथा ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) (०८) वर्ग: [३], ... --- अध्ययनं [८] ...... ..... .....-- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: E NCPE+ प्रत सूत्राक बहहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ता सतातो गिहातो पडिनिक्खमति २ जेणेव राधमग्गे तेणेव उवा०२ रायमगंसि कणगतिंदूसएणं कीलमाणी चिट्ठति । तेणं कालेणं २ अरहा अरिहनेमी समोसढे परिसा निग्गया, तते णं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लढे समाणे पहाते जाब विभूसिए गयसुकुमालेणं कुमारणं सद्धिं हत्धिखंधवरगते सकोरंट छत्तेणं घरेजमाणेणं सेअवरचामराहिं उडुब्वमाणीहिं पारवईए नयरीए मज्झमज्झेणं अरहतो अरिहनेमिस्स पायबंदते णिग्गच्छमाणे सोमं दारियं पासति २ सोमाए दारि-| याए स्वेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य जाव विम्हिए, तए णं कण्हे कोडंबियपुरिसे सहावेइ २ एवं व०गच्छह णं तुम्भे देवाणु सोमिलं माहणं जायित्ता सोमं दारियं गेहह २ कन्नतेउरंसि पक्खिवह, तते णं एसा गयसुकुमालस्स कुमारस्स भारिया भविस्सति, तते णं कोटुंबिय जाव पक्खिवंति, तते णं से कण्हे| वासुदेवे बारवतीए नगरीए मज्झमझेणं णिग्गच्छति णिग्गच्छित्ता जेणेव सहसंबवणे उज्वाणे जाच पजुवासति, तते णं अरहा अरिहनेमी कण्हस्स वासुदेवस्स गयसुकुमालस्स कुमारस्स तीसे य धम्मकहाए कण्हे पडिगते, तते णं से गयमुकुमाले अरहतो अरिट्ट० अंतियं धम्मं सोचा जं नवरं अम्मापियरं आपुच्छामि [६] SCARX*** * दीप अनुक्रम [१३] SSA ******* १'बाहिं' इत्यत्र बहीभिः कुन्जिकाभिः यावत्करणाद्वामनिकामिः चेटिकाभिः परिक्षिप्ता इत्यादिवर्णको दृश्यः । murary.om गजसुकुमारस्य कथा ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [१], ----------------------- अध्ययनं [८] -------- -------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत अन्तकृह- शाङ्ग सुत्रांक ॥१०॥ " जहा मेहो महेलियावजं जाव वढियकुले, तते णं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए ल? समाणे जेणेव । IM३ वर्गे गयसुकुमाले तेणेव उवागच्छति २ गयसुकुमालं आलिंगति २ उच्छंगे निवेसेति २एवं वदासि-तुम मम । गजमुकुसहोदरे कणीयसे भाया तं मा णं तुम देवाणु इयाणि अरहतो मुंडे जाव पब्वयाहि, अहण्णं बारवतीए । मारा नयरीए महया २रायाभिसेएणं अभिसिंचिस्सामि, तते णं से गयसुकुमाले कण्हेणं वासुदेषेण एवं मुसामध्ययन समाणे तुसिणीए संचिट्ठति, तए णं से गयसुकमाले कण्हं वासुदेवं अम्मापियरो य दोपि तचंपि एवं वाद -एवं खलु देवाणु माणुस्सया कामा खेलासवा जाब विप्पजहिपव्वा भविस्संति, तं इच्छामि पं देवा-IN प्पिया! तुम्भेहिं अन्भणुन्नाये अरहतो अरिट्ठ० अंतिए जाव पब्वइत्तए, तते णं तं गय सुकुमालं कण्हे वासु अम्मापियरो य जाहे नो संचाएति पहुयाहिं अणुलोमाहिं जाव आघवित्तते ताहे अकामाई चेव एवं ४ सू०५ दीप अनुक्रम [१३] १ 'जहा मेहो महेलियावर्जति यथा प्रथमे ज्ञाते मेघकुमारो मातापितरौ सम्बोधयति एवमयमपि, केवलं तत्र मात्रा तं प्रतीदमुक्त-18 एतास्तव भार्याः सहगवयसः सदृशराजकुलेभ्य आनीता भुङ तावदेताभिः सार्द्ध विषयसुखमित्यादि तदिह न वक्तव्यं, अपरिणीतत्वात्तिस्य, कियत्ततव्यम् । इत्याह-जाव वड़ियकुले'त्ति वं जातोऽस्माकमिष्टपुत्रो नेच्छामस्त्वया वियोगं सोई ततो भा भोगान् याव द्वयं जीवाम इत्यत आरभ्य यावदस्मासु दिवं गतेषु परिणतवयाः वर्द्धिते कुलवंशतन्तुकायें निरपेक्षः सम् प्रजिष्यसीति । २ 'खेलासवाई दाह यावत्करणात 'सुकासवा सोणियासवा' यावदवश्यं विप्रहातव्याः, ३ 'आपवित्तए'त्ति आण्यातुं भणितुमित्यर्थः । aimitaram.org मूल-संपादने अत्र एक: मुद्रण-दोष: दृश्यते-शीर्षक-स्थाने सू० ६ स्थाने सू० ५ मुद्रितं गजसुकुमारस्य कथा ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [३], ----------------------- अध्ययनं [८] -------------------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: KARAN प्रत बदासी-तं इच्छामो णं ते जाया! एगदिचसमवि रज्जसिरिं पासित्तए निक्खमणं जहा महाबलस्स जाव तमाणाते तहा तहा जाव संजमित्तते, से गय. अणगारे जाते ईरिया जाव गुत्सबंभयारी, तते णं से गयसुकुमारे जं चेव दिवसं पब्वतिते तस्सेव दिवसस्स पुब्बावरणहकालसमयंसि जेणेव अरहा अरिहनेमी सूत्राक [६] - दीप अनुक्रम [१३] निक्षमणं जहा महाबळस्स' यथा भगवल्या महावलस्य निष्कमर्ण राज्याभिषेकशिविकारोहणादिपूर्वकमुक्तमेषमस्यापि वाच्यं, | किभन्तम् ? इत्याह-जाव तमाणाए वहा २ जाव संजमदत्ति तस्य प्रत्रजितस्य किल भगवानुपदिशति स्म-एवं देवाणुप्पिया! गंतव्यं चिट्ठियध्वं निसीयब्वं तुयट्टियन्वं मुंजियव्वं भासियठवं एवं उढाए २ पाणेहिं भूतेहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेण संजमियचं अस्सिं च णं अडे नो पमाएयव्यं, वए णं गयसुकुमारे अणगारे अरहओ अरिट्टनेमिस्स अतिए इस एयारूवं धम्मियं उवएसं सम्म पडिक्छति तमाणाए तह गच्छइ तह चिट्ठति तह निसीयति तह तुयट्ठति तह भुंजति तह उट्ठाए २ पाणेहि ४ संजमेणं संजमई'। २ 'जं चेव दिवसं पञ्चइते' इत्यादि, यदिह तदिनप्रव्रजितस्यापि गजसुकुमारमुनेः प्रतिमाप्रतिपत्तिरभिधीयते तत्सर्वज्ञेनारिष्टनेमिनोपदिष्टवादविरुद्धमितरथा प्रति. माप्रतिपत्तावयं न्यायो यथा---'पडिवजाइ एयाओ संघयणधिईजुओ महासत्तो । पडिमाओ भावियप्पा सम्मं गुरुणा अणुनाओ ॥ १॥ गच्छेच्चिय निम्माओ जा पुज्वा दस भवे असंपुन्ना। नवमस्स तइयवत्थु होइ जहन्नो सुयामिगमो ॥ २॥" [प्रतिपद्यते एताः संहननधृतियुतो महासत्त्वः । प्रतिमा भावितात्मा सम्यग् गुरुणाऽनुज्ञातः ॥ १॥ गच्छे एवं निर्मातः यावत् पूर्वाणि दश भवेयुरसंपूर्णानि । नवमस्य तृतीयवस्तु भवति जघन्यः श्रुताधिगमः ॥ २॥] इति, * - CSC * अनु.४ -% Juniorary.com गजसुकुमारस्य कथा ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [3], ---------------------- अध्ययनं [८] ----------------------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक 1८ध्ययन अन्तकृत- तेणेव पवा०२ अरह अरिहनेमी तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं वंदति णमंसति २ एवं वदासि-इच्छामि वर्ग शाङ्के भंते! तुम्भेहिं अन्भणुण्णाते समाणे महाकालंसि सुसाणंसि एगराइयं महापडिमं उवसंपजित्ता णं गजसुकुविहरेत्तते, अहासुहं देवाणु, तते णं से गय अण. अरहता अरिह. अन्भणुनाए समाणे अरहं अरि- मारा रहनेमी वंदति णमसति २ अरहतो अरिह० अंति० सहसंबवणाओ उजाणाओ पडिणिक्खमति २ जेणेवा महाकाले सुसाणे तेणेव उवागते २ थंडिल्लं पडिलेहेति २ उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेति २ईसिंपन्भारगएणं कारणं जाव दोवि पाए साइड एगराई महापडिम उवसंपविताणं विहरति, इमं च णं सोमिले माहणे द सामिधेयस्स अहाते चारवतीओ नगरीओ बहिया पुव्वणिग्गते समिहातो य दन्भे य कुसे य पत्तामोडं च |गण्हति २ ततो पडिनियत्तति २ महाकालस्स सुसाणस्स अदूरसामंतेणं वीईवयमाणे २ संझाकालसमयसि पविरलमणुस्संसि गयसुकुमालं अणगारं पासति २तं वरं सरति २ आसुरुत्ते ५ एवं व०-एस णं भो। से गयसूमाले कुमारे अप्पत्थिय जाच परिवज्जिते, जे णं मम धूयं सोमसिरीए भारियाए असपं सोमं 8 दीप अनुक्रम [१३] १'ईसिपम्भारगएणति ईघदवनतबदनेन 'जाव'त्ति करणात् एतद्रष्टव्यं 'वग्धारियपाणी' प्रलम्बभुज इत्यर्थः 'अणिमिसनयणे सुकपोग्गलनिरुद्धविट्ठीं। २ 'सामिधेयस्स'त्ति समित्समूहस्य 'समिहात्ति इन्धनभूताः काठिकाः दिन्भेत्ति समूलान दर्भान् 'कुसे त्ति दर्भापाणीति 'पत्तामोडयं चत्ति शाखिशाखाशिखामोटितपत्राणि देवतार्चनार्थीनीत्यर्थः, SARELIEatun international गजसुकुमारस्य कथा ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) (०८) वर्ग: [१], ........................- अध्य यन [८] --------------- -- मूल [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत । सूत्राक [६] दारियं अदिट्ठदोसपइयं कालवत्तिणि विप्पजहेत्ता मुंडे जाव पब्बतिते, ते सेयं खलु ममं गयसुकुमालस्स कुमारस्स वेरनिजायणं करेत्तते, एवं संपेहेति २ दिसापडिलेहर्ण करेति २ सरसं महियं गेहति जेणेव गयसूमाले अणगारे तेणेव उवा० २ गयसूमालस्स कुमारस्स मत्थए मट्टियाए पालिं बंधइ २ जलतीओ चिययाओ फुल्लियर्किसुयसमाणे खयरंगारे कहल्लेणं गेण्हइ २ गयसमालस्स अणगारस्स मत्थए पक्खिपति |२ भीए ५ तओ खिप्पामेव अवकमह२ जामेव दिसं पाउन्भूते, तते णं तस्स गयसूमालस्स अणगारस्स सरी-11 रयंसि यणा पाउन्भूता उजला जाव दुरहियासा, त० से गय० अणगारे सोमिलस्स माहणस्स मणसाविहू अप्पदुस्समाणे तं उज्जलं जाय अहियासेति, तए णं तस्स गय. अणतं उजलं जाव अहियासेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं पसस्थज्झवसाणेणं तदावरणिज्जाणं कम्माणं खएणं कम्मरयविकिरणकरं अपुव्वकरण दीप अनुक्रम [१३] १ 'अदिट्ठदोसपइयं ति दृष्टो दोषत्रौर्यादिर्यस्याः सा तथा सा चासौ पतिता च-जात्यादेवहिष्कृतेति दृष्टदोषपतिता न तथेत्यदृष्टदोषपतिता, अथवा न दृष्टदोषपतितेत्यदृष्टदोषपतिता, कालवत्तिणिन्ति काले-भोगकाले यौवने वर्तत इति कालवर्तिनी 'विप्पजहित्ता विप्रहाय । २ 'फुल्लियकिसुयसमाणे'त्ति विकसितपलाशकुसुमसमानान् रक्तानित्यर्थः 'खादिराजारान्' खदिरवारुविकारभूताङ्गारान् | |'कमल्लेणं' कापरेण । ३ उजला अलार्थ यावत्करणादहव एकार्थाः विपुला तीब्रा चण्डा प्रगाढा कड़ी कर्कशा इत्येवलक्षणा द्रष्टव्याः। 'अप्पदुस्समाणे ति अप्रद्विषन्-द्वेषमगच्छन्नित्यर्थः। ५ 'कम्मरयविकिरणकर' कर्मरजोवियोजकम् 'अपुरुवकरण'ति अष्टमगुणस्थानकम् । MEnada A nsuranmaru गजसुकुमारस्य कथा ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [३], ------------------------ अध्ययनं [८] --------------------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ३ वर्गे प्रत सूत्राक अन्तकृह- अणुपविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे, ततो पच्छा सिद्धे जावप्पहीणे, तत्थ णं शारे अहासंनिहितेहिं देवेहिं सम्मं आराहितंतिकहु दिब्वे सुरभिगंधोदए बुढे वसद्धवन्ने कुसुमे निवाडिते चेलुक्खेवे| | गजमुकुकए दिव्ये य गीयगंधब्वनिनाये कए पावि होत्था । तते णं से कण्हे वासुदेवे कलं पाउपभायाते जाव जलते 5 मारा ॥१२॥ हाते जाव विभूसिए हथिर्खधवरगते सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरेज सेयबरचामराहिं उडुब्वमाणीहिं ८ध्ययन महया भडचडगरपहकरवंदपरिक्खित्ते बारवर्ति गरिं मज्झमझेणं जेणेव अरहा अरिहतेणेव पहारस्थ सू०६ है गमणाए, तते णं से कण्हे वासुदेवे बारवतीए नयरीए मज्झमज्झेणं निग्गच्छमाणे एकं पुरिसं पासति जुन्नं | जराजजरियदेहं जाव किलंतं मह तिमहालयाओ इगरासीओ एगमेगं इट्टगं गहाय बहियारत्धापहातो, अंतोगिहं अणुप्पविसमाणं पासति, तए णं से कण्हे वासुदेवे तस्स पुरिसस्स अणुकंपणट्ठाए हत्थिखंधवरगते दीप अनुक्रम [१३] १ 'अणंते' इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-'अणुत्तरे निवाघाए निरापरणे कसिणे पडिपुन्नेति। २ सिद्धे' इह यावत्करणात् बुद्ध मुत्ते परिनिव्वुए'त्ति दृश्य, ३ 'गीतगंधवनिनाए'त्ति गीतं सामान्य गन्धर्व तु मृदङ्गादिनादसम्मिश्रमिति, ४ भदचडगपहकरवंदपरिक्खित्ते' भटानां ये घटकराहकरा-विस्तारवत्समूहास्तेषां यद्वन्दं तेन परिक्षिप्तः । ५ 'पहारेत्य गमणाएं सि गमनाय संप्रधारितवानित्यर्थः। ६ 'जुन्न' इह यावत्करणात् 'जराजजरियदेहं आउर झुसिय' बुभुक्षितमित्यर्थः 'पिवासियं दुचलं' इति द्रष्टव्यमिति । ७ 'महइभहालयाउत्ति महातिमहतः इष्टकाराशेः सकाशात् , ॥१२॥ SAREauratonintamational गजसुकुमारस्य कथा ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [१], ---------------------- अध्ययनं [८] -------- -------- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत 42 सूत्राक [६] दीप अनुक्रम [१३] चेव एग इगं गेहति २ बहिया रत्थापहाओ अंतोगिह अणुप्पवेसेति, तते णं कण्हेणं वासुदेवेणं एगाते भाइहगाते गहिताते समाणीते अणेगेहिं पुरिससतेहिं से महालए इगस्स रासी बहिया रत्थापहातो अंतो8 घरंसि अणुप्पवेसिए, तते णं से कण्हे वासुदेवे वारवतीए नगरीए मजझमज्झेणं णिग्गच्छति २ जेणेव अहै रहा अरिहनेमी तेणेव उवागते २जाव बंदति णमंसति २ गयसुकुमालं अणगारं अपासमाणे अरहं अरिहुनेमि वंदति णमंसति २ एवं व०-कहिणं भंते! से ममं सहोदरे कणीयसे भाया गयसुकुमाले अणगारे जाणं अहं चंदामि नमसामि, तते णं अरहा अरिट्ठनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वदासि-साहिए णं कण्हा गयहै सुकुमालेणं अणगारेणं अप्पणो अहे, तते णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिहनेमि एवं वदासि-कहणं Pभंते! गयसूमालेणं अणगारेणं साहिते अप्पणो अहे?, तते णं अरहा अरिहनेमी कण्ह वासुदेवं एवं व० एवं खलु कण्हा! गयसुकुमालेणं अणगारे णं ममं कल्लं पुथ्वावरण्हकालसमयंसि बंदइ णमंसति २एवं 4०६ इच्छामि णं जाव उवसंपज्जित्ताणं विहरति, तए णं तं गयसुकुमालं अणगारं एगे पुरिसे पासति २ आसुरुत्ते| जाव सिद्धे, तं एवं खलु कण्हा! गयसुकुमालेणं अणगारेणं साहिते अप्पणो अढे २, तते णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्टनेमि एवं व०-केस णं भंते! से पुरिसे अप्पत्थियपत्थिए जाव परिवजिते जेणं ममं सहोहैदरं कणीयसं भायरं गयसुकुमालं अणगारं अकाले चेव जीवियातो ववरोविते, तए णं अरहा अरिहनेमी कण्हं वासुदेवं एवं व०-मा णं कण्हा! तुम तस्स पुरिसस्स पदोसमावजाहि, एवं खलु कण्हा! तेणं पुरि गजसुकुमारस्य कथा ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) ཋཏྠུཾཡྻ अनुक्रम [१३] “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) वर्ग: [३], अध्ययनं [C] मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अन्तकृदशाने ॥ १३ ॥ गजसुकुमारस्य कथा सेणं गयसुकुमालस्स अणगारस्स साहिजे दिने, कण्णं भंते! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स णं साहेज्जे दिने?, तप णं अरहा अरिट्ठनेमी कण्हं वासुदेवं एवं व०-से नूणं कण्हा ! ममं तुमं पायबंद हव्वमागच्छमाणे वारवतीए नयरीए पुरिसं पाससि जाव अणुपविसिते, जहा णं कण्हा! तुमं तस्स पुरिसस्स साहिज्जे दिने एवमेव कण्हा! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स अणगारस्स अणेगभवसय सहस्वसंचितं कम्मं उदीरेमाणेणं बहुकम्मणिज्जरत्थं साहिज्जे दिन्ने, तते णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिनेमिं एवं व० - से णं भंते! पुरिसे मते कह जाणियव्वे ?, तए णं अरहा अरिह० कण्डं वासुदेवं एवं व० - जे णं कण्हा! तुमं पारवतीए नयरीए अणुपविसमाणं पासेत्ता ठितए चैव ठितिभेएणं कालं करिस्सति तण्णं तुमं जाणेज्जासि एस णं से पुरिसे, तते णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिहनेमिं वंदति नम॑सति २ जेणेव आभिसेयं हस्थिरयणं तेणेव उवा० २ हस्थि दुरूहति २ जेणेव बारवती नगरी जेणेव सते गिहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तस्स सोमिल| माहणस्स कलं जाव जलते अयमेयारूवे अम्भस्थिए ४ समुप्पन्न एवं खलु कण्हे वासुदेवे अरहं अरिद्वनेमिं पायबंदए निग्गते तं नायमेयं अरहता विनायमेयं अरहता सुतमेयं अरहता सिमेयं अरहया भविस्सइ १ ‘बहुकम्मनिज्जरत्थसाहिज्जे दत्ते त्ति प्रतीतमिति । २ 'भेदेणं'ति आयुः क्षयेण मयाध्यवसानोपक्रमेणेत्यर्थः । ३ 'तं नायमेय अरहय'त्ति तदेवं ज्ञातं सामान्येन एतद्गज सुकुमालमरणमईता - जिनेन 'सुवमेयं ति स्मृतं पूर्वकाले ज्ञातं सत् कथनावसरे स्मृतं भविष्यति विज्ञातं- विशेषतः सोमिलेनैवमभिप्रायेण कृतमेतदित्येवमिति शिष्टं कृष्णवासुदेवाय प्रतिपादितं भविष्यतीति । For Penalise On ~ 29~ ३ वर्गे गजसुकुमारा ८ ध्ययनं सू० ६ ॥ १३ ॥ waryra Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [&] दीप अनुक्रम [१३] “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) वर्ग: [३], अध्ययनं [C] मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Earatont गजसुकुमारस्य कथा कण्हस्स वासुदेवस्स, तं न नज्जति णं कण्हे वासुदेवे ममं केणवि कुमारेणं मारिस्सतित्तिक भीते ४ सयातो गिहातो पडिनिक्स्वमति, कण्हस्स वासुदेवस्स बारवतिं नगरिं अणुपविसमाणस्स पुरतो संपक्खि सपडिदिसिं हव्वमागते, तते गं से सोमिले माहणे कण्हं वासुदेवं सहसा पासेत्ता भीते ४ ठिते य चैव ठितिभेयं कालं करेति धरणितलंसि सव्वंगेहिं घसत्ति संनिवडते, तते णं से कण्हे वासुदेवे सोमिलं माहणं पासति २ एवं व० - एस णं देवाणुप्पिया से सोमिले माहणे अप्पत्थियपत्थिए जाव परिवज्जिते जेण ममं सहोयरे कनीयसे भायरे गयसुकुमाले अणगारे अकाले चेव जीवियाओ बबरोविएत्तिकद्दु सोमिलं माहणं पाणेहिं कहावेति २ तं भूमिं पाणिएणं अन्भोक्खावेति २ जेणेव सते गिहे तेणेव उवागते सवं गिहं अणुपविट्ठे, एवं खलु जंबू ! जाव स० अंत० तचस्स वग्गस्स अट्ठमज्झयणस्स अयमट्टे पन्नत्ते (सू० ६) नवमस्स व उक्खेबओ, एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं २ बारवतीए नयरीए जहा पदमए जाव विहरति, तत्थ णं बारवतीए बलदेवे नामं राया होत्था बन्नओ, तस्स णं बलदेवस्स रनो धारिणीनामं देवी होत्था वन्नओ, तते णं सा १ ‘सपर्विख सपडिदिसि'ति सपक्षं समानपार्श्वतया सप्रतिदिक्--समानप्रतिदिक्तया अत्यर्थमभिमुख इत्यर्थः, अभिमुखागमने हि परस्परसमावेव दक्षिणवामपार्श्वे भवतः, एवं विदिशावपीति । २ एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं अट्टमस्स अंगरस अंतगढदसाणं तचस्स वग्गस्स अट्टमस्स अज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्तेत्तिबेमी'ति निगमनम् एवमन्यानि पञ्चाध्ययनानि, एवमेतैस्त्रयोदशभिस्तृतीयो वर्गों निगमनीयः । For Park Use Only ~30~ nirary org Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [ ७, ८] दीप अनुक्रम [१४-१७] वर्ग: [३, ४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित अन्तकृदशाहे ॥ १४ ॥ “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [९-१३, १-१०] मूलं [७,८] आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Eticati धारिणी सीहं सुमिणे जहा गोयमे नवरं सुमुहे नामं कुमारे पन्नासं कन्नाओ पन्नासदाओ चोदसपुब्बा अहिज्जति वीसं वासाई परियातो सेसं तं चैव सेतु सिद्धे निक्खेवओ । एवं दुम्मुहेवि कूवदारएवि, तिन्निवि बलदेवघारिणीसुया, दारुएवि एवं चैव, नवरं वसुदेवधारिणिसुते । एवं अणाधिट्ठीवि वसुदेवधारिणीसुते, एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव सं० अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं तचस्स वग्गस्स तेरसमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नन्ते ३, (सू० ७ ) जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्सेणं तच्चस्स वग्गस्स अयमठ्ठे पं० चत्थस्स के अट्ठे पन्नत्ते ?, एवं खलु जंबू सम० जाव सं० चउत्थस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पन्नत्ता, तं० जालि १ | मयालि २ उबयाली ३ पुरिससेणे व ४ वारिसेणे य ५ । पज्जुन ६ संव ७ अनिरुद्धे ८ सचनेमी य ९ दढनेमी १० ॥ १ ॥ जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं चत्थस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पन्नत्ता पदमस्स णं | अक्षयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते १, एवं खलु जंबू । तेणं का० बारवती नगरी तीसे जहा पढने कण्हे वासुदेवे आहेवचं जाव विहरति, तत्थ णं बारवतीए णगरीए वसुदेवे राया धारिणी वन्नतो जहा गोयमो नवरं जालिकुमारे पन्नासतो दातो बारसंगी सोलस वासा परिताओ सेसं जहा गोयमस्स जाव सेतु सिद्धे । एवं मयाली उचयाली पुरिससेणे य वारिसेणे य। एवं पज्जुन्नेवित्ति, नवरं कण्हे पिया रुपिणी माता । एवं संवेवि, नवरं जंबवती माता । एवं अनिरुद्धेवि नवरं पज्जुने पिया वेदम्भी माया । एवं सचनेमी, नवरं समुदविजये पिता सिवा माता, दढनेमीवि, सब्बे एगगमा, चउत्थवग्गस्स निक्खेवओ। (सू०८) जति णं भंते! For Parts Only ~ 31~ ४ वग गजसुकुभारा ८ ध्ययनं सू० ७-८ ॥ १४ ॥ nsibrary org Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) (०८) वर्ग: [५], ............-- अध्ययनं [१] --. ..- मूलं [९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक SANTOS गाथा समजाव सं० चउत्थस्स वग्गस्स अयमढे पन्नत्ते पंचमस्स चग्गस्स अंतकडदसाणं समणेणं जाव सं०के अहे पं०१, एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स वग्गस्स दस अज्झ०५०,-पउमावती १ य गोरी २ ४ गंधारी ३ लक्खणा४ सुसीमा५ या जंबवह ६ सचभामा ७ रूप्पिणि८ मूलसिरि९ मूलदत्तावि१०॥१॥ जति णं भंते! पंचमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पं०, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स के अहे पं०?, एवं जंबू! तेणं । कालेणं २ बारवती नगरी जहा पढमे जाव कण्हे वासुदेवे आहे. जाव विहरति, तस्स णं कण्हस्स चामु०। पउमावती नाम देवी होत्था बन्नओ, तेणं कालेणं २ अरहा अरिट्टनेमी समोसढे जाव विहरति, कण्हे वासुदेवे णिग्गते जाव पलवासति, तते णं सा पउमावती देवी इमीसे कहाए लट्ठा हह जहा देवती जाव पज्जुवासति, तए णं अरिहा अरिट्ट कण्हस्स वासुदेवस्स पउमावबीए य धम्मकहा परिसा पडिगता, तते गं कण्हे. अरहं अरिष्टनेमि वंदति णमंसति २ एवं व०-इमीसे णं भंते। बारवतीए नगरीए नवजोयण जाव देवलोगभूताए किंमूलाते विणासे भविस्सति ?, कण्हाति। अरहं अरिह. कण्हं वासु० एवं व०-एवं खलु कण्हा! इमीसे बारवतीए नयरीए नवजोयण जाव भूयाए मुरग्गिदीवायणमूलाए विणासे भविस्सति, क १ चतुर्थे वर्गे दशाध्ययनानि, पञ्चमेऽपि तथैव, तत्र प्रथमे 'सुरग्गिदीवायणमूलापत्ति सुरा च-मयं कुमाराणामुन्मत्तताकारणं अग्निश्च-अग्निकुमारदेवसन्धुक्षितो द्वीपायनश्व-सुरापानमत्तयुष्मत्कुमारखलीकृतः कृतनिदानो बालतपस्वी सम्प्राप्ताग्निकुमारदेवत्वः एते मूलकारणं यस्य विनाशस्य स तथा, अथवा सुरश्चासावग्निकुमारश्चाग्निदाता द्वीपायनश्चेति सुराग्निद्वैपायनः शेषं तथैव । - - - OOSSASSADOR दीप अनुक्रम [१८-२०] - -SEX REaratimund पद्मावती-आदिनाम् प्रव्रज्या-कथा ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [५], ............-- अध्ययनं [१] --. ..- मूलं [९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत अन्तकृदशाओं सूत्रांक १५॥ हस्स वासुदेवस्स अरहतो अरिह अंतिए एवं सोचा निसम्म एवं अन्भत्थिए ४-धन्ना णं ते जालिमयालि-13/५ वर्ग पुरिससेणवारिसेणपज्जुन्नसंवअनिरुडढनेमिसचनेमिप्पभियतो कुमारा जे णं चइत्ता हिरनं जाष परिभा-1 सर्वेषां प्रएता अरहतो अरिष्टनेमिस्स अंतियं मुंडा जाव पव्वतिया, अहण्णं अधन्ने अकयपुन्ने रजे य जाच अंतेउरे या व्रज्यानुज्ञा माणुस्सपसु य कामभोगेसु मुच्छिते ४ नो संचाएमि अरहतो अरिट्ट जाव पन्वतित्तए, कण्हाइ! अरहा अ- ध्ययनं रिट्ठनेमी कण्हं वासुदेवं एवं व०-से नूर्ण कण्हा! तव अयमन्भस्थिए ४-धन्ना णं ते जाव पव्वतिसते, सेन सू०९ नूणं कण्हा! अहे समढे?, हंता अस्थि, तं नो खलु कण्हा! तं एवं भूतं वा भव्वं पा भचिस्सति वा जन्नं वासुदेवा चइत्ता हिरनं जाव पब्वइस्संति, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचह-न एयं भूयं वा जाव पब्बतिस्संति?, कण्हाति! अरहा अरिहनेमी कण्हं वासुदेवं एवं 4०-एवं खलु कण्हा! सब्वेवि य णं वासुदेवा पुव्यभवे निदाणकडा, से एतेणटेणं कण्हा! एवं बुञ्चति-न एवं भूयं० पब्वइस्संति, तते णं से कण्हे चामु० अरहं अरिट्ठ एवं व०-अहं णं भंते। इतो कालमासे कालं किचा कहिं गमिस्सामि? कहिं उववज्जिस्सामि?, तते णं अरिहा अरिट्ट कण्हं वासु एवं व०-एवं खल्लु कण्हा! बारवतीए नयरीए सुरदीवायणकोवनिड्डाए अम्मापिइनियगविप्पटणे रामेण बलदेवेण सद्धिं दाहिणवेयालिं अभिमुहे जोहिडिल्लपामोक्खाणं पंचण्हं 4-1॥१५॥ गाथा दीप अनुक्रम [१८-२०] १ 'परिभाइत्ता' इह 'दाणं च दाइयाण'ति संस्मरणीयं । पद्मावती-आदिनाम् प्रव्रज्या-कथा ~33~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) (०८) वर्ग: [५], ............-- अध्ययनं [१] --. ..- मूलं [९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक डवाणं पंडरायपुत्ताणं पासं पंहुमहुरं संपस्थिते कोसंबवणकाणणे नग्गोहवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टए। पीतवत्यपच्छाइयसरीरे जरकुमारेणं तिक्खेणं कोदंडविप्पमुक्केणं इसुणा वामे पादे विद्धे समाणे कालमासे कालं किचा तचाए वालुयप्पभाए पुढबीए उजलिए नरए नेरइयत्ताए उववजिहिसि, तते णं कण्हे वासुदेवे। अरहतो अरिट्ठ. अंतिए एयमढे सोचा निसम्म ओय जाव झियाति, कण्हाति! अरहा अरिढ० कण्हं वासुदेवं एवं वदासि-मा णं तुम देवाणुप्पिया! ओहय जाच झियाहि, एवं खलु तुमं देवाणु तच्चातो पुढदावीओ उज्जलियाओ अणंतरं उच्चहिसा इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे आगमेसाए उस्सप्पिणीए पुंडेसु जणव-15 तेसु सयदुवारे बारसमे अममे नाम अरहा भविस्ससि, तत्थ तुमं बहई वासाई केवलपरियागं पाषणेसा सिजिझहिसि ५, तते णं से कण्हे वासुदेव अरहतो अरिट्ट अंतिए एपमहं सोचा निसम्म हहतुट्ठ० अप्फोडेति २ बग्गति २ तिवतिं छिंदति २ सीहनायं करेति २ अरहं अरिट्टनेमि वंदति णमंसति २ तमेव अभि सेकं हत्थि दुरूहति २ जेणेव पारवती णगरी जेणेव सते गिहे तेणेव उवागते अभिसेयहत्थिरयणातो पचो8|कहति जेणेव बाहिरिया उवहाणसाला जेणेव सते सीहासणे तेणेव उवागच्छति २ सीहासणवरंसि पुरत्था गाथा दीप अनुक्रम [१८-२०] कोसंबवणकाणणे पाठान्तरेण 'कासंबकाणणे 'पुढविन्ति 'पुढवीसिलापट्टए'त्ति दृश्य, 'पीयवत्य'ति 'पीयवत्वपच्छादियसरीरे'त्ति श्य । २ तिवईन्ति त्रयाणां पदानां समाहारत्रिपदी-मल्लस्येव रङ्गभूमौ पदत्रयविन्यासविशेषस्ता छिनत्ति-करोति । SAREauratond n a M msurary on पद्मावती-आदिनाम् प्रव्रज्या-कथा ~34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) (०८) वर्ग: [५], ............-- अध्ययनं [१] --. ..- मूलं [९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत अन्तकृद्द- शाङ्गे ५ वर्ग सर्वेषां प्रज्यानुज्ञा सुत्राक ॥१६॥ ८ध्ययन भिमुहे निसीयति २ कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति २ एवं व-गच्छह णं तुन्भे देवाणु ! बारवतीए नयरीए सिंघाडग जाव उवघोसेमाणा एवं वपह-एवं खलु देवाणुप्पिया! बारवतीए नयरीए नवजोपण जाव भूयाए सुरग्गिदीवायणमूलाते विणासे भविस्सति, तं जो णं देवा! इच्छति चारवतीए नयरीए राया वा जुवरापा वा ईसरे तलचरे माडंबियकोटुंबिय इन्भसेट्ठी वा देवी वा कुमारो वा कुमारी वा अरहतो अरिहनेमिस्स अंतिए मुंडे जाव पव्वइत्तए तं नं कण्हे वासुदेवे विसज्जेति, पच्छातुरस्सवि य से अहापवित्तं विति अणुजाणति महता इड्डीसकारसमुदएण य से निक्खमणं करेति, दोचंपि तचंपि घोसणयं घोसेह २ मम एयं| पञ्चप्पिणह, तए णं ते कोटुंबिय जाव पचप्पिणंति, तते णं सा पउमावती देवी अरहतो० अंतिए धर्म सोचा निसम्म हट्ठ तुह जाब हियया अरहं अरिहनेमी चंदति णमंसति २एवं वयासी-सहहामि णं भंते ! णिग्गंध पावयणं से जहेतं तुन्भे बदह जं नवरं देवाणु01 कण्हं वासुदेवं आपुच्छामि, तते णं अहं देवा० अंतिए कटCACACRACK गाथा 45ORLSSSS दीप अनुक्रम [१८-२०] १ राजा-प्रसिद्धो राजा युवराज:-राज्या: ईश्वरः प्रभुरमात्यादिः तलवरो-राजवल्लभो राजसमानः माउम्बिकः-मडग्थाभिधानसनिवेशविशेषस्थामी कौटुम्बिका-द्विधाविकुटुम्बनेता इभ्यादयः प्रतीताः। पच्छाउरस्सवित्ति 'पच्छत्ति प्रमजता वद्विमुक्तं कुटुम्बकं तन्निका दार्थमातुर:-साबाधमानसो यस्तस्यापि यथाप्रवृत्ता-यथाप्ररूपितां वृत्ति-आजीवनम् 'अनुजानाति पूर्ववददाति न पुनरियर्जकस्य प्रत्र-1 जितत्वेन पाश्चात्यनिर्वाह्यतत्कुटुम्बस्य तामपहरतीति । पद्मावती-आदिनाम् प्रव्रज्या-कथा ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [५], --------------------- अध्ययनं [१] --------------------- मूलं [९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक +NE RECESS गाथा मुंडा जाव पब्वयामि, अहासुहं०, तसा पउमावती देवी धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहति २ जेणेव पारवती मगरी जेणेव सते गिहे तेणेव उवागच्छति २ धम्मियातो जाणातो पचोरुभति २ जेणेव कण्हे वासुदेचे ते ७० करयल कहु एवं घ०-इच्छामि णं देवाणु तुम्भेहिं अन्भणुण्णाता समाणी अरहतो अरिष्टनेमिस्स अंतिए मुंडा जाय पब्ब०, अहासुहं, तए णं से कण्हे वासुदेवे को९वितेसद्दावेति २ एवं व०-खिच्पामेव पउमावतीते महत्थं निक्खमणाभिसेयं उबट्टवेह २ एपमाणत्तियं पचप्पिणह, त० ते जाच पचप्पिणंति, तए णं से कण्हे वासुवेवे पउमावती देवी पट्टयं डहेति अहसतेणं सोवन्नकलस जाब महानिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचति । सब्वालंकारविभूसियं करेति २ पुरिससहस्सवाहिणि सिवियं रदावेति बारवतीणगरीमझमझेणं निग्गच्छति २ जेणेव रेवतते पब्बए जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवा०२ सीयं ठवेति पउमावती देवी सीतातो पचोरुभति २ जेणेव अरहा अरिहनेमी तेणेव उवा० २ अरहं अरिहनेमी तिक्खुत्तो आ०प० २० न०२४२ एवं व-एस गंभंते! मम अग्गमहिसी पउमावतीनाम देवी हवा कंता पिया मणुना मणामा अभिरामा जांच किमंग पुण पासणयाए?, तन्नं अहं देवाणु० सिस्सिणिभिक्खं दलयामि पडिच्छंतु णं देवाणु सिस्सिKाणिभिक्वं, अहासुहं०, त० सा पउमावती उत्तरपउच्छिमं दिसीभार्ग अवक्कमति २ सयमेव आभरणालंकारं ओमुयति २ सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति २ जेणेव अरहा अरि० तेणेच उवा०२ अरहं अरिट्टनेमि वंदति १ जाब किमंग पुण' इत्यत्र ‘उदुम्बरपुप्फैपिच दुलभा सवणयाए किमंग पुण पासणयाएँत्ति द्रष्टव्यमिति । दीप अनुक्रम [१८-२०] अनु.५ पद्मावती-आदिनाम् प्रव्रज्या-कथा ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [4], ....----- अध्ययनं [१] ------------------ मूलं [९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक ॥१७॥ अन्तकृद-४ाणमंसति २ एवं व-आलिते जाव धम्ममाइक्खितं, तते णं अरहा अरिट्ट पउमावती देवी सयमेव पब्वा- ५वर्गे शाले वेति २ सय मुंडा० सय जक्खिणीते अजाते सिस्सिणिं दलयति, त० सा जक्खिणी अजा पउमावई । | पद्मावत्य देवी सयं पब्बा.जाव संजमियव्यं, तते णं सा पउमावती जाव संजमइ, तसा पज़मावती अजा जाता है ध्ययनं ईरियांसमिया जाव गुत्तभयारिणी, त० सा पउमावती अजा जविखणीते अजाते अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जति, बहहिं चउत्थछट्टविविहतव. भा० विहरति, तसा पउमावती अज्जा बहुपडिपुन्नाई वीसं वासाई सामनपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेति २ सहि भसाई अणसणाए छेदेति २ जस्सहाते कीरइ नग्गभावे जाव तमढ आराहेति चरिमुस्सासेहिं सिद्धा ५॥ सू०९ गाथा दीप अनुक्रम [१८-२०] १'आलित्ते णमित्यादाविदं दृश्यम्-आदीप्तो भदन्त ! लोकः एवं प्रदीप्तः आदीप्तप्रदीप्तश्च जरया मरणेन च, तत इच्छामि देवानां प्रियैः स्वय मेवात्मानं प्रत्राजितुं यावत् आचारगोचरविनयवैनक्किचरणकरणयात्रामात्राप्रवृत्तिकं धर्ममारयातुमिति, यात्रामात्रार्थ च वृत्तिर्वत्र स तथा| ताम् । २ 'ईरियासमिया' इत्यादी यावत्करणाद्भन्धान्तरेषु 'भासासमियां इत्यादि 'मणगुत्ता' इत्यादि 'वयगुत्ता गुत्तिदिया गुत्तभचारिणीति द्रष्टव्यं । ३ 'बहूहि' इत्यत्रैवं द्रष्टव्यं-'छड्वमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विविहेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणा विहरईत्ति। ४ 'जस्सट्टाए कीरति णग्गभावे इत्यादौ यावत्करणादिदं दृश्य-'मुंडभावे केसलोचे बंभचेरवासे अण्हाणगं अच्छत्तयं अणुवाणयं भूमिसेजाओ फलगलसिजाओ परघरपवेसे लद्धावलद्धाई माणोवमाणाई परेसि हीलणाओ निंदणाओ खिसणाओ तालणाओ गरहणाओ ॥१७॥ aurainrary.org पद्मावती-आदिनाम् प्रव्रज्या-कथा ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [१०,११] दीप अनुक्रम [२१-२२] “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) - वर्ग: [५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित अध्ययनं [ २-८, ९-१०] मूलं [१०, ११] आगमसूत्र - [ ०८ ], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ( सू० ९) तेणं कालेणं २ बारवई रेवतए उज्जाणे नंदणवणे तत्थ णं बारव० कण्हे वासु० तस्स णं कण्हवासुदेवस्स गोरी देवी वन्नतो अरहा समोसढे कण्हे णिग्गते गोरी जहा पउमावती तहा णिग्गया धम्मका प रिसा पडिगता, कण्हेवि, तए णं सा गोरी जहा पउमावती तहा णिक्खता जाव सिद्धा ५ । एवं गंधारी । लक्खणा । सुसीमा । जंबवई । सचभामा । रूपिणी । अहवि परमावतीसरिसाओ अट्ठ अज्झयणा ॥ (सू० १०) तेणं कालेणं २ वारवतीनगरीए रेवतते नंदणवणे कण्हे०, तस्थ णं वारवतीए नयरीए कण्हस्स वासुदेवस्स पुत्ते जंबवतीए देवीए अत्तते संबे नामं कुमारे होत्था, अहीण०, तस्स णं संबस्स कुमारस्स मूलसिरीनामं भारिया होत्था वन्नओ, अरहा समोसढे कण्हे णिग्गते मूलसिरीवि णिग्गया जहा पउमा० नवरं | देवाणु० 1 कण्हं वासुदेवं आपुच्छामि जाव सिद्धा । एवं मूलदत्तावि। पंचमो वग्गो । (सू० ११) उच्चावया विरुवरुया बाबीसं परीसहोवसग्गा गामकंटगा अहियासिजति तमट्ठमाराहेदति कण्ठ्यं, नवरं हीलना-अनभ्युत्थानादि निन्दना - खमनसि कुत्सा 'खिसणा' लोकसमक्षमेव जात्यायुद्घट्टनं तर्जना - ज्ञास्यसि रे जाल्मेत्यादि भणनं ताडना - चपेटाविना गर्दा-गर्द णीयसमक्षं कुत्सा उच्चावचा - अनुकूलप्रतिकूलाः असमन्जसा इत्यर्थः विरूपरूपाः - विविधस्वभावा द्वाविंशतिः परीषहाः, उपसर्गाच षोडश ग्रामकण्टका-इन्द्रियग्रामस्य बाधकत्वेन कण्टका इवेति । १ 'अट्ठवि पढमावतीसरिसाउति पद्मावत्या सहाष्टौ ताञ्च पश्नावतीसदृशाः समानवक्तव्यता इत्यर्थः परं नामसु विशेषः एवं च 'अ अज्झयण'त्ति एतान्यष्टावध्ययनानि, सदृशानि च वासुदेवभार्या - एक प्रतिबद्धत्वात्, अन्त्यं तु अध्ययनद्वयमष्ट्रकविलक्षणं वासुदेवस्तुषाप्रतिबद्धत्वादिति । पञ्चमस्य वर्गस्य निक्षेपो वाच्यः । For Pale Only ~38~ rary or Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) ཝཱ + ཀྑལླཱ ཡྻ [२३-२६] वर्ग: [६], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. अन्तकृद- ४ शान “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) Education Interational ॥ १८ ॥ जति छस्स उक्खेवओ नवरं सोलस अज्झयणा पं० तं० 'मंकाती किंकमे चैव, मोग्गरपाणी य कासवे । खे मते घितिघरे चेव, केलासे हरिचंदणे ॥१॥ बारतमुदंसणपुन्नभद्द सुमणभद्द सुपइट्टे मेहे। अहमुत्ते अअलक्खे अज्झयणाणं तु सोलसयं ||२||' जड़ सोलस अज्झपणा पं० पढमस्स अज्झयणस्स के अट्ठे पनसे ?, एवं खलु ४ जंबू । तेणं कालेणं २ रायगिहे नगरे गुणसिलए चेतिते सेणिए राया मंकातीनामं गाहावती परिवसति अड्डे जाब परिभूते, तेणं कालेणं २ समणे भगवं महावीरे आदिकरे गुणसिलए जाव विहरति परिसा निग्गया, तते णं से मंकाती गाहावती इमीसे कहाए लद्धट्टे जहा पन्नत्तीए गंगदत्ते तहेव इमोऽवि जेठपुतं कुटुंबे ठ बेसा पुरिससहस्सवाहिणीए सीताते णिक्खते जाव अणगारे जाते ईरियासमिते० त० से मंकाती अणगारे समणस्स भगवतो महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई अहिजति सेसं जहा बंदगस्स, गुणरयणं तवोकम्मं सोलसवासाई परियाओ तहेव विपुले सिद्धे । किंकमेवि एवं चेव जाव विपुले सिद्धे । (सू० १२) तेणं कालेणं २ रायगिहे गुणसिलते चेतिते सेणिए राया चेल्लणादेवी, तस्थ णं रायगिहे अज्जुनए नाम मालागारे परिवसति, अड्डे जाव परिभूते, तस्स णं अज्जुणयस्स मालायारस्स बंधुमतीणामं भारिया होत्था सूमा०, तस्स णं अज्जुणयस्स मालायारस्स रायगिहस्स न ४ ॥ १८ ॥ १ षष्ठस्य चोपक्षेपस्तत्र च षोडशाध्ययनानि तेषु लोकेनाष्टावष्टौ तु गाथयोक्तानीति । अर्जूनमालागारस्य कथा अध्ययनं [१-२] मूलं [१२] + गाथा: . आगमसूत्र [०८ ], अंग सूत्र [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः For Parts Only ५ बर्गे गौर्यादीनि मूलश्री मूलदत्ते सू० १०० ~39~ ११ ६ वर्गे मंकाती किंकर्माणी सू० १२ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) (०८) वर्ग: [६], -- ...........................- अध्य यन [३]------------ -- मूल [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक गरस्स बहिया एत्य णं महं एगे पुप्फारामे होत्था कण्हे जाब निउरंवभूते दसद्धवन्नकुसुमकुसुमिते पासातीए ४, तस्स णं पुष्फारामस्स अदूरसामंते तत्थ णं अज्जुणयस्स मालापारस्स अजतपज्जतपितिपज्जयागए |अणेगकुलपुरिसपरंपरागते मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था, पोराणे दिव्वे सचे जहा पुण्णभहे, तत्व णं मोग्गरपाणिस्स पडिमा एगं महं पलसहस्सणिकपणं अयोमयं मोग्गरं गहाय चिट्ठति, त. से अज्जुणते मालागारे बालप्पभितिं चेव मोग्गरपाणिजक्खभत्ते यावि होत्था, कल्लाकल्लिं पच्छियपिडगाई गेण्हति २रायगिहातो नगरातो पडिनिक्खमति २ जेणेव पुप्फारामे तेणेव उ०२ पुप्फुचयं करेति २ अग्गाई वराई पुप्फाई गहाइ २ जेणेव मोग्गरपाणिस्स जक्खाययणे तेणेव उ. मुग्गरपाणिस्स जक्खस्स महरिहर पुष्फचणयं करेति २ जनुपायवडिए पणामं करेति, ततो पच्छा रायमग्गंसि वित्तिं कप्पेमाणे विहरति, तत्थ णं रायगिहे नगरे लेलिया नाम गोट्ठी परिवसति अहा जाव परिभूता जंकयसुकया यावि होत्था, तकराय-13 गिहे णगरे अन्नदा कदाइ पैमोदे घुढे यावि होत्या, त० से अजुणते मालागारे कल्लं पभूयतराएहिं पुप्फेहिं| [१३] दीप अनुक्रम [२७] किण्हे जाव'त्ति इह यावत्करणात् 'किण्हे किण्होभासे नीले नीलोभासे' इत्यादि मेघनिकुरम्बभूत इत्येतदन्त आरामवर्णको |रश्या । २ 'ललिय'त्ति दुर्ललितगोष्ठी-भुजङ्गसमुदायः, आत्या यावच्छब्दादीप्ता बहुजनस्यापरिभूता अंकयमुकयत्ति यदेव कृतं शोभन नमशोभनं वा तदेव सुतु कृतमित्यभिमन्यते पितृपौरादिभिर्यस्याः सा यत्कृतसुकता। ३ 'पमोए'त्ति महोत्सवः । Sarasitaram.org अर्जूनमालागारस्य कथा ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) (०८) वर्ग : [६], ------------------------ अध्य यनं [3] --------------------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अन्तकृह छम प्रत सूत्राक [१३] कजमितिकट्ठ पचूसकालसमयंसि बंधुमतीते भारियाते सद्धि पच्छियपिडयातिं गेहति २ सयातो गिहातो वर्गे पहिनिक्खमति २रायगिहं नगरं मज्झमझेणं णिग्गच्छति २ जेणेव पुष्फारामे तेणेव उवा०२ बंधुमतीते| घुमतात मुहरपाभारिपाए सद्धिं पुप्फुचयं करेति, त०तीसे ललियाते गोट्टीते छ गोहिल्ला पुरिसा जेणेव मोग्गरपाणिस्सण्यध्ययन जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागता अभिरममाणा चिटुंति, तसे अजुणते मालागारे बंधुमतीए भारि- सू०१३ याए सद्धिं पुप्फुच्चयं करेति अग्गातिं वरातिं पुष्फातिं गहाय जेणेव मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छति, तते णं छ गोहिल्ला पुरिसा अजुणयं माला बंधुमतीए भारियाए सद्धिं एजमाणं पासंति २ अन्नमन्नं एवं व०-एस णं देवाणु ! अज्जुणते मालागारे बंधुमतीते भारियाते सद्धिं इहं हव्वमागच्छति तं सेयं खलु देवाणु 1 अम्हं अजुणयं मालागारं अवओडयवंधणयं करेत्ता बंधुमतीते भारियाए सद्धिं विपुलाई भोगभोगाई मुंजमाणाणं विहरित्तएत्तिका एपमढ अन्नमन्नस्स पडिमुणेति २ कवाडंतरेस निलकंति नि-1 चला निष्फंदा तुसिणीया पच्छण्णा चिट्ठति, तसे अज्जुणते मालागारे बंधुमतिमारियाते सद्धिं जेणेव मोदग्गरजक्खायपणे तेणेव उवा०२ आलोए पणामं करेति महरिहं पुष्फचणं करेति जंनुपायपडिए पणामं करे१'अग्गाईति अग्रे भवान्यप्राणि प्रधानानीत्यर्थः वराणि तान्येव, एकार्थशब्दोपादानं तु प्राधान्यप्रकर्षख्यापनार्थ । २ 'अवउड्य ॥१९॥ | बंधणय'ति अवमोटनतोऽवकोटनतो वा पृष्ठदेशे बाहुशिरसा संयमनेन बन्धनं यस्य स तथा । SCCCCCCCCC दीप अनुक्रम [२७] अर्जूनमालागारस्य कथा ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) (०८) वर्ग: [६], -- ...........................- अध्य यन [३]------------ -- मूल [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] ति, तते ण छ गोउल्ला पुरिसा देवदवस कबाडतरेहितो णिग्गच्छति २ अजुणयं मालागारं गेण्हंति २ अघओडगवंधणं करेंति, बंधुमतीए मालागारीए सद्धिं विपुलाई भोग भुंजमाणा विहरंति, त० तस्स अन्जुण-12 यस्स मालागारस्स अयमझथिए ४, एवं खलु अहं बालप्पभितिं चेव मोग्गरपाणिस्स भगवओ कल्लाकल्लिं |जाव कप्पेमाणे विहरामि, तं जति णं मोग्गरपाणिजक्खे इह संनिहिते होंते से णं किं ममं एयारूवं आवई || पावेजमाणं पासते?, तं नत्थि णं मोग्गरपाणी जक्खे इह संनिहिते, सुब्वत्तं तं एस कट्टे, तते णं से मोग्गर-II दपाणी जक्खे अज्जुणयस्स मालागारस्स अयमेयारूवं अन्भत्थियं जाव बियाणेत्ता अज्जुणयस्स मालागारस्स सरीरयं अणुपविसति २ तडतडतडस्स बंधाई छिंदति, तं पलसहस्सणिफणं अयोमयं मोग्गरं गेण्हति २ ते इत्थिसत्रामे पुरिसे घातेति, त० से अल्लुणते मालागारे मोग्गरपाणिणा जक्खेणं अण्णाइडे समाणे रायगिहस्स नगरस्स परिपेरतेणं कल्लाकल्लिं छ इत्थिसत्तमे पुरिसे घातेमाणे विहरति, रायगिहे णगरे सिंघाडग जाव *महापहपहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति ४-एवं खलु देवाणु, अज्जुणते मालागारे मोग्गरपासणिणा अण्णाइडे समाणे रायगिहे गरे बहिया छ इत्धिसत्तमे पुरिसे घायेमाणे विहरति, तसे सेणिए दीप अनुक्रम [२७] १ववरस वत्ति द्रुतं हुतं । २'सुवत्तं णं एस कट्टे' व्यक्तं-स्फुटम् एषः-यक्षः प्रतिमारूप: 'काष्ठं दारु तन्मयत्वादेबताशून्यत्वेनाकिञ्चित्करत्वादिति । lariasaram.org अर्जूनमालागारस्य कथा ~ 42 ~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [६], ------------------------- अध्ययनं [३] --------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाने प्रत ॥२०॥ सूत्रांक [१३] राया इमीसे कहाए लढे समाणे कोडुबिय० सदावेति २ एवं व०-एवं खलु देवा! अजुणते मालागारे जाव ४६ वर्ग । घातमाणे जाव विहरति तं मा णं तुन्भे केती कट्ठस्स वा तणस्स वा पाणियस्स वा पुष्फफलाणं वा अहाते मुद्गरपासतिरं निग्गच्छतु मा णं तस्स सरीरस्स वावत्ती भविस्सतित्तिकडु दोचंपि तचंपि घोसण घोसेह २खिप्पा- यध्ययन मेव ममेयं पञ्चप्पिणह, तते णं ते कोडंबिय जाव पञ्च०, तत्थ णं रायगिहे नगरे सुदंसणे नामं सेट्ठी परिवसति सू०१३ अड्डे०, तते णं से सुदंसणे समणोवासते यावि होत्था अभिगयजीवाजीचे जाव विहरति, तेणं कालेणं २ समणे भगवं जाव समोसढे विहरति, त. रायगिहे नगरे सिंघाडग बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव किमंग पुण विपुलस्स अट्ठस्स गहणयाए एवं तस्स सुदसणस्स बहुजणस्स अंतिए एयं सोचा निसम्म दाअयं अम्भस्थिते ४-एवं खलु समणे जाव विहरति तं गच्छामि णं वदामि०, एवं संपेहेति २ जेणेव अम्मा पियरो तेणेव उवागच्छति २ करयल एवं व०-एवं खलु अम्मताओ! समणे जाव विहरति तं गच्छामि जणं समणं भगवं महावीरं वदामि नमजाव पञ्जुवासामि, तते णं सुदंसणं सेहिं अम्मापियरो एवं वदासि दीप अनुक्रम [२७] १ 'सइरं निगच्छत्ति खैर-यथेष्ट निर्यातु । २'इह आगय'मित्यादि, इह नगरे आगवं प्रत्यासमत्वेऽप्येवं व्यपदेशः स्यात् | अत उच्यते-दह संभात, प्राप्तावपि विशेषामिधानायोच्यते इह समवसृतं-धर्मव्याख्यानप्रहतया व्यवस्थितं, अथवा इह नगरे पुनरिहोयाने पुनरिह साधूचितावमहे इति । SAMEmirathin Kh. indiantaram.org अर्जूनमालागारस्य कथा ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [२७] “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) वर्ग: [६], मूलं [१३] अध्ययनं [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Ja Eratur — एवं खलु पुता! अज्जुणे मालागारे जाव घातेमाणे विहरति, तं मा णं तुमं पुत्ता ! समणं भगवं महावीरं बंदए णिग्गच्छाहि, मा णं तब सरीरयस्स वाबत्ती भविस्सति, तुमण्णं इहगते चैव समणं भगवं महावीरं बंदाहि णमंसाहि, तसे णं सुदंसणे सेट्ठी अम्मापियरं एवं व० किण्णं [तुमं] अम्मयातो! समणं भगवं० इहमागयं इहपत्तं इह समोसढं इहगते चैव बंदिस्सामि ?, तं गच्छामि णं अहं अम्मताओ! तुम्भेहिं अन्भणुनाते समाणे भगवं महा० बंदते, त० सुदंसणं सेट्ठि अम्मापियरो जाड़े नो संचायंति बहुहिं आघवणाहिं ४ जाव परूवेत्तते ताहे एवं वदासि - अहासुहं० त० से सुदंसणे अम्मापितीहिं अन्भणुष्णाते समाणे पहाते सुद्धप्पा बेसाई जाव सरीरे सयातो गिहातो पडिनिक्खमति २ पापविहारचारेणं रायगिहं णगरं मज्झमशेणं णिग्गच्छति २ मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणस्स अदूरसामंतेणं जेणेव गुणसिलते चेतिते जेणेव समणे भगवं महा० तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तते णं. से मोग्गरपाणी जक्खे सुदंसणं समणोवासतं अदूरसामंतेणं वीतीवयमाणं २ पा० २ आसुरुते ५ तं पलसहस्तनिष्पन्नं अयोमयं मोग्गरं उल्लालेमाणे २ जेणेव सुदंसणे समणोवासते तेणेव पहारेत्थ गमणाते, तते णं से सुदंसणे समणोवासते मोग्गरपाणिं जक्खं एज्जमाणं पासति २ अभीते अतत्थे अणुब्बिग्गे अक्खुभिते अचलिए असंभंते वैत्थतेनं भूमीं पमनति २ कर १ 'मुद्धपत्ति शुद्धात्मा यावत्करणात् 'बेसियाई पवरवत्थाई परिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे' २ 'वत्यंतेणं' ति वस्त्रावलेन 'करयल'ति 'करयलपरिग्ाहियं सिरसावत्तं दसनहं अंजलि मत्थए कद्दू' इति द्रष्टव्यं । | अर्जूनमालागारस्य कथा For Parts Only ~ 44~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [२७] “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) वर्ग: [६], अध्ययनं [३] मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अन्तकूद्दशाने ॥ २१ ॥ तल० एवं वदासी - नमोत्थु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं नमोऽत्यु णं समणस्स जाव संपाविउकामस्स, पु व्विं च णं मते समणस्स भगवतो महा० अंतिए थूलते पाणातिवाते पञ्चकखाते जावज्जीवाते थूलते मुसावाते धूलते अदिन्नादाणे सदारसंतोसे कते जावज्जीवाते इच्छापरिमाणे कते जावज्जीवाते, तं इदाणिंपिणं तस्सेव अंतियं सव्वं पाणातियातं पथक्खामि जावज्जीबाए मुसावायं अदत्तादाणं मेहणं परिग्गहं पञ्चक्खामि जावंजीवाए सव्वं कोहं जाव मिच्छादंसणस पथक्खामि जावज्जीवाए सव्यं असणं पाणं खाइमं साइमं चउव्विपि आहारं पचक्खामि जावज्जीवाए, जति णं एतो उवसग्गातो मुचिस्सामि तो मे कप्पेति पारेसते अह णो एस्तो उवसग्गातो मुचिस्सामि ततो मे तहा पचक्खाते चैवतिकट्टु सागारं पडिमं पडिवज्जति । त० से मोग्गरपाणिजक्खे तं पलसहस्सनिष्कनं अयोमयं मोग्गरं उल्लालेमाणे २ जेणेव सुदंसणे समणोवासते तेणेव उवा० २ नो चेव णं संचापति सुदंसणं समणोवासयं तेयसा समभिपडित्तते, तते णं से मोग्गरपाणीजक्रखे सुदंसणं समणोवासतं सव्वओ समंताओ परिघोलेमाणे २ जाहे नी (चेव णं) संचापति सुदंसणं समणोवासयं तेयसा समभिपडित्तते ताहे सुदंसणस्स समणोवासयस्स पुरतो सपर्विख सपडिदिसिं ठिचा सुदंसणं समणोवासयं अणिमिसाते दिडीए सुचिरं निरिक्खति २ अज्जुणयस्स मालागारस्स सरीरं १ 'नो चेवणं संचारति सुदंसणं समणोवासयं तेयसा समभिपइत्तए'ति न शक्नोति सुदर्शनं समभिपतितुम् आक्रमितुमित्यर्थः, केन ? - तेजसा प्रभावेन सुदर्शनसम्बन्धिनेति । Ecation Internationa अर्जूनमालागारस्य कथा For Park Use Only ~ 45~ ६. वर्गे मुद्गरपाण्यध्ययनं सू० १३ ॥ २१ ॥ you Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [६], -- ...........................- अध्य यन [३]------------ -- मूल [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] विप्पजहति २तं पलसहस्सनिष्कन्नं अयोमयं मोग्गरं गहाय जामेव दिसं पाउम्भूते तामेव दिसं पडिगते, त. से अजुणते माला मोग्गरपाणिणा जक्खेणं विष्पमुक्के समाणे घसत्ति धरणियकंसि सव्वंगेहिं निवहिते, दत से सुदंसणे समणोवासते निरुवसग्गमितिकट्ठ पडिम पारेति, तते णं से अज्जुणते माला तत्तो मुहुतं तरेणं आसत्थे समाणे उट्टेति २ सुदंसणं समणोवासयं एवं व० तुन्भे णं देवाणु के कहिं वा संपत्थिया?, तते णं से सुदसणे समणोवासते अज्जुणयं माला एवं व०-एवं खलु देवाणुप्पिया! अहं सुदंसणे नाम समणोवासते अभिगयजीवाजीवे गुणसिलते चेतिते समणं भगवं महावीरं वंदते संपत्थिते, त० से अजुPणते माला सुदंसणं समणोवासयं एवं व०-तं इच्छामि णं देवाणु०! अहमबि तुमए सद्धिं समणं भगवं महा० वदेत्तए जाव पन्जुवासेत्तए, अहासुहं देवाणु !, तसे सुदंसणे समणोवासते अजुणएणं मालागारेणं सद्धिं जेणेव गुणसिलए चेतिते जेणेव समणे भगवं महा० तेणेव उ. २ अजुणएणं मालागारेणं सद्धिं समणं भगवं महा तिक्खुत्तो जाच पज्जुवासति, तते णं समणे भगवं महा० सुदंसणस्स समणो. अजुणयस्स मालागारस्स तीसे य० धम्मकहा०, सुदंसणे पडिगते । तए णं से अजुणते समणस्स० धर्म सोचा हट्ट सदहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं जाव अन्भुढेमि, अहासुहं, त० से अबुणते माला उत्तर० सपमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति जाव अणगारे जाते जाव विहरति, तते णं से अजुणते अणगारे जं चेव दिवस मुंडे जाव पब्वइते तं चेव दिवसं समणं भगवं महा. वंदति २ इमं एयारूपं अभिग्गहं उरिगण्हति-कप्पा दीप अनुक्रम [२७] 5% 84%CES4 IIMa Munaturanorm अर्जूनमालागारस्य कथा ~ 46~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [६], ------------------------- अध्ययनं [३] --------------- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अन्तकृह- शाने प्रत ॥२२॥ सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [२७] मे जायजीवाते छटुंछटेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स बिहरित्तएत्तिकह, अयमेया-ol रूवं अभिग्गहं ओगेण्हति २ जावजीवाए जाव विहरति, तते णं से अजुणते अणगारे छडक्खमणपारण-181 मुद्गरपायंसि पढमपोरिसीए समायं करेति जहा गोयमसामी जाव अडति, तते णं तं अज्जुमय अणगारं रायगिहेण्यध्ययन नगरे उच्च जाव अजमाणं बहवे इत्धीओ य पुरिसा य डहरा य महल्ला य जुवाणा य एवं वदासी-इमे णं| सू०१३ मे पितामारते भाया भगिणी० भजा पुत्त० धूया. सुहा० इमेण मे अन्नतरे सयणसंबंधिपरियणे मारिएत्तिकह अप्पेगतिया अकोसंति अप्पेहीलंति निंदति खिंसंति गरिहंति तजेति तालेंति, तते णं से अजुणते अणगारे तेहिं बहहिं इत्थीहि य पुरिसेहि य डहरेहि य महल्लेहि य जुवाणएहि य आतोसेजमाणे जाव तालेजमाणे तेसिं मणसावि अपउस्समाणे सम्म सहति सम्म खमति तितिक्षति अहियासेति सम्मंटू सहमाणे खम० तिति अहि रायगिहे गरे उच्चणीयमज्झिमकुलाई अडमाणे जति भत्तं लहति तो पाणं * ण लभति जह पाणं तो भत्तं न लभति, तते णं से अजुणते अदीणे अविमणे अकलुसे अणाइले अविसादी १ सहत इत्यादीनि एकार्थानि पदानीति केचित् , अन्ये तु सहते भयाभावेन क्षमते कोपाभावेन तितिक्षते दैन्याभावेन अधिसहते-आधिक्येन सहत इति । २ 'अदीणे त्यादि, सत्रादीनः शोकाभावात् अविमना न शून्यचित्तः अकलुषो द्वेषवर्जितत्वात् अनाविलः जनाकुलो वा निःक्षोभत्वात् अविषादी कि मे जीवितेनेत्यादिचिन्तारहितः अत एवापरितान्त:-अविश्रान्तो योगः-समाधिर्यस्य स तथा 3 ॥२२॥ स्वार्थिकेनन्तत्वाचापरितान्तयोगी। SARERainintennalaana अर्जूनमालागारस्य कथा ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [६], -- ...........................- अध्य यन [३]------------ -- मूल [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक AKAR [१३] अपरितंतजोगी अडति २ रायगिहातो नगरातो पडिनिक्खमति २ जेणेव गुणसिलए चेतिते जेणेव समणे भगवं महा. जहा गोयमसामी जाव पडिदंसेति २ समणेणं भगवया महा० अम्भणुण्णाते अमुच्छिते ४ चिलमिव पण्णगभूतेणं अप्पाणेणं तमाहारं आहारेति, तते णं समणे अन्नदा राय० पडि०२ यहिं जण विहरति, तते णं से अजुणते अणगारे तेणं ओरालेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहपुपणे छम्मासे सामण्णपरियागं पाउणति, अद्धमासियाए संलेहणाए अप्पाणं झसेति तीसं| भत्ताई अणसणाते छेदेति २ जस्सहाते कीरति जाव सिद्धे ३ (सू०१३) तेणं कालेणं २ रायगिहे नगरे गुणसिलए चेतिते तत्थ णं सेणिए राया कासवे णाम गाहावती परिवसति जहा मंकाती, सोलस वासा परियाओ विपुले सिद्धे ४। एवं खेमतेऽचि गाहावती, नवरं कागंदी नगरी सोलस परिताओ विपुले पब्बए टू सिद्धे । एवं धितिहरेवि गाहा० कामंदीए १० सोलस वासा परियाओ जाब विपुले सिद्धे । एवं केलासेवि गा० नवरं सागेए नगरे वारस वासाई परियाओ विपुले सिद्धे ७, एवं हरिचंदणेवि गा० साएए बारस वासा परियाओ विपुले सिद्धे ८। एवं बारत्ततेवि गा० नवरं रायगिहे नगरे वारस वासा परियाओ विपुले सिद्धे ९ %25% दीप अनुक्रम [२७] १"बिल'मिवेत्यादि, अस्थायमर्थो-यथा विले पन्नगः पार्थासंस्पर्शनात्मानं प्रवेशयति तथा यमाहारं मुखेनासंस्पृशनिव रागविरहितत्वावाहारयति-अभ्यवहरतीति । REasana P unciurary.org अर्जूनमालागारस्य कथा ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [ २८-३८] “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) वर्ग: [६], अध्ययनं [३] मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अन्तकृदशाळे ॥ २३ ॥ Education एवं सुदंसणेवि गा० नवरं वाणियगामे नपरे दूतिपलासते चेइते पंच वासा परियाओ विपुले सिद्धे १० । एवं पुन्नभद्देवि गा० वाणियगामे नगरे पंच वासा विपुले सिद्धे ११ । एवं सुमणभदेवि सावत्धीए नग० बहुवा सपरि० सिद्धे १२ । एवं सुपइद्वेवि गा० सावस्थीए नगरीए सत्तावीसं वासा परि० विपुले सिद्धे १३ । मेहे रायगिहे नगरे बहूई वासातिं परिताओ १४ । (सू० १४ ) तेणं काले २ पोलासपुरे नगरे सिरिवणे उज्जाणे, तत्थ णं पोलासपुरे नगरे विजये नाम राया होत्था, तस्स णं विजयस्स रन्नो सिरी नामं देवी होत्था वन्नतो, तस्स णं विजयस्स रन्नो पुत्ते सिरीए देवीते अत्तते अतिमुत्ते नामं कुमारे होत्या सूमाले, तेणं कालेणं २ | समणे भगवं महा० जाव सिरिवणे विहरति, तेणं का० २ समणस्स० जेट्टे अंतेवासी इंदभूती जहा पन्नत्तीए जाब पोलासपुरे नगरे उच्च जाव अडइ, इमं च णं अइमुसे कुमारे पहाते जाव विभूषिते बहूहिं दारपहि दारियाहि य डिंभएहि व डिंभियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिबुडे सतो गिहातो पडिनिक्खमति २ जेणेव इंदेद्वाणे तेणेव उवागते तेहिं बहूहिं दारएहिय ६ संपरिबुडे अभिरममाणे २ विहरति, तते णं भगवं गोयमे पोलासपुरे नगरे उच्चनीय जाव अडमाणे इंदद्वाणस्स अदूरसामंतेणं वीतीवयति, तते णं से अहमुत्ते कुमारे भगवं गोयमं अदूरसामंतेगं वीतीवयमाणं पासति २ जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवा १ अतिमुक्तककथानके किञ्चिल्लिख्यते--'इंदद्वाणे 'त्ति यत्रेन्द्रयष्टिरुद्धक्रियते । अतिमुक्तकुमारस्य कथा For Pass Use Only ~49~ ६ वर्गे काश्यपा दोनि४-१४ अतिमुक्कामध्ययनं सू० १५ ॥ २३ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) (०८) वर्ग: [६], ... ..........-- अध्ययनं [१५] .. .. .- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] गते २ भगवं गोयम एवं वदासी-के णं भंते! तुम्भे? किं वा अडह?, तते णं भगवं गोयमे अइमुत्तं कुमार एवं व०-अम्हे ण देवाणुप्पिया! समणा णिग्गंथा ईरियासमिया जाव बंभयारी उच्चनीय जाव अडामो, तते णं अतिमुसे कुमारे भगवं गोयमं एवं व०-एह मं भंते! तुम्भे जा णं अहं तुम्भं भिक्खं दवावेमीतिकह भगवं गोयमं अंगुलीए गेण्हति २ जेणेव सते. तेणेव उवागते, तते णं सा सिरीदेवी भगवं गोयम एज माणं पासति पासेत्ता हट्ट० आसणातो अभुट्टेति २ जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागया भगवं गोयमं । दातिक्खुसो आयाहिणपयाहिणं बंदति २ विउलेणं असण ४ पडिविसजेति, तते णं से अतिमुले कमारे भ गवं गोयम एवं व०-कहि णं भंते ! तुम्भे परिवसह, त. भगवं अइमुत्तं कुमारं एवं व०-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम धम्मायरिए धम्मोचतेसते भगवं महा० आदिकरे जाव संपाविउकामे इहेव पोलासपुरस्स। नगरस्स बहिया सिरिवणे उज्वाणे अहापडि०उग्गहं० संजमेणं जाव भावेमाणे विहरति, तत्थ णं अम्हे परिवसामो, तते णं से अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयम एवं व०-गच्छामि णं भंते! अहं तुम्भेहिं सद्धिं समणं भगवं महा. पायवंदते?, अहामुह, तते णं से अतिमुत्ते कुमारे भगवं गोतमेणं सद्धि जेणेव समणे महावीरे तेणेव उवा०२ समणं भगवं महा०तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति २ वंदति जाव पजुवासति, तते दीप अनुक्रम [३९-४०] १ 'जाणेति येन मिक्षा दापयामि णमित्सलकारे । अतिमुक्तकुमारस्य कथा ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) (०८) वर्ग: [६], .....................--- अध्य यन [१५] ...............- मूल [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप अन्तकृद-जाणं भगवं गोयमे जेणेव समणे भगवं महातेणेव पवागते जाव पंडिदंसेति २ संजमे० तव. विहरति, त० ६ वर्गे शाङ्ग समणे अतिमुत्तस्स कुमारस्स तीसे य धम्मकहा, तसे अतिमुत्ते समणस्स भ०म० अं०धम्म सोचा निसम्म अतिमुक्तहट्ट जं नवरं देवाणु ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तते णं अहं देवाणु० अंतिए जाव पब्वयामि, अहा० काध्ययन ॥२४॥ देवाणु० मा पडिबंध, तते णं से अतिमुत्ते जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागते जाव पव्वतित्तए, अतिमुत्तं सू०१५ कुमारं अम्मापितरो एवं व०-बालेसि ताव तुमं पुत्ता! असंबुद्धेसि०, किं नं तुमं जाणसि धम्म?, तते णं से है। अतिमुत्ते कुमारे अम्मापियरो एवं व०-एवं खलु अम्मयातो! जंचेव जाणामि तं चेवन याणामि जंचेव | न याणामि तं चेव जाणामि, ततं अहमुत्तं कुमारं अम्मापियरो एवं व०-कहनं तुमं पुत्ता! जं चेव जा-IX णसि जाव तं चेव जाणसि?, त० से अतिमुत्ते कुमारे अम्मापित एवं०-जाणामि अहं अम्मतातो! जहा जाएणं अवस्समरियव्वं न जाणामि अहं अम्मतातो! काहे वा कहिं या कहं वा केचिरेण वा?, न जाणामि अम्मयातो! केहिं कम्माययणेहिं जीवा नेरइयतिरिक्खजोणिमणुस्सदेवेसु उववज्जति, जाणामि णं अम्मयातो! १'जाव पदिदसेइत्ति इह यावत्करणात् 'गमणाए पडिकमइ भत्तपाणं आलोए'त्ति द्रष्टव्यं । २ 'काहे वत्ति कस्यां वेलायां प्रभातादिकायां 'कहिं वत्ति क क्षेत्रे ? 'कहं वत्ति केन प्रकारेण कियचिरेण ? कियति कालेऽतिक्रान्ते इत्यर्थः, 'कम्माययणेहिति कर्मणां-ज्ञानावरणादीनामायतनानि-आदानानि तैः । [कर्मणां ज्ञानावरणादीनामायतनानि आदानानि वा बन्धहेतव इत्यर्थः इति कर्मायतनाति ॥२४॥ कर्मादानानि वा पाठान्तरेण 'कम्मावयणेहिति तत्र कर्मापत्तनानि यैः कर्मापतति-आत्मनि संभवति तानि तया, इति प्रत्यन्तरे] अनुक्रम [३९-४०] अतिमुक्तकुमारस्य कथा ~514 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [३९-४०] “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [१५, १६] मूलं [१५] वर्ग: [६], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Jan Eratur जहा सतेहिं कम्मायाणेहिं जीवा नेरइय जाव उवबजंति, एवं खलु अहं अम्मतातो! जं चैव जाणामि तं वेव न याणामि जं चैव न याणामि तं चैव जाणामि, इच्छामि णं अम्मतातो! तुम्भेहिं अग्भणुष्णाते जाव पव्वइत्तते, तते णं तं अहमुत्तं कुमारं अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति बहहिं आघव० तं इच्छामो ते जाता! एगदिवसमवि रातसिरिं पासेत्तते, त० से अतिमुत्ते कुमारे अम्मापि वयणमनुयत्तमाणे तुसिणीए संचि कृति अभिसेओ जहा महाबलस्स निक्खमणं जाव सामाइयमाइयाई अहिजति बहूई वासाई सामण्णप रियागं गुणरयणं जाव विपुले सिद्धे १५। तेणं कालेणं २ बाणारसीए नयरीए काममहावणे चेतिते, तत्थ णं बाणारसीइ अलक्खे णामं राया होत्या, तेणं कालेणं २ समणे जाव विहरति परिसा, तते णं अलक्खे राया इमीसे कहाते लट्ठे हट्ट जहा कूणिए जाव पज्जुवासति धम्मकहा० त० से अलक्खे राया समणस्स भगबओ महा० जहा उदायणे तहा क्विंते णवरं जेट्टपुतं रखे अहिसिंचति एकारस अंगा बहू वासा परियाओ जाव विपुले सिद्धे १६। एवं जंबू । समणेणं जाव छट्टस्स वग्गस्स अयमट्ठे पन्नत्ते (सू० १५) जति णं भंते! सप्तमस्स वग्गस्स उक्खेवओ जाव तेरस अज्झयणा पण्णत्ता'नंदा १ तह नंदमती २ नंदोत्तर ३ नंदसेणिया ४ चैव । महया ५ सुमरुत ६ महमरुय ७ मरुद्देवा ८ य अट्ठमा || १॥ भद्दा ९ घ सुभद्दा १० य, सुजाता ११ सुमणातिया १२ भूयदित्ता १३ य बोद्धवा, सेणियभजाण नामाई ॥ २ ॥ जइ णं भंते । तेरस अज्झपणा पन्नत्ता पदमस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं० के अट्ठे पनते?, एवं खलु जंबू! तेणं का० २ रायगिहे नगरे अतिमुक्तकुमारस्य कथा For Pasta Use Only ~ 52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [७], -------- -------------- अध्ययनं [१-१३] ------- -- मूलं [१६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] गाथा अन्सकृद्द-18 |गुणसिलते चेतिते सेणिते राया वन्नतो, तस्स णं सेणियस्स रपणो नंदा नाम देवी होत्था वन्नओ, सामी ७ वर्गे शात समोसढे परिसा निग्गता, तते णं सा नंदादेवी इमीसे कहाते लट्ठा कोटुंबियपुरिसे सहावेति २ जाणं जहा पउमावती जाव एकारस अंगाई अहिजित्ता वीसं वासाई परियातो जाव सिद्धा । एवं तेरसवि दे- नि १३ ॥२५॥ वीओ णंदागमेण णेयव्वातो॥ सत्तमो वग्गो सम्मत्तो ॥ (सू०१६) जति णं भंते ! अहमस्स वग्गस्स उक्खे-18| ८ वर्गे वओ जाव दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं०-काली १ सुकाली २ महाकाली ३ कण्हा ४ सुकण्हा ५ महाकण्हा | काल्यध्य६। वीरकण्हा७ य बोद्धव्वा रामकण्हा ८ तहेव य ॥१॥ पिउसेणकण्हा ९नवमी दसमी महासेणकण्हा १० य॥ यनं १ जति दस अज्झयणा पढमस्स अज्झयणस्स के अढे पन्नते?, एवं खलु जंबू! तेणं का०२चंपा नाम नगरी सू०१७ होत्था पुन्नभद्दे चेतिते, तत्थ णं चंपाए नयरीए कोणिए राया वण्णतो, तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स है। रनो भज्जा कोणियस्स रणो चुल्लमाउया काली नाम देवी होत्या वाणतो जहा नंदा जाव सामातियमातियातिं एकारस अंगाई अहिज्जति, बहुहिं चउत्थ० जाव अप्पाणं भावमाणी विहरति, तते णं सा काली अण्णया कदाइ जेणेव अज्जचंदणा अजा तेणेव उवागता २ एवं व०-इच्छामि गं अज्जाओ! तुम्भेहिं अन्भणु-1 [पणाता समाणा रयणावलि तवं उपसंपज्जेसाणं विहरेत्तते, अहासुहं०, तसा काली अजा अजचंदणाए ॥२५॥ १ अष्टमे तु किमपि लिख्यते-रयणावलि ति रखावली-आभरणविशेषः रजावलीव रत्नावली, यथा हि रमावली उभयत आदिसूक्ष्मस्थूलस्थूलतरविभागकाहलिकाख्यसौवर्णावयबद्वययुक्ता भवति, पुनर्मध्यदेशे स्थूलविशिष्टमण्यलङ्कृता च भवति, एवं यत्तपः पट्टादावु दीप अनुक्रम [४१-४५] | कालीराणी-तस्या दीक्षा एवं रत्नावली तप: वर्णनं ~534 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [८], ----------------------- अध्ययनं [१] --------------------- मूलं [१७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत -46RSSC C अभणुण्णाया समाणा रपणावलिं उवसंप० विहरति तं०-चउत्थं करेति चउत्थं करेसा सव्वकामगणियं । पारेति, सम्धकामगुणियं पारेत्ता छटुं करेति २ सव्वकाम पारेति २ अट्ठमं करेति २ सव्वकाम०२ अट्ठ छहाई करेति २ सब्बकामगुणिय पारेति २ चउत्थं करेति २ सयकामगुणियं पारेति २ छ8 करेति २ सब्वकामगुणियं पारेति २ अट्ठमं करेति २ सब्वकामगु०२ दसमं करेति २ सव्वकाम० २ दुवालसमं करेति २ सूत्रांक [१७] गाथा दीप अनुक्रम [४६-५० HSR956 पदयमानमिममाकार धारयति तनावलीत्युच्यते, तत्र चतुर्थमेकेनोपवासेन षष्ठं द्वाभ्यामष्टमं त्रिभिः, ततोऽष्टौ पठानि, तानि च स्थापनायो चत्वारि २ कृत्वा पतिद्वयन स्थाप्यन्ते अथवा पतित्रयेण नव कोष्ठकान् कृत्वा मध्यकोठे शून्यं विधाय शेपेस्वष्टास्वष्ट षष्ठानि रचनीयानि, तसचतुर्थादिचतुर्विंशतमपर्यन्तं, चतुस्त्रिंशत्तमं च पोदशभिरुपवासैः, ततो रनावलीमध्यभागकल्पनया चतुर्विंशत्वष्टानि, एतेषां । स्थूलमणितया कल्पितत्वात् , एतानि चोत्तराधर्येण द्वे त्रीणि चत्वारि पञ्च पट् पञ्च चत्वारि त्रीणि द्वे च खापनीयानि, अथवाऽष्टामिः पशिश रेखाभिः पश्चत्रिंशत्कोष्ठकान विधाय मध्ये शून्यं कृत्वा शेषेषु चतुस्त्रिंशत्वष्टानि स्थापनीयानीति, एवं चतुर्विंशत्तमादीनि चतुर्थान्तानि पुनप्यष्ट च षष्ठानि, स्थापना त्वेषां पूर्ववत् , पुनरप्यष्टमपष्ठचतुर्थानीति, प्रथमायां परिपाट्यां सर्वकामगुणित पारयति, तत्र सर्वे कामगुणा-अभिलपणीया रसादिगुणाः सजाता यस्मिन् तत्तथा सर्वरसोपेतमित्यर्थः, भोजनमिति गम्यते, पारणकसङ्ग्रहगाथा-"पढमंमि सम्बकामं पारणयं धीयते विगइवजं । तइयं च अलेवार्ड आयंबिलमो चउत्थंमि ॥ १ ॥" पारणक इति गम्बते, वाचनान्तरे-पढममि सम्वगुणिए पारणक"मिति दृश्यते । | कालीराणी-तस्या दीक्षा एवं रत्नावली तप: वर्णनं ~ 54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [८], ----------------------- अध्ययनं [१] --------------------- मूलं [१७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत अन्तकृद्द सूत्राक [१७]] ॥२६॥ गाथा सब्बकाम०२चोदसमं क०२ सव्वकाम०२सोलसमं क०२ सव्वकामगु०२ अट्ठारसमं करेति २ सम्बकाम०11८वर्गे २ वीसइमं करेति २ सब्धकामगु०२ वावीसइमं करेति २ सब्वकाम०२चउवीसइमं करेति २ सव्वकामगु० काल्यध्य&२ छब्बीसइ०२ सव्वकाम०२ अट्ठावीस०२ सम्बकाम०२ तीसइमं २ सव्वकाम० २ यत्तीसइम २ सब्ब- यनं १ काम०२ चोत्तीसइमं २ सब्यकाम०२चोत्तीसं छट्ठाई करेति २ सब्बकामगु०२ चोत्तीसं क०२ सव्वकाम रत्नावली२ बत्तीसं क०२ सब्वकाम०२तीसं क०२ सम्बकाम०२ अट्ठावीसं २ सव्वकाम०२छब्बीसं २ सब्चकाम तपोव. २चवीसं २ सम्बका०२ बावीसं २ सम्बका०२ वीसं क०२ सव्वकाम०२ अट्ठारसं २ सव्वकाम०२ सोलसमं करेति २ सव्व०२ चोदसमं २ सब्बका०२ बारसमं २ सव्व०२ दसमं २ सव्व०२ अट्ठम २ सब्व०२ मुटुं२ सब्व०२चउत्थं सब्वकाम०२ अट्ठ छटाई क०२सब्बका०२ अट्ठमं करेति २सब्बकाम०२ अट्ठाधी० २ सब्ब०२ चउत्थं २ सव्वकाम एवं खलु एसा रयणाचलीए तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी एगेणं संबच्छरेणं तिहिं मासेहिं बावीसाए य अहोरत्तेहिं अहामुत्ता जाव आराहिया भवति, तदाणंतरं च णं दोचाए परिवाडीए चउत्थं करेति विगतिवज्ज़ पारेति २छटुं करेति २ विगतिषजं पारेति एवं जहा पढमाएविद नवरं सब्वपारणते विगतिवजं पारेति जाव आराहिया भवति, तयाणंतरं च णं तचाए परिवाडीए चउत्थं करेति चउत्थं करेसा अलेवार्ड पारेति सेसं तहेव, एवं चउत्था परिवाडी नवरं सब्वपारणते आयंबिलं|811 पारेति सेसं तं चेच, 'पढमंमि सब्वकामं पारणयं वितियते विगतिवजं । ततियंमि अलेवाडं आयंबिलमो चउ-11 दीप अनुक्रम [४६-५० | कालीराणी-तस्या दीक्षा एवं रत्नावली तपः वर्णनं ~55M Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [८], ----------------------- अध्ययनं [१] --------------------- मूलं [१७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] मि॥१॥ तते णं सा काली अजा रपणावलीतवोकम्मं पंचहिं संवच्छरेहिं दोहि य मासेहिं अट्ठावीसाए य| दिवसेहिं अहासुतं जाव आराहेत्ता जेणेव अज्जचंदणा अज्जा तेणेव उचा०२ अज्जचंदणं अजं वंदति णमंसति २ वहहिं चउत्थ जाव अप्पाणं भावेमाणी विहरति, तते णं सा काली अजा तेणं ओरालेणं जाव धमणिसंतया जाया याचि होत्था से जहा इंगाल. जाव सुहुयहुयासणे इव भासरासिपलिच्छपणा तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अतीव उवसोभेमाणी चिट्ठति, तते णं तीसे कालीए अजाए अन्नदा कदाइ पुधरत्ता. वरत्तकाले अयं अन्भस्थिते जहा खंदैयस्स चिंता जहा जाव अस्थि उट्ठा०५ ताव ताय मे सेयं कल्लं जाव % -५4-- गाथा % दीप अनुक्रम [४६-५० १'ओरालेण'मिह यावत्करणादिदं दृश्य-पयत्तेण पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धण्णण मंगोणे सस्सिरीएणं उद्ग्गेणं उत्तमेणं | उदारेणं तबोकम्मेणं सुका भुक्खा निम्ांसा अद्विचम्मावणद्धा किडिकिडियभूया किसणा धमणिसंतया जावा याचि होत्या, जीवंजीवणं गच्छइ जीवंजीवेणं चिट्ठति भासं भासतीति गिलाइ भासं भासिस्सामित्ति गिलाति से जहा नामए-कट्ठसगडियाइ वा पत्तसगडियाइ वा इंगालसगडियाइ वा उण्हे विना सुका समाणी ससदं गच्छति ससई चिट्ठति एवामेव कालीचि अजा ससई गच्छति ससदं चिट्ठति उवचिया तवेणं तेएणं अवचिया मंससोणिएणं हुयासणेब भासरासिपहिच्छन्ने तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अईव २ उबसोभेमाणी २ चिट्ठत्ति, इह तपोविशेषणशब्दा एकार्थाः, अभेदविवक्षायां तु प्रथमज्ञात विवरणानुसारेण ज्ञेयाः । २ जीवजीवेनेतिजीववलेन न शरीरबलेनेत्यर्थः । | कालीराणी-तस्या दीक्षा एवं रत्नावली तप: वर्णनं ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [८], ----- ------------ अध्य यनं [१, २] ---------- ----- मूलं [१७, १८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अन्तकृत शार प्रत सूत्रांक [१७,१८] ॥ २७॥ जलते. अज्जचंदणं अन्नं आपुच्छित्ता अजचंदणाए अजाए अब्भणुनायाए समाणीए संलेहणाझूसणा भत्त- ८ वर्गे पाणपडि कालं अणवख० विहरेत्तएसिक एवं संपेहेति २ कल्लं जेणेव अजचंदणा अजा तेणेच उ०२ सुकाल्यअज्जचंदणं वंदति णमंसति एवं व०-इच्छामि णं अजो। तुब्भेहिं अन्भणुण्णाता समाणी संलेह जाव ध्ययनं २ विहरेत्तते, अहासुहं०, काली अज्जा अजचंदणाते अन्भणुग्णाता समाणी संलेहणाझूसिया जाव विहरति, | कनकावसा काली अजा अजचंदणाए अंतिते सामाइयमाझ्याई एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुन्नाई अह लीत. संवच्छराई सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्सा सर्द्धि भत्सातिं अणसणाते। छेदेत्ता जस्सहाए कीरति जाव चरिमुस्सासनीसासेहिं सिहा ५, णिक्खेवो अज्झयणं । (सू०१७) तेणं का०२ चंपानामनगरी पुन्नभद्दे चेतिते कोणिए राया, तत्थ णं सेणियस्स रन्नो भजा कोणियस्स रपणो चुल्ल-द माउया सुकालीनाम देवी होत्था जहा काली तहा सुकालीवि णिक्खंता जाव बहूहिं चउत्थ जाव भावे. विहरति, त० सा सुकाली अज्जा अन्नया कयाइ जेणेव अजचंदणा अजा जाव इच्छामि णं अज्जो! तुब्भेहिं अभणुनाता समाणी कणगावलीतवोकम्म उवसंपत्तिाणं विहरेत्तते, एवं जहा रयलावली तहा कणगाव-18 लीवि, नवरं तिसु ठाणेसु अट्ठमाई करेति जहा रयणावलीए छट्ठाइं एकाए परिवाडीए संवच्छरो पंच मासा ॥२७॥ दीप अनुक्रम [४६-५१] १ 'कणगावलि त्ति कनकमयमणिकरूप आभरणविशेषः । Sarasitaram.org सुकालिराणी-तस्या दीक्षा एवं कनाकावली तप: वर्णनं ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [८], -------------------- अध्ययनं [३] ---------------------- मूलं [१८,१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७,१८ बारस य अहोरसा चउण्हं पंच वरिसा नव मासा अट्ठारस दिवसा सेसं तहेव, नव वासा परियातो जाव।। सिद्धा । (सू०१८) एवं महाकालीवि, नवरं खुडागं सीहनिकीलियं तवोकम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरति, |तं०-चउत्थं करेतिर सव्वकामगुणियं पारेति पारेत्ता छ8 करेतिर सब्चकाम०२ चउत्धं क०२ सव्वका०२ अट्ठमं क०२ सव्वका०२ छ8 क०२सव्वका०२ दसमं२ सब्व०२ अट्ठमं२ सब्बका०२ दुवालसं २ सब्ब०२ दसमं २ सब्बका०२चोदसं २ सयकाम०२ वारसमं २ सब्वका०२ सोलस०२ सम्ब०२ चोदसं २ सन्ध दीप अनुक्रम [४६-५१, ५२] सुहागं सीहनिकोलिय ति वक्ष्यमाणमहदपेक्षया क्षुलक-हखं सिंहस्य निष्क्रीडित-विहृतं गमनमित्यर्थः सिंहनिष्कीडितं तदिव यत्तपस्तरिसहनिष्क्रीडितमुच्यते, सिंहो हि गछन् गत्वा २ अतिक्रान्तदेशमवलोकयति एवं यत्र तपसि अतिक्रान्तं तपोविशेष पुनः पुनरासेव्यातनं तत्तत् प्रकरोति तसिहनिष्कीडितमिति, इह च एकत्यादय उपवासाश्चतुर्थपष्ठादिशब्दवाच्याः, एतस्य च रचनैयं भवति| एकादयो नवान्ताः क्रमेण स्थाप्यन्ते, पुनरपि प्रत्यागत्य नवादय एकान्तास्ततश्च यादीनां नवान्तानामले प्रत्येकमेकादयोऽष्टान्ताः स्थाप्यन्ते, ततो नवायेकान्तप्रत्यागतपतयां अष्टादीनां षन्तानामादौ सप्तादय एकान्ताः स्थाप्यन्त इति, स्थापना चेयं-११२।१।३।२।४।३।५ ५७।६।८।७।९।८।९।९।७।८।६।७।५।६।४।५।३।४।२।३।१।२।१ । दिनसङ्ख्या चैवम्-इह दे नक्कसङ्कलने तत एका ४५ । पुनः | १५। अन्त्या चाटसङ्कलना ३६ । अपरा च सप्तसङ्कलनाः २८ । तथा पारणकानि ३३ । तदेवं सर्वसमा १८७ । एते चैवं प-1* |मासाः सप्तदिनाधिका भवन्ति, एतेषु च चतुर्गुणितेषु द्वे वर्षे अष्टाविंशतिदिनाधिके भवतः । P *5 सुकालिराणी-तस्या दीक्षा एवं कनाकावली तप: वर्णनं, महाकालीराणी-तस्या क्षुल्ल सिंहनिष्क्रिडिततप: वर्णनं ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [८], -------- ----- अध्ययनं [३-५] ----------------- मूल [१९-२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाळे प्रत सूत्रांक [१९-२१] अन्तकृद्द- का०२ अट्ठारसं०२ सव्वकाम०२ सोलसमं २ सव्वका०२ वीस० २ सव्व०२ अट्ठार०२ सम्ब०२वी- वर्गे एसइ०२ सव्व०२ सोलसमं २ सब्च०२ अट्ठार०२ सयका०२ चोद्दस २ सय २ सोलस २ सब्ब २ षा-15 महाका रस २ सव्व २ चोद्दस २ सब्ब २ दसम २ सव्वका०२ वारसम २ सम्बकाम०२ अहमं २ सव्व०२ दसम ॥ २८ ॥ २ सम्बका०२ छटुं क.२ सव्व०२ अहम०२ सम्ब० २चउत्थं २सब्ब० २ छ8 क० २ सव्वकाम०२ क्षुद्रसिंहचउत्थं २ सय तहेव चत्तारि परिवाडीओ, एकाए परिवाडीए छम्मासा सत्त य दिवसा, चउण्हं दो निक्रीडित. बरिसा अट्ठावीसा य दिवसा जाव सिद्धा । (सू०१९) एवं कण्हावि नवरं महालयं सीहणिकीलियं तवो- | कृष्णा .३ कम्मं जहेव खुडागं नवरं चोत्तीसइमं जाव णेयब्वं तहेव ऊसारेयब्वं, एकाए वरिसं छम्मासा अट्ठारस य | महासिंदिवसा, चउण्हं छब्वरिसा दो मासा चारस य अहोरत्ता, सेसं जहा कालीए जाव सिद्धा । (सू०२०) एवंद्र | हनि. सुकण्हावि णवरं सत्तसत्तमियं भिक्खुपडिम उवसंपजित्ताणं विहरति, पढमे सत्तए एककं भोयणस्स दति सू०२१ पडिगाहेति एकेक पाणयस्स, दोचे सत्तए दो दो भोयणस्स दो दो पाणयस्स पडिगाहेति, तचे सत्तते तिन्नि ४ दीप अनुक्रम [५२-५४] १ एवं महासिंह निष्क्रीडितमपि, नवरमेकादयः षोडशान्ताः षोडशादयश्चैकान्ताः स्थाप्यन्ते, ततश्च द्वषादीनां षोडशान्तानाम प्रत्ये कमेकादयः पञ्चदशान्ताः षोडशादिषु वेकान्तेषु पञ्चदशादीनां यन्तानामादौ प्रत्येक चतुर्दशादयः एकान्ताः स्थाप्यन्ते, दिनमान | तावेवम्-इह पोडशसङ्कलनाद्वयं १३६ पथदशसङ्कलना १२० चतुर्दशसङ्कलना १०५ पारणकानि ६१ सर्वापं ५५८। २८ SAREauratonmlaime महाकालीराणी-तस्या क्षुल्ल सिंहनिष्क्रिडिततप: वर्णनं, कृष्णाराणी-तस्या तप: वर्णनं ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम [५४] अनु. ७ “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) वर्ग: [८], मूलं [२१] अध्ययनं [५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०८ ], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Eatin भोषणस्स तिन्नि पाणयस्स च० पं० छ० सत्तमे सत्तते सत दत्तीतो भोयणस्स पडिग्गाहेति सत पाणयस्स. एवं खलु एवं सतसत्तमियं भिक्खुपडिमं एगूणपन्नाते रातिंदिपहिं एगेण य छन्नउएणं भिक्वासतेणं अहासुत्ता जाब आराहेता जेणेव अज्ज चंदणा अज्जा तेणेव उवागया अजचंदणं अजं वं० न० २ एवं व० इच्छामि णं अजातो! तुम्भेहिं अन्भणुण्णाता समाणी अहमियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ताणं विहरेत्तते, अहासुहं, तते णं सा सुकण्हा अज्जा अजचंदणाए अग्भणुष्णाया समाणी अहमियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ताणं विहरति, पढमे अट्ठए एक्केकं भोषणस्स दत्तिं पडि० एक्केकं पाणगस्स जाव अट्ठमे अट्ठए अट्टट्ठ भोयणस्स पडिगाहेति अट्ट पाणगस्स, एवं खलु एयं अट्ठमियं भिक्खुपडिमं चउसट्टीए रातिदिएहिं दोहि य अट्ठासीतेहिं भिक्खासतेहिं अहा जाव नवनवमियं भिक्खुपडिमं उवसंपत्जिसा णं विहरति, पढमे नवए एक्केकं भोयणस्स दत्तिं पडि० एकेकं पाणयस्स जाव नवमे नवए नव नव द० भो० पडि० नव २ पाणयस्स, एवं खलु नवनवमियं भिक्खुपडिमं एकासीतीराइदिएहिं चउहिं पंचोत्तरेहिं भिक्खासतेहिं अहासुत्ता०, दसदसमियं भिक्खुपडिमं उबर्सपज्जित्ताणं विहरति, पढमे दसते एकेक भोप० पडि० एकेकं पाण० जाव दसमे दसए दस २ भो० दत्ती पडिग्गाहे० दस २ पाणस्स० एवं खलु एवं दसदसमियं भिक्खुपडिमं एक्केणं राइंदिय सतेणं अद्धछद्वेहिं भिक्खासतेहिं अहासुतं जाव आराहेति २ बहूहिं चउत्थ जात्र मासद्मासविविहत वोकमेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहरति, तए णं सा सुकण्हा अजा तेणं ओरालेणं जाव सिद्धा निक्खेवो अज्जन सुकृष्णाराणी तस्या सप्तसप्ततिका तपः वर्णनं For Parts Only ~60~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [२२] दीप अनुक्रम वर्ग: [८], मूलं [२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... ...आगमसूत्र [०८ ], अंग सूत्र [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः अन्तकृद्दशाने ॥ २९ ॥ “अन्तकृद्दशा" - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [६] यणा (सू० २१) एवं महाकण्हावि नवरं खुड्डागं सव्वओभद्दं पडिमं उवसंपजित्ताणं विहरति, चउत्थं करेति २ सव्वकामगुणियं पारेति सव्वकामगुणियं पारेसा छ करेति छ करेत्ता सव्वकाम० २ अट्टमं २ सव्वका० २ दसमं २ सयका० २ दुवालसमं २ सव्व० २ अट्टमं २ सव्वका २ दसमं २ सव्वका० २ दुवाल० २ सव्व० २ चत्थं २ सव्वका० २ छ २ सव्वकाम० २ दुवाल २ सव्व० २ च २ सव्व० २ छ २ सव्वकाम० २ अट्टमं २ सव्वका० २ दसमं २ सव्वकाम० २ छ २ सव्व० २ अहम करेति २ सव्वका० २ दसमं २ सव्व० २ दुबालसमं २ सव्वका० २ चत्थं २ सव्वका० २ दसमं २ सव्व० २ दुवाल० २ सव्वकाम० २ चजत्थं २ सव्व० २ छ २ सव्वकाम० २ अम २ सव्वकाम० २ एवं खलु एवं खुड्डागसव्वतोभद्दस्स तवोकम्मस्स पढमं परिवाडिं तिहिं मासेहिं दसहिं दिवसेहिं अहामुतं जाव आराहेत्ता दोचाए परिवाडीए १ 'बुद्धियं सव्वभोभदं पडिमं ति क्षुद्रिका महत्यपेक्षया सर्वतः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च भद्रा - समसयेति सर्वतोभद्रा, तथाहि - एकादीनां पञ्चान्तानामङ्कानां सर्वतोभावात् पञ्चदश पञ्चदश सर्वत्र तस्यां जायन्त इति, स्थापना चेयम्, स्थापनोपायगाथा १/२/३/४/५ -- "एगाई पंचंते ठविडं मज्झं तु आइमणुपतिं । सेसे कमसो ठविडं जाणह उहुसब्बओभदं ॥ १ ॥” इति । तपोदिना - २०५१ नीह पञ्चसप्ततिः, पारणकदिनानि तु पञ्चविंशतिरिति, सर्वाणि दिनानि शतमेकस्यां परिपाट्यां चतसृषु त्वेतदेव चतुर्गुणम् । Eaton महाकृष्णाराणी-तस्या सर्वतोभद्रप्रतिमायाः वर्णनं For Parts Only ~ 61~ ८ वर्गे महाकुष्णा० ६ क्षुल्लकसर्वतोभद्रावर्ण० सू० २२ ॥ २९ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [२२,२३] दीप अनुक्रम [44,46] “अन्तकृद्दशा" अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः ) वर्ग: [८]. मूलं [२२, २३] अध्ययनं [६, ७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... ...आगमसूत्र [०८ ], अंग सूत्र [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः Eatin ......... • - उत्थं करेति २ विगतिवज्जं पारेति २ जहा रयणावलीए तहा एत्थवि चत्तारि परिवाडीतो पारणा तहेव, चउण्हं कालो संवच्छरो मासो दस य दिवसा सेसं तहेब जाव सिद्धा निक्खेवो अज्झयणं (सू० २२) एवं वीरकण्हावि नवरं महालयं सव्वतोभदं तवोकम्मं उवसंप० विहरति, तंजहा- चत्थं करेति २ सव्वकामगुणियं पारेति २ छद्धं करेति २ सव्वका० २ अट्टमं करेति २ सव्व० २ दसमं २ सव्वका० २ दुवालसमं २ सम्ब० २ चोदस २ सव्व० २ सोलसमं २ सव्वकाम० २ दसमं २ ० २ दुवाल २ सच्च० २ चउदसं २ सव्व० २ सोलस २ सव्व० २ चत्थं २ सव्व० २ छ २ सञ्च० २ अङ्कुमं २ सव्व० २ सोलसं २ सब्ब० २ चत्थं २ सव्व० २ छ २ सव्व० २ अट्टमं २ सव्व० २ दसम २ सच्च० २ दुबाल० २ सव्व० २ चोदस० २ सच्च० २ अट्टमं सव्व० २ दसम करेइ २ सव्व० २ दुबालसं २ सच्च० २ चोदसमं २ सव्व० २ सोलसमं २ सव्व० २ चउत्थं २ सव्व० २ छ २ सव्व० २ चोहस० २ सव्व० २ सोलसमं क० २ सव्व० २ चत्थं क० २ सव्व० २ छ क० २ अट्टमं २ सव्य० २ दसमं २ सव्व० २ दुबाल० २ सव्व० २ छ २ वीरकृष्णाराणी - तस्या सर्वतोभद्रप्रतिमायाः वर्णनं 3 १ एवं महासर्वतोभद्राऽपि नवरमेकादयः सप्तान्ता उपवासास्तस्यां स्थापनोपायगाथा- "एगाती सत्ते ठविडं मज्झं तु आमणुपंति सेसे कमसो ठविडं जाण महासन्नओभदं ।। १ ।।" इह षण्णवतिशतं तपोदिनानां एकोनपञ्चाशन पारणकदिनानि ततोऽस्यां द्वे शते पञ्चचत्वारिंशदधिके दिनानां भवति, इत्येवमेकस्यां परिपाट्यां चतसृषु खेतदेव चतुर्गुणमिति । For Penal Use Only ~62 ~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [८], ------- ----------- अध्ययनं [७, ८] ---------- ------ मूलं [२३, २४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: अन्तकृत शाह प्रत सूत्रांक [२३,२४] सब्बका०२ अट्ठमं२ सम्बकाम०२ दसम २ सव्व०२ दुवाल०२ सब्ब. २ चोदसमं २ सव्व. २ सोलसमं सव्व०२ चउत्थं २ सब्बकाम २ दुवाल०२ सब्बकाम०२ चोद्दसम २ सब्ब० २ सोलसमं २ सबकाम०२चउत्थं २ सब्ब० २९२ सव्व.२ अट्ठमं २ सब्वकाम०२ दसमं २ एकेकाए लयाए अह मासा पंच य दिवसा चउण्हं दो बासा अट्ठ मासा वीस दिवसा सेसं तहेव जाव सिद्धा। (सू०२३) एवं रामकण्हावि नवरंभहोत्तरपडिमं उपसंपजित्ताणं विहरति तं-दुवालसमं करेति २ सब्वकाम०२ चोद्द वणे रणामहासर्वतो ॥३०॥ भद्रावर्ण रामकृ दीप अनुक्रम [५६,५७] १२ १ भद्रोत्तरप्रतिमायाः स्थापनोपावगाथेयं-"पंचादीय नवते ठविउं ममं तु आविमणुपति । सेसे कमसो| ४५.६/ २२ ठबिउं जाण भदोत्तर खुई ॥१॥" इह पञ्चसप्तत्यधिकं शतं तपोदिनानां पञ्चविंशतिस्तु पारणकदिनानां, एवं | Hशतद्वयं द्विनानामेकस्यां परिपाट्या भवति, तच्चतुष्टये खेतदेव चतुर्गुणमिति । वाचनान्तरे प्रतिमात्रयस्थ लक्ष-| ज णगाथा उपलभ्यन्ते, यथा-आई दोण्ह चतुत्थं आई भदोत्तराए धारसमं । बारसमं सोलसमं बीसतिमं| २३४५व चेव चरिमाई॥१॥" आविः-प्रथमं तपः द्वयो:-क्षुद्रसर्वतोभद्रमहासर्वतोभद्रयोः प्रतिमयोश्चतुर्थ-एकोपवासः, तथा आदि:-आर्थ तपोभनोत्तरायां-तृतीयप्रतिमायां द्वादश-उपवासपञ्चक, ततः कामेण द्वादर्श-उपवासपाक षोडश-उपवाससप्तकं विंशतितमं चैव-उपवासनवकम्', एवं च चरमानि सर्वान्तिमतपांसि शेषाणि तु क्रमेण स्थाप्यन्त इति तपस्त्रयेऽपि i प्रथमपङ्गिरचनेति । अथ द्वितीयाविपरिषनार्थमाह-पढमं तइयं तो जाव चरिमयं ऊणभाई उ पूरे । पंच य परिवाडीओ खुङगभहु महासर्वतोभद्रा षणाध्य.८ भद्रोत्तरा वर्ण. सू० २३२४ ॥३०॥ REarathinimirmanana वीरकृष्णाराणी-तस्या सर्वतोभद्रप्रतिमाया: वर्णनं ~634 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) वर्ग: [८], ------------------- अध्ययन [८] mmmmmmmmmmmm- मूलं [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप समं २ सम्ब०२ सोलसमं २ सव्व०२ अट्ठार २ सच० २ वीसइमं २ सब्ब०२ सोलसमं २ सम्वकाम०२ हा अट्ठार २ सम्बकाम०२ वीसइमं २ सय २ दुबालसमं २ सब्वकाम०२ चोदसमं २ सय०२ वीसतिम २ सब्ब०२ दुवालसं २ सव. २ चोदसमं २ सव्वकाम०२ सोलसमं २ सब्ब०२ अट्ठारसं २ सव्व०२ चो-1XI दसमं २ सव्व०२ सोलसमं २ सव्वकाम०.२ अट्ठारसमं २ सब्व०२ वीसइमं २ सब्वकाम० २ दुवालसमंट | तराए य ॥१॥" प्रथमपती तइय'ति तृतीयमकं पढ़म-द्वितीयपशिरचनायां प्रथम स्थापयेत् , स च क्षुद्रसर्वतोभद्रायां त्रिको भवति। भद्रोत्तरायां तु सप्तकः, 'तो'त्ति ततोऽनन्तरं क्रमेणोत्तरान् स्थापयेद् यावच्चरम, स च सर्वतोभद्रायां चतुष्ककानन्तरः पञ्चको भवति, भद्रोत्तरायां त्वष्टकानन्तरो नवक इति, ततश्चरमानन्तरं यदून कोष्ठकाजातं तदादित:-एककादेरारभ्य पूरयेदिति, एवं चरमात्परत एकको द्विकश्च सर्वतोभद्रायां, इतरस्यां तु पश्चकः षट्श्चेति द्वितीयपतिस्थापना, एवमेवोपरितन्यपेक्षयाऽधस्तनी इत्येवं सर्वाः पञ्च परिपाट्यः पंक्तयो रचनीयाः 'खु'त्ति क्षुद्रकसर्वतोभद्रायां भद्रोत्तरायां चेति, गाथार्थश्चार्य प्रागुक्तयत्रकादवसेव इति । अथ महासर्वतोभद्राया | 8. द्वितीयादिपकिरचनार्थमाह--- पढमं तु चउरथं जाव चरिमयं ऊणमाइलं पूरे । सत्त य परिवाडीओ महालए सबओभदे ॥ १॥" महासर्वतोभद्रायां द्वितीयायां पङ्की कर्तव्यतायां प्रथम-आदौ चतुर्थ-प्रथमपट्टयपेक्षया चतुर्थस्थानवत्तिनं, यथा प्रथमपतौ चतुष्ककस्ततः क्रमेणान्यानवस्थापय यावच्चरम यथा सप्तकस्ततोऽनन्तरं यदून पोतदादितः पूरयेत् , एवं च सप्त परिपाट्या-पतयः पूरयितव्याः ।। 'महालयेत्ति महति सर्वतोभद्रे-सर्वतोभद्रप्रतिमायामिति ।। 6464A4%E5 अनुक्रम [१७] | रामकृष्णाराणी-तस्या भद्रोत्तरप्रतिमाया: वर्णनं ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [२४, २५] दीप अनुक्रम [0,4] • “अन्तकृद्दशा" - अंगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्तिः ) अध्ययनं [८, ९) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... ...आगमसूत्र [०८ ], अंग सूत्र [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः वर्ग: [८]. मूलं [ २४, २५] अन्तकृदशाने ॥ ३१ ॥ ......... २ सच्च० २ अट्ठारसमं २ सव्वकाम० २ वीसतिमं २ सव्वकाम० २ दुबालसमं २ सव्व० २ चोदसमं २ सच्च० २ सोलसमं, एक्काये कालो छम्मासा वीस प दिवसा, चउण्हं कालो दो बरिसा दो मासा बीस य दिवसा, सेसं तहेव जहा काली जाव सिद्धा । (सू० २४) एवं पितुसेणकण्हावि नवरं मुत्तावलीतवोकम्मं उवसंपजित्ताणं विहरति, तं० चत्थं करेति २ सव्व० २ छ २ सच्च० २ चत्थं २ सम्ब० २ अट्टमं २ सव्व० २ चउत्थं २ सव्वका० २ दसमं २ सव्व० २ चत्थं २ सव्व० दुबाल० २ सव्य० २ चउत्थं २ सव्व० २ चोदसमं २ सव्व० २ चत्थं २ सव्व० २ सोलसमं २ सब्ब० २ चत्थं २ सव्व० २ अट्ठारसं २ सव्वकाम० २ च २ सव्वकाम० २ वीसतिमं २ सव्व० २ चत्थं २ सन्च० २ बावीस मं सव्वकाम० २ छब्बीसइमं २ सव्वकाम० २ उत्थं २ सव्वकाम० २ अट्ठावीस २ सव्वकाम० २ चडत्थं २ सव्वकाम० २ तीसइमं २ सव्वकाम० २ उत्थं २ सव्वकाम० २ बत्तीसइमं २ सव्वकाम० २ चत्थं २ सव्वकाम० २ चोसीसह २ करेति, एवं तहेब ओसारेति जाव चउत्थं करेति उत्थं करेत्ता सव्वकामगु मुक्तावली सुज्ञानैव, नवरं तस्यां चतुर्थ ततः पष्ठादीनि चतुस्त्रिंशतमपर्यन्तानि चतुर्थभक्तान्तरितानि ततश्चतुर्थं ततः प्रत्यावृत्त्या द्वात्रिंशत्तमादीनि षष्ठान्तानि चतुर्थभक्तान्तरितानि ततञ्चतुर्थ न करोति, एवं चेयं तपसि इयत्प्रमाणा भवति--पोडशसङ्कलनादिनाः १३६ पश्चादशसङ्कलना च १२० चतुर्थानि २८ पारणकानि ५९, एषां च मीलनेन मासाः ११ दिनानि १३ भवन्ति, सूत्रे तु दिनानि १५ दृश्यन्ते तत्तु नावगम्यत इति । Ecationa पितृसेन कृष्णारानी तस्वा मुक्तवलित्पकर्मनः वर्णनं For Parts Only ~ 65~ ८ वर्गे पितृकृ ष्णाध्य. ९ मुक्तावलीव सू० २५ ॥ ३१ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०८) प्रत सूत्रांक [२५,२६] दीप अनुक्रम [५८,५९] “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र - ८ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [ ९, १०] मूलं [२५, २६] आगमसूत्र [०८ ], अंग सूत्र [०८] "अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः वर्ग: [८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... Je Eticati णियं पारेति, एकाए कालो एक्कारस मासा पनरस य दिवसा चउण्हं तिष्णि वरिसा दस य मासा सेसं जाब सिद्धा । (सू० २५) एवं महासेणकण्हावि, नवरं आयंबिलवद्रुमाणं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरति, तंजहा - आयंबिलं करेति २ चत्थं करेति २ ये आयंबिलाई करेति २ चत्थं करेति २ तिन्नि आयंबिलाई करेति २ चउत्थं करेति २ चत्तारि आयंबिलाई करेति २ चत्थं करेति २ पंच आयंबिलाई करेति २ उत्थं करेति २ छ आयंबिलाई करेति २ चत्थं करेति २ एवं एकोत्तरियाए वहीए आयंबिलाई वहुति चडत्थंतरियाई जाव आयंबिलसयं करेति २ चत्थं करेति, तते णं सा महासेणकण्हा अज्जा आयंबिलवहुमाणं तवोकम्मं चोदसहिं वासेहिं तिहि य मासेहिं वीसहि य अहोरतेहिं अहासुतं जाव सम्मं कारणं फासेति जान आराहेता जेणेव अज्जचंदणा अज्जा तेणेव उवा० बं० न० वंदित्ता नर्मसित्ता बहूहिं चउत्थेहिं जाव भावेमाणी विहरति, तंते णं सा महासेणकण्हा अज्जा तेणं ओरालेणं जाव उवसोभेमाणी चिइइ, तप णं तीसे महसेणकण्हाए अज्जाए अन्नया कयातिं पुव्वरत्तावरत्तकाले चिंता जहा खंदयस्स जाव अजचंदणं पुच्छर जाव संलेहणा, कालं अणवकखमाणी विहरति, त० सा महसेणकण्हा अज्जा अज्जचंदणाए अज्जाए अं० सामाइयातिं एक्कारस अंगाई अहिजित्ता बहुपडिपुन्नाति सत्तरस वासातिं परियायं पालइन्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसेत्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता जस्साए कीरइ जाव तमहं आ महापितृसेनकृष्णाराणी-तस्या वर्द्धमानतपोकर्मनः वर्णनं For Penal Use On ~66~ ra Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “अन्तकृद्दशा” - अंगसूत्र-८ (मूलं+वृत्ति:) (०८) वर्ग: [८], .... ... ......--- अध्ययनं [१०, -] .......... ... मूलं [२६, २७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०८], अंग सूत्र - [०८] “अन्तकृद्दशा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: शाओं प्रत सूत्रांक [२६,२७]] राहेति चरिमउस्सासणीसासेहिं सिद्धा बुद्धा । अट्ट य वासा आदी एकोत्तरियाए जाच सत्तरस । एसो खलु|| ८ वर्ग अन्तकृद्द परिताओ सेणियभजाण णायब्वो॥१॥ एवं खलु जंबू! समणेणं भगवता महावीरेणं आदिगरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अयमढे पन्नत्ते । अंगं सम्मत्तं । (सू०२६) अंतगडदसाणं अंगस्स एगो सु- कृष्णाध्य, यखंधो अह वग्गा अहसु चेव दिवसेसु उद्दिसिज्जति, तत्थ पढमवितियवग्गे दस २ उद्देसगा तइयवग्गे तेरस १. आदिउद्देसगा चउत्थपंचमवग्गे दस २ उद्देसया छट्टबग्गे सोलस उद्देसगा सत्तमवग्गे तेरस उद्देसगा अहमवग्गेचाम्लवर्धदस उद्देसगा सेसं जहा नायाधम्मकहाणं ॥ (सू०२७) मानवर्ण. ॥ अंतगडदसङ्गसुत्तमष्टममङ्गं समाप्तमिति ॥ ग्रं० ७९० ॥ उद्देशादि सू० २७ दीप अनुक्रम [५९-६२ १ अथानन्तरोदितानां काल्वादिसाध्वीनां पर्यायपरिमाणप्रतिपादनायाह-'अट्ट य' गाहा, अष्ट च वर्षाण्यादि कृत्वा एकोत्तरिकिया-एकोत्तरतया क्रमेण यावत् सप्तदश तावच्छेणिकभार्याणां पर्याय इति । यदिह न व्याख्यातं तज्ञाताधर्मकथाविवरणादवसेयम् ॥|| [एवं च समाप्तमन्तकदशाविवरणमिति ।। अनन्तरसपर्यये जिनवरोदिते शासने, यकेह समयानुगा गमनिका किल प्रोच्यते । गमान्तर-18 मुपैति सा तदपि यरस्यां कृतावरूढगमशोधनं ननु विधीयतां सर्वतः ॥ १॥ इत्यन्तकदशावृत्तिः सम्पूर्णा ।। मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ८) “अन्तकृद्दशा” परिसमाप्त: ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “अन्तकृद्दशाङ्गसूत्र” |मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “अन्तकृद्दशा” मूलं एवं वृत्ति:” नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~68~