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योगसार-प्राभृत
अवधिज्ञानगम्य संख्या को असंख्यात कहते हैं। जिनकी गिनती न हो सके, उसे असंख्यात कहते हैं । संख्यातीत संख्या को असंख्यात कहते हैं । इसके भी असंख्यात भेद होते हैं। इस कारण लोकाकाश के असंख्यातवें भाग में भी आकाश के असंख्यात प्रदेश रहते हैं और पूर्ण लोकाकाश के प्रदेश भी असंख्यात ही होते हैं । अतः इसमें विरोध नहीं है। कितना भी सूक्ष्म शरीरधारी जीव हो तो भी उसके शरीर के प्रदेश असंख्यात ही होते हैं, यह आगम के अनुसार मानना चाहिए। ___ संसारी जीव के प्रदेशों में दीपक के प्रकाश के समान संकोच और विस्तार होता है, मुक्त जीवों में नहीं; क्योंकि यह संकोच-विस्तार कर्म के निमित्त से होता है और मुक्तात्माओं में कर्मों का अभाव है। तत्त्वार्थसूत्र के अध्याय ५ के सूत्र १५, १६ में यही भाव आया है। जैसा कि तत्त्वानुशासन के १३२वें श्लोक में कहा है :
पुंसः संहार-विस्तारौ संसारे कर्मF न म ' त
। मुक्तौ तु तस्य तौ न स्तः क्षयात्तद्धेतु-कर्मणाम्।। धर्मादि द्रव्यों का उपकार -
जीवानां पुद्गलानां च धर्माधर्मों गतिस्थिती।
अवकाशं नभः कालो वर्तनां कुरुते सदा ।।७४।। अन्वय :- धर्म-अधर्मों जीवानां पुद्गलानां गति-स्थिती, नभः अवकाशं, काल: वर्तनां सदा कुरुते।
सरलार्थ :- धर्मद्रव्य, जीव और पुद्गलों को गमन करने में सदा उपकार करता है । अधर्मद्रव्य, जीव और पुद्गलों को स्थिर रहने में सदा उपकार करता है। आकाशद्रव्य जीवादि सर्व द्रव्यों को जगह/स्थान देने में सदा उपकार करता है । कालद्रव्य जीवादि सर्व द्रव्यों को परिवर्तन करने/बदलने में सदा उपकार करता है।
भावार्थ :- इस श्लोक में उपकार शब्द तो आया नहीं, आपने उपकार शब्द कहाँ से और कैसे लिया? ऐसी शंका करनेवालों को आगामी श्लोक को देखना चाहिए। उसमें उपकार शब्द का प्रयोग किया है। अतः यहाँ अर्थ करने के लिए अनुकूल जानकर हमने भी जोड दिया है, ऐसा ही अर्थ अन्य आगम ग्रन्थों में अनेक स्थान पर किया है, यह सर्व आगमाभ्यासी जानते हैं। __उपकार शब्द मात्र भलाई के अर्थ में नहीं लेना चाहिए। उपकार शब्द का अर्थ निमित्त ही लेना आवश्यक है। पण्डित जयचंदजी छाबडा ने सर्वार्थसिद्धि वचनिका में (तत्त्वार्थसूत्र के अध्याय ५, सूत्र १९ की टीका में) उपकार शब्द का अर्थ निमित्त ही किया है। अन्य ग्रन्थ में भी इस ही प्रकार अर्थ किया/दिया है।
तत्त्वार्थसूत्र की टीका-सर्वार्थसिद्धि में अध्याय ५, सूत्र २२ की टीका करते समय आचार्य
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