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गाथा-४
रहित पुण्य-पाप के भाव व्रत, भक्ति, जप, तप का भाव यह राग, मोह, विकार है। इस विकार में मोहित प्राणी इस ऐसे स्वभाव में सावधान नहीं होता है। मोही प्राणी सुख को प्राप्त नहीं करता, आत्मा की ओर नजर नहीं करता और यहाँ मोहित उस सुख को प्राप्त नहीं करता। तब क्या प्राप्त करता है? दुःख। समझ में आया?
अतीन्द्रिय आनन्द का सागर प्रभु, उसे इस राग और विकल्प में मोहित प्राणी, उनमें सावधान में एकाकार हुआ, आंशिक सुख को प्राप्त न करता हुआ दुःख को ही प्राप्त करता है। संसार के सुख-दुःख दोनों को यहाँ दुःख में गिनने में आया है। यह सुख जो कहा, वह आत्मा के सुख की बात कहने में आयी है। समझ में आया? यह जो सुख कहा, वह संसार की बात नहीं है।
सुह ण वि कल दोपहर में आया था, वह सुन्दर सुख आया था या नहीं? वह यहाँ बात नहीं है। आत्मा के सुख को (प्राप्त नहीं करता) क्योंकि अपना निज स्वरूप अखण्ड ज्ञायक शुद्ध चिदानन्दस्वरूप, जिसमें राग के कण की मिलावट, मिलाप नहीं। मिलावट
और मिलाप नहीं। यह दया, दान, व्रत, भक्ति, पंच महाव्रत के परिणाम का राग उसे और स्वभाव को मिलाप नहीं, तथापि अज्ञानी उसे अपना रूप, स्वरूप छोड़ने योग्य नहीं अर्थात् मुझसे भिन्न पड़ने योग्य नहीं - ऐसा मानकर मिथ्यादर्शन से अकेला दुःखी... दुःखी और दुःखी हो रहा है। जरा भी आत्मा के आनन्द के सम्यग्दर्शन के अन्तर्मुखता के सुख को मिथ्यादर्शन में प्राप्त नहीं करता। कहो समझ में आया? चौथी गाथा (पूरी) हुई। अपने को तो यहाँ गाथा का सार-सार लेना है न? पाँचवीं।
मोक्षसुख का कारण : आत्मध्यान जइ वीहउ चउगइगमणु तउ परभाव चएवि। अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम सिवसुक्ख लहेवि॥५॥
चार गति दुःख से डरे, तो तज सब परभाव। शुद्धात्म चिन्तन करि, लो शिव सुख का भाव॥